Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 5 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Omniscience

Sanskrit Shloka (Original)

श्रीभगवानुवाच | बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन | तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ||४-५||

Transliteration

śrībhagavānuvāca . bahūni me vyatītāni janmāni tava cārjuna . tānyahaṃ veda sarvāṇi na tvaṃ vettha parantapa ||4-5||

Word-by-Word Meaning

बहूनिmay
मेMy
व्यतीतानिhave passed away
जन्मानिbirths
तवthy
and
अर्जुनO Arjuna
तानिthem
अहम्I
वेदknow
सर्वाणिall
not
त्वम्thou
वेत्थknowest

📖 Translation

English

4.5 The Blessed Lord said Many births of Mine have passed as well as of thine, O Arjuna; I know them all but thou knowest not, O Parantapa (scorcher of foes).

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.5।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं, (परन्तु) हे परन्तप ! उन सबको मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In professional life, accept that you won't always have all the answers or remember every past lesson perfectly. Trust in the cumulative wisdom gained from years of experience (even those you don't consciously recall) and be open to guidance from those with broader perspective or deeper insight. Humility in knowledge leads to continuous learning and growth.

🧘 For Stress & Anxiety

Alleviate stress by releasing the need to understand every 'why' or 'how' of your personal history or current challenges. Accept that certain aspects of your journey are beyond your immediate conscious recall, and find peace in trusting a larger, guiding process. This perspective can reduce anxiety associated with overthinking past mistakes or future uncertainties.

❤️ In Relationships

Approach relationships with empathy and patience, understanding that everyone carries a vast, often forgotten, history of experiences that shapes their present self. Recognize the limitations of your own perception and avoid quick judgments. This fosters deeper compassion and a willingness to understand others beyond their immediate actions or words.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Our personal histories are vast and often forgotten, yet a divine omniscience remembers and guides our continuous evolution, urging us to trust in a wisdom beyond immediate perception.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.5 बहूनि may? मे My? व्यतीतानि have passed away? जन्मानि births? तव thy? च and? अर्जुन O Arjuna? तानि them? अहम् I? वेद know? सर्वाणि all? न not? त्वम् thou? वेत्थ knowest? परन्तप O Parantapa.Commentary You have no intuitional knowledge. The eye of wisdom has not been opened in you on account of your past actions. So your power of vision is limited and therefore you do not know your previous births. But I know them because I am omniscient.

Shri Purohit Swami

4.5 Lord Shri Krishna replied: I have been born again and again, from time to time; thou too,O Arjuna! My births are known to Me, but thou knowest not thine.

Dr. S. Sankaranarayan

4.5. The Bhagavat said O Arjuna, many births of Mine, as well as of yours have passed. All of them I do know, but you do not, O scorcher of foes !

Swami Adidevananda

4.5 The Lord said Many births of Mine have passed, O Arjuna, and so is it with you also. I know them all, but you do not know them.

Swami Gambirananda

4.5 The Blessed Lord said O Arjuna, many lives of Mine have passed, and so have yours. I know them all, (but) you know not, O scorcher of enemies!

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.5।। हिन्दू शास्त्रों के आचार्य सदैव शिष्यों के मन में उठने वाली सभी संभाव्य शंकाओं का निरसन करने को तत्पर रहते हैं। हम उनमें असीम घैर्य और शिष्यों की कठिनाइयों को समझने की क्षमता के साक्षात् दर्शन कर सकते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि किस प्रकार वे अनन्त स्वरूप हैं और सृष्टि के प्रारम्भ में कैसे उन्होंने सूर्य देवता को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया।पुराणों में वर्णित अवतार का सिद्धान्त इस प्रकरण में विस्तारपूर्वक बताया गया है। अनेक विदेशियों को हिन्दू दर्शन का यह प्रकरण और हिन्दुओं का अवतारवाद में विश्वास अत्यन्त भ्रामक प्रतीत हो सकता है। अनेक विद्वानों ने इस प्रकार के मत प्रगट भी किये हैं परन्तु मैक्समूलर के समान संभवत किसी ने इतनी तीब्र आलोचना नहीं की होगी। अवतार के विषय में वे कहते हैं यह आध्यात्मिक बकवास है।परन्तु यदि हम सृष्टिसम्बन्धी वेदान्त के सिद्धान्त को जानते हुये इस पर विचार करें तो अवतारवाद को समझना कठिन नहीं होगा। एक अन्य स्थान पर मनुष्य के पतन के प्रकरण में यह विस्तार पूर्वक बताया गया है कि सत्वगुणप्रधान उपाधि के माध्यम से व्यक्त होकर अनन्तस्वरूप परमार्थ सत्य ब्रह्म सर्वशक्तिमान् ईश्वर के रूप में प्रकट होता है। इसी अध्याय में आगे श्रीकृष्ण बतायेंगे कि किस प्रकार वे स्वेच्छा और पूर्ण स्वातन्त्र्य से उपाधियों को धारण करके मनुष्यों के मध्य रहते हुए कार्य करते हैं जो उनकी दृष्टि से लीलामात्र है। उन्हें कभी भी अपने दिव्य स्वरूप का विस्मरण नहीं होता।किसी एक भी प्राणी का जन्म केवल संयोग ही नहीं है। डार्विन के विकास के सिद्धान्त के अनुसार भी प्रत्येक व्यक्ति जगत में विकास की सीढी पर उन्नति करने के फलस्वरूप आया है। प्रत्येक देहधारी का जीवन उस जीव के दीर्घ आत्मचरित्र को दर्शाता है। असंख्य और विभिन्न प्रकार के शरीरों में वास करने के पश्चात् ही जीव वर्तमान विकसित स्थिति को प्राप्त करता हुआ है। प्रत्येक नवीन देह में जीव को पूर्व जन्मों का विस्मरण हो जाता है किन्तु वह पूर्व जन्मों में अर्जित वासनाओं से युक्त रहता है। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण की स्थिति एक जीव के समान नहीं समझनी चाहिये। वे अपनी सर्वज्ञता के कारण अर्जुन के और स्वयं के अतीत को जानते हैं अत उन्होंन्ो कहा मैं उन सबको जानता हूँ और तुम नहीं जानते।आपके लिये धर्मअधर्म के अभाव में जन्म की क्या आवश्यकता है आपका जन्म कैसे सम्भव है इसका उत्तर है

