Bhagavad Gita Chapter 8 Verse 7 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च | मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः (orसंशयम्) ||८-७||

Transliteration

tasmātsarveṣu kāleṣu māmanusmara yudhya ca . mayyarpitamanobuddhirmāmevaiṣyasyasaṃśayaḥ ||8-7||

Word-by-Word Meaning

तस्मात्therefore
सर्वेषुin all
कालेषु(in) times
माम्Me
अनुस्मरremember
युध्यfight
and
मय्यर्पितमनोबुद्धिःwith mind and intellect fixed (or absorbed) in Me
माम्to Me
एवalone
एष्यसि(thou) shalt come to

📖 Translation

English

8.7 Therefore at all times remember Me only and fight. With mind and intellect fixed (or absorbed) in Me, thou shalt doubtessly come to Me alone.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।8.7।। इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Perform your work with dedication, viewing it as a service or an offering, while maintaining a higher ethical purpose and not getting consumed by the outcomes. This mindful approach to duty enhances focus and reduces work-related stress.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate a continuous inner awareness or spiritual anchor throughout your day. By regularly redirecting your mind and intellect towards a higher truth or purpose, you can navigate daily challenges with greater equanimity, reducing anxiety and maintaining mental balance.

❤️ In Relationships

Engage in your relationships with mindfulness and a sense of selfless duty (Dharma). By seeing the divine or a higher principle in your interactions, you can foster compassion, reduce ego clashes, and maintain inner stability even amidst relational complexities.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Perform your duties with unwavering focus and continuous devotion, integrating your mind and intellect with a higher purpose, to achieve ultimate peace and union.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

8.7 तस्मात् therefore? सर्वेषु in all? कालेषु (in) times? माम् Me? अनुस्मर remember? युध्य fight? च and? मय्यर्पितमनोबुद्धिः with mind and intellect fixed (or absorbed) in Me? माम् to Me? एव alone? एष्यसि (thou) shalt come to? असंशयम् doubtless.Commentary The whole mental machinery should be dedicated to the Lord. You must work with the mind and intellect devoted to Him.Fight Perform your own Dharma? the duty of a Kshatriya. It will purify your heart and you will attain to knowledge and come to Me. The term fight is Upalakshana (suggestive). It means Do your duties according to your caste and order of life. VarnashramaDharmas (the duties pertaining to the various castes and orders of life) and NityaNaimittika Karmas are the Upalakshanas (factors suggested or alluded to).The ChittaVritti which is of the form of the object meditated upon is the Bhavana. (ChittaVrittis is mental modification). The Bhavana is for those who practise Saguna Upasana. Bhavana at the time of separtion of the body is not necessary for a sage or a Jnani who has attained to the knowledge of the Self or Selfrealisation. (Cf.IX.34XII.8?11)

Shri Purohit Swami

8.7 Therefore meditate always on Me, and fight; if thy mind and thy reason be fixed on Me, to Me shalt thou surely come.

Dr. S. Sankaranarayan

8.7. Therefore at all times keep Me in the mind and also fight; then, having your mind and intellect dedicated to Me, you will doubtlessly attain Me alone.

Swami Adidevananda

8.7 Therefore, think of Me at all times and fight. There is no doubt that by dedicating your mind and intellect to Me, you will attain Me alone. 8.7 Therefore at all times remember Me only and fight. With mind and intellect fixed (or absorbed) in Me, thou shalt doubtessly come to Me alone. 8.7 Tasmat, therefore; anusmara, think of; mam, Me, in the way prescribed by the scriptures; sarvesu kalesu, at all times; and yudhya, fight, engage your-self in war, which is your own (caste) duty. Asamsayah, there is no doubt in this matter; that arpita-mano-buddhih, by dedicating your mind and intellect; mayi; to Me; esyasi, you-you who have thus dedicated our mind and intellect to Me, Vasudeva-will attain; mam eva, Me alone, as I shall be remembered. [When the Lord instructs Arjuna to think of Him, and at the same time engage in war, it may seem that He envisages a combination of Knowledge and action. But this is not so, because when one thinks of all actions, accessories and results that come within the purview of the mind and the intellect as Brahman, it is denied that actions etc. have any separate reality apart from Brahman. Therefore no combination is involved here.] Besides,

