Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 9 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु | साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ||६-९||
Transliteration
suhṛnmitrāryudāsīnamadhyasthadveṣyabandhuṣu . sādhuṣvapi ca pāpeṣu samabuddhirviśiṣyate ||6-9||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
6.9 He who is of the same mind to the good-hearted, friends, enemies, the indifferent, the neutral, the hateful, the relatives, the righteous and the unrighteous, excels.
।।6.9।। जो पुरुष सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बान्धवों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव वाला है, वह श्रेष्ठ है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In the workplace, practice 'samabuddhi' by treating all colleagues, clients, and superiors with consistent respect and fairness, regardless of personal feelings, performance levels, or power dynamics. This helps in making objective decisions, navigating office politics with detachment, and maintaining composure amidst praise or criticism, fostering a professional and harmonious environment.
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivating an even mind helps detach from the emotional rollercoaster caused by external events or others' opinions. When faced with criticism, conflict, or unexpected setbacks, respond thoughtfully rather than reactively. This practice reduces anxiety, fosters inner peace, and builds resilience by not allowing the actions or nature of others to dictate your internal state.
❤️ In Relationships
Apply equal vision by extending compassion and understanding to everyone – friends, family, difficult relatives, or even strangers – without judgment based on their actions or your history with them. This doesn't mean condoning wrong actions but maintaining an inner state of non-attachment to their behavior, promoting healthier boundaries, reducing resentment, and fostering a sense of universal kinship.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Cultivate unwavering equanimity and equal vision towards all beings, for this spiritual impartiality is the hallmark of true excellence and inner freedom.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
6.9 सुह्यन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु in the goodhearted? in friends? in enemies? in the indifferent? in neutrals? in haters and in relatives? साधुषु in the righteous? अपि also? च and? पापेषु in the unrighteous?,समबुद्धिः one who has eal mind? विशिष्यते excels.Commentary He excels He is the best among the Yogarudhas.Samabudhhi is eanimity or evenness of mind. A Yogi of Samabuddhi has eal vision. He is ite impartial. He is the same to all. He makes no difference with reference to caste? creed or colour. He loves all as his own self? as rooted in the Self.A goodhearted man does good to others without expecting any servie from them in return.Udasina is one who is ite indifferent.A neutral is one who does not join any of the two contending parties. He stands as a silent spectator or witness.The righteous are those who do righteous actions and follow the injunctions of the scriptures.The unrighteous are those who do wrong and forbidden actions? who inure others and who do not follow the scriptures.
Shri Purohit Swami
6.9 He looks impartially on all - lover, friend or foe; indifferent or hostile; alien or relative; virtuous or sinful.
Dr. S. Sankaranarayan
6.9. He whose mind is eal in the case of the friend, companion, enemy, the indifferent one, the one who remains in the middle, the foe, the relative, the righteous and also the sinful-he excells [all].
Swami Adidevananda
6.9 He who regards with an eal eye well-wishers, friends, foes, the indifferent, neutrals, the hateful, the relations, and even the good and the sinful - he excels.
