Bhagavad Gita Chapter 8 Verse 5 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् | यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||८-५||
Transliteration
antakāle ca māmeva smaranmuktvā kalevaram . yaḥ prayāti sa madbhāvaṃ yāti nāstyatra saṃśayaḥ ||8-5||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
8.5 And whosoever, leaving the body, goes forth remembering Me alone, at the time of death, he attains My Being: there is no doubt about this.
।।8.5।। और जो कोई पुरुष अन्तकाल में मुझे ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivate a 'north star' for your career; whether it's ethical innovation, service, or personal mastery. Consistently align your daily tasks and decisions with this ultimate purpose, ensuring that even under pressure or at critical junctures (like job changes or project conclusions), your actions reflect your highest values and long-term vision, leading to a more meaningful and impactful professional journey.
🧘 For Stress & Anxiety
When facing overwhelming stress or anxiety, consciously shift your focus from the immediate external pressures to an inner anchor—be it a spiritual belief, a personal mantra, or the simple awareness of your true self. By regularly practicing this inner remembrance, you train your mind to return to a state of calm and clarity, much like remembering a safe harbor during a storm, thereby alleviating mental distress.
❤️ In Relationships
Approach your relationships with an awareness of the deeper connection or shared humanity that binds you, rather than getting caught in superficial conflicts or expectations. In moments of tension or significant life changes within a relationship, consciously remember the core values (love, respect, compassion) you hold for the other person or for the relationship itself. This 'remembrance' helps transcend transient issues, fostering deeper understanding and enduring bonds.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The ultimate destination of your consciousness is determined by your unwavering, singular focus on the highest truth or ideal, especially at the culmination of any journey or life itself.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
8.5 No Commentary.
Shri Purohit Swami
8.5 Whosoever at the time of death thinks only of Me, and thinking thus leaves the body and goes forth, assuredly he will know Me.
Dr. S. Sankaranarayan
8.5. Whosoever, at the time of death also remembering Me alone, sets forth by abandoning his body [behind], he attains My being. There is no doubt about it.
Swami Adidevananda