Swami Gambirananda

8.7 Therefore, think of Me at all times and fight. There is no doubt that by dedicating your mind and intellect to Me, you will attain Me alone.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।8.7।। कोई भी धर्म तब तक समाज की निरन्तर सेवा नहीं कर सकता जब तक वह धर्मानुयायी लोगों को अपना व्यावहारिक दैनिक जीवन सफलतापूर्वक जीने की विधि और साधना का उपदेश नहीं देता। यहाँ एक ऐसी साधना बतायी गयी है जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से लागू होती है। इस सरल उपदेश के पालन से न केवल रहन सहन का स्तर बल्कि सम्पूर्ण जीवन का स्तर भी उच्च किया जा सकता है।अनेक लोग हैं जिन्हें सन्देह होता है कि मन को धर्म तथा व्यावहारिक जीवन में बाँटना किसी भी क्षेत्र में वास्तविक सफलता पाने में हानिकारक है। वास्तव में यह एक अविचारपूर्ण तर्क है। बहुत ही कम अवसरों पर व्यक्ति का मन पूर्णतया उसी स्थान पर होता है जहाँ वह काम कर रहा होता है। सामान्यतः मन का एक बड़ा भाग भय के भयंकर जंगलों में या ईर्ष्या की गुफाओं में या फिर असफलता की काल्पनिक सम्भावनाओं के रेगिस्तान में सदैव भटकता रहता है। इस प्रकार मन की सम्पूर्ण शक्ति का अपव्यय करने के स्थान पर भगवान् उपदेश देते हैं कि भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सर्वोच्च लाभ पाने के इच्छुक और प्रयत्नशील पुरुष्ा को अपना मन शान्त और पावन सत्यस्वरूप में स्थिर करना चाहिए। ऐसा करने से वह अपनी सम्पूर्ण क्षमता को अपने कार्य के उपयोग में ला सकता है और इस प्रकार इह और पर दोनों ही लोकों में सर्वोच्च सम्मान का स्थान प्राप्त कर सकता है।हिन्दु धर्म में धर्म और जीवन परस्पर विलग नहीं हैं। एक दूसरे से विलग होने से दोनों ही नष्ट हो जायेंगे। वे परस्पर वैसे ही जुड़े हुए हैं जैसे मनुष्य का धड़ और मस्तक। वियुक्त होकर दोनों ही जीवित नहीं रह सकते। जीवन में आने वाली परीक्षा का घड़ियों में भी एक सच्चे साधक को चाहिए कि वह अपने मन के निरन्तर शुद्ध आत्मस्वरूप तथा विश्व के अधिष्ठान ब्रह्म में एकत्व भाव से स्थिर रखना सीखे। न तो यह कठिन है और न ही अनभ्यसनीय।रंगमंच पर राजा की भूमिका करते हुये एक अभिनेता को कभी यह विस्मृत नहीं होता कि शहर में उसकी एक पत्नी और पुत्र भी है। यदि अपनी यह पहचान भूलकर रंगमंच के बाहर भी वह राजा के समान व्यवहार करने लगे तो तत्काल ही उसे समाज के हित में किसी पागलखाने में भर्ती करा दिया जायेगा। परन्तु वह अपने वास्तविक व्यक्तित्व को जानता है इसलिए वह कुशल अभिनेता होता है। इसी प्रकार सदा अपने दिव्य स्वरूप के प्रति जागरूक रहते हुए भी हम जगत् में बिना किसी बाधा के कार्य कर सकते हैं। इस ज्ञान में स्थित होकर कर्म करने से हमारी उपलब्धियों को विशेष आभा प्राप्त होती है और उसके साथ ही जीवन में आने वाली निराशा की घड़ी में उत्पन्न होने वाली मन की प्रतिक्रियाओं को हम शान्त और मन्द करने में समर्थ बनते हैं।वास्तविक अर्थ में एक सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत पुरुष को कभी भी अपनी शिक्षा का विस्मरण नहीं होता। वह तो उसके जीवन का अंग बन जाती है। उसके आचार विचार और व्यवहार में शिक्षा की सुरभि का सतत निस्सरण होता रहता है। उसी प्रकार आत्मभाव में स्थित पुरुष के मन में सबके प्रति करुणा और प्रेम तथा कर्मों में निःस्वार्थ भाव होता है। यही वह रहस्य है जिसके कारण वैदिक सभ्यता ने अपने काल में सम्पूर्ण विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया और वह भावी पीढ़ियों के सम्मान का पात्र बनी।भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जो पुरुष केवल धर्म प्रतिपादित फल के लिए युद्ध का जीवन जीते हुए भी मेरा स्मरण करता है उसका मन और बुद्धि मुझमें ही समाहित हो जाती है। अपने विचारों के अनुसार तुम बनोगे इस सिद्धांत के अनुसार तुम मुझे निःसन्देह प्राप्त होगे।आगे कहते हैं --