Swami Ramsukhdas

4.5।। व्याख्या--[तीसरे श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनको अपना भक्त और प्रिय सखा कहा था, इसलिये पीछेके श्लोकमें अर्जुन अपने हृदयकी बात निःसंकोच होकर पूछते हैं। अर्जुनमें भगवान्के जन्म-रहस्यको जाननेकी प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न हुई है, इसलिये भगवान् उनके सामने मित्रताके नाते अपने जन्मका रहस्य प्रकट कर देते हैं। यह नियम है कि श्रोताकी प्रबल जिज्ञासा होनेपर वक्ता अपनेको छिपाकर नहीं रख सकता। इसलिये सन्त-महात्मा भी अपनेमें विशेष श्रद्धा रखनेवालोंके सामने अपने-आपको प्रकट कर सकते हैं--] (टिप्पणी प0 215) गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं।।                          (मानस 1। 110। 1)'बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन'--समय-समयपर मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। परन्तु मेरा जन्म और तरहका है (जिसका वर्णन आगे छठे श्लोकमें करेंगे) और तेरा (जीवका) जन्म और तरहका है (जिसका वर्णन आठवें अध्यायके उन्नीसवें और तेरहवें अध्यायके इक्कीसवें एवं छब्बीसवें श्लोकमें करेंगे)। तात्पर्य यह कि मेरे और तेरे बहुत-से जन्म होनेपर भी वे अलग-अलग प्रकारके हैं।दूसरे अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा था कि मैं (भगवान्) और तू तथा ये राजालोग (जीव) पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे--ऐसा नहीं है। तात्पर्य यह है कि भगवान् और उनका अंश जीवात्मा--दोनों ही अनादि और नित्य हैं। 'तान्यहं वेद सर्वाणि'--संसारमें ऐसे 'जातिस्मर' जीव भी होते हैं, जिनको अपने पूर्वजन्मोंका ज्ञान होता है। ऐसे महापुरुष 'युञ्जान योगी' कहलाते हैं, जो साधना करके सिद्ध होते हैं। साधनामें अभ्यास करते-करते इनकी वृत्ति इतनी तेज हो जाती है कि ये जहाँ वृत्ति लगाते हैं, वहींका ज्ञान इनको हो जाता है। ऐसे योगी कुछ सीमातक ही अपने पुराने जन्मोंको जान सकते हैं, सम्पूर्ण जन्मोंको नहीं। इसके विपरीत भगवान् 'युक्तयोगी' कहलाते हैं, जो साधना किये बिना स्वतःसिद्ध, नित्य योगी हैं। जन्मोंको जाननेके लिये उन्हें वृत्ति नहीं लगानी पड़ती, प्रत्युत उनमें अपने और जीवोंके भी सम्पूर्ण जन्मोंका स्वतः-स्वाभाविक ज्ञान सदा बना रहता है। उनके ज्ञानमें भूत, भविष्य और वर्तमानका भेद नहीं है, प्रत्युत उनके अखण्ड ज्ञानमें सभी कुछ सदा वर्तमान ही रहता है (गीता 7। 26)। कारण कि भगवान् सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु ,व्यक्ति, परिस्थिति आदिमें पूर्णरूपसे विद्यमान रहते हुए भी इनसे सर्वथा अतीत रहते हैं।[मैं उन सबको जानता हूँ-- भगवान्के इस वचनसे साधकोंको एक विशेष आनन्द आना चाहि���े कि हम भगवान्की जानकारीमें हैं, भगवान् हमें निरन्तर देख रहे हैं! हम कैसे ही क्यों न हों, पर हैं भगवान्के ज्ञानमें।]'न त्वं वेत्थ परंतप'--जन्मोंको न जाननेमें मूल हेतु है-- अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका आकर्षण, महत्त्व होना। इसीके कारण मनुष्यका ज्ञान विकसित नहीं होता। अर्जुनके अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका, व्यक्तियोंका महत्त्व था, इसीलिये वे कुटुम्बियोंके मरनेके भयसे युद्ध नहीं करना चाहते थे। पहले अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि जिनके लिये हमारी राज्य, भोग और सुखकी इच्छा है, वे ही ये कुटुम्बी प्राणोंकी और धनकी आशा छोड़कर युद्धमें खड़े हैं--इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन राज्य, भोग और सुख चाहते थे। अतः नाशवान् पदार्थोंकी कामना होनेके कारण वे अपने पूर्वजन्मोंको नहीं जानते थे।