Bhagavad Gita Chapter 8 Verse 22 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया | यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ||८-२२||

Transliteration

puruṣaḥ sa paraḥ pārtha bhaktyā labhyastvananyayā . yasyāntaḥsthāni bhūtāni yena sarvamidaṃ tatam ||8-22||

Word-by-Word Meaning

पुरुषःPurusha
सःthat
परःhighest
पार्थO Partha
भक्त्याby devotion
लभ्यःis attainable
तुverily
अनन्ययाwithout another object (unswerving)
यस्यof whom
अन्तःस्थानिdwelling within
भूतानिbeings
येनby whom
सर्वम्all
इदम्this
ततम्pervaded.Commentary All the beings (effects) dwell within the Purusha (the Supreme Person

📖 Translation

English

8.22 That highest Purusha, O Arjuna, is attainable by unswerving devotion to Him alone within Whom all beings dwell and by Whom all this is pervaded.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।8.22।। हे पार्थ ! जिस (परमात्मा) के अन्तर्गत समस्त भूत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण (जगत्) व्याप्त है, वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate 'ananya bhakti' as unswerving dedication to your professional purpose, understanding your work's interconnectedness within the larger system. This fosters deep engagement and excellence, seeing your role as contributing to a greater whole rather than just personal gain.

🧘 For Stress & Anxiety

Find peace and mental calm by surrendering anxieties to a higher, all-pervading consciousness. The realization that you are part of an infinitely vast and ordered reality can diminish personal burdens, foster a sense of belonging, and bring equanimity amidst life's challenges.

❤️ In Relationships

Practice 'ananya bhakti' by fostering unconditional love, loyalty, and deep respect for others, recognizing the inherent divine essence (Purusha) within every individual. This promotes profound empathy, harmonious connections, and selfless giving, viewing relationships as opportunities for spiritual growth and unity.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Attain ultimate truth and unity by directing your complete, unswerving devotion towards the all-pervading Divine that dwells within and encompasses everything.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

8.22 पुरुषः Purusha? सः that? परः highest? पार्थ O Partha? भक्त्या by devotion? लभ्यः is attainable? तु verily? अनन्यया without another object (unswerving)? यस्य of whom? अन्तःस्थानि dwelling within? भूतानि beings? येन by whom? सर्वम् all? इदम् this? ततम् pervaded.Commentary All the beings (effects) dwell within the Purusha (the Supreme Person? the cause) because every effect rests within its cause. Just as the effect? pot? rests within its cause? the clay? so also all beings and the worlds rest within their cause? the Purusha. Therefore the whole world is pervaded by the Purusha.Sri Sankara explains exclusive devotion as Jnana or knowledge of the Self.Purusha is so called because everything is filled by It (derived from the Sanskrit root pur which means to fill) or because It rests in the body of all (derived from the Sanskrit root pur). None is higher than It and so It is the Supreme Person. (Cf.IX.4XI.38XV.6and7)

Shri Purohit Swami

8.22 O Arjuna! That Highest God, in Whom all beings abide, and Who pervades the entire universe, is reached only by wholehearted devotion. [The following material (between the asterisks) is an example of what may be a "doctored' inclusion. It does not jibe with the rest of the material because it is not presented as metaphor and clearly implies that worldly phenomena are spiritually determining. Maybe it was added by an individual or individuals who were less cognizant than the originating author. Or maybe was 'craftily' inserted to function as a sort of litmus test - those who get"taken in' by it may be recognized as not having "spiritual discernment'.]

Dr. S. Sankaranarayan

8.22. The Supreme Soul. O son of Prtha, is attainable through devotion that admits no other things; having attained Which Soul, the men of Yoga do not get birth again; within Which exist the beings; and in Which everything is well established, O Arjuna !

