Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 31 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति | कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ||९-३१||

Transliteration

kṣipraṃ bhavati dharmātmā śaśvacchāntiṃ nigacchati . kaunteya pratijānīhi na me bhaktaḥ praṇaśyati ||9-31||

Word-by-Word Meaning

क्षिप्रम्soon
भवति(he) becomes
धर्मात्माrighteous
शश्वत्eternal
शान्तिम्peace
निगच्छतिattains to
कौन्तेयO son of Kunti
प्रतिजानीहिproclaim for certain
not
मेMy
भक्तःBhakta
प्रणश्यतिperishes.Commentary Listen

📖 Translation

English

9.31 Soon he becomes righteous and attains to eternal peace; O Arjuna, proclaim thou for certain that My devotee never perishes.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।9.31।। हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your career, even if you've made past errors or feel imperfect, commit fully to ethical principles and dedicated effort. This devotion to your craft and integrity will not only lead you towards 'righteous' (effective and ethical) practices but also ensure a sense of lasting purpose and stability, protecting you from professional 'perishing' in spirit or impact.

🧘 For Stress & Anxiety

When overwhelmed by stress or past regrets, anchor your mind in a higher purpose, your core values, or a spiritual practice. This 'devotion' creates an inner sanctuary, transforming your anxious mind towards peace and providing an unshakeable sense of security, knowing that your true self or efforts will not be lost, regardless of external pressures.

❤️ In Relationships

In relationships, cultivate unwavering loyalty and commit to the well-being of others with sincerity. Even if past conflicts or imperfections exist, this 'devotion' to mutual respect and love fosters an environment where the relationship (and individuals within it) can 'become righteous' in its interactions, find 'eternal peace' through forgiveness and understanding, and 'never perish' in its fundamental bond.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Sincere devotion to a higher ideal or the Divine instantly transforms one towards righteousness and eternal peace, assuring complete protection and ultimate fulfillment.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

9.31 क्षिप्रम् soon? भवति (he) becomes? धर्मात्मा righteous? शश्वत् eternal? शान्तिम् peace? निगच्छति attains to? कौन्तेय O son of Kunti? प्रतिजानीहि proclaim for certain? न not? मे My? भक्तः Bhakta? प्रणश्यति perishes.Commentary Listen? this is the truth? O Arjuna you may proclaim that My devotee who has sincere devotion to Me? who has offered his inner soul to Me never perishes.

Shri Purohit Swami

9.31 He shall attain spirituality ere long, and Eternal Peace shall be his. O Arjuna! Believe me, My devotee is never lost.

Dr. S. Sankaranarayan

9.31. Quickly he becomes righteous-souled (minded) and attains peace permanently. O son of Kunti ! I swear that my devotee gets never lost.

Swami Adidevananda

9.31 Quickly he becomes righteous and obtains everlasting peace. Affirm on My behalf, O Arjuna, My devotee never perishes.

