Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 25 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः | मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ||७-२५||
Transliteration
nāhaṃ prakāśaḥ sarvasya yogamāyāsamāvṛtaḥ . mūḍho.ayaṃ nābhijānāti loko māmajamavyayam ||7-25||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
7.25 I am not manifest to all (as I am) veiled by the Yoga-Maya. This deluded world does not know Me, the unborn and imperishable.
।।7.25।। अपनी योगमाया से आवृत्त मैं सबको प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ। यह मोहित लोक (मनुष्य) मुझ जन्मरहित, अविनाशी को नहीं जानता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Recognize that true success or fulfillment in work isn't always what's visible on the surface (e.g., job title, salary). Look beyond immediate metrics and superficial appearances to discern the deeper purpose, impact, or lasting value you're creating. Don't expect everyone to understand your long-term vision; some will remain 'deluded' by the transient aspects of the professional world.
🧘 For Stress & Anxiety
Many stressors arise from being 'veiled' by immediate circumstances or external perceptions. Understand that your true self (the 'unborn and imperishable') is not defined by temporary setbacks, failures, or the opinions of others. Practice stepping back to see beyond the 'illusion' of a problem's overwhelming nature, focusing on your inherent resilience and unchanging core, rather than being swept away by fleeting anxieties.
❤️ In Relationships
Avoid judging others or relationships solely on superficial actions, initial impressions, or external circumstances. People's true nature and intentions can be 'veiled' by their fears, past experiences, or current emotional states. Cultivate the ability to see beyond these 'illusions' to connect with the deeper, more enduring essence of individuals, fostering greater empathy and understanding.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True reality is veiled by illusion; awaken your perception to know the unborn and imperishable.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
7.25 न not? अहम् I? प्रकाशः manifest? सर्वस्य of all? योगमायासमावृतः veiled by YogaMaya? मूढः deluded? अयम् this? न not? अभिजानाति knows? लोकः world? माम् Me? अजम् unborn? अव्ययम् imperishable.Commentary I am not manifest to all the people? but I am certainly manifest to the chosen few who are My devotees? who have taken sole refuge in Me alone. I am not visible to those who are deluded by the three Gunas and the pairs of opposites? and who are screened off by this universe which is a manifestation of the alities of Nature? My YogaMaya or My creative illusion. This veils the understanding of the worldlyminded people. So they are not able to behold the Lord Who keeps Maya under His perfect control.YogaMaya is the union of the three alities of Nature. The illusion or veil spread thery is called YogaMaya. The worldly people are deluded by the illusion born of the union of the three alities. Therefore? they are not able to know the Lord Who is unborn and immutable.This YogaMaya is under the perfect control of the Lord. Isvara is the wielder of Maya. Therefore it cannot obscure His own knowledge? just as the illusion created by the juggler cannot obstruct his,own knowledge or deceive him. The illusion which binds the worldly people cannot in the least affect the Lord Who has kep Maya under his perfect subjugation. (Cf.VII.13IX.5X.7XI.8)
Shri Purohit Swami
7.25 I am not visible to all, for I am enveloped by the illusion of Phenomenon. This deluded world does not know Me as the Unborn and the Imperishable.
Dr. S. Sankaranarayan
7.25. Being surrounded by the trick-of-yoga-Illusion, I am not clear to all; [and hence] this deluded world [of perceivers] does not recognise Me, the unborn and the undying.