Swami Adidevananda

8.22 O son of Prtha, that supreme Person-in whom are included (all) the beings and by whom all this is pervaded-is, indeed, reached through one-pointed devotion. 8.22 That highest Purusha, O Arjuna, is attainable by unswerving devotion to Him alone within Whom all beings dwell and by Whom all this is pervaded. 8.22 O son of Prtha, sah, that; parah purusah, supreme, unsurpassable Person-(the word purusa) derived in the sense of 'residing in the heart' or 'all-pervasiveness'; that Person, compared to whom there is nothing superior-; yasya, in whom, in which Person; antahsthani, are included; bhutani, (all) the beings which are Its products-for a product remains inherent in its cause; and yena, by whom, by which Person; tatam, is pervaded; sarvam, all; idam, this, the Universe, as pot etc. are by space; is tu, indeed; labhyah, reached; through ananyaya, one-pointed; bhaktya, through devotion, characterized as Knowledge; ananyaya, which is one pointed, which relates to the Self. The Northern Path meant for the attainment of Braman by the yogis under discussion, who have superimposed the idea of Brahman on the syllable Om and who are destined to get Liberation in due course, has to be stated. Hence, in order to present the intended idea the verse, '(O best of the Bharata dynasty) of that time৷৷.at which,' etc. is being recited. The description of the Path of Return (in verse 25) is by way of praising the other Path (of Departure, in verse 24):

Swami Gambirananda

8.22 O son of Prtha, that supreme Person-in whom are included (all) the beings and by whom all this is pervaded-is, indeed, reached through one-pointed devotion.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।8.22।। हिन्दुओं के उपदेष्टा भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ उस साधन मार्ग को बताते हैं जिसके द्वारा उस परम पुरुष को प्राप्त किया जा सकता है जिसे अव्यक्त अक्षर कहा गया था। वह साधन मार्ग है अनन्य भक्ति। परम पुरुष से भक्ति (निष्काम परम प्रेम) तभी वास्तविक और पूर्ण हो सकती है जब साधक भक्त स्वयं को शरीर मन और बुद्धि द्वारा अनुभूयमान जगत् से विरत और वियुक्त करना सीख लेता है। नित्य पारमार्थिक सत्य से प्रेम ही वह साधन है जिसके द्वारा मिथ्या वस्तु से वैराग्य होता है। प्रखर जिज्ञासा से अनुप्राणित हुई आत्मतत्त्व की खोज और फिर उसके साथ एकत्त्व की यह अनुभूति कि यह आत्मा मैं हूँ अनन्य भक्ति है जिसके विषय में यहाँ बताया गया है।ध्यानावस्थित मन के द्वारा जिस आत्मा की अनुभूति स्वस्वरूप के रूप में होती है उसे कोई परिच्छिन्न चेतन तत्त्व नहीं समझना चाहिए जो केवल एक व्यष्टि उपाधि में ही स्थित उसे चेतनता प्रदान कर रहा हो। यद्यपि आत्मा की खोज और अनुभव साधक अपने हृदय में करता है तथापि उसका ज्ञान यह होता है कि यह चैतन्य आत्मा सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान है। इस हृदयस्थ आत्मा का जगदधिष्ठान सत्य ब्रह्म के साथ एकता का निर्देश भगवान् श्रीकृष्ण इस वाक्य में देते हैं कि जिसमें भूतमात्र स्थित है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है वह पुरुष है।मिट्टी के बने सभी घट मिट्टी में ही स्थित होते हैं और उनके नाम रूपरंग और आकार विविध होते हुए भी एक ही मिट्टी उन सबमें व्याप्त होती है। सभी लहरें तरंगें फेन आदि समुद्र में ही स्थित होते हैं और समुद्र उन्हें व्याप्त किये रहता है। घटों के अन्तर्बाह्य उनका उपादान कारण (मूल स्वरूप) मिट्टी और लहरों में समुद्र होता है।शुद्ध चैतन्य स्वरूप ही वह सनातन सत्य है जिसमें अव्यक्त सृष्टि व्यक्त होती है। किसी वस्त्र पर धागे से बनाये गये चित्र का अधिष्ठान कपास है जिसके बिना वह चित्र नहीं बन सकता था। शुद्ध चैतन्य तत्त्व वासनाओं के विविध सांचों में ढलकर अविद्या से स्थूल रूप को प्राप्त होकर असंख्य नामरूपमय जगत् के रूप में प्रतीत होता है। तत्पश्चात् सर्वत्र सब लोग विषयों को देखकर आकर्षित होते हैं उनकी कामना करते हैं उन्हें प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं। जो पुरुष आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर लेता है वह यह समझ लेता है कि इस नानाविध सृष्टि का एक ही अधिष्ठान है जिसके अज्ञान से ही इस जगत् का प्रत्यक्ष हो रहा है। जीव अज्ञान के वश इसे ही सत्य समझ कर संसार के मिथ्या दुःखों से पीड़ित रहता है व्यक्त से अव्यक्त को लौटने के दो विभिन्न मार्गों को बताने के पश्चात् अब भगवान् अगले प्रकरण में साधकों द्वारा प्राप्त किये जा सकने वाले दो विभिन्न लक्ष्यों के भिन्नभिन्न मार्गों का वर्णन करते हैं। कोई साधक उस लक्ष्य को प्राप्त होते हैं जहाँ से संसार का पुनरावर्तन होता है तथा अन्य लक्ष्य वह है जिसे प्राप्त कर पुनः संसार को नहीं लौटना पड़ता।वे दो मार्ग कौन से हैं भगवान् कहते हैं --