8.5 And at the time of death, anyone who departs by giving up the body while thinking of Me alone, he attains My state. There is no doubt about this. 8.5 And whosoever, leaving the body, goes forth remembering Me alone, at the time of death, he attains My Being: there is no doubt about this. 8.5 Ca, and ; anta-kale, at the time of death; yah, anyone who; prayati, departs; muktva, by giving up; the kalevaram, body; smaran, while thinking; mam eva, of Me alone, who am the supreme Lord Visnu; sah, he; yati, attains; madhavam, My state, the Reality that is Vishu, Asti, there is; na, no; samsayah, doubt; atra, about this, in this regard, as to whether he attains (Me) or not. 'This rule does not apply in relation to me alone.' 'What then?'
Swami Gambirananda
8.5 And at the time of death, anyone who departs by giving up the body while thinking of Me alone, he attains My state. There is no doubt about this.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।8.5।। महर्षि व्यास वेदान्त के इस मूलभूत सिद्धांत पर बल देते हुए नहीं थकते कि कोई भी जीव किसी देह विशेष के साथ तब तक तादात्म्य किये रहता है जब तक उसे अपने इच्छित अनुभवों को प्राप्त करने में वह देह उपयोगी और आवश्यक होता है। एक बार यह प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर वह उस शरीर को सदा के लिए त्याग देता है। तत्पश्चात उस देह के प्रति न कोई कर्तव्य रहता है न सम्बन्ध और न ही कोई अभिमान। देह से विलग होने के समय जीव के मन में उस विषय के सम्बन्ध में विचार होंगे जिसके लिए वह प्रबल इच्छा या महत्वाकांक्षा रखता था चाहे वह इच्छा किसी भी जन्म में उत्पन्न हुई हो। इस प्रकार की मान्यता युक्तियुक्त है। ध्यान और भक्ति की साधना मन को एकाग्र करने की वह कला है जिसमें ध्येय विषयक एक अखण्ड वृत्ति बनाए रखी जाती है। ऐसा साधक अन्तकाल में मुझ पर ही ध्यान करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है।मरण के पूर्व की जीव की यह अन्तिम प्रबल इच्छा उसकी भावी गति को निश्चित करती है। जो जीव अपने जीवन काल में केवल अहंकार और स्वार्थ का जीवन जीता रहा हो और देह के साथ तादात्म्य करके निम्न स्तर की कामनाओं को ही पूर्ण करने में व्यस्त रहा हो ऐसा जीव वैषयिक वासनाओं से युक्त होने के कारण ऐसे ही शरीर को धारण करेगा जिसमें उसकी पाशविक प्रवृत्तियाँ अधिक से अधिक सन्तुष्ट हो सकें।इसके विपरीत जब कोई साधक स्वविवेक से कामुक जीवन की व्यर्थता को पहचानता है और इस कारण स्वयं को उन बन्धनों से मुक्त करने के लिए आतुर हो उठता है तब देह त्याग के पश्चात् वह साधक निश्चित ही विकास की उच्चतर स्थिति को प्राप्त होता है। इसी युक्तियक्त एवं बुद्धिगम्य सिद्धांत के अनुसार वेदान्त यह घोषणा करता है कि मरणासन्न पुरुष की अन्तिम इच्छा उसके भावी शरीर तथा वातावरण को निश्चित करती है।इसलिए भगवान् यहाँ कहते हैं कि अन्तकाल में आगे जो पुरुष मेरा स्मरण करता हुआ देह त्यागता है वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।यह निश्चय केवल मेरे ही विषय में नहीं है वरन् --
Swami Ramsukhdas
