Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 2 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् | प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ||९-२||
Transliteration
rājavidyā rājaguhyaṃ pavitramidamuttamam . pratyakṣāvagamaṃ dharmyaṃ susukhaṃ kartumavyayam ||9-2||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
9.2 This is the kingl science, the kingly secret, the supreme purifier, realisable by direct intuitional knowledge, according to righteousness, very easy to perform and imperishable.
।।9.2।। यह ज्ञान राजविद्या (विद्याओं का राजा) और राजगुह्य (सब गुह्यों अर्थात् रहस्यों का राजा) एवं पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष ज्ञानवाला और धर्मयुक्त है, तथा करने में सरल और अव्यय है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In one's career, this verse advocates for seeking mastery of foundational principles and core knowledge (राजविद्या) rather than superficial skills. Understanding the 'why' and 'how' deeply purifies one's approach, leading to ethical and highly effective work. This profound understanding, once integrated, becomes an imperishable asset, making complex tasks feel 'easy to perform' due to clarity and insight.
🧘 For Stress & Anxiety
For stress and mental health, this teaching points to the purification of the mind by addressing the root causes of anxiety and confusion (Avidya). Engaging in self-reflection and practices that foster deep understanding can act as a 'supreme purifier,' removing mental clutter and negative patterns. This foundational self-knowledge, though profound, leads to a state of inner peace that is 'easy to perform' in daily life, providing lasting resilience against external pressures.
❤️ In Relationships
In relationships, cultivating self-awareness and understanding of human nature (राजविद्या) acts as a 'supreme purifier' for interactions. By clarifying one's own motivations and biases, and approaching others with 'righteousness' (धर्म्यम्), deeper, more authentic connections can be forged. This foundational understanding allows for interactions that are 'easy to perform' because they are rooted in truth and empathy, building relationships that are robust and 'imperishable' through challenges.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The direct realization of Self-knowledge is the supreme, purifying, and imperishable truth, offering accessible peace and lasting liberation.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
9.2 राजविद्या the king of sciences? राजगुह्यम् kingly secret? पवित्रम् purifier? इदम् this? उत्तमम् highest? प्रत्यक्षावगमम् realisable by direct? intuitional knowledge? धर्म्यम् according to righteousness? सुसुखम् very easy? कर्तुम् to perform? अव्ययम् imperishable.Commentary In this verse Lord Krishna eulogies the knowledge of Brahman very highly in order to create a great interest in the spiritual aspirants for attaining It ickly.There is neither blind faith nor faithmongering in this royal science. The truth? the sovereign,secret (the Self or the Absolute) can be directly realised by intuition or immediate perception. The science of the Absolute is the most splendid of all sciences. It is the science of sciences. Of sciences the highest? of secrets the most profoun? of purifiers the supreme is this. The knowledge of Brahman is the best purifier. It reduces the roots of all Karmas and all the Karmas themselves which have been stored up in the course of many thousands of births? into ashes in the twinkling of an eye. It destroys Avidya along with its effects. An expiatory act (Prayaschitta) cannot destroy all sins. It removes the effect of a single sin? only to some extent. Even if it is removed the effect of that sin remains in a subtle state in the mind and forces him to do sinful acts in his next birth. But the knowledge of the Self destroys ickly all the sins in their gross and subtle states that are accumulated in the course of several thousands of births along with Avidya? their cause. That is the reason why it is a supreme purifier. The causal body of the Jiva is called MulaAvidya (rootignorance). The Avidya or the veil of ignorance that envelops the visible objects of this world is called Sthula Avidya or gross ignorance.The knowledge of the Self is not opposed to Dharma. It is the fruit of all actions done in many births without expectation of fruits. Further? the knowledge of the Absolute can very easily be attained. One may think that this knowledge will perish soon as it is easily obtained? when its effect is exhausted. It is not so. It is imperishable. It is everlasting. It shines for ever by its own Selfeffulgence. He who has tasted this nectar even once becomes immortal. Therefore the knowledge of the Absolute is certainly worth aciring. You will have to strive very hard to attain it anyhow in this birth? as it is very difficult to get a human birth. Strive hard every moment? for life is uncertain and the prize (final liberation) is great.
Shri Purohit Swami
9.2 This is the Premier Science, the Sovereign Secret, the Purest and Best; intuitional, righteous; and to him who practiseth it pleasant beyond measure.
