Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 20 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः | तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ||७-२०||
Transliteration
kāmaistaistairhṛtajñānāḥ prapadyante.anyadevatāḥ . taṃ taṃ niyamamāsthāya prakṛtyā niyatāḥ svayā ||7-20||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
7.20 Those whose wisdom has been rent away by this or that desire, go to other gods, following this or that rite, led by their own nature.
।।7.20।। भोगविशेष की कामना से जिनका ज्ञान हर लिया गया है, ऐसे पुरुष अपने स्वभाव से प्रेरित हुए अन्य देवताओं को विशिष्ट नियम का पालन करते हुए भजते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In professional life, an unchecked desire for rapid promotions, high salaries, or external recognition (like 'this or that desire') can cloud one's judgment. This may lead to unethical practices, prioritizing short-term gains over long-term value creation, or pursuing career paths misaligned with one's true passion and integrity. Just as people go to 'other gods' for specific boons, individuals might adopt 'this or that rite' (trendy strategies or corporate politics) that promise quick results but ultimately detract from genuine skill development and sustainable success, driven by their inherent competitive or materialistic nature.
🧘 For Stress & Anxiety
The relentless pursuit of 'this or that desire' is a significant source of stress and mental health issues. When wisdom is 'rent away' by the need for external validation, material possessions, or specific outcomes, an individual becomes trapped in a cycle of striving and dissatisfaction. Unfulfilled desires lead to frustration, anxiety, and a feeling of inadequacy, while even fulfilled desires often give way to new ones, creating an endless loop of mental unrest. Being 'led by their own nature' means falling prey to conditioned habits of seeking external gratification, rather than finding inner peace and contentment.
❤️ In Relationships
Desires for a partner to fit a certain mold, societal approval of a relationship, or specific emotional returns can 'rent away' the wisdom needed for genuine connection. This often leads to 'following this or that rite' – adopting relationship strategies seen on social media or in popular culture – instead of cultivating authentic communication, empathy, and unconditional acceptance. When relationships are driven by one's 'own nature' of seeking control, validation, or superficial benefits, they become transactional rather than deeply fulfilling, leading to emotional strain and disillusionment for all involved.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Uncontrolled desires cloud judgment, leading individuals to chase transient goals and external validation, often guided by ingrained habits rather than true wisdom.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
7.20 कामैः by desires? तैः तैः by this or that? हृतज्ञानाः those whose wisdom has been rent away? प्रपद्यन्ते approach? अन्यदेवताः other gods? तम् तम् this or that? नियमम् rite? आस्थाय having followed? प्रकृत्या by nature? नियताः led? स्वया by ones own.Commentary Those who desire wealth? children? the (small) Siddhis? etc.? are deprived of discrimination. They devote themselves to other minor gods such as Indra? Mitra? Varuna? etc.? impelled or driven by their own nature or Samskaras acired in their previous births. They perform some kinds of rites to propitiate these lower deities. (Cf.IX.23)
Shri Purohit Swami
7.20 They in whom wisdom is obscured by one desire or the other, worship the lesser Powers, practising many rites which vary according to their temperaments.
Dr. S. Sankaranarayan
7.20. Being robbed of their wisdom by innumerable desires [and] being controlled by their own nature, persons take refuge in other deities by following one or the other religious regulations.
Swami Adidevananda
7.20 Controlled by their inherent nature, and deprived of knowledge by various desires, worldly-minded men resort to other gods, observing various disciplines.
