Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 16 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् | मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ||९-१६||

Transliteration

ahaṃ kraturahaṃ yajñaḥ svadhāhamahamauṣadham . mantro.ahamahamevājyamahamagnirahaṃ hutam ||9-16||

Word-by-Word Meaning

अहम्I
क्रतुःsacrifice
अहम्I
यज्ञःthe sacrifice
स्वधाthe offering to Pitris or ancestors
अहम्I
अहम्I
औषधम्the medicinal herbs and all plants
मन्त्रःsacred syllable
अहम्I
अहम्I
एवalso
आज्यम्ghee or clarified butter
अहम्I
अग्निःthe fire
अहम्I

📖 Translation

English

9.16 I am the Kratu; I am the Yajna; I am the offering (food) to the manes; I am the medicinal herbs and all the plants; I am the Mantra; I am also the Ghee or the melted butter; I am the fire; I am the oblation.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।9.16।। मैं ऋक्रतु हूँ; मैं यज्ञ हूँ; स्वधा और औषध मैं हूँ, मैं मन्त्र हूँ, घी हूँ, मैं अग्नि हूँ और हुतं अर्थात् हवन कर्म मैं हूँ।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate a profound sense of purpose and dedication in every task, seeing your efforts, resources, colleagues, and outcomes as interconnected expressions of a larger divine process. This transforms even mundane work into a sacred offering, fostering mindfulness, excellence, and a deeper appreciation for your contribution.

🧘 For Stress & Anxiety

Alleviate anxiety and find peace by recognizing the divine presence in all circumstances, both favorable and challenging. This holistic perspective fosters acceptance, resilience, and a deeper sense of meaning, reminding you that you are part of an all-encompassing, divinely orchestrated reality.

❤️ In Relationships

Approach all relationships with heightened empathy and reverence, recognizing the divine essence within every individual and interaction. This fosters deeper connections, transforms conflicts into opportunities for growth, and promotes unconditional love by seeing the fundamental unity underlying all beings.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Everything is divine; recognize the sacred essence and interconnectedness in every action, object, and being, finding purpose in the whole tapestry of existence.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

9.16 अहम् I? क्रतुः sacrifice? अहम् I? यज्ञः the sacrifice? स्वधा the offering to Pitris or ancestors? अहम् I? अहम् I? औषधम् the medicinal herbs and all plants? मन्त्रः sacred syllable? अहम् I? अहम् I? एव also? आज्यम् ghee or clarified butter? अहम् I? अग्निः the fire? अहम् I? हुतम् the offering.Commentary Kratu is a kind of Vedic sacrifice.Yajna is the worship enjoined in the Smriti or the holy books laying down lay and the code of conduct.I am the Mantra? the chant with which the oblation is offered to the manes or ancestors? and the shining ones (the Devatas or gods).Hutam also means the act of offering.Aushadham All plants including rice and barley or medicine that can cure diseases. (Cf.IV.24)

Shri Purohit Swami

9.16 I am the Oblation, the Sacrifice and the Worship; I am the Fuel and the Chant, I am the Butter offered to the fire, I am the Fire itself, and I am the Act of offering.

Dr. S. Sankaranarayan

9.16. I am determination; I am sacrifice; I am Svadha; I am the juice of the herb; I am the (Vedic) hymn; I am alone the clarified butter also; I am the [sacrificial] fire; (and) I am the act of offering.

Swami Adidevananda

9.16 I am the Kratu. I am the sacrifice. I am the offering to the manes. I am the herb. I am the Mantra. I am Myself the clarified butter. I am the fire. I am the oblation.