Swami Ramsukhdas

।।8.7।। व्याख्या --'तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च'--यहाँ 'सर्वेषु कालेषु' पदोंका सम्बन्ध केवल स्मरणसे ही है युद्धसे नहीं क्योंकि युद्ध सब समयमें निरन्तर हो ही नहीं सकता। कोई भी क्रिया निरन्तर नहीं हो सकती प्रत्युत समयसमयपर ही हो सकती है। कारण कि प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और समाप्ति होती है -- यह बात सबके अनुभवकी है। परन्तु भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य होनेसे भगवान्का स्मरण सब समयमें होता है क्योंकि उद्देश्यकी जागृति हरदम रहती है।सब समयमें स्मरण करनेके लिये कहनेका तात्पर्य है कि प्रत्येक कार्यमें समयका विभाग होता है जैसे -- यह समय सोनेका और यह समय जगनेका है यह समय नित्यकर्मका है यह समय जीविकाके लिये कामधंधा करनेका है यह समय भोजनका है आदिआदि। परन्तु भगवान्के स्मरणमें समयका विभाग नहीं होना चाहिये। भगवान्को तो सब समयमें ही याद रखना चाहिये।,'युध्य च' कहनेका तात्पर्य है कि यहाँ अर्जुनके सामने युद्धरूप कर्तव्यकर्म है जो उनको स्वतः प्राप्त हुआ है -- 'यदृच्छया चोपपन्नम्' (गीता 2। 32)। ऐसे ही मनुष्यको कर्तव्यरूपसे जो प्राप्त हो जाय उसको भगवान्का स्मरण करते हुए करना चाहिये। परन्तु उसमें भगवान्का स्मरण मुख्य है और कर्तव्यकर्म गौण है। 'अनुस्मर' का अर्थ है कि स्मरणके पीछे स्मरण होता रहे अर्थात् निरन्तर स्मरण होता रहे। दूसरा अर्थ यह है कि भगवान् किसी भी जीवको भूलते नहीं। भगवान्ने सातवें अध्यायमें 'वेदाहम्' (7। 26) कहकर वर्तमानमें सभी जीवोंको स्वतः जाननेकी बात कही है। जब भगवान् वर्तमानमें सबको जानते हैं तब भगवान्का सम्पूर्ण जीवोंका स्मरण करना स्वाभाविक हुआ अब यह जीव भगवान्का स्मरण करे तो इसका बेड़ा पार है भगवान्के स्मरणकी जागृतिके लिये भगवान्के साथ अपनापन होना चाहिये। यह अपनापन जितना ही दृढ़ होगा उतनी ही भगवान्की स्मृति बारबार आयेगी।    'मय्यर्पितमनोबुद्धिः'-- मेरेमें मनबुद्धि अर्पित कर देनेका साधारण अर्थ होता है कि मनसे भगवान्का चिन्तन हो और बुद्धिसे परमात्माका निश्चय किया जाय। परन्तु इसका वास्तविक अर्थ है -- मन बुद्धि इन्द्रियाँ शरीर आदिको भगवान्के ही मानना कभी भूलसे भी इनको अपने न मानना। कारण कि जितने भी प्राकृत पदार्थ हैं वे सबकेसब भगवान्के ही हैं। उन प्राकृत पदार्थोंको अपना मानना ही गलती है। साधक जबतक उनको अपना मानेगा तबतक वे शुद्ध नहीं हो सकते क्योंकि उनको अपना मानना ही खास अशुद्धि है और इस अशुद्धिसे ही अनेक अशुद्धियाँ पैदा होती हैं।वास्तवमें मनुष्यका सम्बन्ध केवल प्रभुके साथ ही है। प्रकृति और प्रकृतिके कार्यके साथ मनुष्यका सम्बन्ध कभी था नहीं है नहीं और रहेगा भी नहीं। कारण कि मनुष्य साक्षात् परमात्माके सनातन अंश हैं अतः उनका प्रकृतिसे सम्बन्ध कैसे हो सकता है इसलिये साधकको चाहिये कि वह मन और बुद्धिको भगवान्के ही समझकर भगवान्के अर्पण कर दे। फिर उसको स्वाभाविक ही भगवान्की प्राप्ति हो जायगी क्योंकि प्रकृतिके कार्य शरीर मन बुद्धि आदिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही वह भगवान्से विमुख हुआ था।