Swami Gambirananda

9.31 He soon becomes possessed of a virtuous mind; he attains everlasting peace. Do you proclain boldly, O son of Kunti, that My devotee does not get ruined.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।9.31।। पूर्व श्लोक में दृढ़तापूर्वक किये गये पूर्वानुमानित कथन की युक्तियुक्तता को इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है। जब एक दुराचारी पुरुष अपने दृढ़ निश्चय से प्रेरित होकर अनन्यभक्ति का आश्रय लेता है? तब वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है। वस्तु के अस्तित्व का कारण उस वस्तु का धर्म कहलाता है जैसे अग्नि की उष्णता अग्नि का धर्म है? जिसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं हो सकता। इसी प्रकार? मनुष्य का धर्म या स्वरूप चैतन्यस्वरूप आत्मा है? जिसके बिना उसकी कोई भी उपाधियाँ कार्य नहीं कर सकती हैं। इसलिए धर्मात्मा शब्द का अनुवाद केवल साधु पुरुष करने से उसका अर्थ पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं होता है।अनन्य भक्ति और पुरुषार्थ से एकाग्रता का विकास होता है? जिसका फल है मन की सूक्ष्मदर्शिता में अभिवृद्धि। ऐसा सम्पन्न मन ध्यान की सर्वोच्च उड़ान में भी अपनी समता बनाये रखता है। शीघ्र ही वह आत्मानुभव की झलक पाता है और? इस प्रकार? अधिकाधिक प्रभावशाली सन्त का जीवन जीते हुए अपने आदर्शों? विचारों एवं कर्मों के द्वारा अपने दिव्यत्व की सुगन्ध को सभी दिशाओं में बिखेरता है।साधारणत? हमारा मन विषयों की कामनाओं और भोग की उत्तेजनाओं में ही रमता है। उसका यह रमना जब शान्त हो जाता है? तब हम उस परम शक्ति का साक्षात् अनुभव करते हैं? जो हमारे जीवन को सुरक्षित एवं शक्तिशाली बनाती है। यह शाश्वत शान्ति ही हमारा मूल स्वरूप है। विश्व का कोई धर्म ऐसा नहीं है? जिसमें यह लक्ष्य न बताया गया हो। स्थिर और शान्त मन वह खुली खिड़की है? जिसमें से झांककर मनुष्य स्वयं को ही सत्य के दर्पण में प्रतिबिम्बित हुआ देखता है। यहाँ आश्वासन दिया गया है कि? वह शाश्वत शान्ति को प्राप्त करता है परन्तु इसका अर्थ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि यह शान्ति हमसे कहीं सुदूर स्थित है यह तो अपने नित्यसिद्ध स्वस्वरूप की पहचान मात्र है।वेदान्त में निर्दिष्ट पूर्णत्व हमसे उतना ही दूर है? जितना हमारी जाग्रत अवस्था हमारे स्वप्न से। यहाँ मन को केवल एकाग्र करने की ही आवश्यकता है। यदि कैमरे को ठीक से केन्द्रीभूत (फोकस) नहीं किया जाता? तो सामने के सुन्दर दृश्य का केवल धुँधला चित्र ही प्राप्त होता है और यदि उस कैमरे को सम्यक् प्रकार से फोकस किया जाय तो उसी से हमें सम्पूर्ण दृश्य का उसके विस्तार एवं भव्य सौन्दर्य के साथ चित्र प्राप्त होता है। दुर्व्यवस्थित मन और बुद्धि? जो निरन्तर इच्छा और कामना की उठती हुई तरंगों के मध्य थपेड़े खाती रहती है? आत्मदर्शन के लिए उपयुक्त साधन नहीं है।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के अतुलनीय धर्मप्रचारक व्यक्तित्व को उजागर करती है। यह बताने के पश्चात् कि अतिशय दुराचारी पुरुष भी भक्ति और सम्यक् निश्चय के द्वारा शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है? श्रीकृष्ण मानो अर्जुन की पीठ थपथपाते हुए घोषित करते हैं? मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।ऋषियों का अनुसरण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि उसे इस निर्बाध सत्य का सर्वत्र उद्घोष करना चाहिए कि (प्रतिजानीहि) आदर्श मूल्यों का जीवन जीने वाला साधक कभी नष्ट नहीं होता है और यदि उसका निश्चय दृढ़ और प्रयत्न निष्ठापूर्वक है तो वह असफल नहीं होता है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को दी गई सम्मति के लिए जिस विशेष शब्द प्रतिजानीहि का प्रयोग यहाँ किया है? उसकी अपनी ही प्रतिपादन की क्षमता है और वह शब्द आदेशात्मक परमावश्यकता या शीघ्रता को व्यक्त करता है। संस्कृत के विद्यार्थी इस भाव को सरलता से देख सकेंगे? और जो इस भाषा से अनभिज्ञ हैं? वे इस शब्द पर विशेष ध्यान दें।संक्षेप में? इन दोनों श्लोकों का सार यह है कि जो व्यक्ति अपने मन के किसी एक भाग में भी ईश्वर का भान बनाए रखता है? तो उसके ही प्रभाव से उस व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन परवर्तित होकर वह अपने अन्तर्बाह्य जीवन में प्रगति और विकास के योग्य बन जाता है। जैसे सड़क पर लगे नीले रंग के प्रकाश के नीचे से कोई व्यक्ति किसी भी रंग के वस्त्र पहने निकलता है? तो उसके वस्त्रों को नीलवर्ण का आभा प्राप्त होती है? उसी प्रकार हृदय में आत्मचैतन्य का भान रहने पर मन में उठने वाली अपराधी और पापपूर्ण प्रवृत्तियाँ भी उसके ईश्वरीय पूर्णत्व की स्वर्णिम आभा से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकतीं जैसे वस्त्र रखने की अलमारी में रखी नेफ्थलीन की ग्ाोलियाँ वहाँ रखे हुए सभी वस्त्रों की रक्षा करती हैं और कृमियों को उनसे दूर रखती हैं? उसी प्रकार आत्मा का अखण्ड स्मरण मानव व्यक्तित्व को विनाशकारी आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों के कृमियों से सुरक्षित रखता है।आगे कहते हैं --

