Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 5 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् | आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||६-५||
Transliteration
uddharedātmanātmānaṃ nātmānamavasādayet . ātmaiva hyātmano bandhurātmaiva ripurātmanaḥ ||6-5||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
6.5 One should raise oneself by one's Self alone; let not one lower oneself; for the Self alone is the friend of oneself, and the Self alone is the enemy of oneself.
।।6.5।। मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध: पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Take full ownership of your professional development and success. Discipline your focus, manage your time, and avoid distractions or negative mindsets (like procrastination, resentment, or envy) that hinder your progress. Your career trajectory is primarily determined by your internal drive and choices, not external circumstances or superficial connections.
🧘 For Stress & Anxiety
Your mental well-being is fundamentally an internal responsibility. Cultivate self-awareness to identify and manage negative thought patterns, anxieties, and emotional reactions that lower your state of mind. Practice self-discipline to prevent your mind from becoming its own enemy, instead nurturing a positive and resilient inner state.
❤️ In Relationships
Understand that the quality of your relationships is deeply influenced by your own inner state and self-mastery. Don't rely solely on others for your happiness or allow attachments to become a source of bondage. Cultivate a strong, disciplined, and discerning 'Self' to foster healthy connections, recognizing that true harmony starts from within.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Your ultimate friend and foe reside within; take full responsibility for your self-mastery and elevation, for your destiny is forged by your inner choices.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
6.5 उद्धरेत् should raise? आत्मना by the Self? आत्मानम् the self? न not? आत्मानम् the self? अवसादयेत् let (him) lower? आत्मा the Self? एव only? हि verily? आत्मनः of the self? बन्धुः friend? आत्मा the Self? एव only? रिपुः the enemy? आत्मनः of the self.Commentary Practise Yog. Discipline the senses and the mind. Elevate yourself and become a Yogarudha. Attain to Yoga. Shine gloriously as a dynamic Yogi. Do not sink into the ocean of Samsara (transmigration). Do not become a wordlyminded man. Do not become a slave of lust? greed and anger. Rise above worldliness? become divine and attain Godhead.You alone are your friend you alone are your enemy. The socalled worldly friend is not your real friend? because he gets attached to you? wastes your time and puts obstacles on your path of Yoga. He is very selfish and keeps friendship with you only to extract something. If he is not able to get from you the object of his selfish interest? he forsakes you. Therefore he is your enemy in reality. If you are attached to your friend on account of delusion or affection? this will become a cause of your bondage to Samsara.Friends and enemies are not outside. They exist in the mind only. It is the mind that makes a friend an enemy and an enemy a friend. Therefore the Self alone is the friend of oneself? and the Self alone is the enemy of oneself. The lower mind or the Asuddha Manas (impure mind) is your real enemy because it binds you to the Samsara? and the higher mind or the Sattvic mind (Suddha Manas or the pure mind) is your real friend? because it helps you in the attainment of Moksha.
Shri Purohit Swami
6.5 Let him seek liberation by the help of his Highest Self, and let him never disgrace his own Self. For that Self is his only friend; yet it may also be his enemy.
Dr. S. Sankaranarayan
6.5. Let a person lift the Self by self and let him not depress the Self. For, the self alone is the friend of the Self and self alone is the foe of the Self.
Swami Adidevananda
6.5 One should raise the self by his own mind and not allow the self to sink; for the mind alone is the friend of the self, and the mind alone is the foe of the slef.