वे प्राकृत पदार्थ कैसे हैं -- इस विषयमें दार्शनिक मतभेद तो है पर वे हमारे नहीं हैं और हम उनके नहीं हैं -- इस वास्तविकतामें कोई मतभेद नहीं है अर्थात् इसको सभी दर्शनकार मानते हैं। इन दर्शनकारोंमें जो ईश्वरवादी हैं वे सभी उन प्राकृत पदार्थोंको ईश्वरके ही मानते हैं और दूसरे जितने दर्शनकार हैं वे उन पदार्थोंको चाहे प्रकृतिके मानें चाहे परमात्माके मानें पर दार्शनिक दृष्टिसे वे उनको अपने नहीं मान सकते। अतः साधक उन सब पदार्थोंको ईश्वरके ही मानकर ईश्वरके अर्पण कर दें तो उनका हम भगवान्के ही थे और भगवान्के ही रहेंगे ऐसा भगवान्के साथ नित्यसम्बन्ध जाग्रत् हो जायगा।    'मामेवैष्यस्यसंशयम्' -- मेरेमें मनबुद्धि अर्पण करनेवाला होनेसे तू मेरेको ही प्राप्त होगा -- इसमें कोई सन्देह नहीं है। कारण कि मैं तुझे नित्य प्राप्त हूँ। अप्राप्तिका अनुभव तो कभी प्राप्त न होनेवाले शरीर और संसारको अपना माननेसे उनके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही होता है। नित्यप्राप्त तत्त्वका कभी अभाव नहीं हुआ और न हो सकता है। अगर तू मन बुद्धि और स्वयंको मेरे अर्पण कर देगा तो तेरा मेरे साथ जो नित्यसम्बन्ध है वह प्रकट हो जायगा -- इसमें कोई सन्देह नहीं है। स्मरणसम्बन्धी विशेष बात स्मरण तीन तरहका होता है -- बोधजन्य सम्बन्धजन्य और क्रियाजन्य। बोधजन्य स्मरणका कभी अभाव नहीं होता। जबतक सम्बन्धको न छोड़ें तबतक सम्बन्धजन्य स्मरण बना रहता है। क्रियाजन्य स्मरण निरन्तर नहीं रहता। इन तीनों प्रकारके स्मरणका विस्तार इस तरह है -- (1) बोधजन्य समरण-- अपना जो होनापन है उसको याद नहीं करना पड़ता। परन्तु शरीरके साथ जो एकता मान ली है वह भूल है। बोध होनेपर वह भूल मिट जाती है फिर अपना होनापन स्वतःसिद्ध रहता है। गीतामें भगवान्के वचन हैं -- तू मैं और ये राजा लोग पहले नहीं थे यह बात भी नहीं है और भविष्यमें नहीं रहेंगे यह बात भी नहीं है (गीता 2। 12) अर्थात् निश्चित ही पहले थे और निश्चित ही पीछे रहेंगे। जो पहले सर्गमहासर्ग और प्रलयमहाप्रलयमें था वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न होहोकर नष्ट होता है (18। 19)। इसमें वही यह प्राणिसमुदाय तो परमात्माका अंश है और उत्पन्न होहोकर नष्ट होनेवाला शरीर है। अगर नष्ट होनेवाले भागका विवेकपूर्वक सर्वथा त्याग कर दें तो अपने होनेपनका स्पष्ट बोध हो,जाता है। यह बोधजन्य स्मरण नित्यनिरन्तर बना रहता है कभी नष्ट नहीं होता क्योंकि यह स्मरण अपने नित्य स्वरूपका है। (2) सम्बन्धजन्य स्मरण-- जिसको हम स्वयं मान लेते हैं वह सम्बन्धजन्य स्मरण है जैसे शरीर हमारा है संसार हमारा है आदि। यह माना हुआ सम्बन्ध तबतक नहीं मिटता जबतक हम यह हमारा नहीं है ऐसा नहीं मान लेते। परन्तु भगवान् वास्तवमें हमारे हैं हम मानें तो हमारे हैं नहीं मानें तो हमारे हैं जानें तो हमारे हैं नहीं जानें तो हमारे हैं हमारे दीखें तो हमारे हैं हमारे नहीं दीखें तो हमारे हैं। हम सब उनके अंश हैं और वे अंशी हैं। हम उनसे अलग नहीं हो सकते और वे हमसे अलग नहीं हो सकते। जबतक हम शरीरसंसारके साथ अपना सम्बन्ध मानते हैं तबतक भगवान्का यह वास्तविक सम्बन्ध नष्ट नहीं होता। जब हम शरीर और संसारके सम्बन्धका अत्यन्त अभाव स्वीकार कर लेते हैं तब भगवान्का नित्यसम्बन्ध स्वतः जाग्रत् हो जाता है। फिर भगवान्का स्मरण नित्यनिरन्तर बना रहता है। (3) क्रियाजन्य स्मरण-- क्रियाजन्य स्मरण अभ्यासजन्य होता है। जैसे स्त्रियाँ सिरपर जलका घड़ा रखकर चलती हैं तो अपने दोनों हाथोंको खुला रखती हैं और दूसरी स्त्रियोंके साथ बातें भी करती रहती हैं परन्तु सिरपर रखे घड़ेकी सावधानी निरन्तर रहती है। नट रस्सेपर चलते हुए गाता भी है बोलता भी है पर रस्सेका ध्यान निरन्तर रहता है। ड्राइवर मोटर चलाता है हाथसे गियर बदलता है हैण्डल घुमाता