Swami Ramsukhdas

।।9.31।। व्याख्या --'क्षिप्रं भवति धर्मात्मा'-- वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है अर्थात् महान् पवित्र हो जाता है। कारण कि यह जीव स्वयं परमात्माका अंश है और जब इसका उद्देश्य भी परमात्माकी प्राप्ति करना हो गया तो अब उसके धर्मात्मा होनेमें क्या देरी लगेगी? अब वह पापात्मा कैसे रहेगा? क्योंकि वह धर्मात्मा तो स्वतः था ही, केवल संसारके सम्बन्धके कारण उसमें पापात्मापन आया था, जो कि आगन्तुक था। अब जब अहंता बदलनेसे संसारका सम्बन्ध नहीं रहा, तो वह ज्यों-का-त्यों (धर्मात्मा) रह गया।यह जीव जब पापात्मा नहीं बना था, तब भी पवित्र था और जब पापात्मा बन गया, तब भी वैसा ही पवित्र था। कारण कि परमात्माका अंश होनेसे जीव सदा ही पवित्र है। केवल संसारके सम्बन्धसे वह पापात्मा बना था। संसारका सम्बन्ध छूटते ही वह ज्योंकात्यों पवित्र रह गया।   पाप करनेकी भावना रहते हुए मनुष्य 'मेरेको केवल भगवान्की तरफ ही चलना है' -- ऐसा निश्चय नहीं कर सकता, यह बात ठीक है। परन्तु पापी मनुष्य ऐसा निश्चय नहीं कर सकता-- यह नियम नहीं है। कारण कि जीवमात्र परमात्माका अंश होनेसे तत्त्वतः निर्दोष है। संसारकी आसक्तिके कारण ही उसमें आगन्तुक दोष आ जाते हैं। यदि उसके मनमें पापोंसे घृणा हो जाय और ऐसा निश्चय हो जाय कि अब भगवान्का ही भजन करना है, तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है। कारण कि जहाँ संसारकी कामना है, वहीं भगवान्की तरफ चलनेकी रुचि भी है। अगर भगवान्की तरफ चलनेकी रुचि जम जाय, तो कामना, आसक्ति नष्ट हो जाती है। फिर भगवत्प्राप्तिमें देरी नहीं लग सकती।वह बहुत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है -- इसका तात्पर्य यह हुआ कि उसमें जो यत्किञ्चित् दुराचार दीखते हैं, वे भी टिकेंगे नहीं। कारण कि सबकेसब दुराचार टिके हुए हैं -- संसारको महत्त्व देनेपर। परन्तु जब वह संसारकी कामनासे रहित होकर केवल भगवान्को ही चाहता है, तब उसके भीतर संसारका महत्त्व न रहकर केवल भगवान्का महत्त्व हो जाता है। भगवान्का महत्त्व होनेसे वह धर्मात्मा हो जाता है। मार्मिक बात यह एक सिद्धान्त है कि कर्ताके बदलनेपर क्रियाएँ अपने-आप बदल जाती हैं, जैसे कोई धर्मरूपी क्रिया करके धर्मात्मा होना चाहता है, तो उसे धर्मात्मा होनेमें देरी लगेगी। परन्तु अगर वह कर्ताको ही बदल ले अर्थात् 'मैं धर्मात्मा हूँ' ऐसे अपनी अहंताको ही बदल ले, तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जायगा। ऐसे ही दुराचारी-से-दुराचारी भी 'मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं ऐसे अपनी अहंताको बदल देता है, तो वह बुहत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है, साधु हो जाता है, भक्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य जब संसार-शरीरके साथ 'मैं' और 'मेरा'-पन करके संयोगजन्य सुख चाहने लगता है, तब वह 'कामात्मा' (गीता 2। 