Swami Gambirananda

9.16 I am the kratu, I am the yajna, I am the svadha, I am the ausadha, I am the mantra, I Myself am the ajya, I am the fire, and I am the act of offering.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।9.16।।,इस श्लोक में उक्त विचार को इसके पूर्व भी एक प्रसिद्ध श्लोक में व्यक्त किया गया था। हवन क्रिया तथा उसमें प्रयुक्त विविध सामग्रियों के रूपक के द्वारा इस श्लोक में आत्मा की सर्वरूपता एवं सर्वात्मकता का बोध कराया गया है। कर्मकाण्ड में वर्णित कर्मानुष्ठान ही पूजाविधि है। वेदों में उपदिष्ट यज्ञ कर्म को क्रतु तथा स्मृतिग्रन्थों में कथित कर्म को ही यज्ञ कहा जाता है? जिसका अनुष्ठान महाभारत काल में किया जाता था। पितरों को दिया जाने वाला अन्न स्वधा कहलाता है। अर्जुन को यहाँ उपदेश में बताया गया है कि उपर्युक्त ये सब क्रतु आदि मैं ही हूँ।इतना ही नही वरन् यज्ञकर्म में प्रयुक्त औषधि? अग्नि में आहुति के रूप में अर्पित किया जाने वाला घी (आज्यम्)? अग्नि? कर्म में उच्चारित मन्त्र और हवन क्रिया ये सब विविध रूपों में आत्मा की ही अभिव्यक्ति हैं। जब स्वर्ण से अनेक आभूषण बनाये जाते हैं? तब स्वर्ण निश्चय ही यह कह सकता है कि मैं कुण्डल हूँ? मैं अंगूठी हूँ? मैं कण्ठी हूँ? मैं इन सब की चमक हूँ आदि। इसी प्रकार? आत्मा ही सब रूपों का? घटनाओं आदि का सारतत्त्व होने के कारण भगवान् श्रीकृष्ण का उक्त कथन दार्शनिक बुद्धि से सभी पाठकों को स्वीकार्य होगा।और --

