Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 10 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् | हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ||९-१०||

Transliteration

mayādhyakṣeṇa prakṛtiḥ sūyate sacarācaram . hetunānena kaunteya jagadviparivartate ||9-10||

Word-by-Word Meaning

मयाby Me
अध्यक्षेणas supervisor
प्रकृतिःNature
सूयतेproduces
सचराचरम्the moving and the unmoving
हेतुनाby cause
अनेनby this
कौन्तेयO Kaunteya
जगत्the world

📖 Translation

English

9.10 Under Me as supervisor, Nature produces the moving and the unmoving; because of this, O Arjuna, the world revolves.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।9.10।। हे कौन्तेय ! मुझ अध्यक्ष के कारण ( अर्थात् मेरी अध्यक्षता में) प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है; इस कारण यह जगत् घूमता रहता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate a leadership style that empowers your team, providing strategic oversight and a supportive environment (your 'presence') without micromanaging. Understand that while your guidance enables progress, the active work and its details are performed by others, allowing you to focus on broader vision and impact.

🧘 For Stress & Anxiety

Practice 'witness consciousness' towards your thoughts and emotions, observing them without getting entangled. Recognize that life's events, like Nature, unfold; your role is often to provide a calm, steady presence to observe and navigate, rather than to constantly control every outcome, thereby reducing anxiety and burnout.

❤️ In Relationships

Approach relationships by providing a consistent, loving presence that allows others to grow and act according to their own nature. Be a supportive supervisor, not a controller. This fosters autonomy and deeper connection, understanding that your role is to enable, not dictate, their journey.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Be the detached supervisor of your life's unfolding; empower action through your enabling presence, without entanglement in its myriad details.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

9.10 मया by Me? अध्यक्षेण as supervisor? प्रकृतिः Nature? सूयते produces? सचराचरम् the moving and the unmoving? हेतुना by cause? अनेन by this? कौन्तेय O Kaunteya? जगत् the world? विपरिवर्तते revolves.Commentary The Lord presides only as a witness. Nature does everything. By reason of His proximity or presence? Nature sends forth the moving and the unmoving. The prime cause of this creation is Nature. For the movable and the immovable? and for the whole universe? the root cause is Nature itself.Although all actions are done with the help of the light of the sun? yet? the sun cannot become the doer of actions. Even so the Lord cannot become the doer of actions even though Nature does all actions with the help of the light of the Lord.As Brahman illumines Avidya (ignorance)? the material cause of this world? It is regarded as the cause of this world. The magnet is ite indifferent although it makes the iron pieces move on account of its proximity. Even so the Lord remains indifferent although He makes Nature create the world.As the Lord and the Witness? He presides over this world which consists of moving and unmoving objects the manifested and the unmanifested wheel round and round.What is the purpose of creation Why has God created this world when He has really no concern with any enjoyment whatsoever This is a transcendental estion or Atiprasna. It is therefore irrelevant to ask or to answer this estion. You cannot say that God created this world for His own enjoyment because He really does not enjoy anything. He is a mere witness only. (Cf.X.8)

Shri Purohit Swami

9.10 Under my guidance, Nature produces all things movable and immovable. Thus it is, O Arjuna, that this universe revolves.

Dr. S. Sankaranarayan

9.10. O son of Kunti ! On account of Me, Who remain (only) as an observer and as prime cause, the nature [of Mine] gives birth to [both] the moving and unmoving; hence this world moves in a circle.

Swami Adidevananda

9.10 Under My supervision, Prakrti gives birth to all mobile and immobile entities. Because of this, O Arjuna, does the world revolve.