43) बन जाता है और जब संसारसे सर्वथा विमुख होकर भगवान्के साथ अनन्य सम्बन्ध जोड़ लेता है, जो कि वास्तवमें है, तब वह 'धर्मात्मा' बन जाता है। साधारण दृष्टिसे लोग यही समझते हैं कि मनुष्य सत्य बोलनेसे सत्यवादी होता है और चोरी करनेसे चोर होता है। परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। जब स्वयं सत्यवादी होता है अर्थात् 'मैं सत्य बोलनेवाला हूँ' ऐसी अहंताको अपनेमें पकड़ लेता है, तब वह सत्य बोलता है और सत्य बोलनेसे उसकी सत्यवादिता दृढ़ हो जाती है। ऐसे ही चोर होता है, वह 'मैं चोर हूँ' ऐसी अहंताको पकड़कर ही चोरी करता है और चोरी करनेसे उसका चोरपना दृढ़ हो जाता है। परन्तु जिसकी अहंतामें 'मैं चोर हूँ ही नहीं' ऐसा दृढ़ भाव है, वह चोरी नहीं कर सकता। तात्पर्य यह हुआ कि अहंताके परिवर्तनसे क्रियाओंका परिवर्तन हो जाता है। इन दोनों दृष्टान्तोंसे यह सिद्ध हुआ कि कर्ता जैसा होता है, उसके द्वारा वैसे ही कर्म होते हैं और जैसे कर्म होते हैं, वैसा ही कर्तापन दृढ़ हो जाता है। ऐसे ही यहाँ दुराचारी भी 'अनन्यभाक्' होकर अर्थात् 'मैं केवल,भगवान्का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं' ऐसे अनन्यभावसे भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है, तो उसकी अहंतामें मैं भगवान्का हूँ, संसारका नहीं हूँ यह भाव दृढ़ हो जाता है, जो कि वास्तवमें सत्य है। इस प्रकार अहंताके बदल जानेपर क्रियाओंमें किञ्चिन्मात्र कमी रहनेपर भी वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है। यहाँ शङ्का हो सकती है कि पूर्वश्लोकमें भगवान् 'सुदुराचारः' कहकर आये हैं, तो फिर यहाँ भगवान्ने उसको धर्मात्मा क्यों कहा है इसका समाधान है कि दुराचारीके दुराचार मिट जायँ, तो वह सदाचारी अर्थात् धर्मात्मा ही होगा। अतः सदाचारी कहो या धर्मात्मा कहो -- एक ही बात है।'शश्वच्छान्तिं निगच्छति' -- केवल धार्मिक क्रियाओंसे जो धर्मात्मा बनता है, उसके भीतर भोग और ऐश्वर्यकी कामना होनेसे उसको भोग और ऐश्वर्य तो मिल सकते हैं, पर शाश्वती शान्ति नहीं मिल सकती। दुराचारीकी अहंता बदलनेपर जब वह भगवान्के साथ भीतरसे एक हो जाता है, तब उसके भीतर कामना नहीं रह सकती, असत्का महत्त्व नहीं रह सकता। इसलिये उसको निरन्तर रहनेवाली शान्ति मिल जाती है।    दूसरा भाव यह है कि स्वयं परमात्माका अंश होनेसे 'चेतन अमल सहज सुखरासी' है। अतः उसमें अपने स्वरूपकी जो अनादि अनन्त स्वतःसिद्ध शान्ति है, धर्मात्मा होनेसे अर्थात् भगवान्के साथ अनन्यभावसे सम्बन्ध होनेसे वह शाश्वती शान्ति प्राप्त हो जाती है। केवल संसारके साथ सम्बन्ध माननेसे ही उसका अनुभव नहीं हो रहा था।    'कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति' -- यहाँ 'मेरे भक्तका पतन नहीं होता' ऐसी प्रतिज्ञा भगवान् अर्जुनसे करवाते हैं, स्वयं नहीं करते। इसका आशय यह है कि अभी युद्धका आरम्भ होनेवाला है और भगवान्ने पहले ही हाथमें शस्त्र न लेनेकी प्रतिज्ञा कर ली है; परन्तु जब आगे भीष्मजी यह प्रतिज्ञा कर लेंगे कि 'आजु जौ हरिहिं न सस्त्र गहाऊँ। तौ लाजौं गङ्गाजननीकों शान्तनु सुत न कहाऊँ।।' तो उस समय भगवान्की प्रतिज्ञा तो टूट जायगी, पर भक्त(भीष्मजी) की प्रतिज्ञा नहीं टूटेगी। भगवान्ने चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'भक्तोऽसि मे सखा चेति' कहकर अर्जुनको अपना भक्त स्वीकार किया है। अतः भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि भैया !