Swami Gambirananda
6.9 He excels who has sameness of view with regard to a benefactor, a friend, a foe [Ari (foe) is one who does harm behind one's back.], a neutral, an arbiter, the hateful, [Dvesyah is one who openly hateful.] a relative, good people and even sinners.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।6.9।। पूर्व श्लोक में ज्ञानी पुरुष की जड़ वस्तुओं की ओर अवलोकन करने की दृष्टि का वर्णन किया गया है। परन्तु जगत् केवल जड़ वस्तुओं से ही नहीं बना है। उसमें चेतन प्राणी भी हैं। मानव मात्र के साथ ज्ञानी पुरुष किस भाव से रहेगा क्या उन्हें मिथ्या कहकर उनके अस्तित्व का निषेध कर देगा क्या जगत् के अधिष्ठान स्वरूप परमात्मा में स्थित होकर वह लोगों की सेवा के प्रति उदासीन रहेगा इन प्रश्नों का उत्तर इस श्लोक में दिया गया है।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा ज्ञानी पुरुष सभी मनुष्यों के साथ समान प्रेम भाव से रहता है चाहे वे सुहृद् हों या मित्र शत्रु उदासीन मध्यस्थ बन्धु साधु हों या पापी। अपनी विशाल सहृदयता में वह सबका आलिंगन करता है। प्रेम और आदरभाव से सबके साथ रहता है। उसकी दृष्टि में वे सभी समान महत्त्वपूर्ण हैं।उसका प्रेम साधु और पापी उत्कृष्ट और निकृष्ट में भेद नहीं करता। वह जानता है कि आत्मस्वरूप के अज्ञान से ही पुरुष पापकर्म में प्रवृत्त होता है और अपने ही कर्मों से दुख उठाता है। स्वामी रामतीर्थ इसे बड़ी सुन्दरता से व्यक्त करते हुये कहते हैं कि हम अपने पापों से दण्डित होते हैं न कि पापों के लिए।आत्मस्वरूप के अपरोक्ष अनुभव से वह यह पहचान लेता है कि एक ही आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। अनेकता में एकता को वह जानता है औऱ विश्व के सामञ्जस्य को पहचानता है। सर्वत्र व्याप्त आत्मस्वरूप का अनुभव कर लेने पर वह किसके साथ प्रेम करेगा और किससे घृणा मनुष्य के शरीर के किसी भी अंग में पीड़ा होने पर सबकी ओर देखने का उसका भाव एक ही होता है क्योंकि सम्पूर्ण शरीर में ही वह स्वयं व्याप्त है।इस उत्तम फल को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिये उत्तर है
Swami Ramsukhdas
।।6.9।। व्याख्या--[आठवें श्लोकमें पदार्थोंमें समता बतायी, अब इस श्लोकमें व्यक्तियोंमें समता बताते हैं। व्यक्तियोंमें समता बतानेका तात्पर्य है कि वस्तु तो अपनी तरफसे कोई क्रिया नहीं करती; अतः उसमें समबुद्धि होना सुगम है, परन्तु व्यक्ति तो अपने लिये और दूसरोंके लिये भी क्रिया करता है; अतः उसमें समबुद्धि होना कठिन है। इसलिये व्यक्तियोंके आचरणोंको देखकर भी जिसकी बुद्धिमें, विचारमें कोई विषमता या पक्षपात नहीं होता, ऐसा समबुद्धिवाला पुरुष श्रेष्ठ है।]'सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु'--जो माताकी तरह ही, पर ममता-रहित होकर बिना किसी कारणके सबका हित चाहनेके और हित करनेके स्वभाववाला होता है, उसको 'सुहृद्' कहते हैं और जो उपकारके बदले उपकार करनेवाला होता है, उसको मित्र कहते हैं।