है और मालिकसे बातचीत भी करता है पर रास्तेका ध्यान निरन्तर रहता है। ऐसे ही सम्पूर्ण क्रियाओंमें भगवान्को निरन्तर याद रखना अभ्यासजन्य स्मरण है। इस अभ्यासजन्य स्मरणके भी तीन प्रकार हैं -- (क) संसारका कार्य करते हुए भगवान्को याद रखना -- इसमें सांसारिक कार्यकी मुख्यता और भगवान्के स्मरणकी गौणता रहती है। अतः इसमें यह भाव रहता है कि संसारका काम बिगड़े नहीं ठीक तरहसे होता रहे और साथसाथ भगवान्का स्मरण भी होता रहे। (ख) भगवान्को याद रखते हुए संसारका कार्य करना -- इसम���ं भगवान्के स्मरणकी मुख्यता और सांसारिक कार्यकी गौणता रहती है। इसमें भगवान्के स्मरणमें भूल न हो -- यह सावधानी रहती है और संसारके काममें भूल भी हो जाय तो उसकी परवाह नहीं होती। कारण कि साधकमें यह जागृति रहेगी कि संसारका काम सुधर जाय तो भी अन्तमें रहेगा नहीं और बिगड़ जाय तो भी अन्तमें रहेगा नहीं। इसलिये इसमें भगवान्के स्मरणकी भूल नहीं होती। (ग) कार्यको भगवान्का ही समझना -- इसमें कामधंधा करते हुए भी एक विलक्षण आनन्द रहता है कि,मेरा अहोभाग्य है कि मैं भगवान्का ही काम करता हूँ भगवान्की ही सेवा करता हूँ अतः इसमें भगवान्की स्मृति विशेषतासे रहती है। जैसे कोई सज्जन अपनी कन्याके विवाहकार्यके समय कन्याके लिये तरहतरहकी वस्तुएँ खरीदता है तरहतरहके कार्य करता है अनेक व्यक्तियोंको निमन्त्रण देता है परन्तु अनेक प्रकारके कार्य करते हुए भी कन्याका विवाह करना है -- यह बात उसको निरन्तर याद रहती है। कन्यामें भगवान्के समान पूज्यभावपूर्वक सम्बन्ध नहीं होता तो भी उसके विवाहके लिये कार्य करते हुए उसकी याद निरन्तर रहती है फिर भगवान्के लिये कार्य करते हुए भगवान्की पूज्यभावसहित अपनेपनकी मीठी स्मृति निरन्तर बनी रहे -- इसमें कहना ही क्या है ,भगवत्सम्बन्धी कार्य दो तरहका होता है -- (1) स्वरूपसे-- भगवान्के नामका जप और कीर्तन करना भगवान्की लीलाका श्रवण चिन्तन पठनपाठन,आदि करना -- यह स्वरूपसे भगवत्सम्बन्धी काम है। (2) भावसे--संसारका काम करते हुए भी जब सब संसार भगवान्का है तब संसारका काम भी भगवान्का ही काम हुआ। इसको भगवान्के नाते ही करना है भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही करना है। इस कामसे हमें कुछ लेना नहीं है। भगवान्ने हमें जिस वर्णमें पैदा किया है जिस आश्रममें रखा है उसमें भगवान्की आज्ञाके अनुसार उचित काम करना है -- ऐसा भाव रहनेसे वह काम सांसारिक होनेपर भी भगवान्का हो जाता है।[सातवें अध्यायके अन्तमें भगवान्ने सात बातें कही थीं उन्हीं सात बातोंपर अर्जुनने आठवें अध्यायके आरम्भमें सात प्रश्न किये और यह प्रकरण भी सात ही श्लोकोंमें समाप्त हुआ।]  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें कही हुई अभ्यासजन्य स्मृतिका अब आगेके श्लोकमें वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।8.7।। इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।8.6 -- 8.7।।स्मरन्पुरुषस्त्यजतीति भिन्नकालीनत्वेऽप्यविरोध इति मन्दमतेः शङ्का मा भूदित्यन्त इति विशेषणम् सुमतेनव शङ्कावकाशः।स्मरंस्त्यजति इत्येककालीनत्वप्रतीतेः। दुर्मतेर्दुःखान्न स्मरंस्त्यजतीति शङ्का।त्यजन्देहं न कश्चित्तु मोहमाप्नोत्यसंशयम् इति स्कान्दे। तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति [बृ.उ.4।4।2] इति हि श्रुतिः।सदा तद्भावभावितः,इत्यन्तकालस्मरणोपायमाह -- भावोऽन्तर्गतं मनः तथाभिधानात्। भावितत्वं अतिवासितत्वम्।भावना त्वतिवासना इत्यभिधानात्।