Swami Ramsukhdas

।।9.16।। व्याख्या--[अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वासके अनुसार किसीको भी साक्षात् परमात्माका स्वरूप मानकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय तो वास्तवमें यह सम्बन्ध सत्के साथ ही है। केवल अपने मन-बुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो। जैसे ज्ञानके द्वारा मनुष्य सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्वको ही जानता है। परमात्माके सिवाय दूसरी किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया,आदिकी किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है--इसमें उसको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ऐसे ही भगवान् विराट्रूपसे अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं; अतः सब कुछ भगवान्-ही-भगवान् हैं -- इसमें अपनेको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होना चाहिये। कारण कि 'यह सब भगवान् कैसे हो सकते हैं?' यह संदेह साधकको वास्तविक तत्त्वसे, मुक्तिसे वञ्चित कर देता है और महान् आफतमें फँसा देता है। अतः यह बात दृढ़तासे मान लें कि कार्य-कारणरूपे स्थूल-सूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और माननेमें आता है, वह सब केवल भगवान् ही हैं। इसी कार्य-कारणरूपसे भगवान्की सर्वव्यापकताका वर्णन सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है।]    'अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्'-- जो वैदिक रीतिसे किया जाय, वह 'क्रतु' होता है। वह क्रतु मैं ही हूँ। जो स्मार्त (पौराणिक) रीतिसे किया जाय, वह 'यज्ञ' होता है, जिसको पञ्चमहायज्ञ आदि स्मार्त-कर्म कहते हैं। वह यज्ञ मैं हूँ। पितरोंके लिये जो अन्न अर्पण किया जाता है, उसको स्वधा कहते हैं। वह स्वधा मैं ही हूँ। उन क्रतु, यज्ञ और स्वधाके लिये आवश्यक जो शाकल्य है अर्थात् वनस्पतियाँ हैं, बूटियाँ हैं, तिल, जौ, छुहारा आदि औषध है, वह औषध भी मैं ही हूँ।  'मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्'-- जिस मन्त्रसे क्रतु, यज्ञ और स्वधा किये जाते हैं, वह मन्त्र भी मैं ही हूँ। यज्ञ आदिके लिये गो-घृत आवश्यक होता है, वह घृत भी मैं ही हूँ। जिस आहवनीय अग्निमें होम किया जाता है, वह अग्नि भी मैं ही हूँ और हवन करनेकी क्रिया भी मैं ही हूँ।'वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च'-- वेदोंकी बतायी हुई जो विधि है, उसको ठीक तरहसे जानना 'वेद्य' है। तात्पर्य है कि कामनापूर्तिके लिये अथवा कामना-निवृत्तिके लिये वैदिक और शास्त्रीय जो कुछ क्रतु, यज्ञ आदिका अनुष्ठान किया जाता है, वह विधि-विधान-सहित साङ्गोपाङ्ग होना चाहिये। अतः विधि-विधानको जाननेयोग्य सब बातें 'वेद्य' कहलाती हैं। वह वेद्य मेरा स्वरूप है। यज्ञ, दान और तप --ये तीनों निष्काम पुरुषोंको महान् पवित्र करनेवाले हैं -- 'यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्' (18। 5)। इनमें निष्कामभावसे जो हव्य आदि वस्तुएँ खर्च होती हैं, वे भी पवित्र हो जाती हैं और इनमें निष्कामभावसे जो क्रिया की जाती है, वह भी पवित्र हो जाती है। यह पवित्रता मेरा स्वरूप है। क्रतु, यज्ञ आदिका अनुष्ठान करनेके लिये जिन ऋचाओंका उच्चारण किया है, उन सबमें सबसे पहले का ही उच्चारण किया जाता है। इसका उच्चारण करनेसे ही ऋचाएँ अभीष्ट फल देती हैं। वेदवादियोंकी यज्ञ, दान, तप आदि सभी क्रियाएँ का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं (गीता 17। 24)। वैदिकोंके लिये प्रणवका उच्चारण मुख्य है। इसलिये भगवान्ने प्रणवको अपना स्वरूप बताया है। उन क्रतु, यज्ञ आदिकी विधि बतानेवाले ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद -- ये तीनों वेद हैं। जिसमें नियताक्षरवाले मन्त्रोंकी ऋचाएँ होती हैं,  उन ऋचाओंके समुदायको ऋग्वेद कहते हैं। जिसमें स्वरोंसहित गानेमें आनेवाले मन्त्र होते हैं, वे सब मन्त्र सामवेद कहलाते हैं। जिसमें अनियताक्षरवाले मन्त्र होते हैं, वे मन्त्र 'यजुर्वेद' कहलाते है (टिप्पणी प0 504)। ये तीनों वेद भगवान्के ही स्वरूप हैं। 'पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः' -- इस जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम आदि सम्पूर्ण संसारको मैं ही उत्पन्न करता हूँ -- 'अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः' ( गीता 7। 6 ) और बार-बार अवतार लेकर मैं ही इसकी रक्षा करता हूँ। इसलिये मैं 'पिता' हूँ। ग्यारहवें अध्यायके तैंतालीसवें श्लोकमें अर्जुनने भी कहा है कि 'आप ही इस चराचर जगत्के पिता हैं'--'पितासि लोकस्य चराचरस्य।'  इस संसारको सब तरहसे मैं ही धारण करता हूँ और संसारमात्रका जो कुछ विधान बनता है, उस विधानको,बनानेवाला भी मैं हूँ। इसलिये मैं 'धाता' हूँ।जीवोंकी अपने-अपने कर्मोंके अनुसार जिस-जिस योनिमें, जैसे-जैसे शरीरोंकी आश्यकता पड़ती है, उस-उस योनिमें वैसे-वैसे शरीरोंको पैदा करनेवाली 'माता' मैं हूँ अर्थात् मैं सम्पूर्ण जगत्की माता हूँ। प्रसिद्धिमें ब्रह्माजी सम्पूर्ण सृष्टिको पैदा करनेवाले हैं-- इस दृष्टिसे ब्रह्माजी प्रजाके पिता हैं। वे ब्रह्माजी भी मेरेसे प्रकट होते हैं-- इस दृष्टिसे मैं ब्रह्माजीका पिता और प्रजाका 'पितामह' हूँ। अर्जुनने भी भगवान्को ब्रह्माके आदिकर्ता कहा है --'ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे' (11। 37)।  'गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्'--प्राणियोंके लिये जो सर्वोपरि प्रापणीय तत्त्व है, वह 'गति'--स्वरूप मैं ही हूँ। संसारमात्रका भरण-पोषण करनेवाला 'भर्ता 'और संसारका मालिक 'प्रभु' मैं ही हूँ। सब समयमें सबको ठीक तरहसे जाननेवाला 'साक्षी' मैं हूँ। मेरे ही अंश होनेसे सभी जीव स्वरूपसे नित्य-निरन्तर मेरेमें ही रहते हैं, इसलिये उन सबका 'निवास' --स्थान मैं ही हूँ। जिसका आश्रय लिया जाता है, वह 'शरण' अर्थात् शरणागतवत्सल मैं ही हूँ। बिना कारण प्राणिमात्रका हित करनेवाला 'सुहृद्' अर्थात् हितैषी भी मैं हूँ।     'प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्'--सम्पूर्ण संसार मेरेसे ही उत्पन्न होता है और मेरेमें ही लीन होता है, इसलिये मैं 'प्रभव' और 'प्रलय' हूँ अर्थात् मैं ही संसारका निमित्तकारण और उपादानकारण हूँ (गीता 7। 6)। महाप्रलय होनेपर प्रकृतिसहित सारा संसार मेरेमें ही रहता है, इसलिये मैं संसारका 'स्थान' (टिप्पणी प0 505.1) हूँ।संसारकी चाहे सर्गअवस्था हो, चाहे प्रलय-अवस्था हो, इन सब अवस्थाओंमें प्रकृति, संसार, जीव तथा जो कुछ देखने, सुनने, समझनेमें आता है, वह सब-का-सब मेरेमें ही रहता है, इसलिये मैं 'निधान' हूँ।सांसारिक बीज तो वृक्षसे पैदा होता है और वृक्षको पैदा करके नष्ट हो जाता है; परन्तु ये दोनों ही दोष मेरेमें नहीं हैं। मैं अनादि हूँ अर्थात् पैदा होनेवाला नहीं हूँ और अनन्त सृष्टियाँ पैदा करके भी जैसा-का-तैसा ही रहता हूँ। इसलिये मैं 'अव्यय बीज' हूँ।