।।8.5।। व्याख्या--'अन्तकाले च' 'मामेव ৷৷. याति नास्त्यत्र संशयः'-- अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए जो शरीर छोड़कर जाता है -- इसका तात्पर्य हुआ कि इस मनुष्यको जीवनमें साधनभजन करके अपना उद्धार करनेका अवसर दिया था पर इसने कुछ किया ही नहीं। अब बेचारा यह मनुष्य अन्तकालमें दूसरा साधन करनेमें असमर्थ है इसलिये बस मेरेको याद कर ले तो इसको मेरी प्राप्ति हो जायगी।'मामेव स्मरन्' का तात्पर्य है कि सुनने समझने और माननेमें जो कुछ आता है वह सब मेरा समग्ररूप है। अतः जो उसको मेरा ही स्वरूप मानेगा उसको अन्तकालमें भी मेरा ही चिन्तन होगा अर्थात् उसने जब सब कुछ मेरा ही स्वरूप मान लिया तो अन्तकालमें उसको जो कुछ याद आयेगा वह मेरा ही स्वरूप होगा इसलिये वह स्मरण मेरा ही होगा। मेरा स्मरण होनेसे उसको मेरी ही प्राप्ति होगी।'मद्भावम्' कहनेका तात्पर्य है कि साधकने मेरेको जिसकिसी भिन्न अथवा अभिन्न भावसे अर्थात् सगुणनिर्गुण साकारनिराकार द्विभुजचतुर्भुज तथा नाम लीला धाम रूप आदिसे स्वीकार किया है मेरी उपासना की है अन्तसमयके स्मरणके अनुसार वह मेरे उसी भावको प्राप्त होता है। जो भगवान्की उपासना करते हैं वे तो अन्तसमयमें उपास्यका स्मरण होनेसे उसी उपास्यको अर्थात् भगवद्भावको प्राप्त होते हैं। परन्तु जो उपासना नहीं करते उनको भी अन्तसमयमें किसी कारणवशात् भगवान्के किसी नाम रूप लीला धाम आदिका स्मरण हो जाय तो वे भी उन उपासकोंकी तरह उसी भगवद्भावको प्राप्त हो जाते हैं। तात्पर्य है कि जैसे गुणोंमें स्थित रहनेवालेकी (गीता 14। 18) और अन्तकालमें जिसकिसी गुणके बढ़नेवालेकी वैसी ही गति होती है (गीता 14। 14 15) ऐसे ही जिसको अन्तमें भगवान् याद आ जाते हैं उसकी भी उपासकोंकी तरह गति होती है अर्थात् भगवान्की प्राप्ति होती है।भगवान्के सगुणनिर्गुण साकारनिराकार आदि अनेक रूपोंका और नाम लीला धाम आदिका भेद तो साधकोंकी दृष्टिसे है अन्तमें सब एक हो जाते हैं अर्थात् अन्तमें सब एक मद्भाव -- भगवद्भावको प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि भगवान्का समग्र स्वरूप एक ही है। परन्तु गुणोंके अनुसार गतिको प्राप्त होनेवाले अन्तमें एक नहीं हो सकते क्योंकि तीनों गुण (सत्त्व रज तम) अलगअलग हैं। अतः गुणोंके अनुसार उनकी गतियाँ भी अलगअलग होती हैं।भगवान्का स्मरण करके शरीर छोड़नेवालोंका तो भगवान्के साथ सम्बन्ध रहता है और गुणोंके अनुसार शरीर छोड़नेवालोंका गुणोंके साथ सम्बन्ध रहता है। इसलिये अन्तमें भगवान्का स्मरण करनेवाले भगवान्के सम्मुख हो जाते हैं अर्थात् भगवान्को प्राप्त हो जाते हैं और गुणोंसे सम्बन्ध रखनेवाले गुणोंके सम्मुख हो जाते हैं अर्थात् गुणोंके कार्य जन्ममरणको प्राप्त हो जाते हैं।भगवान्ने एक यह विशेष छूट दी हुई है कि मरणासन्न व्यक्तिके कैसे ही आचरण रहे हों कैसे ही भाव रहे हों किसी भी तरहका जीवन बीता हो पर अन्तकालमें वह भगवान्को याद कर ले तो उसका कल्याण हो जायगा। कारण कि भगवान्ने जीवका कल्याण करनेके लिये ही उसको मनुष्यशरीर दिया है और जीवने उस मनुष्यशरीरको स्वीकार किया है। अतः जीवका कल्याण हो जाय तभी भगवान्का इस जीवको मनुष्यशरीर देना और जीवका मनुष्यशरीर लेना सफल होगा। पर���्तु वह अपना उद्धार किये बिना ही आज दुनियासे विदा हो रहा है इसके लिये भगवान् कहते हैं कि भैया तेरी