जैसे सुहृद्का बिना कारण दूसरोंका हित करनेका स्वभाव होता है, ऐसे ही जिसका बिना कारण दूसरोंका अहित करनेका स्वभाव होता है उसको 'अरि' कहते हैं। जो अपने स्वार्थसे अथवा अन्य किसी कारणविशेषको लेकर दूसरोंका अहित, अपकार करता है, वह 'द्वेष्य' होता है।दो आपसमें वाद-विवाद कर रहे हैं, उनको देखकर भी जो तटस्थ रहता है, किसीका किञ्चिन्मात्र भी पक्षपात नहीं करता और अपनी तरफसे कुछ कहता भी नहीं, वह 'उदासीन' कहलाता है। परन्तु उन दोनोंकी लड़ाई मिट जाय और दोनोंका हित हो जाय--ऐसी चेष्टा करनेवाला 'मध्यस्थ' कहलाता है।एक तो बन्धु अर्थात् सम्बन्धी है और दूसरा बन्धु नहीं है, पर दोनोंके साथ बर्ताव करनेमें उसके मनमें कोई विषमभाव नहीं होता। जैसे, उसके पुत्रने अथवा अन्य किसीके पुत्रने कोई बुरा काम किया है, तो वह उनके अपराधके अनुरूप दोनोंको ही समान दण्ड देता है, ऐसे ही उसके पुत्रने अथवा दूसरेके पुत्रने कोई अच्छा काम किया है, तो उनको पुरस्कार देनेमें भी उसका कोई पक्षपात नहीं होता।'साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते'--श्रेष्ठ आचरण करनेवालों और पाप-आचरण करनेवालोंके साथ व्यवहार करनेमें तो अन्तर होता है और अन्तर होना ही चाहिये, पर उन दोनोंकी हितैषितामें अर्थात् उनका हित करनेमें, दुःखके समय उनकी सहायता करनेमें उसके अन्तःकरणमें कोई विषमभाव, पक्षपात नहीं होता। 'सबमें एक परमात्मा हैं, ऐसा स्वयंमें होता है, बुद्धिमें सबकी हितैषिता होती है, मनमें सबका हितचिन्तन होता है, और व्यवहारमें परता-ममता छोड़कर सबके सुखका सम्पादन होता है।जहाँ विषमबुद्धि अधिक रहनेकी सम्भावना है, वहाँ भी समबुद्धि होना विशेष है। वहाँ समबुद्धि हो जाय, तो फिर सब जगह समबुद्धि हो जाती है।इस श्लोकमें भाव, गुण, आचरण आदिकी भिन्नताको लेकर नौ प्रकारके प्राणियोंका नाम आया है। इन प्राणियोंके भाव, गुण, आचरण आदिकी भिन्नताको लेकर उनके साथ बर्ताव करनेमें विषमता आ जाय, तो वह दोषी नहीं है। कारण कि वह बर्ताव तो उनके भाव, आचरण, परिस्थिति आदिके अनुसार ही है और उनके लिये ही है, अपने लिये नहीं। परन्तु उन सबमें परमात्मा ही परिपूर्ण हैं--इस भावमें कोई फरक नहीं आना चाहिये और अपनी तरफसे सबकी सेवा बन जाय--इस भावमें भी कोई अन्तर नहीं आना चाहिये। तात्पर्य यह हुआ कि जिस किसी मार्गसे जिसको तत्त्वबोध हो जाता है, उसकी सब जगह समबुद्धि हो जाती है अर्थात् किसी भी जगह पक्षपात न होकर समान रीतिसे सेवा और हितका भाव हो जाता है। जैसे भगवान् सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् हैं--'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29), ऐसे ही वह सिद्ध कर्मयोगी भी सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् हो जाता है--'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भा0 3। 25। 