Swami Gambirananda

9.10 Under Me as the supervisor, the Prakrti produces (the world) of the moving and the non-moving things. Owing to this reason, O son of Kunti, the world revolves.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।9.10।। वेदान्त में? अकर्म आत्मा और क्रियाशील अनात्मा के सम्बन्ध को अनेक उपमाओं के द्वारा स्पष्ट किया गया है। प्रत्येक उपमा इस संबंध रहित संबध के किसी एक पक्ष पर विशेष रूप से प्रकाश डालती है।सूर्य की किरणें जिन वस्तुओं पर पड़ती हैं? उन्हें उष्ण कर देती हैं? परन्तु बीच के उस माध्यम को नहीं? जिसमें से निकल कर वह उस वस्तु तक पहुँचती हैं। आत्मा भी अपने अनन्त वैभव में स्थित रहता है और उसके सान्निध्य से अनात्मा चेतनवत् व्यवहार करने में सक्षम हो जाता है। अनात्मा और प्रकृति पर्यायवाची शब्द हैं।किसी राजा के मन में संकल्प उठा कि आगामी माह की पूर्णिमा के दिन उसको एक विशेष तीर्थ क्षेत्र को दर्शन करने के लिए जाना चाहिये। अपने मन्त्री को अपना संकल्प बताकर राजा उस विषय को भूल जाता है। किन्तु पूर्णिमा के एक दिन पूर्व वह मन्त्री राजा के पास पहुँचकर उसे तीर्थ दर्शन का स्मरण कराता है। दूसरे दिन जब राजा राजप्रासाद के बाहर आकर यात्रा प्रारम्भ करता है? तब देखता है कि सम्पूर्ण मार्ग में उसकी प्रजा एकत्र हुई है और स्थानस्थान पर स्वागत द्वार बनाये गये हैं। राजा के इस तीर्थ दर्शन और वापसी के लिए विस्तृत व्यवस्था योजना बनाकर उसे सफलतापूर्वक और उत्साह सहित कार्यान्वित किया गया है। समस्त राजकीय अधिकारयों तथा प्रजाजनों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता और प्रयत्न को उड़ेल दिया है? जिससे राजा की तीर्थयात्रा सफल हो सके।इन समस्त उत्तेजनापूर्ण कर्मों में प्रत्येक व्यक्ति को कर्म का अधिकार और शक्ति राजा के कारण ही थी? परन्तु स्वयं राजा इन सब कार्यों में कहीं भी विद्यमान नहीं था। राजा की अनुमति प्राप्त होने से मन्त्री की आज्ञाओं का सबने निष्ठा से पालन किया। यदि केवल सामान्य नागरिक के रूप में वही मन्त्री यह प्रदर्शन आयोजित करना चाहता? तो वह कभी सफल नहीं हो सकता था। इसी प्रकार? आत्मा की सत्ता मात्र से प्रकृति कार्य क्षमता प्राप्त कर सृष्टि रचना की योजना एवं उसका कार्यान्वयन करने में समर्थ होती है।व्यष्टि की दृष्टि से विचार करने पर यह सिद्धांत और अधिक स्पष्ट हो जाता है। आत्मा केवल अपनी विद्यमानता से ही मन और बुद्धि को प्रकाशित कर उनमें स्थित वासनाओं की अभिव्यक्ति एवं पूर्ति के लिए बाह्य भौतिक जगत् और उसके अनुभव के लिए आवश्यक ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों को रचता है। मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है। यहाँ प्रकृति का अर्थ है अव्यक्त।नानाविध जगत् का यह नृत्य परिवर्तन एवं विनाश की लय के साथ आत्मा की सत्तामात्र से ही चलता रहता है। इसी कारण संसार चक्र घूमता रहता है। उपर्युक्त विचार का अन्तिम निष्कर्ष यही निकलता है कि आत्मा सदा अकर्त्ता ही रहता है। आत्मा के सान्निध्य से प्रकृति चेतनता प्राप्त कर सृष्टि का प्रक्षेपण करती है। उसकी सत्ता और चेतनता आत्मा के निमित्त से है? स्वयं की नहीं। आत्मा और अनात्मा? पुरुष और प्रकृति के मध्य यही सम्बन्ध है।स्तम्भ के ऊपर अध्यस्त प्रेत के दृष्टान्त में स्तम्भ और प्रेत के सम्बन्ध पर विचार करने से जिज्ञासु को पुरुष और प्रकृति का संबंध अधिक स्पष्टतया ज्ञात होगा।यदि? इस प्रकार? सम्पूर्ण जगत् का मूल स्वरूप नित्यमुक्त आत्मा ही है तो क्या कारण है कि समस्त जीव उसे अपने आत्मस्वरूप से नहीं जान पाते हैं इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते हैं --

