Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 26 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Mental Discipline

Sanskrit Shloka (Original)

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् | ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ||६-२६||

Transliteration

yato yato niścarati manaścañcalamasthiram . tatastato niyamyaitadātmanyeva vaśaṃ nayet ||6-26||

Word-by-Word Meaning

यतःयतःfrom whatever cause
निश्चरतिwanders away
मनःmind
चञ्चलम्restless
अस्थिरम्unsteady
ततःततःfrom that
नियम्यhaving restrained
एतत्this
आत्मनिin the Self
एवalone
वशम्(under) control

📖 Translation

English

6.26 From whatever cause the restless and unsteady mind wanders away, from that let him restrain it and bring it under the control of the Self alone.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।6.26।। यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

When tackling complex tasks or projects, identify specific triggers (notifications, unrelated thoughts, self-doubt) that pull your mind away. Consciously redirect your focus back to the present task, reminding yourself of its purpose and the value it adds. Practice 'deep work' by creating an environment conducive to sustained concentration, making the task itself the 'Self' to which your mind returns.

🧘 For Stress & Anxiety

In moments of anxiety, worry, or rumination, notice where your mind is wandering (e.g., replaying past events, anticipating negative futures). Gently but firmly bring your attention back to your breath, a grounding sensation, or a constructive present-moment action. Regularly cultivate an 'inner sanctuary' through mindfulness or meditation, making this internal state of peace more attractive than the 'restless' pull of external stressors.

❤️ In Relationships

During interactions with loved ones, observe if your mind is drifting to past grievances, future expectations, or external distractions (like your phone). Deliberately pull your attention back to the present moment of communication – actively listening, observing body language, and fully engaging with the other person. Recognize that true connection stems from a mind present and focused on the shared moment, rather than being swayed by internal or external 'wandering causes'.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Wherever your restless mind wanders, gently but firmly bring it back to your inner Self for true control and lasting peace.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

6.26 यतःयतः from whatever cause? निश्चरति wanders away? मनः mind? चञ्चलम् restless? अस्थिरम् unsteady? ततःततः from that? नियम्य having restrained? एतत् this? आत्मनि in the Self? एव alone? वशम् (under) control? नयेत् let (him) bring.Commentary In this verse the Lord gives the method to control the mind. Just as you drag the bull again and again to your house when it runs out? so also you will have to drag the mind to your point or centre or Lakshya again and again when it runs towards the external objects. If you give good cotton seed extract? sugar? plantains? etc.? to the bull? it will not turn away but will remain in your house. Even so if you make the mind taste the eternal bliss of the Self within little by little by the practice of concentration? it will gradually abide in the Self only and will not run towards the external objects of the senses. Sound and the other objects only make the mind restless and unsteady. By knowing the defects of the objects of sensual pleasure? by understanding their illusory nature? by the cultivation of discrimination between the Real and the unreal and also dispassion? and by making the mind understand the glory and the splendour of the Self you can wean the mind entirely away from sensual objects and fix it firmly on the Self.

Shri Purohit Swami

6.26 When the volatile and wavering mind would wander, let him restrain it and bring it again to its allegiance to the Self.

Dr. S. Sankaranarayan

6.26. By whatever things the shaky and unsteady mind goes astray, from those things let him restrain it and bring it back to the control of the Self alone.

Swami Adidevananda

6.26 Wherever the fickle and unsteady mind wanders, he should subdue it then and there bring it back under the control of the self alone.

Swami Gambirananda

6.26 (The yogi) should bring (this mind) under the subjugation of the Self Itself, by restraining it from all those causes whatever due to which the restless, unsteady mind wanders away.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।6.26।। पूर्व दो श्लोकों से साधकों के मन में उत्साह आता है परन्तु जब वे अभ्यास में प्रवृत्त होते हैं तब जो कठिनाई आती है उससे उन्हें कुछ निराशा होने लगती है। प्रत्येक साधक यह अनुभव करता है कि उसका मन समस्त विरोधों को तोड़ता हुआ ध्येय विषय से हटकर पुन विषयों का चिन्तन करने लगता है। कारण यह है कि मन का स्वभाव ही है चंचलता और अस्थिरता। न वह किसी एक विषय का सतत अनुसन्धान कर पाता है और न विभिन्न विषयों का। चंचल और अस्थिर इन दो विशेषणों के द्वारा भगवान् ने मन का सुस्पष्ट और वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया है जो सभी साधकों का अपना स्वयं का अनुभव है। ये दो शब्द इतने प्रभावशाली हैं कि आगे हम देखेंगे कि अर्जुन अपनी एक शंका को पूछते हुये इन्हीं शब्दों का प्रयोग करता है।यद्यपि ध्यान के समय साधक अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है तथापि मन पूर्व अनुभवों की स्मृति से विचलित होकर पुन विषयों का चिन्तन प्रारंभ करने लगता है ये क्षण एक सच्चे साधक के लिए घोर निराशा के क्षण होते हैं। मन का यह भटकाव अनेक कारणों से हो सकता है जैसे भूतकाल की स्मृतियां किसी आकर्षक वस्तु का सामीप्य किसी से राग या द्वेष और यहाँ तक कि आध्यात्मिक विकास के लिए अधीरता भी। भगवान् का उपदेश हैं कि मन के विचरण का कोई भी कारण हो साधक को निराश और अधीर होने की आवश्यकता नहीं है। उसको यह समझना चाहिए कि अस्थिरता तो मन का स्वभाव ही है और ध्यान का प्रयोजन ही मन के इस विचरण को शांत करना है।साधक को उपदेश दिया गया है कि जबजब यह मन ध्येय को छोड़कर विषयों की ओर जाय तबतब उसे वहाँ से परावृत्त करके ध्येय में स्थिर करे। दृढ़ इच्छा शक्ति के द्वारा कुछ सीमा तक मन को विषयों से निवृत्त किया जा सकता है परन्तु वह पुन उनकी ही ओर जायेगा। साधकगण भूल जाते हैं कि वृत्तिप्रवाह ही मन है और इसलिए वृत्तिशून्य होने पर मन रहेगा ही नहीं अत विषयों से मन को निवृत्त करने के पश्चात् साधक को यह आवश्यक है कि उस समाहित मन को आत्मानुसंधान में प्रवृत्त करे। भगवान् इसी बात को इस प्रकार कहते हैं कि मन को पुन आत्मा के ही वश में लावे।अगले कुछ श्लोकों में योगी पर इस योग का क्या प्रभाव होता है उसे बताया गया है