Sri Anandgiri

।।8.7।।सततभावना प्रतिनियतफलप्राप्तिनिमित्तान्त्यप्रत्ययहेतुरित्यङ्गीकृत्यानन्तरश्लोकमवतारयति -- तस्मादिति। विशेषणत्रयवतो भगवदनुस्मरणस्य भगवत्प्राप्तिहेतुत्वं तस्मादित्युच्यते। सर्वेषु कालेष्वादरनैरन्तर्याभ्यां सहेति यावत्। भगवदनुस्मरणे विशेषणत्रयसाहित्यं यथाशास्त्रमिति द्योत्यते। भगवदनुसंधानं कर्तव्यमुक्त्वा तेन सह स्वधर्ममपि कुरु युद्धमित्युपदिशता भगवता समुच्चयो ज्ञानकर्मणोरङ्गीकृतो भातीत्याशङ्क्याह -- मयीति। मनोबुद्धिगोचरं क्रियाकारकफलजातं सकलमपि ब्रह्मैवेति भावयन्युध्यस्वेति ब्रुवता क्रियादिकलापस्य ब्रह्मातिरिक्तस्याभावाभिलापान्नात्र समुच्चयो विवक्षित इत्यर्थः। उक्तरीत्या स्वधर्ममनुवर्तमानस्य प्रयोजनमाह -- मामेवेति। उक्तसाधनवशात्फलप्राप्तौ प्रतिबन्धाभावं सूचयति -- असंशय इति।

Sri Vallabhacharya

।।8.7।।यत एवं तस्मात्त्वमपि सर्वकालेषु मामनुस्मरश्रीकृष्णः शरणं मम इति। एवं योगेन स्वकर्मकरणमपि तव श्रेय इत्याह -- युद्ध्य चेति। तथा मय्यर्पितमनोबुद्धिरत्रमनोबुद्धिः इत्युक्त्या सङ्कल्पव्यवसायावपि मय्येव विधेयाविति द्योतनाय। एवं च मामेव प्राप्स्यसि नाक्षरादिकमत्र न संशयः।

Sridhara Swami

।।8.7।। तस्मादिति। यस्मात्पूर्ववासनैवान्तकाले स्मृतिहेतुः नहि तदा विवशस्य स्मरणोद्यमः संभवति तस्मात्सर्वदा मामनुस्मरानुचिन्तय। संततस्मरणं च चित्तशुद्धिं विना न भवति अतो युध्य च युध्यस्व। चित्तशुद्ध्यर्थं युद्धादिकं स्वधर्मं चानुतिष्ठेत्यर्थः। एवं मय्यर्पितं मनः संकल्पात्मकं बुद्धिश्च व्यवसायात्मिका येन त्वया स त्वं मामेव प्राप्स्यसि। असंशयः संशयोऽत्र नास्ति।

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