Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 22 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते | तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||९-२२||
Transliteration
ananyāścintayanto māṃ ye janāḥ paryupāsate . teṣāṃ nityābhiyuktānāṃ yogakṣemaṃ vahāmyaham ||9-22||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
9.22 For those men who worship Me alone, thinking of no other, for those ever-united, I secure what is not already possessed and preserve what they already possess.
।।9.22।। अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
By dedicating your full, single-minded focus to a noble vision or mission in your work, without attachment to personal accolades or outcomes, you align yourself with the flow of support. This unwavering commitment ensures that necessary resources (Yoga) will manifest, and your progress and achievements (Kshema) will be preserved, as you're working for something larger than yourself.
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivate mental well-being by releasing the burden of constantly worrying about future success, security, or loss. When you dedicate your mental energy with unwavering focus to a guiding principle, a deeply held value, or a spiritual practice, you trust that your fundamental needs will be met and your inner peace preserved. This single-pointed devotion frees your mind from debilitating anxiety.
❤️ In Relationships
Approach your relationships with unconditional, selfless devotion, focusing entirely on the well-being and growth of the other or the relationship itself, rather than personal gain or control. This unwavering commitment builds profound trust, ensuring that the essential needs of the relationship will be nurtured (Yoga) and its existing strength and harmony preserved (Kshema) by a shared higher purpose.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“When you dedicate yourself wholeheartedly to a higher purpose or the Divine, with unwavering focus and trust, all your essential needs and well-being are divinely secured, freeing you from worldly anxieties.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
9.22 अनन्याः without others? चिन्तयन्तः thinking? माम् Me? ये who? जनाः men? पर्युपासते worship? तेषाम् of them? नित्याभियुक्तानाम् of the everunited? योगक्षेमम् the supply of what is not already possessed? and the preservation of what is already possessed? वहामि carry? अहम् I.Commentary Ananyah Nonseparate. This is another interpretation. Persons who? meditating on Me as nonseparate? worship Me in all beings -- to them who are ever devout? I secure gain and safety. They consider themselves as nonseparate? i.e.? they look upon the Supreme Being as nonseparate from their own Self they look upon the Supreme Being as their own Self.Those devotees who behold nothing as separate from themselves have no selfish interests of their own. They certainly do not look for their own gain and safety. They have no desire for life or death. They have taken sole refuge in the Lord. They have nothing to lose? because there is nothing they call their own. Their very bodies become Gods. They have no desire for acisition because all their desires are gratified by their communion with the Lord. They have eternal satisfaction as they possess all the divine Aisvarya? the supreme wealth of the Lord.They entertain no other thoughts than those of the Lord. Conseently the Lord Himself looks after their bodily wants? such as food and clothing (this is known as Yoga)? and preserves what they already possess (this is known as Kshema). He does these two acts. Just as the father and mother attend to the bodily needs of their children? so also the Lord attends to the needs of His devotees.They direct their whole mind with full faith towards the Lord. They make the Lord alone the sole object of their thought. For them nothing is dearer in this world than the Lord. They live for the Lord alone. They think of Him only with singeleness of purpose and onepointed devotion. They behold nothing but the Lord. They love Him in all creatures. When they lead such a life? the Lord takes the whole burden of securing gain (Yoga) and safety (Kshema) for them upto Himself.Nityayuktah Those who constantly meditate on the Lord with intense devotion and onepointed mind. (Cf.VIII.14XVIII.66)
Shri Purohit Swami
9.22 But if a man will meditate on Me and Me alone, and will worship Me always and everywhere, I will take upon Myself the fulfillment of his aspiration, and I will safeguard whatsoever he shall attain.
Dr. S. Sankaranarayan
9.22. Those men who, having nothing else [as their goal] worship Me everywhere and are thinking of Me [alone]; to them, who are constantly and fully attached [to Me], I bear acisition and the security of acisition.
Swami Adidevananda
9.22 There are those who, excluding all else, think of Me and worship Me, aspiring after eternal union with Me. Their prosperity and welfare (Yoga and Ksema) are looked after by Me.