Swami Ramsukhdas

।।6.26।। व्याख्या--'यतो यतो निश्चरति ৷৷. आत्मन्येव वशं नयेत्'--साधकने जो ध्येय बनाया है, उसमें यह मन टिकता नहीं, ठहरता नहीं। अतः इसको अस्थिर कहा गया है। यह मन तरह-तरहके सांसारिक भोगोंका, पदार्थोंका चिन्तन करता है। अतः इसको 'चञ्चल' कहा गया है। तात्पर्य है कि यह मन न तो परमात्मामें स्थिर होता है और न संसारको ही छोड़ता है। इसलिये साधकको चाहिये कि यह मन जहाँ-जहाँ जाय, जिस-जिस कारणसे जाय, जैसे-जैसे जाय और जब-जब जाय, इसको वहाँ-वहाँसे, उस-उस कारणसे वैसे-वैसे और तब-तब हटाकर परमात्मामें लगाये। इस अस्थिर और चञ्चल मनका नियमन करनेमें सावधानी रखे, ढिलाई न करे।मनको परमात्मामें लगानेका तात्पर्य है कि जब यह पता लगे कि मन पदार्थोंका चिन्तन कर रहा है, तभी ऐसा विचार करे कि चिन्तनकी वृत्ति और उसके विषयका आधार और प्रकाशक परमात्मा ही हैं। यही परमात्मामें मन लगाना है।परमात्मामें मन लगानेकी युक्तियाँ (1) मन जिस किसी इन्द्रियके विषयमें, जिस किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति आदिमें चला जाय अर्थात् उसका चिन्तन करने लग जाय, उसी समय उस विषय आदिसे मनको हटाकर अपने ध्येय--परमात्मामें लगाये। फिर चला जाय तो फिर लाकर परमात्मामें लगाये। इस प्रकार मनको बार-बार अपने ध्येयमें लगाता रहे। (2) जहाँ-जहाँ मन जाय, वहाँ-वहाँ ही परमात्माको देखे। जैसे गङ्गाजी याद आ जायँ, तो गङ्गाजीके रूपमें परमात्मा ही हैं, गाय याद आ जाय, तो गायरूपसे परमात्मा ही हैं--इस तरह मनको परमात्मामें लगाये। दूसरी दृष्टिसे, गङ्गाजी आदिमें सत्तारूपसे परमात्मा-ही-परमात्मा हैं; क्योंकि इनसे पहले भी परमात्मा ही थे, इनके मिटनेपर भी परमात्मा ही रहेंगे और इनके रहते हुए भी परमात्मा ही हैं--इस तरह मनको परमात्मामें लगाये। (3) साधक जब परमात्मामें मन लगानेका अभ्यास करता है, तब संसारकी बातें याद आती हैं। इससे साधक घबरा जाता है कि जब मैं संसारका काम करता हूँ, तब इतनी बातें याद नहीं आतीं, इतना चिन्तन नहीं होता; परन्तु जब परमात्मामें मन लगानेका अभ्यास करता हूँ, तब मनमें तरह-तरहकी बातें याद आने लगती हैं! पर ऐसा समझकर साधकको घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि जब साधकका उद्देश्य परमात्माका बन गया, तो अब संसारके चिन्तनके रूपमें भीतरसे कूड़ा-कचरा निकल रहा है, भीतरसे सफाई हो रही है। तात्पर्य है कि सांसारिक कार्य करते समय भीतर जमा हुए पुराने संस्कारोंको बाहर निकलनेका मौका नहीं मिलता। इसलिये सांसारिक कार्य छोड़कर एकान्तमें बैठनेसे उनको बाहर निकलनेका मौका मिलता है और वे बाहर निकलने लगते हैं। (4) साधकको भगवान्का चिन्तन करनेमें कठिनता इसलिये पड़ती है कि वह अपनेको संसारका मानकर भगवान्का चिन्तन करता है। अतः संसारका चिन्तन स्वतः होता है और भगवान्का चिन्तन करना पड़ता है, फिर भी चिन्तन होता नहीं। इसलिये साधकको चाहिये कि वह भगवान्का होकर भगवान्का चिन्तन करे। तात्पर्य है कि 'मैं तो केवल भगवान्का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं; मैं शरीर-संसारका नहीं हूँ और शरीर-संसार मेरे नहीं हैं'--इस तरह भगवान्के साथ सम्बन्ध होनेसे भगवान्का चिन्तन स्वाभाविक ही होने लगेगा, चिन्तन करना नहीं पड़ेगा। (5) ध्यान करते समय साधकको यह ख्याल रखना चाहिये कि मनमें कोई कार्य जमा न रहे अर्थात् 'अमुक कार्य करना है, अमुक स्थानपर जाना है, अमुक व्यक्तिसे मिलना है, अमुक व्यक्ति मिलनेके लिये आनेवाला है, तो उसके साथ बातचीत भी करनी है' आदि कार्य जमा न रखे। इन कार्योंके संकल्प ध्यानको लगने नहीं देते। अतः ध्यानमें शान्तचित्त होकर बैठना चाहिये। (6) ध्यान करते समय कभी संकल्प-विकल्प आ जायँ, तो 'अड़ंग बड़ंग स्वाहा'--ऐसा कहकर उनको दूर कर दे अर्थात् 'स्वाहा' कहकर संकल्प-विकल्प (अड़ंग-बड़ंग) की आहुति दे दे। (7) सामने देखते हुए पलकोंको कुछ देर बार-बार शीघ्रतासे झपकाये और फिर नेत्र बंद कर ले। पलकें झपकानेसे जैसे बाहरका दृश्य कटता है, ऐसे ही भीतरके संकल्प-विकल्प भी कट जाते हैं। (8) पहले नासिकासे श्वासको दो-तीन बार जोरसे बाहर निकाले और फिर अन्तमें जोरसे (फुंकारके साथ) पूरे श्वासको बाहर निकालकर बाहर ही रोक दे। जितनी देर श्वास रोक सके, उतनी देर रोककर फिर धीरे-धीरे श्वास लेते हुए स्वाभाविक श्वास लेनेकी स्थितिमें आ जाय। इससे सभी संकल्प-विकल्प मिट जाते हैं।  सम्बन्ध--चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें जिस ध्यानयोगीकी उपरतिका वर्णन किया गया, आगेके दो श्लोकोंमें उसकी अवस्थाका वर्णन करते हुए उसके साधनका फल बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।6.26।। यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।6.26।।यतो यतो यत्र यत्रयतो यतो धावति भाग.10।1।42 इत्यादिप्रयोगात्। आत्मन्येव वशं नयेत् आत्मविषय एव वशीकुर्यादित्यर्थः।