Swami Gambirananda
6.5 One should save oneself by oneself; one should not lower oneself. For oneself is verily one's onw friend; oneself is verily one's own enemy.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।6.5।। शास्त्र के रूप में गीता का प्रयोजन सत्य का और केवल सत्य का ही प्रतिपादन करना है। यह बात और है कि किसी काल विशेष में लोगों की धारणाएं कुछ अन्य प्रकार की बन गयीं हों परन्तु सत्य के प्रतिपादन में समाज में प्रचलित मान्यताओं का कोई महत्व नहीं होता। यह प्रचलित मान्यता कि किसी बाह्य स्रोत जैसे ईश्वर की कृपा साधक की निरन्तर सहायता करके उसे साधन मार्ग में आगे बढ़ाती है हानिकारक नहीं है परन्तु इस मान्यता के साथ ही स्वयं का पुरुषार्थ भी होना पूर्ण सफलता के लिये आवश्यक है। मनुष्य को आत्मोद्धार अपने द्वारा ही करना चाहिये यह स्पष्ट घोषणा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की है। यह कोई यमुना तट पर गोपियों के साथ रासलीला करते हुये आनन्दपूर्ण क्षणों में किया हुआ श्रीकृष्ण का मधुर विनोद नहीं वरन् समरांगण के चरम तनावपूर्ण क्षणों में अर्जुन को किया हुआ आह्वान है और अपने अवतार कार्य की परिपूर्णता भी है। यदि मनुष्य सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति चाहता है तो उसको अपनी सुप्त आन्तरिक शक्तियों को वर्तमान की हीन स्थिति से ऊँचा उठाना होगा और अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानना होगा।प्रत्येक मनुष्य के मन में एक आदर्श की कल्पना होती है। यद्यपि बौद्धिक स्तर पर वह उस आदर्श को स्पष्ट देखता है परन्तु दुर्भाग्य से वह आदर्श हमेशा कल्पना में ही बना रहता है और व्यवहारिक जगत् में वास्तविकता का रूप नहीं ले पाता। हो सकता है हम अपनी बुद्धि से यह जानते हों कि हमें क्या होना चाहिये परन्तु व्यवहार में हम अपने ही आदर्श के सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। आदर्शमैं और वास्तविकमैंके बीच की खाई ही मनुष्य के पूर्णत्व से पतन का मापदण्ड है।अधिकांश लोग अपने दोहरे व्यक्तित्व के विषय में अनभिज्ञ ही होते हैं। सामान्यत हम अपने को आदर्श व्यक्ति समझते हैं जबकि वास्तव में हम अनेक दोषों से युक्त रहते हैं किन्तु इसे हम स्वीकार नहीं करते। समाज में हम ऐसे व्यक्ति को भी देखते हैं जो स्वयं अत्यन्त स्वार्थी होते हुए अपने पड़ोसी की अल्पसी स्वार्थपरता की भी कटु आलोचना करता है दर्पण विहीन देश में संभव है कि एक वक्रदृष्टि का पुरुष दूसरे वक्रदृष्टि वाले पुरुष की खिल्ली उड़ाये क्योंकि वह स्वयं नहीं जानता कि उसकी अपनी आंखे एक दूसरे के साथ कौन सा कोण बना रही हैं।ध्यानपूर्वक आत्मनिरीक्षण करने पर ज्ञात होता है कि बौद्धिक स्तर पर हमारा आदर्श एक नैतिक स्नेहपूर्ण और अनुशासित व्यक्ति का होता है जो हम बनना भी चाहते हैं किन्तु मन के भावनात्मक जगत् में हम अपनी ही आसक्तियों राग और द्वेष प्रेम और घृणा काम और क्रोध के विकारों से पीडित होते हैं और फिर हम एक गली के सामान्य कुत्ते के समान व्यवहार करने लगते हैं जो मांसमज्जा रहित शुष्क हड्डी के लिए अपनी ही जाति के कुत्ते के साथ लड़ाईझगड़ा करता रहता है जब तक मनुष्य अपने इस दोहरे व्यक्तित्त्व के प्रति सजग नहीं होता तब तक उसके लिये धर्म का कोई अर्थ या प्रयोजन नहीं होता। आदर्श और वास्तविकता के बीच की खाई को जिसने पहचान लिया और जो स्वयं का उद्धार करना चाहता है उसके लिये जो साधन बताया जाता है उसे धर्म कहते हैं।