Swami Gambirananda
9.22 Those persons who, becoming non-different from Me and meditative, worship Me everywhere, for them, who are ever attached (to Me), I arrange for securing what they lack and preserving what they have.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।9.22।। यह श्लोक उस रहस्य को अनावृत करता है? जिसे जानकर आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र में भी निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि यह श्लोक लगभग गीता का मध्यबिन्दु है। हम क्रमश आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टि से इसके अर्थ पर विचार करेंगे।जो लोग यह जानकर कि एकमात्र आत्मा ही सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान और पारमार्थिक सत्य है? अनन्यभाव से मेरा अर्थात् आत्मस्वरूप का ध्यान करते हैं? श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि उन नित्ययुक्त भक्तजनों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। योग का अर्थ है अधिक से अधिक आध्यात्मिक शक्ति? और क्षेम का अर्थ है अध्यात्म का चरम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति? जो यज्ञ का फल है। इन योग और क्षेम को भगवान् ही पूर्ण करते हैं।अब? यदि इसे? व्यावहारिक जगत् के विभिन्न कार्य क्षेत्रों में दिनरात परिश्रम करने वाले लोगों के लिए सफलता का भेद बताने वाला मानें? तब भी यही श्लोक उस रहस्य को बताता हैं? जिसके द्वारा संसारी लोग अपने जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं। हाथ में लिए हुए किसी भी कार्य में? यदि मनुष्य एक ही लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपनी संकल्प शक्ति का उपयोग कर एक ही संकल्प को बनाये रख सकता है? तो उसकी सफलता निश्चित समझनी चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य है कि सामान्य जन एक ही संकल्प को बनाये नहीं रख पाते हैं। इसलिए? उनका लक्ष्य सदैव परिवर्तित होता रहता है और उनसे दूर और दूर होता जाता है। इस स्थिति में उनका संकल्प दृढ़ कैसे रह सकता है ऐसे आकस्मिक और क्षणिक निश्चय वाले लोगों के लिए जीवन में किसी भी कार्य क्षेत्र में उन्नति करना सम्भव नहीं है।हमारे युग की सबसे बड़ी त्रासदी (दुख की बात) यह प्रतीत होती है कि हम इस एक अत्यन्त स्पष्ट एवं सुबोध तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि विचारों से ही निर्माण कार्य होता है। संकल्पशक्ति से ही कर्मबल प्राप्त करते हैं। जब शक्तिदायक स्रोत ही श्वासरुद्ध हो जाता है या बिखर जाता है? तब बाह्य कार्यों में कार्यान्वयन की शक्ति क्षीण और प्रभावहीन हो जाती है। सफलता के लिए आवश्यक है कि मनुष्य एकाग्र चित्त से? निश्चित किये हुए अपने जीवन के लक्ष्य के विषय में सतत स्फूर्ति? उत्साह और सार्मथ्य के साथ चिन्तन करे।केवल विचार करना अपने आप में पर्याप्त नहीं है और कर्मों की आवश्यकता के विषय में भी दो मत नहीं हो सकते हैं। वर्तमान पीढ़ी के अनेक नवयुवक यद्यपि एक लक्ष्य को निरन्तर बनाये रखने में सक्षम हैं? परन्तु कार्यक्षेत्र में प्रवेश करके सफलता के लिए सर्व सम्भव प्रयत्न करने के लिए जिस तत्परता की आवश्यकता होती है? उसका उनमें अभाव रहता है। उपासना शब्द का अर्थ है पूजा। पूजा के द्वारा हम देवता का आह्वान करते हैं देवता माने किसी भी क्षेत्र की फल प्रदायक सार्मथ्य।