21)। यहाँ सुहृद्, मित्र आदि नाम लेनेके बाद अन्तमें 'साधुष्वपि च पापेषु' कहनेका तात्पर्य है कि जिसकी श्रेष्ठ आचरणवालों और निकृष्ट आचरणवालोंमें समबुद्धि हो जायगी, उसकी सब जगह समबुद्धि हो जायगी। कारण कि संसारमें आचरणोंकी ही मुख्यता है, आचरणोंका ही असर पड़ता है, आचरणोंसे ही मनुष्यकी परीक्षा होती है, आचरणोंसे ही श्रद्धा-अश्रद्धा होती है, स्वाभाविक दृष्टि आचरणोंपर ही पड़ती है और आचरणोंसे ही सद्भाव-दुर्भाव पैदा होते हैं। भगवान्ने भी 'यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः' (3। 21) कहकर आचरणकी बात मुख्य बतायी है। इसलिये श्रेष्ठ आचरणवाले और निकृष्ट आचरणवाले--इन दोनोंमें समता हो जायगी, तो फिर सबह जगह समता हो जायगी, इन दोनोंमें भी श्रेष्ठ आचरणवाले पुरुषोंमें तो सद्भाव होना सुगम है, पर पाप-आचरणवाले पुरुषोंमें सद्भाव होना कठिन है। अतः भगवान्ने यहाँ'अपि च' दो अव्ययोंका प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है 'और पाप-आचरण करनेवालोंमें भी' जिसकी समबुद्धि है, वह श्रेष्ठ है।यहाँ दीखनेवालोंको लेकर देखनेवालेकी स्थितिका वर्णन किया गया है, अतः'समबुद्धिर्विशिष्यते' कहा है। देखनेवालोंमें जो समबुद्धि होती है, वह हरेकको दीखती नहीं, पर साधकके लिये तो वही मुख्य है; क्योंकि साधक 'मैं अपनी दृष्टिसे कैसा हूँ', ऐसे अपने-आपको देखता है। इसलिये अपने-आपसे अपना उद्धार करनेके लिये कहा गया है (6। 5)।संसारमें प्रायः दूसरोंके आचरणोंपर ही दृष्टि रहती है। साधकको विचार करना चाहिये कि मेरी दृष्टि अपने भावोंपर रहती है या दूसरेके आचरणोंपर? दूसरोंके आचरणोंपर दृष्टि रहनेसे जिस दृष्टिसे अपना कल्याण होता है, वह दृष्टि बंद हो जाती है और अँधेरा हो जाता है। इसलिये दूसरोंके श्रेष्ठ और निकृष्ठ आचरणोंपर दृष्टि न रहकर उनका जो वास्तविक स्वरूप है, उसपर दृष्टि रहनी चाहिये। स्वरूपपर दृष्टि रहनेसे उनके आचरणोंपर दृष्टि नहीं रहेगी; क्योंकि स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है, जब कि आचरण बदलते रहते हैं। सत्य-तत्त्वपर रहनेवाली दृष्टि भी सत्य होती है। परन्तु जिसकी दृष्टि केवल आचरणोंपर ही रहती है, उसकी दृष्टि असत्पर रहनेसे असत् ही होती है। इसमें भी अशुद्ध आचरणोंपर जिसकी ज्यादा दृष्टि है, उसका तो पतन ही समझना चाहिये। तात्पर्य है कि जो आचरण आदरणीय नहीं है, ऐसे अशुद्ध आचरणोंको जो मुख्यता देता है, वह तो अपना पतन ही करता है। अतः भगवान्ने यहाँ अशुद्ध आचरण करनेवाले पापीमें भी समबुद्धिवालेको श्रेष्ठ बताया है। कारण कि उसकी दृष्टि सत्य-तत्त्वपर रहनेसे उसकी दृष्टिमें सब कुछ परमात्मतत्त्व ही रहता है। फिर आगे चलकर 'सब कुछ' नहीं रहता, केवल परमात्मतत्त्व ही रहता है। उसीकी यहाँ 'समबुद्धिर्विशिष्यते' पदसे महिमा गायी गयी है।विशेष बातगीताका योग 'समता' ही है--'समत्वं योग उच्यते' (2। 48)। गीताकी दृष्टिसे अगर समता आ गयी तो दूसरे किसी लक्षणकी जरूरत नहीं है अर्थात् जिसको वास्तविक समताकी प्राप्ति हो गयी है, उसमें सभी सद्गुण-सदाचार स्वतः आ जायँगे और उसकी संसारपर विजय हो जायगी (5। 