Swami Gambirananda
7.20 People, deprived of their wisdom by desires for various objects and guided by their own nature, resort to other deities following the relevant methods.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।7.20।। विवेक सार्मथ्य मानव जन्म की विशेषता है और यह सर्वथा असंभव है कि विवेक के प्रखर और सजग होने पर मनुष्य को आत्मज्ञान न हो सके। परन्तु मन की बहिर्मुखी प्रवृत्तियां और विषयभोग की कामनायें उसके विवेक को आच्छादित कर देती हैं।देवता शब्द के अनेक अर्थ हैं जैसे प्रकृति के नियमों के अधिष्ठाता देवता इन्द्र वरुण आदि इन्द्रियां किसी कार्य क्षेत्र में निहित उत्पादन क्षमता आदि। यहाँ इनमें से कोई भी अर्थ लेकर इस श्लोक का अध्ययन करने पर यही ज्ञात होता है कि भोगी पुरुष इनकी आराधना केवल वैषयिक सुख को प्राप्त करने के लिए ही करता है। वह कामना से प्रेरित होकर तत्पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के प्रयत्न करता रहता है।शान्त मन में आत्मा का प्रतिबिम्ब स्पष्ट और स्थिर दिखाई देता है परन्तु कामनाओं के स्रोतों से प्रवाहित होने वाली विचारों की धारायें उसमें विक्षेप उत्पन्न करके प्रतिबिम्ब को भी विचलित कर देती हैं। मन के क्षुब्ध होने पर बुद्धि की विवेक सार्मथ्य लुप्त हो जाती है और स्वभावत फिर मनुष्य सत्य असत्य का विवेक नहीं कर पाता है। जब मनुष्य की बुद्धि का आलोक कामना के मेघों से आवृत हो जाता है तब आसक्तियों और अवगुणों के उलूक मन के जंगल में शोर मचाने लगते हैं।मन में इच्छा के उदय मात्र से मनुष्य का पतन नहीं होता बल्कि पतन का कारण है उत्पन्न इच्छा के साथ उसका तादात्म्य। इस तादात्म्य के द्वारा मनुष्य अनजाने में अपनी इच्छाओं को बढ़ावा देकर असंख्य विक्षेपों को जन्म देता हुआ स्वयं उनका शिकार बन जाता है।अन्न के सूक्ष्म तत्त्व का ही रूप वृत्ति (विचार) है और इसलिए वह स्वयं जड़ है। वृत्तिरूप मन आत्मा से चेतनता प्राप्त करता है और कामी व्यक्ति से सार्मथ्य। विचारों के अनुसार कर्म होता है। एक बार मनुष्य के मन में कोई कामना दृढ़ हो जाये तो वह यह विवेक खो देता है कि उस कामनापूर्ति से उसे नित्य शाश्वत सुख मिलेगा या नहीं। क्षणिक सुख की आसक्ति के कारण वह अन्यान्य देवताओं को सन्तुष्ट करने में व्यस्त रहता है।अब यह भी सर्वविदित तथ्य है कि प्रत्येक देवता को सन्तुष्ट करने के विशेष नियम होते हैं। इन्द्रादि देवताओं को यज्ञयागादि के द्वारा इन्द्रियों के शब्दादि विषयों के द्वारा तथा कार्यक्षेत्र की उत्पादन क्षमता को व्यक्त करने के लिए उचित उपकरणों और उनके योग्य उपयोग के द्वारा सन्तुष्ट करके इष्ट फल प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि वे अन्यान्य देवताओं को विशिष्ट नियमों का पालन करके भजते हैं।एक वासुदेव को त्यागकर लोग अन्य देवताओं को क्यों भजते हैं इसका कारण श्लोक की दूसरी पंक्ति में बताया गया है कि प्रकृत्या नियत स्वया। प्रत्येक मनुष्य अपनी पूर्व संचित वासनाओं के अनुसार भिन्नभिन्न विषयों की ओर आकर्षित होकर तदनुसार कर्म करता है। यह धारणा कि स्वर्ग में बैठा कोई ईश्वर हमारे मन में इच्छाओं को उत्पन्न कराकर हमें पाप और पुण्य के कर्मों में प्रवृत्त करता है केवल निराशावादी निर्बल और आलसी लोगों की ही हो सकती है। बुद्धिमान साहसी और उत्साही पुरुष जानते हैं कि मनुष्य स्वयं ही अपने विचारों के अनुसार अपने वातावरण कार्यक्षेत्र आदि का निर्माण करता है।