यहाँ उपासते क्रियापद को परि उपसर्ग लगाया गया है? जिसका आशय है सम्पूर्ण प्रयत्न। अपने चुने हुए कार्य में सफलता की निर्मिति के लिए सम्पूर्ण प्रयत्न की आवश्यकता है? जिसमें कोई भी सम्भव प्रयत्न नहीं छोड़ा गया हो।अब तक? सफलता के रहस्य की दो कुञ्जियाँ बताई गयीं है? जिनके अभाव मंे कोई भी कार्य यशस्वी नहीं हो सकता? और वे हैं (क) संकल्प का सातत्य? और (ख) एक निश्चित लक्ष्य के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करना। तीसरी मुख्य कुञ्जी है (ग) नित्ययुक्तता अर्थात् आत्मसंयम। जीवन में दर्शनीय व गौरवमय सफलता पाने के लिए आत्मसंयम आवश्यक है।जब जीवन में किसी महत्त्वाकांक्षा को लेकर मनुष्य अपने मार्ग पर अग्रसर होता है? तब उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके लक्ष्य से भिन्न? अनेक आकर्षक और प्रलोभित करने वाली योजनाएं उसके समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं? जिनके चिन्तन में वह अपनी शक्ति का अपव्यय करके थक जाता है और इस प्रकार अपने चुने हुए कार्य को भी सफलतापूर्वक करने में असमर्थ हो जाता है। उन्नति में बाधक ऐसे विघ्न से सुरक्षित रहने के लिए आत्मसंयम अत्यावश्यक है।श्री शंकराचार्य योगक्षेम के अर्थ इस प्रकार बताते हैं ? अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना योग और प्राप्त वस्तु का रक्षण करना क्षेम कहलाता है। प्रस्तुत विवेचन के सन्दर्भ में ये अर्थ भी उपयुक्त हैं और प्रयोज्य हैं। जीवन में? जिन किसी भी रूप में विरोध और स्पर्धा? संघर्ष और दुख आते हैं? वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्थानस्थान पर और समयसमय पर भिन्नभिन्न प्रकार के होते हैं। मनुष्य के इस संघर्ष को मुख्यत दो भागों में विभाजित किया जा सकता है? (क) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष? और (ख) प्राप्त वस्तु के रक्षण के लिए प्रयत्न। इन दोनों से उत्पन्न तनाव जीवन की शान्ति और आनन्द को छिन्नभिन्न कर देता है। जो व्यक्ति इन दो चिन्ताओं से मुक्त है? वह सबसे भाग्यवान व्यक्ति है? क्योंकि वह कृतकृत्य है। इन दोनों के अभाव में उस पुरुष के जीवन में दुख की गन्धमात्र नहीं होती और वह अक्षय सुख को प्राप्त हो जाता है।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि जो कोई व्यक्ति उपर्युक्त सफलता की तीन कुञ्जियों को समझकर उद्यमता से उनका पालन करेगा उसे? योग और क्षेम की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है? क्योंकि उसको पूर्ण करने का उत्तरदायित्व स्वयं भगवान् स्वेच्छापूर्वक निभाते हैं। यहाँ भगवान् शब्द से तात्पर्य इस जगत् और उसमें होने वाली घटनाओं के पीछे जो शाश्वत नियम कार्य कर रहा है? उससे समझना चाहिए। सिंचाई कार्य के लिए जब जल को उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित किया जाता है? तो इच्छित क्षेत्र में उसके प्रवाह के लिए हमें केवल उसकी दिशा ही सही करनी होती है। तत्पश्चात् प्रकृतिक नियम के अनुसार वह जल स्वत ही उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित होगा। इसी प्रकार? जो कोई पुरुष अपने कार्यक्षेत्र में यहाँ वर्णित शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक स्तर पर पालन करने योग्य नियमांे के अनुसार कार्य करेगा? सफलता ऐसी परिस्थितियों के सजग शासक के चरणों को चूमेगी।अब? एक अन्य प्रकरण का प्रारम्भ किया जाता है? जिसमें उन साधकों के विषय में विचार किया गया है? जो विपरीत मार्गदर्शन के कारण परिच्छिन्न शक्ति एवं अनित्य फल के अधिष्ठाता देवताओं की पूजा करते हैं --