Swami Adidevananda
7.25 Veiled by My Maya, I am not manifest to all. This deluded world does not recognize Me as the unborn and immutable.
Swami Gambirananda
7.25 Being enveloped by yoga-maya, I do not become manifest to all. This deluded world does not know Me who am birthless and undecaying.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।7.25।। यदि समस्त जगत् के अधिष्ठान के रूप में कोई दिव्य तत्त्व विद्यमान है तो फिर क्या कारण है कि सब लोगों के द्वारा सर्वत्र सदा वह अनुभव नहीं किया जाता क्यों हम परिच्छिन्न जीव के समान व्यवहार करते हैं और अपने अनन्त स्वरूप को पहचान नहीं पाते संक्षेप में मुझमें और मेरे स्वरूप के मध्य कौन सा आवरण पड़ा हुआ है जब जिज्ञासु साधकगण वेदान्त प्रतिपादित सिद्धांतों का अध्ययन करते हैं तो स्वाभाविक ही उनके मन में इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं।भगवान् कहते हैं यह मोहित जगत् मुझ अजन्मा अविनाशी को नहीं जानता है क्योंकि उनके लिए मैं त्रिगुणात्मिका योगमाया से आच्छादित रहता हूँ। जब वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थी माया को एक बाह्य वस्तु के रूप में समझने का प्रयत्न करते हैं तब उसे समझने में अत्यन्त कठिनाई होती है। परन्तु जब वे अध्यात्म दृष्टि से विचार करते हैं अर्थात् अपने ही अन्तकरण में माया किस प्रकार कार्य करती है ऐसा विचार करते हैं तो माया का सिद्धांत स्पष्ट हो जाता है। माया प्रिज्म (आयत) के समान ऐसी उपाधि है जिसके माध्यम से अवर्ण अद्वैत स्वरूप तत्त्व जब व्यक्त होता है तब सप्तरंगी प्रकाश के समान वह नानाविधि सृष्टि के रूप में प्रतीत होता है।व्यष्टि (एक व्यक्ति) में कार्य कर रही माया को ही अविद्या कहते हैं। ऋषियों ने इस अविद्या का जो कि जीव के सब दुखों का कारण है सूक्ष्म अध्ययन किया और यह उद्घाटित किया कि यह तीन गुणों से युक्त है जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं। ये तीन गुण हैं सत्त्व रज और तम जो एक आयत का (प्रिज्म) का सा काम करते हैं और जिनके माध्यम से हमें इस बहुविधि सृष्टि का अनुभव होता है। रजोगुण का कार्य है विक्षेप और तमोगुण का कार्य बुद्धि पर पड़ा आवरण है।त्रिगुणों के विकारों से मोहित और भ्रान्त पुरुष को आत्मा का साक्षात् ज्ञान नहीं होता। उस आत्मज्ञान के लिए गुरु के उपदेश तथा स्वयं की साधना की आवश्यकता होती है। किसी ग्रामीण अनपढ़ व्यक्ति के लिए बल्ब में विद्युत का अभाव प्रतीत होता है क्योंकि वह अव्यक्त होती है। उसके प्रवाह को प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए सैद्धांतिक ज्ञान तथा प्रत्यक्ष प्रयोग की अपेक्षा होती है। एक बार विद्युत शक्ति के गुणधर्म का ज्ञान हो जाने पर यदि वह मनुष्य उसी बल्ब में प्रकाश देखे तो उसे अव्यक्त विद्युत का ज्ञान तत्काल हो जाता है इसी प्रकार आत्मसंयम श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा जब साधक का क्षुब्ध मन प्रशान्त हो जाता है तब आवरण के अभाव में वह मुझ अजन्मा अविनाशी स्वरूप को पहचान लेता है। अज्ञानी जीव विषयउपभोगों में नित्य सुख की खोज तभी तक करता है जब तक आवरण और विक्षेप की निवृत्ति नहीं हो जाती।कामाग्नि में सुलगते निराशा में जकड़े असन्तोष से कुचले और आत्मनाश के भय से व्याकुल उन्मत्त और संत्तप्त मनों में समता और एकाग्रता कदापि नहीं हो सकती कि वे क्षणभर के लिए भी आत्मा का शुद्ध स्वरूप अनुभव कर सकें। योगमाया से मोहित यह जगत् मुझ अव्यय स्वरूप को नहीं जानता। मानो नाम और रूप की इस सृष्टि ने आत्मा को आवृत्त कर दिया है। यह आवरण उसी प्रकार का है जैसे प्रेत स्तम्भ को मृगमरीचिका रेत को और तरंगे समुद्र को आच्छादित कर देती हैं जीवन की अज्ञान दशा के विपरीत श्रीकृष्ण अपने स्वरूप को बताते हुए कहते हैं