संक्षेप में एक मूढ़ पुरुष शाश्वत सुख की आशा में वैषयिक क्षणिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ता रहता है जबकि विवेकी पुरुष उसकी व्यर्थता पहचान कर पारमार्थिक सत्य के मार्ग पर अग्रसर होता है।भगवान् आगे कहते हैं
Swami Ramsukhdas
।।7.20।। व्याख्या--'कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः'--उनउन अर्थात् इस लोकके और परलोकके भोगोंकी कामनाओंसे जिनका ज्ञान ढक गया है, आच्छादित हो गया है। तात्पर्य है कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये जो विवेकयुक्त मनुष्यशरीर मिला है, उस शरीरमें आकर परमात्माकी प्राप्ति न करके वे अपनी कामनाओंकी पूर्ति करनेमें ही लगे रहते हैं।संयोगजन्य सुखकी इच्छाको कामना कहते हैं। कामना दो तरहकी होती है--यहाँके भोग भोगनेके लिये धन-संग्रहकी कामना और स्वर्गादि परलोकके भोग भोगनेके लिये पुण्य-संग्रहकी कामना।धन-संग्रहकी कामना दो तरहकी होती है--पहली, यहाँ चाहे जैसे भोग भोगें; चाहे जब, चाहे जहाँ और चाहे जितना धन खर्च करें, सुख-आरामसे दिन बीतें आदिके लिये अर्थात् संयोगजन्य सुखके लिये धन-संग्रहकी कामना होती है और दूसरी, मैं धनी हो जाऊँ, धनसे मैं बड़ा बन जाऊँ आदिके लिये अर्थात् अभिमानजन्य सुखके लिये धन-संग्रहकी कामना होती है। ऐसे ही पुण्य-संग्रहकी कामना भी दो तरहकी होती है--पहली, यहाँ मैं पुण्यात्मा कहलाऊँ और दूसरी, परलोकमें मेरेको भोग मिलें। इन सभी कामनाओंसे सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सार-असार, बन्ध-मोक्ष आदिका विवेक आच्छादित हो जाता है। विवेक आच्छादित होनेसे वे यह समझ नहीं पाते कि जिन पदार्थोंकी हम कामना कर रहे हैं, वे पदार्थ हमारे साथ कबतक रहेंगे और हम उन पदार्थोंके साथ कबतक रहेंगे? 'प्रकृत्या नियताः स्वया'--कामनाओंके कारण विवेक ढका जानेसे वे अपनी प्रकृतिसे नियन्त्रित रहते हैं अर्थात् अपने स्वभावके परवश रहते हैं। यहाँ 'प्रकृति' शब्द व्यक्तिगत स्वभावका वाचक है, समष्टि प्रकृतिका वाचक नहीं। यह व्यक्तिगत स्वभाव सबमें मुख्य होता है--'स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते।' अतः व्यक्तिगत स्वभावको कोई छोड़ नहीं सकता--'या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते।' परन्तु इस स्वभावमें जो दोष हैं, उनको तो मनुष्य छोड़ ही सकता है, अगर उन दोषोंको मनुष्य छोड़ नहीं सकता, तो फिर मनुष्यजन्मकी महिमा ही क्या हुई? मनुष्य अपने स्वभावको निर्दोष, शुद्ध बनानेमें सर्वथा स्वतन्त्र है। परन्तु जबतक मनुष्यके भीतर कामनापूर्तिका उद्देश्य रहता है, तबतक वह अपने स्वभावको सुधार नहीं सकता और तभीतक स्वभावकी प्रबलता और अपनेमें निर्बलता दीखती है। परन्तु जिसका उद्देश्य कामना मिटानेका हो जाता है, वह अपनी प्रकृति-(स्वभाव-) का सुधार कर सकता है अर्थात् उसमें प्रकृतिकी परवशता नहीं रहती।'