Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 17 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते | प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ||७-१७||
Transliteration
teṣāṃ jñānī nityayukta ekabhaktirviśiṣyate . priyo hi jñānino.atyarthamahaṃ sa ca mama priyaḥ ||7-17||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
7.17 Of them the wise, ever steadfast and devoted to the One, excels (is the best); for I am exceedingly dear to the wise and he is dear to Me.
।।7.17।। उनमें भी मुझ से नित्ययुक्त, अनन्य भक्ति वाला ज्ञानी श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivate single-minded dedication to your professional purpose or chosen field, striving for deep understanding and consistent effort. This unwavering focus and steadfast commitment to excellence will make you stand out and yield superior results, just as the wise devotee excels.
🧘 For Stress & Anxiety
To combat stress and maintain mental well-being, cultivate a steadfast, single-minded focus on your inner peace or a core guiding principle. By consistently aligning with your true self (your 'Antaratma'), you create an unshakeable inner harmony that protects against external pressures, leading to profound calm and resilience.
❤️ In Relationships
Approach relationships with unwavering loyalty and a deep, committed understanding of the other person. When you offer selfless, steadfast love and devotion, it fosters a profound sense of mutual dearness and reciprocity, creating bonds that are deeply fulfilling and resilient. By seeing others as extensions of your own being, you cultivate a connection that transcends superficiality.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“By cultivating wise, unwavering focus and steadfast devotion to your highest purpose, you achieve unparalleled excellence and establish a profound, reciprocal connection that fulfills you completely.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
7.17 तेषाम् of them? ज्ञानी the wise? नित्ययुक्तः ever steadfast? एकभक्तिः whose devotion is to the One? विशिष्यते excels? प्रियः dear? हि verily? ज्ञानिनः of the wise? अत्यर्थम् exceedingly? अहम् I? सः he? च and? मम of Me? प्रियः dear.Commentary Ekabhaktih means unswerving? singleminded devotion to the Supreme Being.The JnaniBhakta is beyond all cults or creeds or formal religion or rules of society. As the wise man is constantly harmonised and as he is devoted to the One? he is regarded as superior to all the other devotees. As I am his very Self or Antaratma? I am extremely dear to him. Everybody loves his own Self most. The Self is very dear to everybody. The wise man is My very Self and he is ear to Me also. (Cf.II.49IX.29XII.14?17and19)
Shri Purohit Swami
7.17 Of all of these, he who has gained wisdom, who meditates on Me without ceasing, devoting himself only to Me, he is the best; for by the wise man I am exceedingly beloved and the wise man, too, is beloved by Me.
Dr. S. Sankaranarayan
7.17. Of them, the man of wisdom, being always attached [to Me] with single-pointed devotion excels [others]. For, I am dear to the man of wisdom above all personal gains and he is dear to Me.
Swami Adidevananda
7.17 Of these, the man of knowledge, being ever with Me in Yoga and devoted to the One only, is the foremost; for I am very dear to the man of knowledge and he too is dear to Me.
Swami Gambirananda