Swami Ramsukhdas
।।9.22।। व्याख्या--'अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते'--जो कुछ देखने, सुनने और समझनेमें आ रहा है, वह सब-का-सब भगवान्का स्वरूप ही है और उसमें जो कुछ परिवर्तन तथा चेष्टा हो रही है, वह सब-की-सब भगवान्की लीला है -- ऐसा जो दृढ़तासे मान लेते हैं, समझ लेते हैं, उनकी फिर भगवान्के सिवाय कहीं भी महत्त्वबुद्धि नहीं होती। वे भगवान्में ही लगे रहते हैं। इसलिये वे 'अनन्य' हैं। केवल भगवान्में ही महत्ता और प्रियता होनेसे उनके द्वारा स्वतः भगवान्का ही चिन्तन होता है। 'अनन्याः' कहनेका दूसरा भाव यह है कि उनके साधन और साध्य केवल भगवान् ही हैं अर्थात् केवल भगवान्के ही शरण होना है, उन्हींका चिन्तन करना है, उन्हींकी उपासना करनी है और उन्हींको प्राप्त करना है-- ऐसा उनका दृढ़ भाव है। भगवान्के सिवाय उनका कोई अन्य भाव है ही नहीं; क्योंकि भगवान्के सिवाय अन्य सब नाशवान् है। अतः उनके मनमें भगवान्के सिवाय अन्य कोई इच्छा नहीं है; अपने जीवन-निर्वाहकी भी इच्छा नहीं है। इसलिये वे अनन्य हैं। वे खाना-पीना चलना-फिरना, बात-चीत करना, व्यवहार करना आदि जो कुछ भी काम करते हैं, वह सब भगवान्की ही उपासना है क्योंकि वे सब काम भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही करते हैं। तेषां नित्याभियुक्तानाम् --जो अनन्य होकर भगवान्का ही चिन्तन करते हैं और भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही सब काम करते हैं, उन्हींके लिये यहाँ नित्याभियुक्तानाम् पद आया है। इसको दूसरे शब्दोंमें इस प्रकार समझें कि वे संसारसे विमुख हो गये-- यह उनकी 'अनन्यता' है, वे केवल भगवान्के सम्मुख हो गये-- यह उनका 'चिन्तन' है और सक्रिय-अक्रिय सभी अवस्थाओंमें भगवत्सेवापरायण हो गये -- यह उनकी उपासना है। ये तीनों बातें जिनमें हो जाती हैं, वे ही 'नित्याभियुक्त' हैं। 'योगक्षेमं वहाम्यहम्'-- अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करा देना 'योग' है और प्राप्त सामग्रीकी रक्षा करना 'क्षेम' है। भगवान् कहते हैं कि मेरेमें नित्य-निरन्तर लगे हुए भक्तोंका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। वास्तवमें देखा जाय तो अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करानेमें भी 'योग'का वहन है और प्राप्ति न करानेमें भी 'योग'का वहन है। कारण कि भगवान् तो अपने भक्तका हित देखते हैं और वही काम करते हैं, जिसमें भक्तका हित होता हो। ऐसे ही प्राप्त वस्तुकी रक्षा करनेमें भी 'क्षेम'का वहन है और रक्षा न करनेमें भी 'क्षेम'का वहन है। अगर भक्तकी भक्ति बढ़ती हो, उसका कल्याण होता हो तो भगवान् प्राप्तकी रक्षा करेंगे; क्योंकि इसीमें उसका 'क्षेम' है। अगर प्राप्तकी रक्षा करनेसे उसकी भक्ति न बढ़ती हो, उसका हित न होता हो तो भगवान् उस प्राप्त वस्तुको नष्ट कर देंगे; क्योंकि नष्ट करनेमें ही उसका 'क्षेम' है। इसलिये भगवान्के भक्त अनुकूल और प्रतिकूल-- दोनों परिस्थितियोंमें परम प्रसन्न रहते हैं। भगवान्पर निर्भर रहनेके कारण उनका यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि जो भी परिस्थिति आती है, वह भगवान्की ही भेजी हुई है। अतः 'अनुकूल