Swami Ramsukhdas
।।7.25।। व्याख्या--'मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्--मैं अज और अविनाशी हूँ अर्थात् जन्ममरणसे रहित हूँ। ऐसा होनेपर भी मैं प्रकट और अन्तर्धान होनेकी लीला करता हूँ अर्थात् जब मैं अवतार लेता हूँ, तब अज (अजन्मा) रहता हुआ ही अवतार लेता हूँ और अव्ययात्मा रहता हुआ ही अन्तर्धान हो जाता हूँ। जैसे सूर्य भगवान् उदय होते हैं तो हमारे सामने आ जाते हैं और अस्त होते हैं तो हमारे नेत्रोंसे ओझल हो जाते हैं, छिप जाते हैं, ऐसे ही मैं केवल प्रकट और अन्तर्धान होनेकी लीला करता हूँ। जो मेरेको इस प्रकार जन्म-मरणसे रहित मानते हैं, वे तो असम्मूढ़ हैं (गीता 10। 3 15। 19)। परन्तु जो मेरेको साधारण प्राणियोंकी तरह जन्मनेमरनेवाला मानते हैं, वे मूढ़ हैं (गीता 9। 11)।भगवान्को अज, अविनाशी न माननेमें कारण है कि इस मनुष्यका भगवान्के साथ जो स्वतः अपनापन है, उसको भूलकर इसने शरीरको अपना मान लिया कि 'यह शरीर ही मैं हूँ और यह शरीर मेरा है।' इसलिये उसके सामने परदा आ गया, जिससे वह भगवान्को भी अपने समान ही जन्मने-मरनेवाला मानने लगा।मूढ़ मनुष्य मेरेको अज और अविनाशी नहीं जानते। उनके न जाननेमें दो कारण हैं--एक तो मेरा योगमायासे छिपा रहना और एक उनकी मूढ़ता। जैसे, किसी शहरमें किसीका एक घर है और वह अपने घरमें बंद है तथा शहरके सब-के-सब घर शहरकी चहारदीवारी (परकोटे) में बंद हैं। अगर वह मनुष्य बाहर निकलना चाहे तो अपने घरसे निकल सकता है, पर शहरकी चहारदीवारीसे निकलना उसके हाथकी बात नहीं है। हाँ, यदि उस शहरका राजा चाहे तो वह चहारदीवारीका दरवाजा भी खोल सकता है और उसके घरका दरवाजा भी खोल सकता है। अगर वह मनुष्य अपने घरका दरवाजा नहीं खोल सकता तो राजा उस दरवाजेको तोड़ भी सकता है। ऐसे ही यह प्राणी अपनी मूढ़ताको दूर करके अपने नित्य स्वरूपको जान सकता है। परन्तु सर्वथा भगवत्तत्त्वका बोध तो भगवान्की कृपासे ही हो सकता है। भगवान् जिसको जनाना चाहें, वही उनको जान सकता है--'सोइ जानइ जेहि देहु जनाई' (मानस 2। 127। 2)। अगर मनुष्य सर्वथा भगवान्के शरण हो जाय तो भगवान् उसके अज्ञानको भी दूर कर देते हैं और अपनी मायाको भी दूर कर देते हैं।'नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः'--उन सबके सामने अर्थात् उस मूढ़ समुदायके सामने मैं भगवद्रूपसे प्रकट नहीं होता। कारण कि वे मेरेको अज-अविनाशी भगवद्रूपसे जानना अथवा मानना ही नहीं चाहते, प्रत्युत वे मेरेको साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवहेलना करते हैं। अतः उनके सामने मैं अपने भगवत्- स्वरूपसे कैसे प्रकट होऊँ? तात्पर्य है कि जो मेरेको अज-अविनाशी नहीं मानते, प्रत्युत मेरेको जन्मने-मरनेवाला मानते हैं, उनके सामने मैं अपनी योगमायामें छिपा रहता हूँ और सामान्य मनुष्य-जैसा ही रहता हूँ। परन्तु जो मेरेको अज, अविनाशी और सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर मानते हैं, मेरेमें श्रद्धा-विश्वास रखते हैं, उनके भावोंके अनुसार मैं उनके सामने प्रकट रहता हूँ।