7.17 Of them, the man of Knowledge, endowed with constant steadfastness and one-pointed devotion, excels. For I am very much dear to the man of Knowledge, and he too is dear to Me.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।7.17।। चतुर्विध भक्तों की परस्पर तुलना करके भगवान् कहते हैं कि जो ज्ञानी भक्त मुझसे नित्ययुक्त है और आत्मस्वरूप के साथ जिसकी अनन्य भक्ति है वह सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि आत्मतत्त्व से भिन्न किसी अन्य विषय में उसका मन विचरण नहीं करता है। जब तक साधक को अपने ध्येय का स्वरूप निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता है तब तक मन की एकाग्रता भी प्राप्त नहीं की जा सकती है। एक भक्ति का अर्थ है साधक के मन में आत्मसाक्षात्कार की ही एक वृत्ति बनी रहना।एक भक्ति को पाने के लिए साधक को अपने मन की विषयाभिमुखी प्रवृत्तियों को विषय से निवृत्त करना आवश्यक होता है। ज्ञानी व्यक्ति किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए नहीं वरन् अपने मन की उन प्रवृत्तियों को नष्ट करने के लिए ईश्वर का आह्वान करता है जिसके कारण उसके मन की शक्ति का जगत् के मिथ्या आकर्षणों में व्यर्थ अपव्यय होता है। अत स्वाभाविक है कि आत्मस्वरूप में स्थित भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे ज्ञानी पुरुष को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं जिसके मन में आत्मानुभूति के अतिरिक्त अन्य कोई कामना ही नहीं रहती।ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ। प्रेम का मापदण्ड है प्रियतम के साथ हुआ तादात्म्य। वास्तव में आत्मसमर्पण की धुन पर ही प्रेम का गीत गाया जाता है। निस्वार्थता प्रेम का आधार है। प्रेम की मांग है समस्त कालों एवं परिस्थितियों में बिना किसी प्रतिदान की आशा के सर्वस्व दान। प्रेम के इस स्वरूप को समझने पर ही ज्ञात होगा कि ज्ञानी भक्त का प्रेम ही वास्तविक शुद्ध और पूर्ण प्रेम होता है।एकपक्षीय प्रेम की परिसमाप्ति कभी पूर्णत्व में नहीं हो सकती। यहाँ भगवान् स्पष्ट कहते हैं ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और मुझे वह अत्यन्त प्रिय है। इस कथन में एक मनोवैज्ञानिक सत्य छिपा हुआ है। प्रेम का यह सनातन नियम है कि वह निष्काम होने पर न केवल पूर्णता को प्राप्त होता है वरन् उसमें एक दुष्ट को भी आदर्श बनाने की विचित्र सार्मथ्य होती है।यह एक सुविचारित एवं सुविदित तथ्य है कि यदि किसी व्यक्ति का मन किसी एक विशेष भावना जैसे दुख द्वेष मत्सर करुणा से भर जाता है तो उसके समीपस्थ लोगों के मन पर भी उस तीव्र भावना का प्रभाव पड़ता है। अत यदि हम किसी को निस्वार्थ शुद्ध प्रेम दे सकें तो हमारे दुष्ट शत्रु का भी हृदय परिवर्तित हो सकता है। यह नियम है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य भगवान् के इस कथन में स्पष्ट होता है कि ज्ञान�� को मैं और मुझे ज्ञानी अत्यन्त प्रिय है।तब क्या आर्तादि भक्त भगवान् वासुदेव को प्रिय नहीं है ऐसी बात नहीं फिर क्या कहते हैं
Swami Ramsukhdas
।।7.17।। व्याख्या--'तेषां ज्ञानी नित्ययुक्तः' उन (अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी) भक्तोंमें ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है; क्योंकि वह नित्ययुक्त है अर्थात् वह सदा-सर्वदा केवल भगवान्में ही लगा रहता है। भगवान्के सिवाय दूसरे किसीमें वह किञ्चिन्मात्र भी नहीं लगता। जैसे गोपियाँ गाय दुहते, दही बिलोते, धान कूटते आदि सभी लौकिक कार्य करते हुए भी भगवान् श्रीकृष्णमें चित्तवाली रहती हैं (टिप्पणी प0 420.2), ऐसे ही वह ज्ञानी भक्त लौकिक और पारमार्थिक सब क्रियाएँ करते समय सदा-सर्वदा भगवान्से जुड़ा रहता है। भगवान्का सम्बन्ध रखते हुए ही उसकी सब क्रियाएँ होती हैं।'एकभक्तिर्विशिष्यते'--उस ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तका आकर्षण केवल भगवान्में होता है। उसकी अपनी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं रहती। इसलिये वह श्रेष्ठ है।अर्थार्थी आदि भक्तोंमें पूर्वसंस्कारोंके कारण जबतक व्यक्तिगत इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं, तबतक उनकी एकभक्ति नहीं होती अर्थात् केवल भगवान्में प्रेम नहीं होता। परन्तु उन भक्तोंमें इन इच्छाओंको नष्ट करनेका भाव भी होता रहता है और इच्छाओंके सर्वथा नष्ट होनेपर सभी भक्त भगवान्के प्रेमी और भगवान्के प्रेमास्पद हो जाते हैं। वहाँ भक्त और भगवान्में द्वैतका भाव न रहकर प्रेमाद्वैत (प्रेममें अद्वैत) हो जाता है।