Swami Ramsukhdas

।।9.10।। व्याख्या--मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्-- मेरेसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति चर-अचर, जड-चेतन आदि भौतिक सृष्टिको रचती है। जैसे बर्फका जमना, हीटरका जलना, ट्राम और रेलका आना-जाना, लिफ्टका चढ़ना-उतरना, हजारों मील दूरीपर बोले जानेवाले शब्दोंको सुनना, हजारों मील दूरीपर होनेवाले नाटक आदिको देखना, शरीरके भीतरका चित्र लेना, अल्पसमयमें ही बड़े-से-बड़ा हिसाब कर लेना, आदि-आदि कार्य विभिन्न-विभिन्न यन्त्रोंके द्वारा होते हैं। परन्तु उन सभी यन्त्रोंमें शक्ति बिजलीकी ही होती है। बिजलीकी शक्तिके बिना वे यन्त्र स्वयं काम कर ही नहीं सकते; क्योंकि उन यन्त्रोंमें बिजलीको छोड़कर कोई सामर्थ्य नहीं है। ऐसे ही संसारमें जो कुछ परिवर्तन हो रहा है अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्डोंका सर्जन, पालन और संहार, स्वर्गादि लोकोंमें और नरकोंमें पुण्य-पापके फलका भोग, तरह-तरहकी विचित्र परिस्थितियाँ और घटनाएँ, तरह-तरहकी आकृतियाँ, वेश-भूषा, स्वभाव आदि जो कुछ हो रहा है, वह सब-का-सब प्रकृतिके द्वारा ही हो रहा है; पर वास्तवमें हो रहा है भगवान्की अध्यक्षता अर्थात् सत्ता-स्फूर्तिसे ही। भगवान्की सत्ता-स्फूर्तिके बिना प्रकृति ऐसे विचित्र काम कर ही नहीं सकती; क्योंकि भगवान्को छोड़कर प्रकृतिमें ऐसी स्वतन्त्र सामर्थ्य ही नहीं है कि जिससे वह ऐसे-ऐसे काम कर सके। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे बिजलीमें सब शक्तियाँ हैं, पर वे मशीनोंके द्वारा ही प्रकट होती हैं, ऐसे ही भगवान्में अनन्त शक्तियाँ हैं, पर वे प्रकृतिके द्वारा ही प्रकट होती हैं।       भगवान् संसारकी रचना प्रकृतिको लेकर करते हैं; और प्रकृति संसारकी रचना भगवान्की अध्यक्षतामें करती है। भगवान् अध्यक्ष हैं' -- इसी हेतुसे जगत्का विविध परिवर्तन होता है -- 'हेतुनानेन जगद्विपरिवर्तते।' वह विविध परिवर्तन क्या है? जबतक प्राणियोंका प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीरोंके साथ 'मैं' और 'मेरा-पन' बना हुआ है, तबतक उनका विविध परिवर्तन होता ही रहता है अर्थात् कभी किसी लोकमें तो कभी किसी लोकमें, कभी किसी शरीरमें तो कभी किसी शरीरमें परिवर्तन होता ही रहता है। तात्पर्य हुआ कि भगवत्प्राप्तिके बिना उन प्राणियोंकी कहीं भी स्थायी स्थिति नहीं होती। वे जन्म-मरणके चक्करमें घूमते ही रहते हैं (गीता 9। 3)।      सभी प्राणी भगवान्में स्थित होनेसे भगवान्को प्राप्त हैं, पर जब वे अपनेको भगवान्में न मानकर प्रकृतिमें मान लेते हैं अर्थात् प्रकृतिके कार्यके साथ 'मैं' और 'मेरा-पन' का सम्बन्ध मान लेते हैं, तब वे प्रकृतिको प्राप्त हो जाते हैं। फिर भगवान्की अध्यक्षतामें प्रकृति उनके शरीरोंको उत्पन्न और लीन करती रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो उन प्राणियोंको उत्पन्न और लीन करनेकी शक्ति प्रकृतिमें नहीं है; क्योंकि वह जड है। यह स्वयं भी जन्मता-मरता नहीं; क्योंकि परमात्माका अंश होनेसे स्वयं अविनाशी है, चेतन है, निर्विकार है। परन्तु प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ मैं-मेरापनका सम्बन्ध जोड़कर, उनके परवश होकर इसको जन्मना-मरना पड़ता है अर्थात् नये-नये शरीर धारण करने और छोड़ने पड़ते हैं।