Dr. S. Sankaranarayan
9.2. This shines among the sciences; (this is) the secret of monarchs; it is a supreme purifier, it is comprehensible by immediate perception, is righteous, easy to do, and imperishable.
Swami Adidevananda
9.2 This is the royal science, royal mystery, the supreme purifier, It is realised by direct experience. It is in accord with Dharma, it is pleasant to practise and is abiding.
Swami Gambirananda
9.2 This is the Sovereign Knowledge, the Sovereign Profundity, the best sanctifire; directly realizable, righteous, very easy to practise and imperishable.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।9.2।। धर्म शब्द का प्रचलित अर्थ यह है कि सप्ताह के किसी विशेष दिन? निर्धारित समय के लिए देवालय में जाकर व्रत पालन तथा पूजा करना आदि। इस दृष्टि से वेदान्त कोई धर्म नहीं है परन्तु आदर्श जीवन जीने की कला को धर्म समझने पर वेदान्त सर्वश्रेष्ठ धर्म है? क्योंकि उसमें आदर्श जीवन का वैज्ञानिक विश्लेषण एवं विवेचन किया गया है। राजविद्या? राजगुह्य? पवित्र और उत्तम कहकर भगवान् श्रीकृष्ण उसकी प्रशंसा करते हैं।कोई ज्ञान? राजविद्या और गुह्यतम तथा परम पवित्र होते हुए भी यदि अनुभव ग्राह्य नहीं है? तो उसका कोई उपयोग नहीं हो सकता। परन्तु इस ज्ञान में यह दोष नहीं है? क्योंकि यह प्रत्यक्षावगमम् अर्थात् इसका आत्मरूप में साक्षात् अनुभव किया जा सकता है।इसी प्रकार? यह ज्ञान र्धम्य अर्थात् धर्म के अनुकूल है? धर्मयुक्त है। धर्म शब्द का अर्थ अनेक स्थलों पर बताया जा चुका है। आत्मचैतन्य के अभाव में मनुष्य स्थूल और सूक्ष्मरूप जड़तत्त्वों का समूह मात्र है? जो स्वयं कोई भी कार्य करने में समर्थ नहीं है। यह चेतनतत्त्वआत्मा ही मनुष्य का वास्तविक धर्म है? स्वरूप है। भगवान् यहाँ जो ज्ञान प्रदान करने वाले हैं? वह न भौतिक विज्ञान है और न मनोविज्ञान किन्तु वह आत्मज्ञान अर्थात् मनुष्य के स्वस्वरूप का ज्ञान है।सुसुखं कर्तुम् धर्म कोई बाह्य जगत् में की जाने वाली क्रिया नहीं? वरन् आत्मिक उन्नति का मार्ग है? जिसका अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही करता है। यदि प्रस्तुत ज्ञान को प्राप्त करना अत्यन्त कठिन हो? तो उसमें किसी की प्रवृत्ति न होने से उसकी विद्यमानता व्यर्थ ही होगी। वैज्ञानिकों की इस घोषणा से कि मंगलग्रह पर सोने का अक्षय भण्डार वितरण के लिए उपलब्ध है? देश की दरिद्रता दूर नहीं होती भगवान् इस ज्ञान के कठिन होने के भय को साधक के मन से निवृत्त करने के लिए कहते हैं कि यह करने में अत्यन्त सरल है। लगनशील और योग्य विद्यार्थी के लिये चित्तशुद्धि और उसके द्वारा ज्ञान से लक्ष्यप्राप्ति करना अत्यन्त सरल कार्य है।करने में सरल होते हुए भी यदि इस ज्ञान का फल अनित्य और विनाशी हो? तो कोई भी बुद्धिमान पुरुष उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करेगा। किन्तु स्वयं भगवान् प्रमाणित करते हैं कि इस ज्ञान का फल अव्यय है आत्म साक्षात्कार का अर्थ है? स्वयं अनादिअनन्त आत्मा ही बन जाना? जो इस आभासिक दृश्यमान जगत् का एकमेव अद्वितीय अधिष्ठान है। इसलिए कहा गया है कि यह ज्ञान अव्यय है।ज्ञान के साधकों के विपरीत? जो लोग इस नित्य वस्तु के लिए प्रयत्न नहीं करते? उनके विषय में कहते हैं --