19)। विष्णुपुराणमें प्रह्लादजीने भी कहा है कि समता भगवान्की आराधना (भजन) है--'समत्वमाराधनमच्युतस्य' (1। 17। 90)। इस तरह जिस समताकी असीम, अपार, अनन्त महिमा है, जिसका वर्णन कभी कोई कर ही नहीं सकता, उस समताकी प्राप्तिका उपाय है बुराईरहित होना। बुराईरहित होनेका उपाय है--(1) किसीको बुरा न मानें, (2) किसीका बुरा न करें, (3) किसीका बुरा न सोचें, (4) किसीमें बुराई न देखें, (5) किसीकी बुराई न सुनें, (6) किसीकी बुराई न कहें। इन छः बातोंका दृढ़तासे पालन करें, तो हम बुराईरहित हो जायँगे। बुराईरहित होते ही हमारेमें स्वतःस्वाभाविक अच्छाई आ जायगी; क्योंकि अच्छाई हमारा स्वरूप है।अच्छाईको लानेके लिये हम प्रयत्न करते हैं, साधन करते हैं; परन्तु वर्षोंतक साधन करनेपर भी वास्तविक अच्छाई हमारेमें नहीं आती और साधन करनेपर खुदको भी सन्तोष नहीं होता, प्रत्युत यही विचार होता है कि इतना साधन करनेपर भी सद्गुण-सदाचार नहीं आये। अतः ये सद्गुण-सदाचार आनेके हैं नहीं--ऐसा समझकर हम साधनसे हताश हो जाते हैं। हताश होनेमें मुख्य कारण यही है कि हमने अच्छाईको उद्योगसाध्य माना है और बुराईको सर्वथा नहीं छोड़ा है। बुराईका सर्वथा त्याग किये बिना आंशिक अच्छाई बुराईको बल देती रहती है। कारण कि आंशिक अच्छाईसे अच्छाईका अभिमान होता है और जितनी बुराई है वह सब-की-सब अच्छाईके अभिमानपर ही अवलम्बित है। पूर्ण अच्छाई होनेपर अच्छाईका अभिमान नहीं होता और बुराई भी उत्पन्न नहीं होती। अतः बुराईका त्याग करनेपर अच्छाई बिना उद्योग किये और बिना चाहे स्वतः आ जाती है। जब अच्छाई हमारेमें आ जाती है तब हम अच्छे हो जाते हैं। जब हम अच्छे हो जाते हैं, तब हमारे द्वारा स्वाभाविक ही अच्छाई होने लगती है। जब अच्छाई होने लग जाती है, तब सृष्टिके द्वारा स्वाभाविक ही हमारा जीवन-निर्वाह होने लगता है अर्थात् जीवन-निर्वाहके लिये हमें परिश्रम नहीं करना पड़ता और दूसरोंका आश्रय भी नहीं लेना पड़ता। ऐसी अवस्थामें हम संसारके आश्रयसे सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। संसारके आश्रयसे सर्वथा मुक्त होते ही हमें स्वतःसिद्ध समता प्राप्त हो जाती है और हम कृतकृत्य हो जाते हैं, जीवन्मुक्त हो जाते हैं। सम्बन्ध--जो समता (समबुद्धि) कर्मयोगसे प्राप्त होती है, वही समता ध्यानयोगसे भी प्राप्त होती है। इसलिये ��गवान् ध्यानयोगका प्रकरण आरम्भ कहते हुए पहले ध्यानयोगके लिये प्रेरणा करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।6.9।। जो पुरुष सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बान्धवों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव वाला है, वह श्रेष्ठ है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।6.9।।स एव च सर्वस्माद्विशिष्यते। साधुपापादिषु समबुद्धिः जीवचितः। परमात्मनः सर्वस्य तन्निमित्तकत्वस्य च सर्वत्रैकरूप्येण चिद्रूपा एव हि जीवाः। विशेषस्त्वन्तःकरणकृतः। सर्वेषां साधुत्वादिकं सर्वमीश्वरकृतमेव। स्वतो न किञ्चिदपि।