तं तं नियममास्थाय'--कामनाओंके कारण अपनी प्रकृतिके परवश होनेपर मनुष्य कामनापूर्तिके अनेक उपायोंको और विधियों (नियमों-) को ढूँढ़ता रहता है। अमुक यज्ञ करनेसे कामना पूरी होगी कि अमुक तप करनेसे? अमुक दान देनेसे कामना पूरी होगी कि अमुक मन्त्रका जप करनेसे? आदि-आदि उपाय खोजता रहता है। उन उपायोंकी विधियाँ अर्थात् नियम अलग-अलग होते हैं। जैसे--अमुक कामनापूर्तिके लिये अमुक विधिसे यज्ञ आदि करना चाहिये और अमुक स्थानपर करना चाहिये आदि-आदि। इस तरह मनुष्य अपनी कामनापूर्तिके लिये अनेक उपायों और नियमोंको धारण करता है। 'प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः'--कामनापूर्तिके लिये अनेक उपायों और नियमोंको धारण करके मनुष्य अन्य देवताओंकी शरण लेते हैं, भगवान्की शरण नहीं लेते। यहाँ 'अन्यदेवताः' कहनेका तात्पर्य है कि वे देवताओंको भगवत्स्वरूप नहीं मानते हैं, प्रत्युत उनकी अलग सत्ता मानते हैं, इसीसे उनको अन्तवाला (नाशवान्) फल मिलता है--'अन्तवत्तु फलं तेषाम्' (गीता 7। 23)। अगर वे देवताओंकी अलग सत्ता न मानकर उनको भगवत्स्वरूप ही मानें तो फिर उनको अन्तवाला फल नहीं मिलेगा ,प्रत्युत अविनाशी फल मिलेगा।यहाँ देवताओंकी शरण लेनेमें दो कारण मुख्य हुए--एक कामना और एक अपने स्वभावकी परवशता।
Swami Tejomayananda
।।7.20।। भोगविशेष की कामना से जिनका ज्ञान हर लिया गया है, ऐसे पुरुष अपने स्वभाव से प्रेरित हुए अन्य देवताओं को विशिष्ट नियम का पालन करते हुए भजते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।7.20।।प्रकृत्या स्वभावेन।स्वभावः प्रकृतिश्चैव संस्कारो वासनेति च इत्यभिधानात्।
Sri Anandgiri
।।7.20।।किमिति तर्हि सर्वेषां प्रत्यग्भूते भगवति यथोक्तज्ञानं नोदेतीत्याशङ्क्य न मामित्यत्रोक्तं हृदि निधाय ज्ञानानुदये हेत्वन्तरमाह आत्मैवेति। कामैर्नानाविधैरपहृतविवेकविज्ञानस्य देवतान्तरनिष्ठत्वमेव प्रत्यग्भूतपरदेवताप्रतिपत्त्यभावे कारणमित्याह कामैरिति। देवतान्तरनिष्ठत्वे हेतुमाह तं तमिति। प्रसिद्धो नियमो जपोपवासप्रदक्षिणानमस्कारादिः। नियमविशेषाश्रयणे कारणमाह प्रकृत्येति।
Sri Vallabhacharya
।।7.20।।तदेवमलौकिकमहिमानं मां यथाकथञ्चिदपि ये प्रपद्यन्ते ते सिद्धिं प्राप्यान्ते तरन्ति अनावृतवस्तुमहिम्नस्तथात्वादित्युक्तम्। ये तु मां न प्रपद्यन्ते ते आसुरमार्गीया अन्यदेवता एव प्रपद्यन्ते। प्राकृतकामाद्यर्थं ते मायामोहिताः संसरन्तीत्याह कामैरिति सार्धैस्त्रिभिः। स्वया प्रकृत्या राजसतामसस्वभावेन नियता बद्धा मदीयया (स्वनिष्ठया मायया) वा बद्धाः।
Sridhara Swami
।।7.20।।तदेवं कामिनोऽपि सन्तः कामप्राप्तये परमेश्वरं मामेव भजन्ति ते कामान्प्राप्य शनैर्मुच्यन्त इत्युक्तम्। ये त्वत्यन्तं राजसास्तामसाश्च कामाभिभूताः क्षुद्रदेवताः सेवन्ते ते संसरन्तीत्याह कामैरिति चतुर्भिः। ये तु तैस्तैः पुत्रकीर्तिशत्रुजयादिविषयैः कामैरपहृतविवेकाः सन्तः अन्याः क्षुद्राः भूतप्रेतयक्षादिदेवता भजन्ति। किं कृत्वा तत्तद्देवताराधने यो यो नियम उपवासादिलक्षणस्तं तं नियमं स्वीकृत्य तत्रापि स्वकीयया प्रकृत्या पूर्वाभ्यासवासनया नियताः सन्तो देवताविशेषं भजन्ति।