हमारा मन ही विनाशक है जो हमें विषय सुखों की ओर लुभाकर उनका दास बना देता है। मन ही है जो आदर्श को भुलाकर निम्न प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है। ऐसे ही मन को बुद्धि के नियन्त्रण में लाना है जो आत्मा को व्यक्त करने की सर्वश्रेष्ठ उपाधि है। संक्षेप में जब बुद्धि की विवेक सार्मथ्य के प्रभाव का उपयोग चंचल स्वभाव के विषयाभिमुख मन को संयमित करने में किया जाता है तब वही मन श्रेष्ठ और दिव्य स्वरूप के साथ युक्त हो जाता है। जिस प्रक्रिया के द्वारा इस कार्य को सम्पन्न किया जाता है उसे आध्यात्मिक साधन कहते हैं।आत्मोद्धार का यह कार्य किसी को ठेका देकर नहीं कराया जा सकता प्रत्येक साधक को यह कार्य स्वयं ही करना होगा यह अकेले नितान्त अकेले चलने का मार्ग है।कोई भी गुरु इसका उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं ले सकता और न कोई शास्त्र इस मुक्ति का वचन दे सकता है पूजा की कोई वेदी अपने आशीर्वाद मात्र से निकृष्ट को उत्कृष्ट नहीं बना सकती। यह सत्य है कि आत्मविकास के मार्ग में गुरु शास्त्र और मन्दिर का अपना स्थान है प्रयोजन है और प्रभाव भी है तथापि अपने अवगुणों एवं मिथ्या धारणाओं से स्वयं को मुक्त करने का मुख्य कार्य तो हमें स्वयं ही करना होगा।अब तक भगवान् ने जो उपचार बताया वह कुछ अंशों में आधुनिक मनोविज्ञान में कहा जाने वाला आत्मनिरीक्षण का मार्ग है जिसमें यह प्रयत्न किया जाता है कि अपने दोषों को समझें मिथ्या का त्याग करें जहाँ तक सम्भव हो सके श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करें आदि। परन्तु यह आंशिक उपचार ही है सम्पूर्ण नहीं।यहाँ श्रीकृष्ण पूर्ण उपचार का वर्णन करते हैं। आत्मनिरीक्षण में निर्दिष्ट साधना को करना मात्र पर्याप्त नहीं है वरन् हमारा प्रयत्न यह होना चाहिये कि आन्तरिक राक्षस के राज्य पर जो कुछ विजय हम पाते हैं उसे सुरक्षित रखें न कि उसे पुन लौटा दें। इस एक ही वाक्य में भगवान् हमें सावधान करते हैं आत्मा का पुन अधपतन न होने दें।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में एक महान् विचार को सुन्दर शैली में व्यक्त किया गया है जिसने व्यासजी को अमर बना दिया है। हम स्वयं ही अपने मित्र हैं और शत्रु भी। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों पर विचार करके उक्त कथन की सत्यता को प्रमाणित कर सकता है। दर्शनशास्त्र की दृष्टि से इसका अभिप्राय गम्भीर है।निम्नस्तर के मन का उत्थान संभव है यदि वह श्रेष्ठ गुणों के प्रभाव मे आने के लिए तत्पर है। जिस मात्रा में वह सहयोग करेगा उसी मात्रा में ही उसका उत्थान भी होगा। चैतन्य आत्मा तो नित्य उपलब्ध है जिससे चेतना पाकर मनुष्य अपना उत्थान अथवा पतन कर सकता है। दोनों विकल्प मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत हैं। इनमें से वह किसे चुनता है यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है।यहाँ एक प्रश्न मन में आ सकता है कि कौन सा पुरुष स्वयं का ही मित्र है और कौन सा पुरुष स्वयं का ही शत्रु उत्तर है
Swami Ramsukhdas
।।6.5।। व्याख्या-- 'उद्धरेदात्मनात्मानम्'--अपने-आपसे अपना उद्धार करे--इसका तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिसे अपने-आपको ऊँचा उठाये। अपने स्वरूपसे जो एकदेशीय 'मैं'-पन दीखता है, उससे भी अपनेको ऊँचा उठाये। कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ आदि और 'मैं'-पन--ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं; अपना स्वरूप नहीं है। जो अपना स्वरूप नहीं है, उससे अपनेको ऊँचा उठाये।