उक्तं चैतत्सर्वम् स्वतः सर्वेऽपि चिद्रूपाः सर्वदोषविवर्जिताः। जीवास्तेषां तु ये दोषास्त उपाधिकृता मताः। सर्वं चेश्वरतस्तेषां न किञ्चित्स्वत एव तु। समा एवं ह्यतः सर्वे वैषम्यं भ्रान्तिसम्भवम्। एवं समानजीवास्तु विशेषो देवतादिषु। स्वाभाविकस्तु नियमादत एव सनातनाः। असुरादेस्तथा दोषा नित्याः स्वाभाविका अपि। गुणदोषौ मानवानां नित्यौ स्वाभाविकौ मतौ। गुणैकमात्ररूपास्तु देवा एव सदा मताः। इति ब्राह्मे। न तु साधुपापादीनां पूजादिसाम्यम् तत्र दोषस्मृतेःसमानां विषमा पूजा विषमानां समा तथा। क्रियते येन देवोऽपि स्वपदाद्भ्रश्यते पुमान्। इति ब्राह्मे।वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या चैव तु (भवति) पञ्चमी। एतानि मान्यस्थानानि गरीयो ह्युत्तरो (यद्यदु)त्तरम्। 2।136 इति मानवे।गुणानुसारिणीं पूजां समां दृष्टिं च यो नरः। सर्वभूतेषु कुरुते तस्य विष्णुः प्रसीदति। वैषम्यमुत्तमत्वं तु ददाति नरसञ्चयात्। पूजाया विषमा दृष्टिः समा साम्यं विदुःखजम्। इति ब्रह्मवैवर्ते। सुहृदादिषु शास्त्रोक्तपूजादिकृतिः। अन्यूनानधिका या साऽपि समता। तदप्याहुः यथा सुहृत्सु कर्तव्यं पितृशत्रुसुतेषु च। तथा करोति पूजादि समबुद्धिः स उच्यते। इति गारुडे। प्रत्युपकारनिरपेक्षयोपकारकृत्सुहृत्। क्लेशस्थानं निरूप्य यो रक्षां करोति स मित्रम्। अरिर्वधादिकर्ता। कर्तव्ये उपकारे अपकारे च य उदास्ते स उदासीनः। कर्तव्यमुभयमपि यः करोति स मध्यमः। अवासितकृद्वेष्यः। आह चतत् द्वेष्योऽवासितकृत्कार्यमात्रकारी तु मध्यमः। प्रियकृत्प्रियो निरूप्यापि क्लेशं यः परिरक्षति। स मित्रमुपकारं तु अनपेक्ष्योपकारकृत्। यस्ततः स सुहृत्प्रोक्तः शत्रुश्चापि वधादिकृत्। इति।
Sri Anandgiri
।।6.9।।योगारूढस्य प्रशस्तत्वमभ्युपेत्य योगस्याङ्गान्तरं दर्शयति किञ्चेति। परच्छेदः पदार्थोक्तिरिति व्याख्यानाङ्गं संपादयति सुहृदितीति। अरिर्नाम परोक्षमपकारकः प्रत्यक्षमप्रियो द्वेष्य इति विभागः। समबुद्धिरिति व्याचष्टे कः किमिति। प्रथमो हि प्रश्नो जातिगोत्रादिविषयो द्वितीयो व्यापारविषयः। उक्तप्रकारेणाव्यापृतबुद्धित्वे सर्वोत्कर्षो वा सर्वपायविमोक्षो वा सिध्यतीत्याह विशिष्यत इति। पाठद्वयेऽपि सिद्धमर्थं संगृह्य कथयति योगारूढानामिति।
Sri Vallabhacharya
।।6.8 6.9।।योगारूढस्य स्वरूपं श्रैष्ठ्यं चोपपादयति द्वाभ्यां ज्ञानविज्ञानेति। ज्ञानमौपदेशिकं विज्ञानमपरोक्षानुभवः ताभ्यां तृप्त आत्मा यस्य कूटे स्थितोऽपि युक्त इत्युच्यते स योगी सुहृदादिषु तद्विपरीतेषु च समबुद्धिरधिकतरो भवतीति विशिष्यते।
Sridhara Swami
।।6.9।।सुहृन्मित्रादिषु समबुद्धियुक्तस्ततोऽपि श्रेष्ठ इत्याह सुहृदिति। सुहृत् स्वभावेनैव हिताशंसी मित्रं स्नेहवशेनोपकारकः अरिर्घातुकः उदासीनो विवदमानयोरुभयोरप्युपेक्षकः मध्यस्थो विवदमानयोरपि हिताशंसी द्वेष्यो द्वेषविषयः बन्धुः संबन्धी साधवः सदाचारः पापा दुराचाराः एतेषु समा रागद्वेषादिशून्या बुद्धिर्यस्य स तु विशिष्टः।