परिस्थिति ठीक है और प्रतिकूल परिस्थिति बेठीक है' -- उनका यह भाव मिट जाता है। उनका भाव रहता है कि 'भगवान्ने जो किया है, वही ठीक है और भगवान्ने जो नहीं किया है, वही ठीक है, उसीमें हमारा कल्याण है। 'ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये'--यह सोचनेकी हमें किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। कारण कि हम सदा भगवान्के हाथमें ही हैं और भगवान् सदा ही हमारा वास्तविक हित करते रहते हैं। इसलिये हमारा अहित कभी हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि भक्तका मनचाहा हो जाय तो उसमें भी कल्याण है और मनचाहा न हो तो उसमें भी कल्याण है। भक्तका चाहा और न चाहा कोई मूल्य नहीं रखता, मूल्य तो भगवान्के विधानका है। इसलिये अगर कोई अनुकूलतामें प्रसन्न और प्रतिकूलतामें खिन्न होता है, तो वह भगवान्का दास नहीं है, प्रत्युत अपने मनका दास है। वास्तवमें तो 'योग' नाम भगवान्के साथ सम्बन्धका है और 'क्षेम' नाम जीवके कल्याणका है। इस दृष्टिसे भगवान् भक्तके सम्बन्धको अपने साथ दृढ़ करते हैं -- यह तो भक्तका 'योग' हुआ और भक्तके कल्याणकी चेष्टा करते हैं-- यह भक्तका क्षेम हुआ। इसी बातको लेकर दूसरे अध्यायके पैंतालीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनके लिये आज्ञा दी कि 'तू' निर्योगक्षेम हो जा अर्थात् तू योग और क्षेमसम्बन्धी किसी प्रकारकी चिन्ता मत कर। 'वहाम्यहम्' का तात्पर्य है कि जैसे छोटे बच्चेके लिये माँ किसी वस्तुकी आवश्यकता समझती है, तो बड़ी प्रसन्नता और उत्साहके साथ स्वयं वह वस्तु लाकर देती है। ऐसे ही मेरेमें निरन्तर लगे हुए भक्तोंके लिये मैं किसी वस्तुकी आवश्यकता समझता हूँ, तो वह वस्तु मैं स्वयं ढोकर लाता हूँ अर्थात् भक्तोंके सब काम मैं स्वयं करता हूँ। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें अपनी उपासनाकी बात कह करके अब भगवान् अन्य देवताओंकी उपासनाकी बात कहते हैं।
Swami Tejomayananda
।।9.22।। अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।9.22।।अनन्याः अन्यदचिन्तयित्वा। तथा हि गौतमखिलेषु -- सर्वं परित्यज्य मनोगतं यद्विना देवं केवलं शुद्धमाद्यम्। ये चिन्तयन्तीह तमेव धीरा अनन्यास्ते देवमेवाविशन्ति इति।कामं कालेन महता एकान्तित्वात्समाहितैः। शक्यो द्रष्टुं स भगवान्प्रभासन्दृश्यमण्डलः इति मोक्षधर्मे [म.भा.12।366।24।55]। नित्यमभितः सर्वतो युक्तानाम्।
Sri Anandgiri
।।9.22।।फलमनभिसंधाय त्वामेवाराधयतां सम्यग्दर्शननिष्ठानामत्यन्तनिष्कामानां(णां) कथं योगक्षेमौ स्यातामित्याशङ्क्याह -- ये पुनरिति। तेषां योगक्षेमं वहामीत्युत्तरत्र संबन्धः। येभ्योऽन्यो न विद्यत इति,व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- अपृथगिति। कार्यस्येव कारणे कर्मतादात्म्यं व्यावर्तयति -- परमिति। अहमेव वासुदेवः सर्वात्मा न मत्तोऽन्यत्किंचिदस्तीति ज्ञात्वा तमेव प्रत्यञ्चं सदा ध्यायन्त इत्याह -- चिन्तयन्त इति। प्राकृतान्व्यावर्त्य मुख्यानधिकारिणो निर्दिशति -- संन्यासिन इति। पर्युपासते परितः सर्वतोऽनवच्छिन्नतया पश्यन्तीत्यर्थः। नित्याभियुक्तानां नित्यमनवरतमादरेण ध्याने व्यापृतानामित्याह -- सततेति। योगश्च क्षेमश्च योगक्षेमम्। तत्रापुनरुक्तमर्थमाह -- योग इति। किमर्थं परमार्थदर्शिनां योगक्षेमं वहसीत्याशङ्क्याह -- ज्ञानीत्विति। अतस्तेषां योगक्षेमं वहामीति संबन्धः। सम्यग्दर्शननिष्ठानामेव