अपना स्वरूप परमात्माके साथ एक है और शरीर, इन्द्रियाँ आदि तथा 'मैं'-पन प्रकृतिके साथ एक है। अगर यह अपना उद्धार करनेमें, अपनेको ऊँचा उठानेमें शरीर इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी सहायता मानेगा, इनका सहारा लेगा तो फिर जडताका त्याग कैसे होगा? क्योंकि जड वस्तुओंसे सम्बन्ध मानना, उनकीआवश्यकता समझना उनका सहारा लेना ही खास बन्धन है। जो अपने हैं, अपनेमें हैं, अभी हैं और यहाँ हैं, ऐसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिकी आवश्यकता नहीं है। कारण कि असत्के द्वारा सत्की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत असत्के त्यागसे सत्की प्राप्ति होती है।दूसरा भाव, अभी पूर्वश्लोकमें आया है कि प्राकृत पदार्थ, क्रिया और संकल्पमें आसक्त न हो, उनमें फँसे नहीं, प्रत्युत उनसे अपने-आपको ऊपर उठाये। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पदार्थ, क्रिया और संकल्पका आरम्भ तथा अन्त होता है, उनका संयोग तथा वियोग होता है, पर अपने (स्वयंके) अभावका और परिवर्तनका अनुभव किसीको नहीं होता। स्वयं सदा एकरूप रहता है। अतः उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ आदिमें न फँसना, उनके अधीन न होना, उनसे निर्लिप्त रहना ही अपना उद्धार करना है। मनुष्यमात्रमें एक ऐसी विचारशक्ति है, जिसको काममें लानेसे वह अपना उद्धार कर सकता है। 'ज्ञानयोग'का साधक उस विचारशक्तिसे जड-चेतनका अलगाव करके चेतन (अपने स्वरूप) में स्थित हो जाता है और जड (शरीर-संसार) से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है। 'भक्तियोग' का साधक उसी विचारशक्तिसे 'मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं' इस प्रकार भगवान्से आत्मीयता करके अपना उद्धार कर लेता है। 'कर्मयोग' का साधक उसी विचारशक्तिसे मिले हुए शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि पदार्थोंको संसारका ही मानते हुए संसारकी सेवामें लगाकर उन पदार्थोंमें सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है और अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। इस दृष्टिसे मनुष्य अपनी विचारशक्तिको काममें लेकर किसी भी योग-मार्गसे अपना कल्याण कर सकता है।उद्धारसम्बन्धी विशेष बातविचार करना चाहिये कि 'मैं' शरीर नहीं हूँ; क्योंकि शरीर बदलता रहता है और मैं वही रहता हूँ। यह शरीर 'मेरा' भी नहीं है; क्योंकि शरीरपर मेरा वश नहीं चलता अर्थात् शरीरको मैं जैसे रखना चाहूँ, वह वैसा नहीं रह सकता; जितने दिन रखना चाहूँ, उतने दिन नहीं रह सकता और जैसा सबल बनाना चाहूँ, वैसा बन नहीं सकता। यह शरीर 'मेरे लिये' भी नहीं है; क्योंकि यदि यह मेरे लिये होता तो इसके मिलनेपर मेरी कोई इच्छा बाकी नहीं रहती। दूसरी बात, यह परिवर्तनशील है और मैं अपरिवर्तनशील हूँ। परिवर्तनशील अपरिवर्तनशीलके काम कैसे आ सकता है? नहीं आ सकता। तीसरी बात, यदि यह मेरे लिये होता तो सदा मेरे पास रहता। परन्तु यह मेरे पास नहीं रहता। इस प्रकार शरीर मैं नहीं, मेरा नहीं और मेरे लिये नहीं--इस वास्तविकतापर मनुष्य दृढ़ रहे, तो अपने-आपसे अपना उद्धार हो जायगा।