Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 27 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Karma Yoga / Selfless Action

Sanskrit Shloka (Original)

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् | यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ||९-२७||

Transliteration

yatkaroṣi yadaśnāsi yajjuhoṣi dadāsi yat . yattapasyasi kaunteya tatkuruṣva madarpaṇam ||9-27||

Word-by-Word Meaning

यत्whatever
करोषिthou doest
यत्whatever
अश्नासिthou eatest
यत्whatever
जुहोषिthou offerest in sacrifice
ददासिthou givest
यत्whatever
यत्whatever
तपस्यसिthou practisest as austerity
कौन्तेयO Kaunteya
तत्that
कुरुष्वdo

📖 Translation

English

9.27 Whatever thou doest, whatever thou eatest, whatever thou offerest in sacrifice, whatever thou givest, whatever thou practisest as austerity, O Arjuna, do it as an offering unto Me.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।9.27।। हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Perform all work, regardless of its nature, with dedication, integrity, and a spirit of service, viewing it as a contribution to a larger purpose beyond personal gain. This approach fosters excellence, reduces attachment to outcomes, and imbues daily tasks with deeper meaning.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate mental peace by dedicating the fruits of your efforts to a higher principle or the greater good, rather than being solely driven by personal ambition or fear of failure. This detachment from results alleviates anxiety, promotes equanimity, and transforms daily activities into a form of spiritual practice, reducing mental burden.

❤️ In Relationships

Engage in all interactions with an attitude of selfless giving, understanding, and unconditional support. Focus on offering kindness and contributing positively without expecting specific returns or outcomes, thereby fostering deeper, more harmonious connections free from egoic demands and transactional expectations.

dailyLife

Approach every routine action – eating, daily chores, leisure – with mindfulness and an intention of dedication. This transforms mundane activities into opportunities for spiritual connection, dissolving the lines between sacred and secular, and making your entire life a continuous offering.

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Transform every action into a sacred offering to the Divine, thereby liberating yourself from the bondage of ego and Karma, and infusing your entire life with purpose and peace.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

9.27 यत् whatever? करोषि thou doest? यत् whatever? अश्नासि thou eatest? यत् whatever? जुहोषि thou offerest in sacrifice? ददासि thou givest? यत् whatever? यत् whatever? तपस्यसि thou practisest as austerity? कौन्तेय O Kaunteya? तत् that? कुरुष्व do? मदर्पणम् offering unto Me.Commentary Consecrate all acts to the Lord. Then you will be freed from the bondage of Karma. You will have freedom in action. He who tries to live in the spirit of this verse will be able to do selfsurrender unto the Lord. Gradually he ascends the spiritual path step by step. His greedy nature is slowly dissolved now. He always gives. He is not eager to take. His whole life with all its actions? thoughts and feelings? is dedicated to the service of the Lord eventually. He lives for the Lord only. He works for the Lord only. There is not a bit of egoism now. His whole nature is transformed into divinity. When actions are dedicated to the Lord? there is no rirth for you. This is the simplest method of Yoga. Do not waste your time any longer. Take it up from today.All actions? all results and all rewards will go to the Lord. There is no separte living for the individual. Just as the river joins the sea abandoning its own name and form so also the individual soul joins the Supreme Soul giving up his own name and form? his own egoistic desires and egoism. The individual will has become one with the cosmic will.Whatever thou doest of thy own sweet will? whatever thou offerest in sacrifice as enjoined in the scriptures? whatever thou givest -- such things as gold? rice? ghee? clothes? etc.? to the Brahmins and others -- whatever austerity such as the ChandrayanaVrata (to destroy sin)? control of the senses? etc.? thou doest? do thou all these as an offering unto Me. (Cf.V.32XII.6and8)Now listen to what you will gain by doing thus.

Shri Purohit Swami

9.27 Whatever thou doest, whatever thou dost eat, whatever thou dost sacrifice and give, whatever austerities thou practisest, do all as an offering to Me.

Dr. S. Sankaranarayan

9.27. Whatever you do, whatever you eat, whatever oblation you offer, whatever gift you make and what-ever austerity you perform, O son of Kunti, do that as an offering to Me.