और मेरी दोनोंकी इज्जत रह जाय इसलिये अब जातेजाते (अन्तकालमें) भी तू मेरेको याद कर ले तो तेरा कल्याण हो जाय अतः हरेक मनुष्यके लिये सावधान होनेकी जरूरत है कि वह सब समयमें भगवान्का स्मरण करे कोई समय खाली न जाने दे क्योंकि अन्तकालका पता नहीं है कि कब आ जाय। वास्तवमें सब समय अन्तकाल ही है। यह बात तो है नहीं कि इतने वर्ष इतने महीने और इतने दिनोंके बाद मृत्यु होगी। देखनेमें तो यही आता है कि गर्भमें ही कई बालक मर जाते हैं कई जन्मते ही मर जाते हैं कई कुछ दिनोंमें महीनोंमें वर्षोंमें मर जाते हैं। इस प्रकार मरनेकी चाल हरदम चल ही रही है। अतः सब समयमें भगवान्को याद रखना चाहिये और यही समझना चाहिये कि बस यही अन्तकाल है नीतिमें यह बात आती है कि अगर धर्मका आचरण करना हो कल्याण करना हो तो मृत्युने मेरे केश पकड़े हुए हैं झटका दिया कि खत्म ऐसा विचार हरदम रहना चाहिये -- 'गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्'। भगवान्की उपर्युक्त छूटसे मनुष्यमात्रको विशेष लाभ लेना चाहिये। कहीं कोई भी व्याधिग्रस्त मरणासन्न व्यक्ति हो तो उसके इष्टके चित्र या मूर्तिको उसे दिखाना चाहिये जैसी उसकी उपासना है और जिस भगवन्नाममें उसकी रुचि हो जिसका वह जप करता हो वही भगवन्नाम उसको सुनाना चाहिये जिस स्वरूपमें उसकी श्रद्धा और विश्वास हो उसकी याद दिलानी चाहिये भगवान्की महिमाका वर्णन करना चाहिये गीताके श्लोक सुनाने चाहिये। अगर वह बेहोश हो जाय तो उसके पास भगवन्नामका जपकीर्तन करना चाहिये जिससे उस मरणासन्न व्यक्तिके सामने भगवत्सम्बन्धी वायुमण्डल बना रहे। भगवत्सम्बन्धी वायुमण्डल रहनेसे वहाँ यमराजके दूत नहीं आ सकते। अजामिलके द्वारा मृत्युके समय नारायण नामका उच्चारण करनेसे,वहाँ भगवान्के पार्षद आ गये और यमदूत भागकर यमराजके पासमें गये तो यमराजने अपने दूतोंसे कहा कि जहाँ भगवन्नामका जप कीर्तन कथा आदि होते हों वहाँ तुमलोग कभी मत जाना क्योंकि वहाँ हमारा राज्य नहीं है (टिप्पणी प0 455.1)। ऐसा कहकर यमराजने भगवान्का स्मरण करके भगवान्से क्षमा माँगी कि मेरे दूतोंके द्वारा जो अपराध हुआ है उसको आप क्षमा करें (टिप्पणी प0 455.2)। अन्तकालमें स्मरणका तात्पर्य है कि उसने भगवान्का जो स्वरूप मान रखा है उसकी याद आ जाय अर्थात् उसने पहले राम कृष्ण विष्णु शिव शक्ति गणेश सूर्य सर्वव्यापक विश्वरूप परमात्मा आदिमेंसे जिस स्वरूपको मान रखा है उस स्वरूपके नाम रूप लीला धाम गुण प्रभाव आदिकी याद आ जाय। उसकी याद करते हुए शरीरको छोड़कर जानेसे वह भगवान्को ही प्राप्त होता है। कारण कि भगवान्की याद आनेसे मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा है -- इसकी याद नहीं रहती प्रत्युत केवल भगवान्को ही याद करते हुए शरीर छूट जाता है। इसलिये उसके लिये भगवान्को प्राप्त होनेके अतिरिक्त और कोई गुंजाइश ही नहीं है। यहाँ शङ्का होती है कि जिस व्यक्तिने उम्रभरमें भजनस्मरण नहीं किया कोई साधन नहीं किया सर्वथा भगवान्से विमुख रहा उसको अन्तकालमें भगवान्का स्मरण कैसे होगा और उसका कल्याण कैसे होगा इसका समाधान है कि अन्तसमयमें उसपर भगवान्की कोई विशेष कृपा हो जाय अथवा उसको किसी सन्तके दर्शन हो जायँ तो भगवान्का स्मरण होकर उसका कल्याण हो जाता