Sri Anandgiri

।।6.26।।ननु मनसः शब्दादिनिमित्तानुरोधेन रागद्वेषवशादत्यन्तचञ्चलस्यास्थिरस्य तत्र तत्र स्वभावेन प्रवृत्तस्य कुतो नैश्चल्यं नैश्चिन्त्यं चेति तत्राह तत्रेति। योगप्रारम्भः सप्तम्यर्थः। एवंशब्देन मनसैवेत्यादिरुक्तप्रकारो गृह्यते। स्वाभाविको दोषो मिथ्याज्ञानाधीनो रागादिः। शब्दादेर्मनसो नियमनं कथमित्याशङ्क्याह तत्तन्निमित्तमिति। याथात्म्यनिरूपणं क्षयिष्णुत्वदुःखसंमिश्रत्वाद्यालोचनं तेन तत्र तत्र वैराग्यभावनया तत्तदाभासीकृत्य ततस्ततो नियम्यैतन्मन इति संबन्धः। मनोवशीकरणेनोपशमे किं स्यादित्याशङ्क्याह एवमिति। योगाभ्यासो विषयविवेकद्वारा मनोनिग्रहाद्यावृत्तिः। प्रशान्तमात्मन्येव प्रलीनमिति यावत्।

Sri Vallabhacharya

।।6.26।।सङ्कल्पेति। आत्मन्येव वशं नयेत् प्रत्याहारेण स्थिरं कुर्यादिति निर्बीजत्वमुक्तम्।

Sridhara Swami

।।6.26।।एवमपि रजोगुणवशाद्यदि मनः प्रचलेत्तर्हि पुनः प्रत्याहारेण वशीकुर्यादित्याह यत इति। स्वभावतश्चञ्चलं धार्यमाणमप्यस्थिरं मनो यं यं विषयं प्रति निर्गच्छति ततस्ततः प्रत्याहृत्यात्म्यन्येव स्थिरं कुर्यात्।

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