Swami Ramsukhdas
।।9.2।। व्याख्या--'राजविद्या'--यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्ण विद्याओंका राजा है; क्योंकि इसको ठीक तरहसे जान लेनेके बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता।भगवान्ने सातवें अध्यायके आरम्भमें कहा है कि 'मेरे समग्ररूपको जाननेके बाद जानना कुछ बाकी नहीं रहता।' पन्द्रहवें अध्यायके अन्तमें कहा है कि 'जो असम्मूढ़ पुरुष मेरेको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम जानता है, वह सर्ववित् हो जाता है अर्थात् उसको जानना कुछ बाकी नहीं रहता', इससे ऐसा मालूम होता है कि भगवान्के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त आदि जितने स्वरूप हैं, उन सब स्वरूपोंमें भगवान्के सगुण-साकार स्वरूपकी बहुत विशेष महिमा है।'राजगुह्यम्'--संसारमें रहस्यकी जितनी गुप्त बाते हैं, उन सब बातोंका यह राजा है; क्योंकि संसारमें इससे बड़ी दूसरी कोई रहस्यकी बात है ही नहीं। जैसे नाटकमें सबके सामने खेलता हुआ कोई पात्र अपना असली परिचय दे देता है, तो उसका परिचय देना विशेष गोपनीय बात है; क्योंकि वह नाटकमें जिस स्वाँगमें खेलता है, उसमें वह अपने असली रूपको छिपाये रखता है। ऐसे ही भगवान् जब मनुष्यरूपमें लीला करते हैं, तब अभक्त लोग उनको मनुष्य मानकर उनकी अवज्ञा करते हैं। इससे भगवान् उनके समाने अपने-आपको प्रकट नहीं करते (गीता 7। 25)। परन्तु जो भगवान्के ऐकान्तिक प्यारे भक्त होते हैं, उनके सामने भगवान् अपने-आपको प्रकट कर देते हैं -- यह अपने-आपको प्रकट कर देना ही अत्यन्त गोपनीय बात है। 'पवित्रमिदम्'--इस विद्याके समान पवित्र करनेवाली दूसरी कोई विद्या है ही नहीं अर्थात् यह विद्या पवित्रताकी आखिरी हद है। पापी-से-पापी, दुराचारी-से-दुराचारी भी इस विद्यासे बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है अर्थात् पवित्र बन जाता है और शाश्वती शान्तिको प्राप्त कर लेता है (9। 31)। दसवें अध्यायमें अर्जुनने भगवान्को परम पवित्र बताया -- 'पवित्रं परमं भवान्' (10। 12); चौथे अध्यायमें भगवान्ने ज्ञानको पवित्र बताया -- 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' (4। 38) और यहाँ राजविद्या आदि आठ विशेषण देकर विज्ञानसहित ज्ञानको पवित्र बताते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पवित्र परमात्माका नाम, रूप, लीला, धाम, स्मरण, कीर्तन, जप, ध्यान, ज्ञान आदि सब पवित्र हैं अर्थात् भगवत्सम्बन्धी जो कुछ है, वह सब महान् पवित्र है और प्राणिमात्रको पवित्र करनेवाला है (टिप्पणी प0 485)। 'उत्तमम्' -- यह सर्वश्रेष्ठ है। इसके समकक्ष दूसरी कोई वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि है ही नहीं। यह श्रेष्ठताकी आखिरी हद है, क्योंकि इस विद्यासे मेरा भक्त सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। इतना श्रेष्ठ हो जाता है कि मैं भी उसकी आज्ञाका पालन करता हूँ।इस विज्ञानसहित ज्ञानको जानकर जो मनुष्य इसका अनुभव कर लेते हैं, उनके लिये भगवान् कहते हैं कि 'वे मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ' -- 'मयि ते तेषु चाप्यहम्' (9। 