है। उसके कल्याणके लिये कोई साधक उसको भगवान्का नाम लीला चरित्र सुनाये पद गाये तो भगवान्का स्मरण होनेसे उसका कल्याण हो जाता है। अगर मरणासन्न व्यक्तिको गीतामें रुचि हो तो उसको गीताका आठवाँ अध्याय सुनाना चाहिये क्योंकि इस अध्यायमें जीवकी सद्गतिका विशेषतासे वर्णन आया है। इसको सुननेसे उसको भगवान्की स्मृति हो जाती है। कारण कि वास्तवमें परमात्माका ही अंश होनेसे उसका परमात्माके साथ स्वतः सम्बन्ध है ही। अगर अयोध्या मथुरा हरिद्वार काशी आदि किसी तीर्थस्थलमें उसके प्राण छूट जायँ तो उस तीर्थके प्रभावसे उसको भगवान्की स्मृति हो जायगी (टिप्पणी प0 456.1)। ऐसे ही जिस जगह भगवान्के नामका जप कीर्तन कथा सत्संग आदि होता है उस जगह उसकी मृत्यु हो जाय तो वहाँके पवित्र वायुमण्डलके प्रभावसे उसको भगवान्की स्मृति हो सकती है। अन्तकालमें कोई भयंकर स्थिति आनेसे भयभीत होनेपर भी भगवान्की याद आ सकती है। शरीर छूटते समय शरीर कुटुम्ब रुपये आदिकी आशाममता छूट जाय और यह भाव हो जाय कि हे नाथ आपके बिना मेरा कोई नहीं है केवल आप ही मेरे हैं तो भगवान्की स्मृति होनेसे कल्याण हो जाता है। ऐसे ही किसी कारणसे अचानक अपने कल्याणका भाव बन जाय तो भी कल्याण हो सकता है (टिप्पणी प0 456.2)। ऐसे ही कोई साधक किसी प्राणी जीवजन्तुके मृत्युसमयमें उसका कल्याण हो जाय इस भावसे उसको भगवन्नाम सुनाता है तो उस भगवन्नामके प्रभावसे उस प्राणीका कल्याण हो जाता है। शास्त्रोंमें तो सन्तमहापुरुषोंके प्रभावकी विचित्र बातें आती हैं कि यदि सन्तमहापुरुष किसी मरणासन्न व्यक्तिको देख लें अथवा उसके मृत शरीर(मुर्दे) को देख लें अथवा उसकी चिताके धुएँको देख लें अथवा चिताकी भस्मको देख लें तो भी उस जीवका कल्याण हो जाता है (टिप्पणी प0 456.3)मार्मिक बातइस अध्यायके तीसरेचौथे श्लोकोंमें ब्रह्म अध्यात्म आदि जिन छः बातोंका वर्णन किया गया है उसका तात्पर्य समग्ररूपसे है और समग्ररूपका तात्पर्य है-- 'वासुदेवः सर्वम्' अर्थात् सब कुछ वासुदेव ही है। जिसको समग्ररूपका ज्ञान हो गया है उसके लिये अन्तकालके स्मरणकी बात ही नहीं की जा सकती। कारण कि जिसकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता न होकर सब कुछ वासुदेव ही है उसके लिये अन्तकालमें भगवान्का चिन्तन करें यह कहना ही नहीं बनता। जैसे सामान्य मनुष्यको मैं हूँ इस अपने होनेपनका किञ्चिन्मात्र भी स्मरण नहीं करना पड़ता ऐसे ही उस महापुरुषको भगवान्का स्मरण नहीं करना पड़ता प्रत्युत उसको जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति आदि अवस्थाओंमें भगवान्के होनेपनका स्वाभाविक अटल ज्ञान,रहता है।पवित्रसेपवित्र अथवा अपवित्रसेअपवित्र किसी भी देशमें उत्तरायणदक्षिणायन शुक्लपक्षकृष्णपक्ष दिनरात्रि प्रातःसायं आदि किसी भी कालमें जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति मूर्च्छा रुग्णता नीरोगता आदि किसी भी अवस्थामें और पवित्र अथवा अपवित्र कोई भी वस्तु व्यक्ति पदार्थ आदि सामने होनेपर भी उस महापुरुषके कल्याणमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता उपर्युक्त महापुरुषोंके सिवाय परमात्माकी उपासना करनेवाले जितने भी साधक हैं वे चाहे साकारके उपासक हों अथवा निराकारके उपासक हों चाहे सगुणके उपासक हों अथवा निर्गुणके उपासक हों चाहे राम कृष्ण आदि अवतारोंके उपासक हों भगवान्के किसी भी नाम रूप लीला धाम आदिकी श्रद्धाप्रेमपूर्वक उपासना करनेवाले क्यों न हों उन सबको अपनीअपनी रुचिके अनुसार अन्तसमयमें भगवान्के किसी भी स्वरूप नाम आदिका स्मरण हो जाय तो वह भगवान्का ही स्मरण है।