Swami Adidevananda

9.27 Whatsoever you do, whatsoever you eat, whatsoever you offer, whatsoever you give away, whatsoever austerity you practise, O Arjuna, do that as an offering to Me.

Swami Gambirananda

9.27 O son of Kunti, whatever you do, whatever you eat, whatever you offer as a sacrifice, whatever you give and whatever austerities you undertake, (all) that you offer to Me.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।9.27।। जीवन में सब प्रकार के कर्म करते हुए हम ईश्वरापर्ण की भावना से रह सकते हैं। सम्पूर्ण गीता में असंख्य बार इस पर बल दिया गया है कि केवल शारीरिक कर्म की अपेक्षा ईश्वरार्पण की भावना सर्वाधिक महत्व की है और यह एक ऐसा तथ्य हैं ? जिसका प्राय साधकांे को विस्मरण हो जाता है।शरीर? मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले विषय ग्रहण और उनके प्रति हमारी प्रतिक्रिया रूप जितने भी कर्म हैं? उन सबको भक्तिपूर्वक मुझे अर्पण करे। यह मात्र मानने की बात नहीं हैं और न ही कोई अतिश्योक्ति हैं यह भी नहीं कि इसका पालन करना मनुष्य के लिए किसी प्रकार से बहुत कठिन हो। एक ही आत्मा ईश्वर? गुरु और भक्त में और सर्वत्र रम रहा है हम अपने व्यावहारिक जीवन में असंख्य नाम और रूपों के साथ व्यवहार करते हैं। हम जानते है कि इन सबको धारण करने के लिए आत्मसत्ता की आवश्यकता है। यदि हम अपने समस्त व्यवहार में इस आत्मतत्व का स्मरण रख सकें तो वह जगत् के अधिष्ठान का ही स्मरण होगा। यदि किसी वस्त्र की दुकान्ा में विभिन्न रूप? रंग? बुनावट और कीमतों के सूती वस्त्र हों तो दुकानदार को सलाह दी जाती हैं कि उसको सदा इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि वह सूती कपड़ों का व्यापार कर रहा हैं। किसी भी समझदार व्यापारी को यह करना कठिन नहीं हो सकता। वास्तव में देखा जाय तो इस प्रकार का स्मरण रखना उसके लिए अधिक सुरक्षित और लाभदायक है अन्यथा वह कहीं किसी कपडे़ का मूल्य ऊनी वस्त्र के हिसाब से अत्यधिक बता देगा अथवा अपने माल को टाट के बोरे जैसे सस्ते दामों में बेच देगा। यदि किसी स्वर्णकार को यह स्मरण रखने की सलाह दी जाय कि वह सोने पर कार्य कर रहा हैं? तो वह सलाह उसके लाभ के लिए ही हैं।जैसे आभूषणों में स्वर्ण और कपडे में सूत हैं वैसे ही विश्व के सभी नाम और रूपों में आत्मा ही मूल तत्व हैं। जो भक्त अपने जीवन के समस्त व्यवहार में इस दिव्य तत्त्व का स्मरण रख सकता हैं वही पुरुष जीवन को वह आदर और सम्मान दे सकता हैं? जिसके योग्य जीवन हैं। यह नियम है कि जीवन को जो तुम दोगे वही तुम जीवन से पाओगे। तुम हँसोगे तो जीवन हँसेगा और तुम चिढोगे तो जीवन भी चिढेगा उसके पास आत्मज्ञान से उत्पन्न आदर और सम्मान के साथ जाओगे? तो जीवन में तुम्हें भी आदर और सम्मान प्राप्त होगा।समर्पण की भावना से समस्त कर्मों को करने पर न केवल परमात्मा के प्रति हमारा प्रेम बढ़ता है? बल्कि आदर्श प्रयोजन और दिव्य लक्ष्य के कारण हमारा जीवन भी पवित्र बन जाता हैं। गीता में अनन्य भाव और सतत आत्मानुसंधान पर विशेष बल दिया गया है इस श्लोक में हम देख सकते हैं कि एक ऐसे उपाय का वर्णन किया गया है जिसके पालन से अनजाने ही साधक को ईश्वर का अखण्ड स्मरण बना रहेगा। इसके लिए कहीं किसी निर्जन सघन वन में या गुप्त गुफाओं में जाने की आवश्यकता नहीं है इसका पालन तो हम अपने नित्य के कार्य क्षेत्र में ही कर सकते हैं।इस प्रकार समर्पण की भावना का जीवन जीने से क्या लाभ होगा? उसे अब बताते हैं।