29) अर्थात् वे मेरेमें तल्लीन होकर मेरा स्वरूप ही बन जाते हैं। 'प्रत्यक्षावगमम्' -- इसका फल प्रत्यक्ष है। जो मनुष्य इस बातको जितना जानेगा, वह उतना ही अपनेमें विलक्षणताका अनुभव करेगा। इस बातको जानते ही परमगति प्राप्त हो जाय--यह इसका प्रत्यक्ष फल है। 'धर्म्यम्' -- यह धर्ममय है। परमात्माका लक्ष्य होनेपर निष्कामभावपूर्वक जितने भी कर्तव्य-कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब इस धर्मके अन्तर्गत आ जाते हैं। अतः यह विज्ञानसहित ज्ञान सभी धर्मोंसे परिपूर्ण है। दूसरे अध्यायमें भगवान्ने अर्जुनको कहा कि इस धर्ममय युद्धके सिवाय क्षत्रियके लिये दूसरा कोई श्रेयस्कर साधन नहीं है -- 'धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते' (2। 31)। इससे यही सिद्ध होता है कि अपने-अपने वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार शास्त्रविहित जितने कर्तव्य-कर्म हैं, वे सभी धर्म्य हैं। इसके सिवाय भगवत्प्राप्तिके जितने साधन हैं और भक्तोंके जितने लक्षण हैं, उन सबका नाम भगवान्ने 'धर्म्यामृत' रखा है (गीता 12। 20) अर्थात् ये सभी भगवान्की प्राप्ति करानेवाले होनेसे धर्ममय हैं। 'अव्ययम्' -- इसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती, इसलिये यह अविनाशी है। भगवान्ने अपने भक्तके लिये भी कहा है कि मेरे भक्तका विनाश ( पतन ) नहीं होता' -- 'न मे भक्तः प्रणश्यति' (9। 31)। 'कर्तुं सुसुखम्' -- यह करनेमें बहुत सुगम है। पत्र, पुष्प, फल, जल आदि चीजोंको भगवान्की मानकर भगवान्को ही देना कितना सुगम है (9। 26) ! चीजोंको अपनी मानकर भगवान्को देनेसे भगवान् उनको,अनन्त गुणा करके देते हैं और उनको भगवान्की ही मानकर भगवान्के अर्पण करनेसे भगवान् अपने-आपको ही दे देते हैं। इसमें क्या परिश्रम करना पड़ा? इसमें तो केवल अपनी भूल मिटानी है।मेरी प्राप्ति सुगम है, सरल है; क्योंकि मैं सब देशमें हूँ तो यहाँ भी हूँ, सब कालमें हूँ तो अभी भी हूँ। जो कुछ भी देखने, सुनने, समझनेमें आता है, उसमें मैं ही हूँ। जितने भी मनुष्य हैं, उनका मैं हूँ और वे मेरे हैं। परन्तु मेरी तरफ दृष्टि न रखकर प्रकृतिकी तरफ दृष्टि रखनेसे वे मुझे प्राप्त न होकर बारबार जन्मते-मरते रहते हैं। अगर वे थोड़ा-सा भी मेरी तरफ ध्यान दें तो उनको मेरी अलौकिकता, विलक्षणता दीखने लग जाती है तथा प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध नहीं है और भगवान्के साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध है--इसका अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध--ऐसी सुगम और सर्वोपरि विद्याके होनेपर भी लोग उससे लाभ क्यों नहीं उठा रहे हैं? इसपर कहते हैं--,
Swami Tejomayananda