Swami Ramsukhdas

।।8.22।। व्याख्या--'यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्'--सातवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान्ने निषेधरूपसे कहा कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं, पर मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं। यहाँ भगवान् विधिरूपसे कहते हैं कि परमात्माके अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी हैं और परमात्मा सम्पूर्ण संसारमें परिपूर्ण हैं। इसीको भगवान्ने नवें अध्यायके चौथे, पाँचवें और छठे श्लोकमें विधि और निषेध--दोनों रूपोंसे कहा है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरे सिवाय किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सब मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं; मेरेमें ही स्थित रहते हैं और मेरेमें ही लीन होते हैं, अतः सब कुछ मैं ही हुआ।वे परमात्मा सर्वोपरि होनेपर भी सबमें व्याप्त हैं अर्थात् वे परमात्मा सब जगह हैं; सब समयमें हैं; सम्पूर्ण वस्तुओंमें हैं, सम्पूर्ण क्रियाओंमें हैं और सम्पूर्ण प्राणियोंमें हैं। जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंमें पहले भी सोना ही था, गहनारूप बननेपर भी सोना ही रहा और गहनोंके नष���ट होनेपर भी सोना ही रहेगा। परन्तु सोनेसे बने गहनोंके नाम, रूप, आकृति, उपयोग, तौल मूल्य आदिपर दृष्टि रहनेसे सोनेकी तरफ दृष्टि नहीं जाती। ऐसे ही संसारके पहले भी परमात्मा थे, संसाररूपसे भी परमात्मा ही हैं और संसारका अन्त होनेपर भी परमात्मा ही रहेंगे। परन्तु संसारको पाञ्चभौतिक, ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा, अनुकूल-प्रतिकूल आदि मान लेनेसे परमात्माकी तरफ दृष्टि नहीं जाती।      'पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया' -- पूर्वश्लोकमें जिसको अव्यक्त, अक्षर, परमगति आदि नामोंसे कहा गया है, उसीको यहाँ पुरुषः स परः कहा गया है। ऐसा वह परम पुरुष परमात्मा अनन्यभक्तिसे प्राप्त होता है।परमात्माके सिवाय प्रकृतिका यावन्मात्र कार्य 'अन्य' कहा जाता है। जो उस 'अन्य' की स्वतन्त्र सत्ता मानकर उसको आदर देता है महत्त्व देता है, उसकी अनन्य भक्ति नहीं है। इससे परमात्माकी प्राप्तिमें देरी लगती है। अगर वह परमात्माके सिवाय किसीकी भी सत्ता और महत्ता न माने तथा भगवान्के नाते, भगवान्की प्रसन्नताके लिये प्रत्येक क्रिया करे, तो यह उसकी अनन्यभक्ति है। इसी अनन्य-भक्तिसे वह परम पुरुष परमात्माको प्राप्त हो जाता है।       परमात्माके सिवाय किसीकी भी सत्ता और महत्ता न माने--यह बात भी प्रकृति और प्रकृतिके कार्य संसारको सत्ता देकर ही कही जाती है। कारण कि मनुष्यके हृदयमें 'एक परमात्मा है और एक संसार है' -- यह बात जँची हुई है। वास्तवमें तो सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिके रूपमें एक परमात्मतत्त्व ही है। जैसे बर्फ, ओला, बादल, बूँदें, कोहरा, ओस, नदी, तालाब, समुद्र आदिके रूपमें एक जल ही है, ऐसे ही स्थूल, सूक्ष्म और कारण-रूपसे जो कुछ संसार दीखता है, वह सब केवल परमात्म-तत्त्व ही है। भक्तकी मान्यतामें एक परमात्माके सिवाय अन्य कुछ रहता ही नहीं, इसलिये उसकी खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना आदि सभी क्रियाएँ केवल उस परमात्माकी पूजाके रूपमें ही होती हैं ( गीता 18। 