Swami Ramsukhdas

।।9.27।। व्याख्या--भगवान्का यह नियम है कि जो जैसे मेरी शरण लेते हैं, मैं वैसे ही उनको आश्रय देता हूँ (गीता 4। 11)। जो भक्त अपनी वस्तु मेरे अर्पण करता है, मैं उसे अपनी वस्तु देता हूँ। भक्त तो सीमित ही वस्तु देता है, पर मैं अनन्त गुणा करके देता हूँ। परन्तु जो अपने-आपको ही मुझे दे देता है, मैं अपनेआपको उसे दे देता हूँ। वास्तवमें मैंने अपने-आपको संसारमात्रको दे रखा है (गीता 9। 4), और सबको सब कुछ करनेकी स्वतन्त्रता दे रखी है। अगर मनुष्य मेरी दी हुई स्वतन्त्रताको मेरे अर्पण कर देता है, तो मैं भी अपनी स्वतन्त्रताको उसके अर्पण कर देता हूँ अर्थात् मैं उसके अधीन हो जाता हूँ। इसलिये यहाँ भगवान् उस स्वतन्त्रताको अपने अर्पण करनेके लिये अर्जुनसे कहते हैं।]  'यत्करोषि'-- यह पद ऐसा विलक्षण है कि इसमें शास्त्रीय, शारीरिक, व्यावहारिक, सामाजिक, पारमार्थिक आदि यावन्मात्र क्रियाएँ आ जाती हैं। भगवान् कहते हैं कि तू इन सम्पूर्ण क्रियाओंको मेरे अर्पण कर दे अर्थात् तू खुद ही मेरे अर्पित हो जा, तो तेरी सम्पूर्ण क्रियाएँ स्वतः मेरे अर्पित हो जायँगी।    अब आगे भगवान् उन्हीं क्रियाओंका विभाग करते हैं--'यदश्नासि'-- इस पदके अन्तर्गत सम्पूर्ण शारीरिक क्रियाएँ लेनी चाहिये अर्थात् शरीरके लिये तू जो भोजन करता है, जल पीता है, कुपथ्यका त्याग और पथ्यका सेवन करता है, ओषधि-सेवन करता है, कपड़ा पहनता है, सरदी-गरमीसे शरीरकी रक्षा करता है, स्वास्थ्यके लिये समयानुसार सोता और जागता है, घूमता-फिरता है, शौच-स्नान करता है, आदि सभी क्रियाओंको तू मेरे अर्पण कर दे।   यह शारीरिक क्रियाओंका पहला विभाग है।'यज्जुहोषि' -- इस पदमें यज्ञ-सम्बन्धी सभी क्रियाएँ आ जाती हैं अर्थात् शाकल्य-सामग्री इकट्ठी करना, अग्नि प्रकट करना, मन्त्र पढ़ना, आहुति देना आदि सभी शास्त्रीय क्रियाएँ मेरे अर्पण कर दे।   'ददासि यत्'-- तू जो कुछ देता है अर्थात् दूसरोंकी सेवा करता है, दूसरोंकी सहायता करता है, दूसरोंकी आवश्यकता-पूर्ति करता है, आदि जो कुछ शास्त्रीय क्रिया करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।  'यत्तपस्यसि'-- तू जो कुछ तप करता है अर्था��् विषयोंसे अपनी इन्द्रियोंका संयम करता है, अपने कर्तव्यका पालन करते हुए अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंको प्रसन्नतापूर्वक सहता है और तीर्थ, व्रत, भजन-ध्यान, जप-कीर्तन, श्रवण-मनन, समाधि आदि जो कुछ पारमार्थिक क्रिया करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।उपर्युक्त तीनों पद शास्त्रीय और पारमार्थिक क्रियाओंका दूसरा विभाग है।    'तत्कुरुष्व मदर्पणम्'-- यहाँ भगवान्ने परस्मैपदी 'कुरु' क्रियापद न देकर आत्मनेपदी 'कुरुष्व'क्रियापद दिया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि तू सब कुछ मेरे अर्पण कर देगा, तो मेरी कमीकी पूर्ति हो जायगी-- यह बात नहीं है किन्तु सब कुछ मेरे अर्पण करनेपर तेरे पास कुछ नहीं रहेगा अर्थात् तेरा मैं और मेरा--पन सब खत्म हो जायगा, जो कि बन्धनकारक है। सब कुछ मेरे अर्पण करनेके फल-स्वरूप तेरेको पूर्णताकी प्राप्ति हो जायगी अर्थात् जिस लाभसे बढ़कर दूसरा कोई लाभ सम्भव ही नहीं है और जिस लाभमें स्थित होनेपर बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता अर्थात् जहाँ दुःखोंके संयोगका ही अत्यन्त वियोग है (गीता 6। 