तू प्रतिज्ञा कर ले। कारण कि तेरे द्वारा प्रतिज्ञा करनेपर अगर मैं खुद भी तेरी प्रतिज्ञा तोड़ना चाहूँगा, तो भी तो़ड़ नहीं सकूँगा, फिर और तोड़ेगा ही कौन तात्पर्य हुआ कि अगर भक्त प्रतिज्ञा करे, तो उस प्रतिज्ञाके विरुद्ध मेरी प्रतिज्ञा भी नहीं चलेगी।   मेरे भक्तका विनाश अर्थात् पतन नहीं होता --यह कहनेका तात्पर्य है कि जब वह सर्वथा मेरे सम्मुख हो गया है? तो अब उसके पतनकी किञ्चिन्मात्र भी सम्भावना नहीं रही। पतनका कारण तो शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मान लेना ही था। उस माने हुए सम्बन्धसे सर्वथा विमुख होकर जब वह अनन्यभावसे मेरे ही सम्मुख हो गया? तो अब उसके पतनकी सम्भावना हो ही कैसे सकती है?   दुराचारी भी जब भक्त हो सकता है, तो फिर भक्त होनेके बाद वह पुनः दुराचारी भी हो सकता है-- ऐसा न्याय कहता है। इस न्यायको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि यह न्याय यहाँ नहीं लगता। मेरे यहाँ तो दुराचारी-से-दुराचारी भी भक्त बन सकते हैं, पर भक्त होनेके बाद उनका फिर पतन नहीं हो सकता अर्थात् वे फिर दुराचारी नहीं बन सकते। इस प्रकार भगवान्के न्यायमें भी दया भरी हुई है। अतः भगवान् न्यायकारी और दयालु-- दोनों ही सिद्ध होते हैं।  सम्बन्ध--इस प्रकरणमें भगवान्ने अपनी भक्तिके सात अधिकारी बताये हैं। उनमेंसे दुराचारीका वर्णन दो श्लोकोंमें किया। अब आगेके श्लोकमें भक्तिके चार अधिकारियोंका वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।9.31।। हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।9.31।।कुतः क्षिप्रं भवति धर्मात्मा। देवदेवांशादिष्वेव च तद्भवति। उक्तं च सामवेदे शाण्डिल्यशाखायाम् -- नाविरतो दुश्चरितान्नाभक्तो नासमाहितः। सम्यग्भक्तो भवेत् कश्चिद्वासुदवेऽमलाशयः। देवर्षयस्तदंशाश्च भवन्ति क्वच ज्ञानतः इति। अतोऽन्यः कश्चिद्भवति चेत् दाम्भिकत्वेन सोऽनुमेयः। साधारणपापानां सत्सङ्गान्महत्यपि कथञ्चिद्भक्तिर्भवति। साधारणभक्तिर्वेतरेषाम्।स शठमतिरुपयाति योऽर्थतृष्णां तमधमचेष्टमवैहि नास्य भक्तिम् इति श्रीविष्णुपुराणे [3।7।30]सा श्रद्दधानस्य विवर्धमाना विरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः इति च।वेदास्त्वधीता (वेदाः स्वधीताः) मम लोकनाथ तृप्तं तपो नानृतमुक्तपूर्वम्। पूजां गुरूणां सततं करोमि परस्य गुह्यं न च भिन्नपूर्वम्। गुप्तानि चत्वारि यथागमं (यथं) मे शत्रौ च मित्रे च समोऽस्मि नित्यम्। तं चापि (चादि -- ) देवं शरणं (सततं) प्रपन्नमेकान्तभावेन भजा(वृणो)म्यजस्रम्। एतैरुपायैः (एभिर्विशेषैः) परिशुद्धसत्त्वः कस्मान्न पश्येयमनन्तमेन(ईश)म् इति मोक्षधर्मे [म.भा.12।335।3?4?5]। आचारस्य ज्ञानसाधनत्वोक्तेश्च ज्ञानाभावे सम्यग्भक्त्यभावात्। तथा हि गौतमखिलेषु -- विना ज्ञानं कुतो भक्तिः कुतो भक्तिं विना च तत् इति।भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैतत्ित्रकमेककालम् इति च भागवते [11।2।42]।