46)। विशेष बात आप अन्तकालमें कैसे जाननेमें आते हैं? (8। 2) -- यह अर्जुनका प्रश्न बड़ा ही भावपूर्ण मालूम देता है। कारण कि भगवान्को सामने देखते हुए भी अर्जुनमें भगवान्की विलक्षणताको जाननेकी उत्कण्ठा पैदा हो गयी। उत्तरमें भगवान्ने अन्तकालमें अपने चिन्तनकी और सामान्य कानूनकी बात बताकर अर्जुनको सब समयमें भगवच्चिन्तन करनेकी आज्ञा दी। उसके बाद आठवें श्लोकसे सोलहवें श्लोकतक सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकारकी प्राप्तिके लिये क्रमशः तीन-तीन श्लोक कहे। उनमें भी सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकारकी प्राप्तिमें (प्राणोंको रोकनेकी बात साथमें होनेसे) कठिनता बतायी; और सगुण-साकारकी उपासनामें भगवान्का आश्रय लेकर उनका चिन्तन करनेकी बात होनेसे सगुण-साकारकी प्राप्तिमें बहुत सुगमता बतायी।       सोलहवें श्लोकके बाद सगुण-साकार स्वरूपकी विशेष महिमा बतानेके लिये भगवान्ने छः श्लोक कहे। उनमें भी पहलेके तीन श्लोकोंमें ब्रह्माजीकी और उनके ब्रह्मलोककी अवधि बतायी और आगेके तीन श्लोकोंमें ब्रह्माजी और उनके ब्रह्मलोकसे अपनी और अपने लोककी विलक्षणता बतायी। तात्पर्य है कि ब्रह्माजीके सूक्ष्म-शरीर (प्रकृति) से भी मेरा स्वरूप विलक्षण है। उपासनाओंकी जितनी गतियाँ हैं, वे सब मेरे स्वरूपके अन्तर्गत आ जाती हैं। ऐसा वह मेरा सर्वोपरि स्वरूप केवल मेरे परायण होनेसे अर्थात् अनन्यभक्तिसे प्राप्त हो जाता है। मेरा स्वरूप प्राप्त होनेपर फिर साधककी न तो अन्य स्वरूपोंकी तरफ वृत्ति जाती है और न उनकी आवश्यकता ही रहती है। उसकी वृत्ति केवल मेरे स्वरूपकी तरफ ही रहती है।इस प्रकार ब्रह्माजीके लोकसे मेरा लोक विलक्षण है ब्रह्माजीके स्वरूपसे मेरा स्वरूप विलक्षण है और ब्रह्मलोककी गतिसे मेरे लोक-(धाम-) की गति विलक्षण है। तात्पर्य है कि सब प्राणियोंका अन्तिम ध्येय मैं ही हूँ और सब मेरे ही अन्तर्गत हैं।  सम्बन्ध--सोलहवें श्लोकमें भगवान्ने बताया कि ब्रह्मलोकतकको प्राप्त होनेवाले लौटकर आते हैं और मेरेको प्राप्त होनेवाले लौटकर नहीं आते। परंतु किस मार्गसे जानेवाले लौटकर नहीं आते और किस मार्गसे जानेवाले लौटकर आते हैं? यह बताना बाकी रह गया। अतः उन दोनों मार्गोंका वर्णन करनेके लिये भगवान् आगेके श्लोकमें उपक्रम करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।8.22।। हे पार्थ ! जिस (परमात्मा) के अन्तर्गत समस्त भूत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण (जगत्) व्याप्त है, वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।8.22।।परमसाधनमाह -- पुरुष इति।