जगत्-मात्र  की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी जो क्रिया होती है, वह सब प्रकृतिसे ही होती है, प्रकृतिमें ही होती है और प्रकृतिकी ही होती है। परन्तु उस प्रकृतिको परमात्मासे ही सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। परमात्मासे सत्ता-स्फूर्ति मिलनेपर भी परमात्मामें कर्तृत्व नहीं आता। जैसे, सूर्यके प्रकाशमें सभी प्राणी सब कर्म करते हैं और उनके कर्मोंमें विहित तथा निषिद्ध सब तरहकी क्रियाएँ होती हैं। उन कर्मोंके अनुसार ही प्राणी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंका अनुभव करते हैं अर्थात् कोई सुखी है तो कोई दुःखी है; कोई ऊँचा है तो कोई नीचा है, कोई किसी लोकमें है तो कोई किसी लोकमें है, कोई किसी वर्ण-आश्रममें है तो कोई किसी वर्ण-आश्रममें है आदि तरह-तरहका परिवर्तन होता है। परन्तु सूर्य और उसका प्रकाश ज्यों-का-त्यों ही रहता है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई अन्तर नहीं आता। ऐसे ही संसारमें विविध प्रकारका परिवर्तन हो रहा है, पर परमात्मा और उनका अंश जीवात्मा ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं। वास्तवमें अपने स्वरूपमें किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन न है, न हुआ, न होगा और न हो ही सकता है। केवल परिवर्तनशील संसारके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे अर्थात् तादात्म्य, ममता और कामना करनेसे ही संसारका परिवर्तन अपनेमें होता हुआ प्रतीत होता है। अगर प्राणी जिन भगवान्की अध्यक्षतामें सब परिवर्तन होता है, उनके साथ अपनी वास्तविक एकता मान ले (जो कि स्वतःसिद्ध है), तो भगवान्के साथ इसका जो वास्तविक प्रेम है, वह स्वतः प्रकट हो जायगा।  सम्बन्ध--जो नित्य-निरन्तर अपने-आपमें ही स्थित रहते हैं, जिसके आश्रयसे प्रकृति घूम रही है और संसारमात्रका परिवर्तन हो रहा है, ऐसे परमात्माकी तरफ दृष्टि न डालकर जो उलटे चलते हैं, उनका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।9.10।। हे कौन्तेय ! मुझ अध्यक्ष के कारण ( अर्थात् मेरी अध्यक्षता में) प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है; इस कारण यह जगत् घूमता रहता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।9.10।।उदासीनवदिति चेत्स्वयमेव प्रकृतिः सूयत इत्यत आह -- मयेति। प्रकृतिसूतिद्रष्टा कर्त्ता अहमेवेत्यर्थः। तथा च श्रुतिः यतः प्रसूता जगतः प्रसूती तोयेन जीवान्व्यससर्ज भूम्याम् [म.ना.उ.1।4] इति।