ऐसे तो चारों भक्त भगवान्में नित्य-निरन्तर लगे रहते हैं; परन्तु तीन भक्तोंके भीतरमें कुछ-न-कुछ व्यक्तिगत इच्छा रहती है; जैसे--अर्थार्थी भक्त अनुकूलताकी इच्छा करते हैं, आर्त भक्त प्रतिकूलताको मिटानेकी इच्छा करते हैं और जिज्ञासु भक्त अपने स्वरूपको या भगवत्तत्त्वको जाननेकी इच्छा करते हैं। ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तमें अपनी कोई इच्छा नहीं रहती; अतः वह एकभक्ति है। 'प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः'--उस ज्ञानी प्रेमी भक्तको मैं अत्यन्त प्यारा हूँ। उसमें अपनी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा नहीं है, केवल मेरेमें प्रेम है। इसलिये वह मेरेको अत्यन्त प्यारा है।वास्तवमें तो भगवान्का अंश होनेसे सभी जीव स्वाभाविक ही भगवान्को प्यारे हैं। भगवान्के प्यारमें कोई निजी स्वार्थ नहीं है। जैसे माता अपने बच्चोंका पालन करती है, ऐसे ही भगवान् बिना किसी कारणके सबका पालन-पोषण और प्रबन्ध करते हैं। परन्तु जो मनुष्य किसी कारणसे भगवान्के सम्मुख हो जाते हैं उनकी उस सम्मुखताके कारण भगवान्में उनके प्रति एक विशेष प्रियता हो जाती है।जब भक्त सर्वथा निष्काम हो जाता है अर्थात् उसमें लौकिक-पारलौकिक किसी तरहकी भी इच्छा नहीं रहती, तब उसमें स्वतःसिद्ध प्रेम पूर्णरूपसे जाग्रत् हो जाता है। पूर्णरूपसे जाग्रत् होनेका अर्थ है कि प्रेममें किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं रहती। प्रेम कभी समाप्त भी नहीं होता; क्योंकि वह अनन्त और प्रतिक्षण वर्धमान है। प्रतिक्षण वर्धमानका तात्पर्य है कि प्रेममें प्रतिक्षण अलौकिक विलक्षणताका अनुभव होता रहता है अर्थात्इधर पहले दृष्टि गयी ही नहीं, इधर हमारा खयाल गया ही नहीं, अभी दृष्टि गयी--इस तरह प्रतिक्षण भाव और अनुभव होता ही रहता है। इसलिये प्रेमको अनन्त बताया गया है। सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने ज्ञानी भक्तको अपना अत्यन्त प्यारा बताया, तो इससे यह असर पड़ता है कि भगवान्ने दूसरे भक्तोंका आदर नहीं किया। इसलिये भगवान् आगेके श्लोकमें कहते हैं--
Swami Tejomayananda
।।7.17।। उनमें भी मुझ से नित्ययुक्त, अनन्य भक्ति वाला ज्ञानी श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।7.17।।एकस्मिन्नेव भक्तिरित्येकभक्तिः। तच्चोक्तं गारुडे मय्येव भक्तिर्नान्यत्र एकभक्तिः स उच्यते इति।
Sri Anandgiri
।।7.17।।चतुर्विधानां तेषां सुकृतिनां भगवदभिमुखानां तुल्यत्वमाशङ्क्याह तेषामिति। तस्य विशिष्यमाणत्वे हेतुमाह प्रियो हीति। नित्ययुक्तत्वं भगवत्यात्मनि सदा समाहितचेतस्त्वम् असारे संसारे भगवानेव सारः सोऽहमस्मीत्येकस्मिन्नद्वितीये स्वस्मादत्यन्तमभिन्ने भगवति भक्तिः स्नेहविशेषोऽस्येत्येकभक्तिः। तस्याधिक्ये हेतुं विवृणोति प्रियो हीत्यादिना। भगवतो ज्ञानिनश्च परस्परं प्रेमास्पदत्वे प्रसिद्धिं प्रमाणयति प्रसिद्धं हीति। आत्मनो ज्ञानिनं प्रति प्रियत्वेऽपि भगवतो वासुदेवस्य कथं तं प्रति प्रियत्वमित्याशङ्क्याह तस्मादिति। अहं ज्ञानिनो निरुपाधिकप्रेमास्पदं परमपुरुषार्थत्वेनात्मत्वेन च गृहीतत्वादित्यर्थः। ज्ञानिनोऽपि भगवन्तं प्रति प्रियत्वं प्रकटयति स चेति।
Sri Vallabhacharya
।।7.17।।एतेषां मध्ये मुमुक्षुः मम ज्ञानी श्रेष्ठो मत इत्याह तेषां ज्ञानीति। नित्यं योग उक्तलक्षणस्तद्वान् नित्ययुक्तः। तादृशश्च मदीयमहिमज्ञानवान् तथा मय्येव पुरुषोत्तमे परमात्मनि विभावेकस्मिन् एका निरपेक्षा भक्तिर्यस्य। इतरेषां तु स्वाभिलषिते तत्साधकत्वेन वा मयि वेत्यत एव स विशिष्टो भवति। न केवलं स विशिष्टः किन्तु प्रियः परस्परमित्याह प्रियो हीति। अहं ज्ञानिनोऽत्यर्थं प्रियः प्रेमविषयः स च ममेति भजनात्ज्ञानी चेद्भजते कृष्णं तस्मान्नास्त्यधिकः परः इति निबन्धवाक्यात्। सर्वेषां ममताविषयाणां मध्ये स्वात्मा प्रियः आनन्दरूपत्वात् स आत्मा परमानन्दपरमात्मांशत्वादित्यर्थः। परमात्मनि प्रियत्वम्।
Sridhara Swami
।।7.17।।एतेषां मध्ये ज्ञानी श्रेष्ठ इत्याह तेषामिति। तेषां मध्ये ज्ञानी विशिष्टः। तत्र हेतवः नित्ययुक्तः। सदा मन्निष्ठः एकस्मिन्मय्येव भक्तिर्यस्य सः। ज्ञानिनो देहाद्यभिमानाभावेन चित्तविक्षेपाभावान्नित्ययुक्तत्वमेकान्तभक्तित्वं च संभवति नान्यस्य। अतएव हि तस्याहमत्यन्तं प्रियः स च मम। तस्मादेतैर्नित्ययुक्तत्वादिभिश्चतुर्भिर्हेतुभिः स उत्तम इत्यर्थः।