Sri Anandgiri

।।8.22।।नन्वव्यक्तादतिरिक्तस्य तद्विलक्षणस्य परमपुरुषस्य प्राप्तौ कश्चिदसाधारणो हेतुरेषितव्यो यस्मिन्प्रेक्षापूर्वकारी तत्प्रेक्षया प्रवृत्तो निर्वृणोति तत्राह -- तल्लब्धेरिति। परस्य पुरुषस्य सर्वकारणत्वं सर्वव्यापकत्वं च विशेषणद्वयमुदाहरति -- यस्येति। निरतिशयत्वं विशदयति -- यस्मादिति। तुशब्दोऽवधारणार्थः। भक्तिर्भजनम् सेवा प्रदक्षिणप्रणामादिलक्षणा तां व्यावर्तयति -- ज्ञानेति। उक्ताया भक्तेर्विषयतो वैशिष्ट्यमाह -- अनन्ययेति। कोऽसौ पुरुषो यद्विषया भक्तिस्तत्प्राप्तौ पर्याप्तेत्याशङ्क्योत्तरार्धं व्याचष्टे -- यस्येति। कथंभूतानां तदन्तःस्थत्वं तत्राह -- कार्यं हीति।स पर्यगात् इति श्रुतिमाश्रित्याह -- येनेति।

Sri Vallabhacharya

।।8.22।।पुरुषः स पर इति। अनेनाक्षरात्परस्य स्वस्य पूर्णानन्दस्य निर्हेतुकभक्तिलभ्यत्वमुक्तम्। तेन न ज्ञानमार्गीयाणां पुरुषोत्तमप्राप्तिरिति सिद्धम्। परस्य लक्षणमाह -- यस्यान्तस्स्थानि भूतानि इति साक्षराणि। एतच्च स्पष्टं मृद्भक्षणप्रसङ्गेश्रीगोकुलेश्वरेयेन सर्वमिदं ततं [18।46] इति माहात्म्यं परिच्छिन्नमेव व्यापकमिति दामोदरलीलायां इदं सर्वंअक्षरधियां त्ववरोधः सामान्यतद्भावाभ्यामौपसदवत्तदुक्तं इत्यादिसूत्रभाष्ये [ब्र.सू.3।3।33] प्रपञ्चितम्। यत्तु (रामानुजाचार्यैः) कैश्चिदुक्तंभूम्यादिप्रकृतिर्जीवभूता च भगवतो धाम इति तद्युक्तमुक्तम्। तस्माज्जीवभूतस्य च तद्धामत्वं श्रूयतेऽपि यस्य पृथिवी शरीरं [बृ.उ.3।7।3] यस्यात्मा शरीरं [श.ब्रा.14।6।5।5] इति। न त्वक्षरत्वं तदा(सदा)जीवभूतस्य सम्भवति ज्ञानोत्तरं तत्त्वसिद्धेः। तस्माज्जीवातीतः सर्वकारणकारणभूतोऽक्षरोऽपि पृथगित्यवोचाम। यत उक्तं भागवते तृतीये [3941]आण्डकोशो बहिरयं पञ्चाशत्कोटिविस्तृतः। दशोत्तराधिकैर्यत्र प्रविष्टः परमाणुवत्। लक्ष्यतेऽन्तर्गताश्चान्ये कोटिशो ह्यण्डराशयः। तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम्। विष्णोर्धाम परं साक्षात् पुरुषस्य महात्मनः।। इति तस्याक्षरस्यांशः पुरुषस्तु समष्टिव्यष्ट्यभिमानी वैराजः स जीवलोके जीवभूत इति व्यपदिश्यते। पुरुषोत्तमस्तु एतत्ित्रयान्य इति स्वयमेव वक्ष्यति। स च सर्वसाधनफलात्मजीवलोकोत्तरसानन्दस्वरूपो नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन [कठो.2।22] किन्तु यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः [कठो.2।22] इति श्रुतेः स्वानुगृहीतभक्तिलभ्य इति प्रतिभाति। तथैवाग्रे प्रदर्शयिष्यामः।

Sridhara Swami

।।8.22।। तत्प्राप्तौ च भक्तिरन्तरङ्गोपाय इत्युक्तमेवाह -- पुरुष इति। स चाहं परः पुरुषोऽनन्यया न विद्यते अन्यः शरणत्वेन यस्यास्तया एकान्तभक्त्यैव लभ्यो नान्यथा। परत्वमेवाह। यस्य कारणभूतस्यान्तर्मध्ये भूतानि स्थितानि। येन च कारणभूतेन सर्वमिदं जगत्ततं व्याप्तम्।

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