Sri Anandgiri

।।9.31।।हेत्वर्थमेव प्रपञ्चयति -- उत्सृज्येति। भगवन्तं भजमानस्य कथं दुराचारता परित्यक्ता भवतीत्याशङ्क्याह -- क्षिप्रमिति। सति दुराचारे कथं धर्मचित्तत्वं तदाह -- शश्वदिति। उपशमो दुराचारादुपरमः। किमिति त्वद्भक्तस्य दुराचारादुपरतिरुच्यते दुराचारोपहतचेतस्तया किमित्यसौ न नङ्���्ष्यतीत्याशङ्क्याह -- शृण्विति।

Sri Vallabhacharya

।।9.31।।ननु नीचजातिमान्सम्यगव्यवसायमात्रेण कथं साधुर्मन्तव्यस्तत्राह -- क्षिप्रमिति। सत्यमुक्तं नीचजातिस्तत्र विरोधिनीति परं तदुत्तरभजनमहिम्ना निर्मूलमुन्मूलितजातिपापः सन् धर्मात्मा भवति एवं स्वरूपभजनेन शश्वच्छान्तिमपुनरावर्त्तिनीं मत्प्राप्तिं विरुद्धाचारनिवृत्तिं याति हे कौन्तेय त्वमस्मिन्नर्थे मे प्रतिज्ञां जानीहि।न मे भक्तः प्रणश्यति इति त्वं वा सभायां गत्वा प्रतिज्ञां कुरु? न मे भगवतो भक्तो दोषैः पराभूतो भवाम्बुधौ निमज्जति? किन्तु परां गतिं याति। अनेनातितामसानां राजसानां महापतितानां च स्वसम्बद्धानां च पावने निरोधने च स्वसमर्थत्वं स्वस्य कृपालोः पुरुषोत्तमस्य दर्शितम्। अतएव -- सर्वोद्धारप्रयत्नात्मा कृष्णः प्रादुर्बभूव ह इति निरूपितं निबन्धेये भक्ताः शास्त्ररहिताः स्त्रीशूद्रद्विजबन्धवः। तेषामुद्धारकः कृष्णः पुरुषोत्तम एव हि इति च।

Sridhara Swami

।।9.31।।ननु कथं समीचीनाध्यवसायमात्रेण साधुर्मन्तव्यस्तत्राह -- क्षिप्रमिति। दुराचारोऽपि मां भजञ्छीघ्रं धर्मचित्तो भवति। ततश्च शश्वच्छान्तिं शाश्वतीमुपशान्तिं चित्तोपप्लवोपरमरूपां परमेश्वरनिष्ठां नितरां गच्छति प्राप्नोति। कुतर्ककर्कशवादिनो नैतन्मन्येरन्निति शङ्काव्याकुलचित्तमर्जुनं प्रोत्साहयति। हे कौन्तेय? पटहकाहलादिमहाघोषपूर्वकं विवदमानानां सभां गत्वा बाहुमुत्क्षिप्य निःशङ्कं प्रतिजानीहि प्रतिज्ञां कुरु। कथं? मे परमेश्वरस्य भक्तः सुदुराचारोऽपि न प्रणश्यति अपितु कृतार्थ एव भवतीति। ततश्च ते त्वत्प्रौढिविजृभ्माद्विध्वंसितकुतर्का निःसंशयं त्वामेव गुरुत्वेनाश्रयेरन्।

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