Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 3 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते | योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ||६-३||
Transliteration
ārurukṣormuneryogaṃ karma kāraṇamucyate . yogārūḍhasya tasyaiva śamaḥ kāraṇamucyate ||6-3||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
6.3 For a sage who wishes to attain to Yoga, action is said to be the means; for the same sage who has attained to Yoga, inaction (iescence) is said to be the means.
।।6.3।। योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मुनि के लिए कर्म करना ही हेतु (साधन) कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उसी पुरुष के लिए शम को (शांति, संकल्पसंन्यास) साधन कहा गया है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your early career or when tackling new challenges, active engagement, hard work, and diligent execution ('karma') are essential for learning, building skills, and establishing competence. Once you attain mastery or leadership, the focus shifts to strategic stillness, wise delegation, and thoughtful decision-making, where discerning 'inaction' or focused reflection becomes the key to deeper impact and sustained success.
🧘 For Stress & Anxiety
When feeling restless or overwhelmed by stress, engaging in purposeful action (e.g., exercise, mindfulness practices, addressing a solvable problem) can be a 'means' to channel energy and bring initial calm. As you develop greater mental discipline, the 'means' for maintaining peace shifts towards intentional cessation, deep meditation, or withdrawing from external stimuli to cultivate profound inner tranquility.
❤️ In Relationships
In developing relationships, active engagement—communicating, supporting, and participating—is vital for building trust and connection. As relationships mature and individuals grow, the focus shifts to the wisdom of 'inaction' or thoughtful restraint: knowing when to listen, when to give space, or when silence is more powerful than words, fostering deeper understanding and respect.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The journey to mastery is progressive: begin with active, purifying engagement, and evolve towards wise, discerning stillness to achieve deeper realization.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
6.3 आरुरुक्षोः wishing to climb? मुनेः of a Muni or sage? योगम् Yoga? कर्म action? कारणम् the cause? उच्यते is said? योगारूढस्य of one who has attained to Yoga? तस्य of him? एव even? शमः inaction (iescence)? कारणम् the cause? उच्यते is said.Commentary For a man who cannot practise meditation for a long time and who is not able to keep his mind steady in meditation? action is a means to get himself enthroned in Yoga. Action purifies his mind and makes the mind fit for the practice of steady meditation. Action leads to steady concentration and meditation.For the sage who is enthroned in Yoga? Sama or renunciation of actions is said to be the means.The more perfectly he abstains from actions? the more steady his mind is? and the more peaceful,he is? the more easily and thoroughly does his mind get fixed in the Self. For a Brahmana there is no wealth like unto the knowledge of oneness and homogeneity (of the Self in all beings)? truthfulness? good character? steadiness? harmlessness? straightforwardness and renunciation of all actions. (Mahabharata? Santi Parva? 175.38)
Shri Purohit Swami
6.3 For the sage who seeks the heights of spiritual meditation, practice is the only method, and when he has attained them, he must maintain himself there by continual self-control.
Dr. S. Sankaranarayan
6.3. For a sage, who is desirous of mounting upon the Yoga, action is said to be the cause; for the same [sage], when he has mounted upon the Yoga, ietude is said to be the cause.
Swami Adidevananda
6.3 Action is said to be the means for the sage who seeks to climb the heights of Yoga; but when he has climbed the heights of Yoga, tranillity is said to be the means.