।।9.2।। यह ज्ञान राजविद्या (विद्याओं का राजा) और राजगुह्य (सब गुह्यों अर्थात् रहस्यों का राजा) एवं पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष ज्ञानवाला और धर्मयुक्त है, तथा करने में सरल और अव्यय है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।9.2।।राजविद्या प्रधानविद्या। प्रत्यक्षं ब्रह्म अवगम्यते येन तत्प्रत्यक्षावगमम्। अक्षेष्विन्द्रियेषु प्रति प्रतिस्थित इति प्रत्यक्षः। तथा च श्रुतिः यः प्राणे तिष्ठन्प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेद यस्य प्राणः शरीरम्। यः प्राणमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः। यो वाचि तिष्ठन् ৷৷. यश्चक्षुषि तिष्ठन् [बृ.उ.3।7।1618] इत्यादिः। य एषोऽन्तरक्षिणि पुरुषो दृश्यते [छां.उ.1।7।5] इति च अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽङ्गुष्ठं च समाश्रितः [म.ना.उ.15।5] इति च।त्वं मनस्त्वं चन्द्रमास्त्वं चक्षुरादित्यः इत्यादेश्च मोक्षधर्मे। [म.भा.12।338।98100] स प्रत्यक्षः प्रति इति हि सोऽक्षेष्वक्षवान् भवति य एवं विद्वान्प्रत्यक्षं वेद इति सामवेदे बाभ्रव्यशाखायाम्। धर्मो भगवान् तद्विषयं धर्म्यम्। सर्वं जगद्धत्त इति धर्मः।पृथिवी धर्ममूर्धनि इति च प्रयोगान्मोक्षधर्मे।भारभृत्कथितो योगी [म.भा.13।149।106] इति च। भर्ता सन् भ्रियमाणो बिभर्ति [तै.आ.3।14] इति च श्रुतिः। धर्मो वा इदमग्र आसीन्न पृथिवी न वायुर्भाकाशो न ब्रह्मा न रुद्रो न देवा न ऋषयः सोऽध्यायत् इति च सामवेदशाखायाम्।
Sri Anandgiri
।।9.2।।तदाभिमुख्यसिद्धये तज्ज्ञानं स्तौति -- तच्चेति। ब्रह्मविद्या विद्यानां राजा श्रेष्ठेत्यत्र हेतुमाह -- दीप्तीति। कुतो ब्रह्मविद्याया विद्यान्तरेभ्यो दीप्त्यतिशयवत्त्वं तदाह -- दीप्यते हीति। दृश्यते हि विद्वदन्तरेभ्यो लोके पूजातिरेको ब्रह्मविदामिति भावः। उत्कृष्टतमं शुद्धिकारणं ब्रह्मज्ञानमित्येतदुपपादयति -- अनेकेति। तत्र च श्रुतिस्मृती प्रमाणयितव्ये। न शास्त्रैकगम्यमिदं ज्ञानं किंतु प्रत्यक्षप्रमेयमित्याह -- किञ्चेति। प्रत्यक्षमवगमो मानमस्मिन्निति तथा? यद्वावगम्यत इत्यवगमः फलं प्रत्यक्षोऽवगमोऽस्येति दृष्टफलत्वं ज्ञानस्योच्यते। धर्म्यमित्येतद्व्याकरोति -- अनपेतमिति। धर्मस्येव तस्य क्लेशसाध्यत्वमाशङ्क्याह -- एवमपीति। तत्र रत्नविषयं विवेकज्ञानं संप्रयोगादुपदेशापेक्षादनायासेन दृष्टं तथेदं ब्रह्मज्ञानमित्याह -- तथेति। अव्ययमिति विशेषणमाशङ्कापूर्वकं विवृणोति -- तत्रेत्यादिना। व्यवहारभूमिः सप्तम्यर्थः। ज्ञानस्याक्षयफलत्वे फलितमाह -- अत इति।
Sri Vallabhacharya
।।9.2।।किञ्च राजविद्येति। इदं ज्ञानं खलु राज्ञां महामनसां विद्या गुह्यं च मन्त्ररूपं विद्यानां राजा गुह्यं च इति वा। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परत्वम्। पावनसम्बन्धित्वात् पवित्रम्। प्रत्यक्षेति अवगम्यत इत्यवगमो विषयो यस्य ज्ञानस्य सोऽहं प्रत्यक्षतामुपगतो भवामीत्यर्थः? भक्त्यावृतत्वात्। अथापि धर्म्यं निश्श्रेयसलक्षणाद्धर्मादनपेतम्अनिच्छतो गतिमण्वीं प्रयुङ्क्ते इति वाक्यात्। कर्तुं च सुसुखं न कर्मान्तरवद्दुष्करम्।
Sridhara Swami
।।9.2।।किंच -- राजविद्येति। इदं ज्ञानं राजविद्या विद्यानां राजेति राजविद्या च। गुह्यानां राजेति राजगुह्यं विद्यासु गोप्येषु च रहस्यम्। अतिश्रेष्ठमित्यर्थः। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परत्वम्। राज्ञां विद्या राज्ञां गुह्यमितिवा उत्तमं पवित्रमत्यन्तपावनमिदं ज्ञानिनां प्रत्यक्षावगमं च प्रत्यक्षः स्पष्टोऽवगमोऽवबोधो यस्य तत्प्रत्यक्षावगमम्। दृष्टफलमित्यर्थः। धर्म्यं च धर्मादनपेतं? सर्वधर्मफलत्वात्। कर्तुं सुसुखं च। सुखेन कर्तुं शक्यमित्यर्थः। अव्ययमक्षयफलत्वात्।