22 23) -- ऐसा लाभ तेरेको प्राप्त हो जायगा।इस श्लोकमें 'यत्' पद पाँच बार कहनेका तात्पर्य है कि एक-एक क्रिया अर्पण करनेका भी अपार माहात्म्य है, फिर सम्पूर्ण क्रियाएँ अर्पण की जाएँ, तब तो कहना ही क्या है!  विशेष बात छब्बीसवें श्लोकमें तो भगवान्ने पत्र, पुष्प आदि अर्पण करनेकी बात कही, जो कि अनायास अर्थात् बिना परिश्रमके प्राप्त होते हैं। परन्तु इसमें कुछ-न-कुछ उद्योग तो करना ही पड़ेगा अर्थात् सुगम-से-सुगम वस्तुको भी भगवान्के अर्पण करनेका नया उद्योग करना पड़ेगा। परन्तु इस सत्ताईसवें श्लोकमें भगवान्ने उससे भी विलक्षण बात बतायी है कि नये पदार्थ नहीं देने हैं, कोई नयी क्रिया नहीं करनी है और कोई नया उद्योग भी नहीं करना है, प्रत्युत हमारे द्वारा भी लौकिक, पारमार्थिक आदि स्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं, उनको भगवान्के अर्पण कर देना है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्के लिये किसी वस्तु और क्रियाविशेषको अर्पण करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत खुदको ही अर्पित करनेकी जरूरत है। खुद अर्पित होनेसे सब क्रियाएँ स्वाभाविक भगवान्के अर्पण हो जायँगी, भगवान्की प्रसन्नताका हेतु हो जायँगी। जैसे बालक अपनी माँके सामने खेलता है, कभी दौड़कर दूर चला जाता है और फिर दौड़कर गोदमें आ जाता है, कभी पीठपर चढ़ जाता है, आदि जो कुछ क्रिया बालक करता है, उस क्रियासे माँ प्रसन्न होती है। माँकी इस प्रसन्नतामें बालकका माँके प्रति अपनेपनका भाव ही हेतु है। ऐसे ही शरणागत भक्तका भगवान्के प्रति अपनेपनका भाव होनेसे भक्तकी प्रत्येक क्रियासे भगवान्को प्रसन्नता होती है।  यहाँ 'करोषि' क्रियाके साथ सामान्य 'यत्' पद होनेसे अर्थात् 'तू जो कुछ करता है' -- ऐसा कहनेसे निषिद्ध क्रिया भी आ सकती है। परन्तु अन्तमें 'तत्कुरुष्व मदर्पणम्' 'वह मेरे अर्पण कर दे'-- ऐसा आया है। अतः जो चीज या क्रिया भगवान्के अर्पण की जायगी, वह भगवान्की आज्ञाके अनुसार, भगवान्के अनुकूल ही होगी। जैसे किसी त्यागी पुरुषको कोई वस्तु दी जायगी तो उसके अनुकूल ही दी जायगी, निषिद्ध वस्तु नहीं दी जायगी। ऐसे ही भगवान्को कोई वस्तु या क्रिया अर्पण की जायगी तो उनके अनुकूल, विहित वस्तु या क्रिया ही अर्पण की जायगी, निषिद्ध नहीं। कारण कि जिसका भगवान्के प्रति अर्पण करनेका भाव है, उसके द्वारा न तो निषिद्ध क्रिया होनेकी सम्भावना है और न निषिद्ध क्रिया अर्पण करनेकी ही सम्भावना है।  अगर कोई कहे कि 'हम तो चोरी आदि निषिद्ध क्रिया भी भगवान्के अर्पण करेंगे' तो यह नियम है कि भगवान्को दिया हुआ अनन्त गुणा हो करके मिलता है। इसलिये अगर चोरी आदि निषिद्ध क्रिया भगवान्के,अर्पण करोगे, तो उसका फल भी अनन्त गुणा हो करके मिलेगा अर्थात् उसका साङ्गोपाङ्ग दण्ड भोगना ही पड़ेगा! सम्बन्ध--पीछेके दो श्लोकोंमें पदार्थों और क्रियाओंको भगवान्के अर्पण करनेका वर्णन करके अब आगेके श्लोकमें उस अर्पणका फल बाताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।9.27।। हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।9.27।।अतो यत्करोषि।