Sri Anandgiri

।।9.10।।ईश्वरे स्रष्टृत्वमौदासीन्यं च विरुद्धमिति शङ्कते -- तत्रेति। पूर्वग्रन्थः सप्तम्यर्थः। विरोधपरिहारार्थमुत्तरश्लोकमवतारयति -- तदिति। तृतीयाद्वयं समानाधिकरणमित्यभ्युपेत्य व्याचष्टे -- मयेत्यादिना। प्रकृतिशब्दार्थमाह -- ममेति। तस्या अपि ज्ञानत्वं व्यावर्तयति -- त्रिगुणेति। पराभिप्रेतं प्रधानं व्युदस्यति -- अविद्येति। साक्षित्वे प्रमाणमाह -- तथाचेति। मूर्तित्रयात्मना भेदं वारयति -- एक इति। अखण्डं जाड्यं प्रत्याह -- देव इति। आदित्यवत्ताटस्थ्यं प्रत्यादिशति -- सर्वभूतेष्विति। किमिति तर्हि सर्वैर्नोपलभ्यते तत्राह -- गूढ इति। बुद्ध्यादिवत्परिच्छिन्नत्वं व्यवच्छिनत्ति -- सर्वव्यापीति। तर्हि नभोवदनात्मत्वं नेत्याह -- सर्वभूतेति। तर्हि तत्र तत्र कर्मतत्फलसंबन्धित्वं स्यात्तत्राह -- कर्मेति। सर्वाधिष्ठानत्वमाह -- सर्वेति। सर्वेषु भूतेषु सत्तास्फूर्तिप्रदत्वेन संनिधिर्वा(सो)त्रोच्यते। न केवलं कर्मणामेवायमध्यक्षोऽपि तु तद्वतामपीत्याह -- साक्षीति। दर्शनकर्तृत्वशङ्कां शातयति -- चेतेति। अद्वितीयत्वं केवलत्वम्। धर्माधर्मादिराहित्यमाह -- निर्गुण इति। किं बहुना सर्वविशेषशून्य इति चकारार्थः। उदासीनस्यापीश्वरस्य साक्षित्वमात्रं निमित्तीकृत्य जगदेतत्पौनःपुन्येन सर्गसंहारावनुभवतीत्याह -- हेतुनेति। कार्यवत्कारणस्यापि साक्ष्यधीना प्रवृत्तिरिति वक्तुं व्यक्ताव्यक्तात्मकमित्युक्तम्। सर्वावस्थास्वित्यनेन सृष्टिस्थितिसंहारावस्था गृह्यन्ते। तथापि जगतः सर्गादिभ्यो,भिन्ना प्रवृत्तिः स्वाभाविकी नेश्वरायत्तेत्याशङ्क्याह -- दृशीति। नहि दृशा व्याप्यत्वं विना जडवर्गस्य कापि प्रवृत्तिरिति हिशब्दार्थः। तामेव प्रवृत्तिमुदाहरति -- अहमित्यादिना। भोगस्य विषयोपलम्भाभावेसंभवान्नानाविधां विषयोपलब्धिं दर्शयति -- पश्यामीति। भोगफलमिदानीं कथयति -- सुखमिति। विहितप्रतिषिद्धाचरणनिमित्तं सुखं दुःखं चेत्याह -- तदर्थमिति। नच विमर्शपूर्वकं विज्ञानं विनानुष्ठानमित्याह -- इदमिति। इत्याद्या प्रवृत्तिरिति संबन्धः। सा च प्र���ृत्तिः सर्वा दृक्कर्मत्वमुररीकृत्यैवेत्युक्तं निगमयति -- अवगतीति। तत्रैव च प्रवृत्तेरवसानमित्याह -- अवगत्यवसानेति। परस्याध्यक्षत्वमात्रेण जगच्चेष्टेत्यत्र प्रमाणमाह -- यो अस्येति। अस्य जगतो योऽध्यक्षो निर्विकारः स परमे प्रकृष्टे हार्दे व्योम्नि स्थितो दुर्विज्ञेय इत्यर्थः। ईश्वरस्य साक्षित्वमात्रेण स्रष्टृत्वे स्थिते फलितमाह -- ततश्चेति। किंनिमित्तापरस्येयं सृष्टिर्न तावद्भोगार्था परस्य परमार्थतो भोगासंबन्धित्वात्तस्य सर्वसाक्षिभूतचैतन्यमात्रत्वान्न चान्यो भोक्ता चेतनान्तराभावादीश्वरस्यैकत्वादचेतनस्याभोक्तृत्वान्न च सृष्टुरपवर्गार्था तद्विरोधित्वान्नैवं प्रश्नो वा तदनुरूपं प्रतिवचनं वा युक्तं परस्य मायानिबन्धने सर्गे तस्यानवकाशत्वादित्यर्थः। परस्यात्मनो दुर्विज्ञेयत्वे श्रुतिमुदाहरति -- को अद्धेति। तस्मिन्प्रवक्तापि संसारमण्डले नास्तीत्याह -- क इहेति। जगतः सृष्टिकर्तृत्वेन परस्य ज्ञेयत्वमाशङ्क्य कूटस्थत्वात्ततो न सृष्टिर्जातेत्याह -- कुत इति। नहीयं विविधा सृष्टिरन्यस्मादपि कस्माच्चिदुपपद्यतेऽन्यस्य वस्तुनोऽभावादित्याह -- कुत इति। कथं तर्हि सृष्टिरित्याशङ्क्याज्ञानाधीनेत्याह -- दर्शितं चेति।