योगक्षेमं वहति भगवानिति विशेषणममृष्यमाणः शङ्कते -- नन्विति। अन्येषामपि भक्तानां भगवान्योगक्षेमं वहतीत्येतदङ्गीकरोति -- सत्यमिति। तर्हि भक्तेषु ज्ञानिषु च विशेषो नास्तीति पृच्छति -- किंत्विति। तत्र विशेषं प्रतिज्ञाय विवृणोति -- अयमित्यादिना। योगक्षेममुद्दिश्य स्वयमीहन्ते चेष्टां कुर्वन्तीति यावत्। आत्मविदां स्वार्थं योगक्षेममुद्दिश्य चेष्टाभावं स्पष्टयति -- नहीति। गृद्धिरपेक्षा कामना तामित्येतत्। ज्ञानिनां तर्हि सर्वत्रानास्थेत्याशङ्क्याह -- केवलमिति। तेषां तदेकशरणत्वे फलितमाह अत इति। इतिशब्दो विशेषशब्देन संबध्यते।
Sri Vallabhacharya
।।9.22।।मद्भक्तास्तु मदनुग्रहेण कृतार्था भवन्तीत्याह -- अनन्या इति। अत्रेदमाकूतम् -- भगवता मार्गत्रयं स्वत उद्भावितम्? मनसा वाचा स्वरूपेण चेति तत्र स्वप्राप्त्यर्थं मार्गद्वयं प्रकटितं मर्यादारूपं पुष्टिरूपं च तत्र येषां जीवानां दैवानां मर्यादायामङ्गीकारस्तेषां साधनक्रमेणैव भगवत्प्राप्तिः। यथाऽऽसुरावेशिनामपि मुक्तिं ददत्स्वरूपं दृष्टवतो मुचुकुन्दस्य दोषवर्णनपूर्वकं तद्रहिताग्रिमान्तिमजन्मनि स्वप्राप्तिकथनम्। येषां च पुष्टिभक्तिमार्गे तेषां केवलानुग्रहेणैव न साधनापेक्षयेति निश्चयः? यथा व्रजादिस्थितानाम्। तत्र तत्राङ्गीकारे चेच्छैव हेतुः स्वतन्त्रेच्छत्वान्नान्यनियम्यता। तथाच साधनवाक्यान्यत्र मर्यादामार्गपराणि। तत्राङ्गीकृतानां तथैव प्रवृत्तिः फलं च। पुष्टिमार्गे त्वङ्गीकृतानांतस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः। न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह। यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत्। योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि। सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा। [भाग.11।20।3133] इति भगवद्वाक्यैर्ज्ञानादिसाधनरहितानामेव भक्तिकथनम्। मद्भक्तेः कल्पतरुस्वभावत्वेनेतरसकलसाधनासाध्यसाधकत्वोक्तेश्च नेतरसाधनसापेक्षता भक्तौ।भगवान् भजतां मुकुन्दो मुक्तिं ददाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगं इति वाक्येऽपि मुक्तिसाधनपूर्णानामपि भगवद्दाने भक्तिप्राप्तिरदाने चाप्राप्तिरिति निरूपणादप्यनुग्रहेतरसाधनासाध्यत्वं भक्तौ निश्चीयते। उक्तमार्गद्वये चाङ्गीकारोऽनुग्रहेणैवेति न मर्यादामार्गेऽपि भक्तेः साधनबलैकसाध्यत्वम्। अन्यथा जायस्व म्रियस्वेति तृतीयमार्गे एवाङ्गीकारं कथं न कुर्यात्। पुष्टौ साधनानां व्यभिचारादेव न हेतुत्वं? मर्यादायां न तथेति इदमग्रे स्पष्टीभविष्यति। ये जना मदीया अनन्या भावनान्तररहिताः (साधनान्तररहिताः) भावनान्तरया देवान्तरविषया फलान्तरविषया मार्गान्तरविषया च तद्रहिताः मदनुग्रहैकलभ्यमभक्तिमन्तः मां पुरुषोत्तममेव चिन्तयन्तः मर्यादापुष्टिमार्गीयाः मदुक्तमार्गेण मामुपासते सेवन्ते तेषां नित्यमेवाभितो युक्तानां सम्बद्धानां योगक्षेममिति। योगं इह लोके सेवोपयोगार्थं धनधान्यवस्त्रादिल���भं? क्षेमं चामुत्रात्यन्तिकं श्रेयो मोक्षलक्षणं वहामि साधयामि।
Sridhara Swami
।।9.22।। मद्भक्तास्तु मत्प्रसादेन कृतार्था भवन्तीत्याह -- अनन्या इति। अनन्या नास्ति मद्व्यतिरेकेणान्यत्काम्यं भजनीयं देवतान्तरं येषां तथाभूता ये जना मां चिन्तयन्तः सेवन्ते? तेषां नित्याभियुक्तानां सर्वदा मदेकनिष्ठानां योगं धनादिलाभं क्षेमं च तत्पालनं मोक्षं वा तैरप्रार्थितमप्यहमेव वहामि प्रापयामि।