Sri Anandgiri

।।9.27।।तदाराधनस्य सुकरत्वे तदेवावश्यकमित्याह -- यत इति। स्वतः शास्त्रादृते प्राप्तं गमनादीति यावत्। यदश्नासि यं कंचिद्भोगं भुङ्क्षे। हवनस्य स्वतस्त्वं वारयति श्रौतमिति। मत्समर्पणं तत्सर्वं मह्यं समर्पयेत्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।9.27।।तस्मात्त्वमपि भगवत्सेवायामुक्तलक्षणयोगभावाराधनरतात्मा मदर्पितमेव लौकिकं? वैदिकं नित्यं नैमित्तिकं कर्म कुरु? ततो निर्बन्धपूर्वकं मत्प्राप्तिरित्याह द्वाभ्याम् -- यत्करोषीति। यदिति लौकिकं धनं वसनादिसञ्चयनं अश्नासि च यदन्नं लौकिकं होमदानतपःप्रभृतिनित्यनैमित्तिकभेदेन वैदिकं च यत्कर्म करोषि तन्मदर्पणं यथा भवति तथा कुरु। ततस्च सर्वदोषनिवृत्तिः।असमर्पितवस्तूनां तस्माद्वर्जनमाचरेत्। निवेदिभिः समर्प्यैव सर्वं कुर्यादिति स्थितिः।।न मतं देवदेवस्य सामिभुक्तसमर्पणम्। तस्मादादौ ��र्वकार्ये सर्ववस्तुसमर्पणम्।।दत्तापहरवचनं तथा च सकलं हरे। न ग्राह्यमिति वाक्यं हि भिन्नमार्गपरं मतम्।।सेवकानां यथा लोके व्यवहारः प्रसिद्ध्यति। तथा कार्यं समर्प्यैव सर्वेषां ब्रह्मता ततः।।इति भगवन्मुखोक्तभक्तिमार्गसिद्धान्तः।

Sridhara Swami

।।9.27।।नच पत्रपुष्पादिकमपि यज्ञार्थं पशुसोमादिद्रव्यवन्मदर्थमेवोद्यमैरापाद्य समर्पणीयम्? किं तर्हि -- यदिति। स्वभावतो वा शास्त्रतो वा यत्किंचित्कर्म करोषि? तथा यदश्नासि यज्जुहोषि? यद्ददासि? यत्तपस्यसि तपः करोषि तत्सर्वं मय्यर्पितं यथा भवत्येवं कुरुष्व।

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