Swami Tejomayananda

।।9.16।। मैं ऋक्रतु हूँ; मैं यज्ञ हूँ; स्वधा और औषध मैं हूँ, मैं मन्त्र हूँ, घी हूँ, मैं अग्नि हूँ और हुतं अर्थात् हवन कर्म मैं हूँ।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।9.16।।प्रतिज्ञातं विज्ञानमाह -- अहं क्रतुरित्यादिना। क्रतवोऽग्निष्टोमादयः। यज्ञो देवतामुद्दिश्य द्रव्यपरित्यागः।उद्दिश्य देवान्द्रव्याणां त्यागो यज्ञ इतीरितः इत्यभिधानात्।

Sri Anandgiri

।।9.16।।भगवदेकविषयमुपासनं तर्हि न सिध्यतीति शङ्कते -- यदीति। प्रकारभेदमादाय ध्यायन्तोऽपि भगवन्तमेव ध्यायन्ति तस्य सर्वात्मकत्वादित्याह -- अत आहेति। क्रतुयज्ञशब्दयोरपौनरुक्त्यं दर्शयन् व्याचष्टे -- श्रौत इत। क्रियाकारकफलजातं भगवदतिरिक्तं नास्तीति समुदायार्थः।

Sri Vallabhacharya

।।9.16।।अन्त्यपक्षमेव ज्ञानं सिद्धं विवृणोति -- अहमिति चतुर्भिश्चतुर्विधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थम्। अत्र स्वस्य सर्वरूपत्वात्सर्वोऽहं इति वक्तव्यत्वेऽपि यत्तदेकदेशरूपेण कथनं तद्वैश्वानरद्वादशकपालादिवद्देवयुक्त्यानुवादेन। तत्पदयोजनं तु तत्तद्रूपं भजतां तेन रूपेण फलदानं वैश्वानरद्वादशकपालाष्टादशकपालादिकानां तथैव सिद्धत्वादिति तत्तद्रूपत्वं ज्ञात्वा मां भजतां मत्त एव सर्वं फलं इति बोधयितुमाह -- क्रतुरिति। क्रतुः श्रौतकर्मसु सङ्कल्पः अहं ब्रह्मैव। यज्ञः श्रौतः सोमादिरहम्। स्वधा पितृभ्यो दीयमानमन्नं नान्दीमुखादौ। औषधं व्रीह्यादिकमन्नं ब्रह्म। मन्त्रो गायत्र्यादिः? आथर्वणश्च ब्रह्मकर्मरूपोऽहं याज्यापुरोनुवाक्यादिरूपश्च। आज्यं घृतं सर्वहव्योपलक्षणमेतत्। अग्निस्त्रेतादिरूपोऽहं पञ्चाग्निविद्यासिद्धश्च। हुतं हविःप्रक्षेपोऽहं ब्रह्म। तदुपासनत्वेन ब्रह्मत्वं बोधयितुं प्रत्येकमहं शब्दः।

Sridhara Swami

।।9.16।। सर्वात्मतां प्रपञ्चयति -- अहमिति चतुर्भिः। क्रतुः श्रौतोऽग्निष्टोमादिः? यज्ञस्तु स्मार्तः पञ्चयज्ञादिः? स्वधा पित्रर्थे श्राद्धादिः? औषधमोषधिप्रभवमन्नं भेषजं वा? मन्त्रो याज्यापुरोनुवाक्यादिः? आज्यं होमादिसाधनम्? अग्निराहवनीयादिः? हुतं होमः? एतत्सर्वमहमेव।

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