Swami Gambirananda
6.3 For the sage who wishes to ascend to (Dhyana-) yoga, action is said to be the means. For that person, when he has ascended to (Dhyana-)yoga, inaction alone is said to be the means.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।6.3।। ध्यानयोग पर आरूढ़ होने के इच्छुक व्यक्ति के लिए प्रथम साधन कहा गया है कर्म। जगत् में कर्तृत्व के अभिमान और फलासक्ति का त्याग करके कर्म करने से पूर्व संचित वासनाओं का क्षय होता है और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं।यहाँ योगारूढ़ होने के विषय को स्पष्ट करने के लिए अश्वारोहण (घोड़े की सवारी) के अत्यन्त उपयुक्त रूपक का प्रयोग किया गया है। जब मनुष्य किसी स्वच्छंद अश्व पर पहली बार सवार होने का प्रयत्न करता है तब पहले तो वह अश्व ही उस पर सवार हो जाता है यदि कोई व्यक्ति युद्ध के अश्व को अपने पूर्णवश में करना चाहे तो कुछ काल तक उसे उस अश्व पर सवार होने का प्रयास करना पड़ता है। एक पैर को पायदान पर रखकर जीन पर झूलते हुए दूसरे पैर को पृथ्वी से उठाकर (उछलकर) अश्व की पीठ पर बैठने और उसे अपने वश में करने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। एक बार उस पर सवार हो जाने के बाद उसे अपने वश में रखना सरल काय्र्ा है परन्तु तब तक अश्वारोही को उस अवस्था में से गुजरना पड़ता है जब तक वह पूर्णरूप से न अश्व पर बैठा होता है और न पृथ्वी पर खड़ा होता है।प्रारम्भ में हम केवल कर्म करने वाले होते हैं अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुए हम परिश्रम करते हैं पसीना बहाते हैं रोते हैं हँसते हैं। जब व्यक्ति इस प्रकार के कर्मों से थक जाता है तब वह मनोरूप अश्व पर आरूढ़ होना चाहता है। ऐसे ही व्यक्ति को कहते हैं आरुरुक्ष (आरूढ़ होने की इच्छा वाला)। वह पुरुष कर्म तो पूर्व के समान ही करता है परन्तु अहंकार और स्वार्थ को त्यागकर। यज्ञ भावना से किये गये कर्म वासनाओं को नष्ट करके अन्तकरण को शुद्ध एवं सुसंगठित कर देते हैं। ऐसे शुद्धान्तकरण वाले साधक को शनैशनै कर्म से निवृत्त होकर ध्यान का अभ्यास अधिक करना चाहिए। जब वह मन पर विजय प्राप्त करके उसकी प्रवृत्त्ायों को अपने वश में कर लेता है तब वह योगारूढ़ कहा जाता है। मन के समत्व प्राप्त योगारूढ़ व्यक्ति के लिए ज्ञानरूप शम अर्थात् शांति वह साधन है जिसके द्वारा वह अपने पूर्णस्वरूप में स्थित हो सकता है।इस प्रकार एक ही व्यक्ति के लिए उसके विकास की अवस्थाओं को देखते हुए कर्म और ध्यान की दो साधनाएँ बतायी गयी हैं जो परस्पर विरोधी नहीं है । एक अवस्था में निष्काम कर्मों का आचरण उपयुक्त है तथापि कुछ काल के पश्चात् वह भी कभीकभी मनुष्य की शांति को भंग करके उसे मानो पृथ्वी पर पटक देता है। दुग्ध चूर्ण को पानी में घोलकर बनाया हुआ पतला दूध एक छोटे से शिशु के लिए तो पुष्टिवर्धक होता है परन्तु दूध की वह बोतल बड़े बालक के लिए पर्याप्त नहीं होती जो दिन भर खेलता है और काम करता है। उसे मक्खन और रोटी की आवश्यकता होती है। किन्तु यही रोटी शिशु के लिए प्राणघातक हो सकती है।इसी प्रकार साधना की प्रारम्भिक अवस्था में निष्काम कर्म समीचीन है परन्तु और अधिक विकसित हुए साधक को आवश्यक है आत्मचिन्तनरूप निदिध्यासन। पहले अहंकार रहित कर्म साधन है और तत्पश्चात् आत्मस्वरूप का ध्यान। इस ध्यानाभ्यास की आवश्यकता तब तक होती है जब तक साधक निश्चयात्मक रूप से यह अनुभव न कर ले कि शुद्ध आत्मा ही पारमार्थिक सत्य वस्तु है न कि अहंकार। तत्पश्चात् वह कर्म करे अथवा न करे उसे इस ज्ञान की विस्मृति नहीं होती।इस प्रकार आत्मोन्नति के मार्ग में कर्मों का एक निश्चित स्थान होना सिद्ध होता है और उसी प्रकार इसका उपदेश देने वाले मनीषियों की बुद्धिमत्ता भी प्रमाणित होती है।कब यह साधक योगरूढ़ बन जाता है उत्तर है