भगवान्की योगमाया विचित्र, विलक्षण, अलौकिक है। मनुष्योंका भगवान्के प्रति जैसा भाव होता है, उसके अनुसार ही वे योगमाया-समावृत भगवान्को देखते हैं (टिप्पणी प0 435)।यहाँ भगवान्ने कहा है कि जो मेरेको अज-अविनाशी नहीं जानते, वे मूढ़ हैं और दसवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें कहा है कि देवता और महर्षि मेरे प्रभवको नहीं जानते। इसपर शङ्का होती है कि भगवान्को अज-अविनाशी नहीं जानना और उनके प्रभवको नहीं जानना--ये दोनों बातें तो एक ही हो गयीं; परन्तु यहाँ न जाननेवालोंको मूढ़ बताया है और वहाँ उनको मूढ़ बताया है, ऐसा क्यों इसका समाधान है कि भगवान्के प्रभवको अर्थात् प्रकट होनेको न जानना दोषी नहीं है; क्योंकि वहाँ भगवान्ने स्वयं कहा है कि मैं सब तरहसे देवताओं और महर्षियोंका आदि हूँ। जैसे बालक अपने पिताके जन्मको कैसे देख सकता है ?क्योंकि वह उस समय पैदा ही नहीं हुआ था। वह तो पितासे पैदा हुआ है। अतः उसका पिताके जन्मको न जानना दोषी नहीं है। ऐसे ही भगवान्के प्रकट होनेके हेतुओँको पूरा न जानना देवताओँ और महर्षियोंके लिये कोई दोषी नहीं है। भगवान्के प्रकट होनेको कोई सर्वथा जान ही नहीं सकता। इसलिये वहाँ देवताओं और महर्षियोंको मूढ़ नहीं बताया है। मनुष्य भगवान्को अज-अविनाशी जान सकते हैं अर्थात् मान सकते हैं। अगर वे भगवान्को अज-अविनाशी नहीं मानते तो यह उनका दोष है। इसलिये उनको यहाँ मूढ़ कहा है। सम्बन्ध--जो भगवान्को अज-अविनाशी नहीं मानते, उनके ही सामने मायाका परदा रहता है, पर भगवान्के सामने वह परदा नहीं रहता--इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।7.25।। अपनी योगमाया से आवृत्त मैं सबको प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ। यह मोहित लोक (मनुष्य) मुझ जन्मरहित, अविनाशी को नहीं जानता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।7.25।।अज्ञानं च मदिच्छयेत्याह नाहमिति। योगेन सामर्थ्योपायेन मायया च। मयैव मूढो नाभिजानाति। तथाहि पाद्मे आत्मनः प्रावृतिं चैव लोकचित्तस्य बन्धनम्। स्वसामर्थ्येन देव्या च कुरुते स महेश्वरः इति च।
Sri Anandgiri
।।7.25।।अविवेकरूपमज्ञानं भगवन्निष्ठाप्रतिबन्धकमुक्तं तस्मिन्नपि निमित्तं प्रश्नपूर्वकमनाद्यज्ञानमुपन्यस्यति तदीयमज्ञानमित्यादिना। त्रिभिर्गुणमयैरित्यनौपाधिकरूपस्याप्रतिपत्तौ कारणमुक्तमत्र तु सोपाधिकस्यापीति विशेषं गृहीत्वा व्याचष्टे नाहमिति। तर्हि भगवद्भक्तिरनुपयुक्तेत्याशङ्क्याह केषांचिदिति। सर्वस्य लोकस्य न प्रकाशोऽहमित्यत्र हेतुमाह योगेति। अनाद्यनिर्वाच्याज्ञानाच्छन्नत्वादेव मद्विषये लोकस्य मौढ्यं ततश्च मदीयस्वरूपविवेकाभावान्मन्निष्ठत्वराहित्यमित्याह अतएवेति।
Sri Vallabhacharya
।।7.25।।कुत एवं न प्रकाशस इत्यत्राह नाहमिति। नाहं प्रकाशः सर्वस्य संसृतस्य किन्तु स्वभक्तानामेव यतोऽहं योगमायासमावृतः अंशांशिभावावस्थित्यादिसर्वभवनरूपा योगशक्तिरेवान्येषां व्यामोहिका माया तयासम्यगासमन्ताद्वृतः।वृञ् वरणे इतिधातोः लोको वा योगमायासमावृतो न जानाति।
Sridhara Swami
।।7.25।।तेषां स्वाज्ञाने हेतुमाह नाहमिति। सर्वस्य लोकस्य नाहं प्रकाशः प्रकटो न भवामि किंतु मद्भक्तानामेव। यतो योगमायया समावृतः। योगो युक्तिः मदीयः कोऽप्यचिन्त्यप्रज्ञाविलासः स एव माया अघटमानघटनाचातुर्यं अनया संच्छन्नः अतएव मत्स्वरूपज्ञाने मूढः सन्नयं लोकः अजमव्ययं च मां न जानाति।