साधकोंके सिवाय जिन मनुष्योंमें भगवान् हैं ऐसा सामान्य आस्तिकभाव है और वे किसी उपासनाविशेषमें नहीं लगे हैं उनको भी अन्तसमयमें कई कारणोंसे भगवान्का स्मरण हो सकता है। जैसे जीवनमें उसने सुना हुआ है कि दुःखीके दुःखको भगवान् मिटाते हैं इस संस्कारसे अन्तसमयकी पीड़ा(दुःख) के समय भगवान्की याद आ सकती है। अन्तसमयमें अगर यमदूत दिखायी दे जायँ तो भयके कारण भगवान्का स्मरण हो सकता है। कोई सज्जन उसके सामने भगवान्का चित्र रख दे -- उसको दिखा दे उसको भगवन्नाम सुना दे भगवान्की लीलाकथी सुना दे भक्तोंके चरित्र सुना दे उसके सामने कीर्तन करने लग जाय तो उसको भगवान्की याद आ जायगी। इस प्रकार किसी भी कारणसे भगवान्की तरफ वृत्त��� होनेसे वह स्मरण भगवान्का ही स्मरण है।ऐसे साधक और सामान्य मनुष्योंके लिये ही अन्तकालमें भगवत्स्मरणकी बात कही जाती है तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंके लिये नहीं। सम्बन्ध --अन्तकालमें जो मेरा स्मरण करते हैं वे तो मेरेको ही प्राप्त होते हैं पर जो मेरा स्मरण न करके अन्य किसीका स्मरण करते हैं वे किसको प्राप्त होते हैं -- इसे भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।8.5।। और जो कोई पुरुष अन्तकाल में मुझे ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।8.5।।मद्भावं मयि सत्तां निर्दुःखनिरतिशयानन्दात्मिकाम्। तच्चोक्तम् -- मुक्तानां च (तु) गतिर्ब्रह्म क्षेत्रज्ञ इति कल्पितः [म.भा.5।334।41] इति मोक्षधर्मे।
Sri Anandgiri
।।8.5।।यत्तु प्रयाणकाले चेत्यादि चोदितं तत्राह -- अन्तकाले चेति। मामेवेत्यवधारणेनाध्यात्मादिविशिष्टत्वेन स्मरणं व्यावर्त्यते। विशिष्टस्मरणे हि चित्तविक्षेपान्न प्रधानस्मरणमपि स्यात्। नच मरणकाले कार्यकरणपारवश्याद्भगवदनुस्मरणासिद्धिः। सर्वदैव नैरन्तर्येणादरधिया भगवति समर्पितचेतसस्तत्कालेऽपि कार्यकरणजातमगणयतो भगवदनुसंधानसिद्धेः। शरीरे तस्मिन्नहंममाभिमानाभावादिति यावत्। प्रयातीत्यत्र प्रकृतशरीरमपादानम्।ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इत्यादिश्रुतिमाश्रित्याह -- नास्तीति। व्यासेध्यं संशयमेवाभिनयति -- याति वेति।
Sri Vallabhacharya
।।8.5।।प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि इत्यस्योत्तरमाह -- अन्तकाल इति। एवकारोऽन्यव्यवच्छेदार्थकः। मन्त्रोपासनाद्यस्पृष्टं पूर्णानन्दं मां लीलापुरुषोत्तममेव स्मरन् यो भक्तिमान् योगी प्रयाति प्रयाणं करोति स मद्भावं यातीति नास्त्यत्र संशयः।
Sridhara Swami
।।8.5।। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसीत्यनेन पृष्टमन्तकालज्ञानोपायं तत्फलं च दर्शयति -- अन्तकाल इति। मामेवोक्तलक्षणमन्तर्यामिरूपं परमेश्वरं स्मरन्देहं त्यक्त्वा यः प्रकर्षेणार्चिरादिमार्गेण याति स मद्भावं मद्रूपतां याति। अत्र च संशयो नास्ति। स्मरणं ज्ञानोपायो मद्भावापत्तिश्च फलमित्यर्थः।