Swami Ramsukhdas
।।6.3।। व्याख्या--'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते'--जो योग-(समता-) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये (योगारूढ़ होनेमें) निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्म करना कारण है। तात्पर्य है कि करनेका वेग मिटानेमें प्राप्त कर्तव्य-कर्म करना कारण है; क्योंकि कोई भी व्यक्ति जन्मा है, पला है और जीवित है तो उसका जीवन दूसरोंकी सहायताके बिना चल ही नहीं सकता। उसके पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्तक कोई ऐसी चीज नहीं है, जो प्रकृतिकी न हो। इसलिये जबतक वह इन प्राकृत चीजोंको संसारकी सेवामें नहीं लगाता, तबतक वह योगारूढ़ नहीं हो सकता अर्थात् समतामें स्थित नहीं हो सकता; क्योंकि प्राकृत वस्तुमात्रकी संसारके साथ एकता है, अपने साथ एकता है ही नहीं। प्राकृत पदार्थोंमें जो अपनापन दीखता है, उसका तात्पर्य है कि उनको दूसरोंकी सेवामें लगानेका दायित्व हमारेपर है। अतः उन सबको दूसरोंकी सेवामें लगानेका भाव होनेसे सम्पूर्ण क्रियाओंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जायगा और वह स्वयं योगारूढ़ हो जायगा। यही बात भगवान्ने दूसरी जगह अन्वय-व्यतिरेक रीतिसे कही है कि यज्ञके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवालोंके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं अर्थात् किञ्चिन्मात्र भी बन्धनकारक नहीं होते (गीता 4। 23) और यज्ञसे अन्यत्र अर्थात् अपने लिये किये गये कर्म बन्धनकारक होते हैं (गीता 3। 9)।योगारूढ़ होनेमें कर्म कारण क्यों हैं? क्योंकि फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें हमारी समता है या नहीं, उसका हमारेपर क्या असर पड़ता है--इसका पता तभी लगेगा, जब हम कर्म करेंगे। समताकी पहचान कर्म करनेसे ही होगी। तात्पर्य है कि कर्म करते हुए यदि हमारेमें समता रही, राग-द्वेष नहीं हुए, तब तो ठीक है; क्योंकि वह कर्म 'योग' में कारण हो गया। परन्तु यदि हमारेमें समता नहीं रही, राग-द्वेष हो गये; तो हमारा जडताके साथ सम्बन्ध होनेसे वह कर्म 'योग' में कारण नहीं बना।'योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते'--असत्के साथ सम्बन्ध रखनेसे ही अशान्ति पैदा होती है। इसका कारण यह है कि असत् पदार्थों-(शरीरादि-) के साथ स्वयंका सम्बन्ध एक क्षण भी रह नहीं सकता और रहता भी नहीं; क्योंकि स्वयं सदा रहनेवाला है और शरीरादि मात्र पदार्थ प्रतिक्षण अभावमें जा रहे हैं। उन प्रतिक्षण अभावमें जानेवालोंके साथ वह स्वयं अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और उनके साथ अपना सम्बन्ध रखना चाहता है। परन्तु उनके साथ सम्बन्ध रहता नहीं तो उनके चले जानेके भयसे और उनके चले जानेसे अशान्ति पैदा हो जाती है। जब यह शरीरादि असत् पदार्थोंको संसारकी सेवामें लगाकर उनसे अपना सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, तब असत्के त्यागसे उसको स्वतः एक शान्ति मिलती है। अगर साधक उस शान्तिमें भी सुख लेने लग जायगा तो वह बँध जायगा। अगर उस शान्तिमें राग नहीं करेगा, उससे सुख नहीं लेगा, तो वह शान्ति परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कारण हो जाती है। सम्बन्ध--योगारूढ़ कौन होता है--इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।