अब शङ्का होती है कि ईश्वर, सन्त-महात्मा, गुरु, शास्त्र--इनसे भी तो मनुष्योंका उद्धार होता है; फिर अपने-आपसे अपना उद्धार करे--ऐसा क्यों कहा? इसका समाधान है कि ईश्वर, सन्त-महात्मा आदि हमारा उद्धार तभी करेंगे, जब उनमें हमारी श्रद्धा होगी। वह श्रद्धा हमें खुद ही करनी पड़ेगी। खुद श्रद्धा किये बिना क्या वे अपनेमें श्रद्धा करा लेंगे? नहीं करा सकते। अगर ईश्वर, सन्त आदि हमारे श्रद्धा किये बिना ही अपनेमें हमारी श्रद्धा कराकर हमारा उद्धार करते तो हमारा उद्धार कभीका हो गया होता। कारण कि आज दिनतक भगवान्के अनेक अवतार हो चुके हैं, कई तरहके सन्त-महात्मा, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी हो चुके हैं; परन्तु अभीतक हमारा उद्धार नहीं हुआ है। इससे भी सिद्ध होता है कि हमने स्वयं उनमें श्रद्धा नहीं की, हम स्वयं उनके सम्मुख नहीं हुए, हमने स्वयं उनकी बात नहीं मानी, इसलिये हमारा उद्धार नहीं हुआ। परन्तु जिन्होंने उनपर श्रद्धा की, जो उनके सम्मुख हो गये, जिन्होंने उनकी बात मानी, उनका उद्धार हो गया। अतः साधकको शास्त्र, भगवान्, गुरु आदिमें श्रद्धाविश्वास करके तथा उनकी आज्ञाके अनुसार चलकर अपना उद्धार कर लेना चाहिये।भगवान्, सन्त-महात्मा आदिके रहते हुए हमारा उद्धार नहीं हुआ है तो इसमें उद्धारकी सामग्रीकी कमी नहींरही है अथवा हम अपना उद्धार करनेमें असमर्थ नहीं हुए हैं। हम अपना उद्धार करनके लिये तैयार नहीं हुए, इसीसे वे सब मिलकर भी हमारा उद्धार करनेमें समर्थ नहीं हुए। अगर हम अपना उद्धार करनेके लिये तैयार हो जायँ, सम्मुख हो जायँ तो मनुष्यजन्म-जैसी सामग्री और कलियुग-जैसा मौका प्राप्त करके हम कई बार अपना उद्धार कर सकते हैं ! पर यह तब होगा, जब हम स्वयं अपना उद्धार करना चाहेंगे। दूसरी बात, स्वयंने ही अपना पतन किया है अर्थात् इसने ही संसारके सम्बन्धको पकड़ा है, संसारने इसको नहीं पकड़ा है। जैसे, बाल्यावस्थाको इसने छोड़ा नहीं, प्रत्युत वह स्वाभाविक ही छूट गयी। फिर इसने जवानीके सम्बन्धको पकड़ लिया कि 'मैं जवान हूँ', पर इसका जवानीके साथ भी सम्बन्ध नहीं रहेगा। तात्पर्य यह हुआ कि अगर यह नया सम्बन्ध नहीं जोड़े तो पुराना सम्बन्ध स्वाभाविक ही छूट जायगा, जो कि स्वतः छूट ही रहा है। पुराना सम्बन्ध तो रहता नहीं और नया सम्बन्ध यह जोड़ लेता है--इससे सिद्ध होता है कि सम्बन्ध जो़ड़ने और छोड़नेमें यह स्वतन्त्र और समर्थ है। अगर यह नया सम्बन्ध न जोड़े, तो अपना उद्धार आप ही कर सकता है। शरीर-संसारके साथ जो संयोग (सम्बन्ध) है, उसका प्रतिक्षण स्वतः वियोग हो रहा है। उस स्वतः होते हुए वियोगको संयोग-अवस्थामें ही स्वीकार कर ले तो यह अपने-आपसे अपना ��द्धार कर सकता है।'नात्मानमवसादयेत्'--यह अपने-आपको पतनकी तरफ न ले जाय--इसका तात्पर्य है कि परिवर्तनशील प्राकृत पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े अर्थात् उनको महत्त्व देकर उनका दास न बने, अपनेको उनके अधीन न माने, अपने लिये उनकी आवश्यकता न समझे। जैसे किसीको धन मिला, पद मिला, अधिकार मिला, तो उनके मिलनेसे यह अपनेको बड़ा, श्रेष्ठ और स्वतन्त्र मानता है पर विचार करक देखें कि यह स्वयं बड़ा हुआ कि धन, पद, अधिकार बड़े हुए? स्वयं चेतन और एकरूप रहते हुए भी इन प्राकृत चीजोंके पराधीन हो जाता है और अपना पतन कर लेता है। बड़े आश्चर्यकी बात है कि इस पतनमें भी यह अपना उत्थान मानता है और उनके अधीन होकर भी अपनेको स्वाधीन मानता है!'आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः'--यह आप ही अपना बन्धु है। अपने सिवाय और कोई बन्धु है ही नहीं। अतः स्वयंको किसीकी जरूरत नहीं है, इसको अपने उद्धारके लिये किसी योग्यताकी जरूरत नहीं है, शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदिकी जरूरत नहीं है और किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिकी भी जरूरत नहीं है। तात्पर्य है कि प्राकृत पदार्थ इसके साधक (सहायक) अथवा बाधक नहीं है। यह स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता है, इसलिये यह स्वयं ही अपना बन्धु (मित्र) है।