Sri Vallabhacharya

।।9.10।।परं प्रकृतिरपि न स्वतः कार्यकारणक्षमाऽचेतनत्वात्? मयाऽध्यक्षेणाधिष्ठात्रा निमित्तभूतेन पुरुषरूपेण तु सहिता सा चेद्गर्भीकृतेति यावत्। सचराचरं जगत्सूयते जनयति पत्नीवत्। तत्रापि पूर्वसर्गा(कर्मा)नुगुणमात्मनां चेतनानां जन्म नित्यपरिच्छिन्नानां तद्धर्मैः समागम इति व्यपदिश्यते तदनुगुण एव सहयोगः स्वान्तस्स्थान्प्रकृतौ जनयामीति प्रवृत्तेच्छया अनेनैव हेतुना जगद्विपरिवर्त्तते विनिमितं वर्तते। विनिमयो हि द्विविधो व्यवहारश्चिदचिद्रूपः? तदात्मकमित्यैश्वरं योगं पश्येति भावः। तथा च श्रुतिः -- सच्च त्यच्चाभवत् [तै.उ.2।6।1] अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः। मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वम्। तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् [श्वे.उ.4।910] इति। एतेन स्थावरजङ्गमात्मकस्य सर्वस्य जगतो भगवदिच्छामायाजातत्वात्प्राकृतत्वं सत्यत्वं भगवत्कार्यत्वं चोक्तम्। अतएवोक्तं निबन्धेप्रपञ्चो भगवत्कार्यस्तद्रूपो माययाऽभवत् इत्यादि। मायया द्वारभूतया स्त्रीस्थानापन्नयेत्यर्थः। एतेनाचेतनायाश्चेतनाधिष्ठिततया सर्वकार्यकरणक्षमत्वसूचनेन स्वमाहात्म्यमुक्तम्।

Sridhara Swami

।।9.10।।तदेवोपपादयति -- मयेति। मयाध्यक्षेणाधिष्ठात्रा निमित्तभूतेन प्रकृतिः सचराचरं विश्वं सूयते जनयति। अनेन मदधिष्ठानेन हेतुना इदं जगद्विपरिवर्तते पुनःपुनर्जायते। संनिधिमात्रेणाधिष्ठातृत्वात्कर्तृत्वमुदासीनत्वं चाविरुद्धमिति भावः।

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