6.3।। योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मुनि के लिए कर्म करना ही हेतु (साधन) कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उसी पुरुष के लिए शम को (शांति, संकल्पसंन्यास) साधन कहा गया है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।6.3।।कियत्कालं कर्म कर्त्तव्यं इत्यत आह आरुरुक्षोर्मुनेरिति। योगमारुरुक्षोपायसम्पूर्तिमिच्छोः। योगमारूढस्य सम्पूर्णोपायस्य अपरोक्षज्ञानिन इत्यर्थः। कारणं परमसुखकारणम्। अपरोक्षज्ञानिनोऽपि समाध्यादि फलमुक्तम् पृ.199200। तस्य सर्वोपशमेन समाधिरेव कारणं प्राधान्येनेत्यर्थः। तथापि यदा भोक्तव्योपरमस्तदैव सम्यगसम्प्रज्ञातसमाधिर्जायते अन्यदा तु भगवच्चरितादौ स्थितिः। तच्चोक्तम् ये त्वां पश्यन्ति भगवंस्त एव सुखिनः परम्। तेषामेव तु संक्रम्य समाधिर्जायते नृणाम्। भोक्तव्यकर्मण्यक्षीणे जपेन कथयाऽपि वा। वर्तयन्ति महात्मानस्तद्भक्तास्तत्परायणाः इति।
Sri Anandgiri
।।6.3।।परमार्थसंन्यासस्य कर्मयोगान्तर्भावे कर्मयोगस्यैव सदा कर्तव्यत्वमापद्येत तेनेतरस्यापि कृतत्वसिद्धेरित्याशङ्क्योक्तानुवादपूर्वकमुत्तरश्लोकतात्पर्यमाह ध्यानयोगस्येति। भाविन्या वृत्त्या मुनेर्योगमारोढुमिच्छोरिष्यमाणस्य योगारोहणस्य कर्म हेतुश्चेदपेक्षितं योगमारूढस्यापि तत्फलप्राप्तौ तदेव कारणं भविष्यति तस्य कारणत्वे क्लृप्तशक्तित्वादित्याशङ्क्याह योगारूढस्येति। अनारूढस्येत्येतस्यैवार्थं स्फुटयति ध्यानेति। मुनित्वं कर्मफलसंन्यासिन्यौपचारिकमित्याह कर्मफलेति। साधनं चित्तशुद्धिद्वारा ध्यानयोगप्राप्तीच्छायामिति शेषः। तस्येति प्रकृतस्य कर्मिणो ग्रहणम्। एवकारो भिन्नक्रमः शमशब्देन संबध्यते। कस्यान्ययोगव्यवच्छेदेन शमो हेतुरिति तत्राह योगारूढत्वस्येति। सर्वव्यापारोपरमरूपोपशमस्य योगारूढत्वे कारणत्वं विवृणोति यावद्यावदिति। सर्वकर्मनिवृत्तावायासाभावाद्वशीकृतस्येन्द्रियग्रामस्य चित्तसमाधाने योगारूढत्वं सिध्यतीत्यर्थः। सर्वकर्मोपरमस्य पुरुषार्थसाधनत्वे पौराणिकीं संमतिमाह तथाचेति। एकता सर्वेषु भूतेषु वस्तुतो द्वैताभावोपलक्षितत्वमिति प्रतिपत्तिः। समता तेष्वेवौपाधिकविशेषेऽपि स्वतो निर्विशेषत्वधीः। सत्यता तेषामेव हितवचनम्। शीलं स्वभावसंपत्तिः। स्थितिः स्थैर्यम्। दण्डनिधानमहिंसनम्। आर्जवमवक्रत्वम्। क्रियाभ्यः सर्वाभ्यः सकाशादुपरतिश्चेत्येतदुक्तं सर्वं यथा यादृशमेतादृशं नान्यद्ब्राह्मणस्य वित्तं पुमर्थसाधनमस्ति तस्मादेतदेवास्य निरतिशयं पुरुषार्थसाधनमित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।6.3।।तत्र योगेऽपि साङ्ख्यवत्कर्त्तव्यव्यवस्थामाह आरुरुक्षोरिति। योगमात्मसंयमनं पदमारुरुक्षोरधिकारिणस्त्वादृशस्योक्तरीत्या कर्म स्वधर्मकरणं तदारोहे कारणमुच्यते। तस्यैव योगारूढस्य सतः सर्वतः संयतचेतसः शमः समस्तसङ्कल्पपरित्यागस्तद्दाढर्ये कारणं स्थूणाखननवन्मतं योगारूढतया सिद्धत्वात्।
Sridhara Swami
।।6.3।।तर्हि यावज्जीवं कर्मयोग एव प्राप्त इत्याशङ्क्य तस्यावधिमाह आरुरुक्षोरिति। ज्ञानयोगमारोढुं प्राप्तुमिच्छोः पुंसस्तदारोहे कारणं कर्मोच्यते चित्तशुद्धिकरत्वात्। ज्ञानयोगमारूढस्य तु तस्यैव ज्ञाननिष्ठस्य शमः समाधिश्चित्तविक्षेपकर्मोपरमो ज्ञानपरिपाके कारणमुच्यते।