हमारे जो सहायक हैं ,रक्षक हैं, उद्धारक हैं, उनमें भी जब हम श्रद्धा-भक्ति करेंगे, उनकी बात मानेंगे, तभी वे हमारे बन्धु होंगे, सहायक आदि होंगे। अतः मूलमें हम ही हमारे बन्धु हैं; क्योंकि हमारे माने बिना, हमारे श्रद्धा-विश्वास किये बिना वे हमारे उद्धार नहीं कर सकते--यह नियम है।'आत्मैव रिपुरात्मनः'--यह आप ही अपना शत्रु है अर्थात् जो अपने द्वारा अपने-आपका उद्धार नहीं करता, वह अपने-आपका शत्रु है। अपने सिवाय इसका कोई दूसरा शत्रु नहीं है। प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी इसका अपकार करनेमें समर्थ नहीं हैं। ये शरीर, इन्द्रियाँ आदि जैसे इसका अपकार नहीं कर सकते, ऐसे ही इसका उपकार भी नहीं कर सकते। जब स्वयं उन शरीरादिको अपना मान लेता है, तो यह स्वयं ही अपना शत्रु बन जाता है। तात्पर्य है कि उन प्राकृत पदार्थोंसे अपनेपनकी स्वीकृति ही अपने साथ अपनी शत्रुता है।श्लोकके उत्तरार्धमें दो बार 'एव' पद देनेका तात्पर्य है कि अपना मित्र और शत्रु आप ही है, दूसरा कोई मित्र और शत्रु हो ही नहीं सकता और होना सम्भव भी नहीं है। प्रकृतिके कार्यके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नमाननेसे यह आप ही अपना मित्र है और प्रकृतिके कार्यके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध माननेसे यह आप ही अपना शत्रु है। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि यह स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है। अतः स्वयं अपना मित्र और शत्रु कैसे है--इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं अर्थात् पूर्वश्लोकके उत्तरार्धकी व्याख्या आगेके श्लोकमें करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।6.5।। मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध: पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।6.5।।स च योगारोहः प्रयत्नेन कर्तव्य इत्याह उद्धरेदित्यादिना।
Sri Anandgiri
।।6.5।।योगारूढस्य किं स्यादित्याशङ्क्याह यदैवमिति। योगारोहस्य दृष्टादृष्टोपायैरवश्यकर्तव्यतायै मुक्तिहेतुत्वं तद्विपर्ययस्याधःपतनहेतुत्वं च दर्शयति अत इति। तत्र हेतुमाह आत्मैव हीति। उद्धरणापेक्षामात्मनः सूचयति संसारेति। संसारादूर्ध्वं हरणं कीदृगित्याशङ्क्याह योगारूढतामिति। योगप्राप्तावनास्था तु न कर्तव्येत्याह नात्मानमिति। योगप्राप्त्युपायश्चेन्नानुष्ठीयते तदा योगाभावे संसारपरिहारासंभवादात्माधो नीतः स्यादित्यर्थः। नन्वात्मानं संसारे निमग्नं तदीयो बन्धुस्तस्मादुद्धरिष्यति नेत्याह आत्मैव हीति। कुतोऽवधारणमन्यस्यापि प्रसिद्धस्य बन्धोः संभवात्तत्राह नहीति। अन्यो बन्धुः सन्नपि संसारमुक्तये न भवतीत्येतदुपपादयति बन्धुरपीति। स्नेहादीत्यादिशब्दात्तदनुगुणप्रवृत्तिविषयत्वं गृह्यते। आत्मातिरिक्तस्यापि शत्रोरपकारिणः सुप्रसिद्धत्वादवधारणमनुचितमित्याशङ्क्याह योऽन्य इति।
Sri Vallabhacharya
।।6.5।।अतो विषयेष्वननुषञ्जनं कर्म कृत्वैवात्मानमात्मना स्वेनोद्धरेन्नावसादयेच्च। परोपदेशस्य प्रवर्त्तकत्वमेव नान्यदित्याशयेनात्मनाऽऽत्मानमुद्धरेदित्युक्तम्। तथाहि आत्मैव कर्त्तैव न परो बन्ध्वादिर्भवति। उक्तं च भागवते 5।5।19 गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात् ৷৷. न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्। इति।
Sridhara Swami
।।6.5।।अतो विष��ासक्तित्यागे मोक्षं तदासक्तौ च बन्धं पर्यालोच्य रागादिस्वभावं त्यजेदित्याह उद्धरेदिति। आत्मना विवेकयुक्तेनात्मानं संसारादुद्धरेन्नत्ववसादयेदधो न नयेत्। हि यस्मादात्मैव मनःसङ्गादुपरत आत्मनः स्वस्य बन्धुरुपकारकः रिपुरपकारकश्च।