ममता-आसक्तिपूर्वक अपने सुखभोग और आरामके लिये धनादि पदार्थोंका संग्रह करना 'परिग्रह' कहलाताहै। परिग्रहका सर्वथा त्याग करना अर्थात् अपना सुख, आराम आदिके लिये किसी भी वस्तुका संग्रह न करना 'अपरिग्रह' कहलाता है। अपरिग्रहकी दृढ़ता होनेपर पूर्वजन्मोंका ज्ञान हो जाता है-- 'अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोधः।'(पातञ्जलयोगदर्शन 2। 39)संसार (क्रिया और पदार्थ) सदैव परिवर्तनशील और असत् है; अतः उसमें अभाव (कमी) होना निश्चित है। अभावरूप संसारसे सम्बन्ध जोड़नेके कारण मनुष्यको अपनेमें भी अभाव दीखने लग जाता है। अभाव दीखनेके कारण उसमें यह कामना पैदा हो जाती है कि अभावकी तो पूर्ति हो जाय, फिर नया और मिले। इस कामनाकी पूर्तिमें ही वह दिन-रात लगा रहता है। परन्तु कामनाकी पूर्ति होनेवाली है नहीं। कामनाओँके कारण मनुष्य बेहोश-सा हो जाता है। अतः ऐसे मनुष्यको अनेक जन्मोंका ज्ञान तो दूर रहा, वर्तमान कर्तव्यका भी ज्ञान (क्या कर रहा हूँ और क्या करना चाहिये) नहीं होता।  सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। अब आगेके श्लोकमें भगवान् अपने जन्म-(अवतार-) की विलक्षणता बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।4.5।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं, (परन्तु) हे परन्तप ! उन सबको मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.5।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।4.5।।भगवत्यज्ञानान्मनुष्यत्वशङ्कां वारयितुं प्रतिवचनमवतारयति या वासुदेव इति। अन्यथाप्रश्ने कथमाशङ्कान्तरं परिहर्तुं भगवद्वचनमित्याशङ्क्य प्रश्नप्रतिवचनयोरेकार्थत्वमाह यदर्थो हीति। यस्य शङ्कितस्य विरोधस्य परिहारार्थो यस्य प्रश्नस्तमेव परिहारं वक्तुं भगवद्वचनमित्यर्थः। अतीतानेकजन्मवत्त्वं ममैव नासाधारणं किंतु सर्वप्राणिसाधारणमित्याह तव चेति। तानि प्रमाणाभावान्न प्रतिभान्तीत्याशङ्क्याह तानीति। ईश्वरस्यानावृतज्ञानत्वादित्यर्थः। किमिति तर्हि तानि मम न प्रतीयन्ते तवावृतज्ञानत्वादित्याह न त्वमिति। परान्परिकल्प्य तत्परिभवार्थं प्रवृत्तत्वात्तव ज्ञानावरणं विज्ञेयमित्याह परंतपेति। अर्जुनस्य भगवता सहातीतानेकजन्मवत्त्वे तुल्येऽपि ज्ञानवैषम्ये हेतुमाह धर्मेति। आदिशब्देन रागलोभादयो गृह्यन्ते। ईश्वरस्यातीतानागतवर्तमानसर्वार्थविषयज्ञानवत्त्वे हेतुमाह अहमिति।

Sri Vallabhacharya

।।4.5।।रूपान्तरेणोपदिष्टवानित्यवतारस्वरूपतः संशयं परिहरन् श्रीभगवानुवाच बहूनीति। मे जन्मान्यवतारा बहवो व्यतीताः। अनेनावताराणां हेतुभूतमात्मानमवतारिणं सर्वदा सर्वांशपरिपूर्णमुपदिशति। तान्यहं जानामि न तु त्वं इति नित्यसिद्धज्ञानादिशक्तिमत्त्वं स्वस्योपदिष्टम्।तव च जन्मानि इति नराद्यवताराभिप्रायेणोक्तम्। दृष्टान्तवद्वेति केचित्। अनेन सर्वज्ञासर्वज्ञत्वाभ्यां जीवेश्वरयोरेवं भेदतः स्वरूपं ब्रह्मवाद इति दर्शितम्।

Sridhara Swami

।।4.5।।इति पृष्टवन्तमर्जुनं रूपान्तरेणोपदिष्टवानित्यभिप्रायेणोत्तरं श्रीभगवानुवाच बहूनीति। मम बहूनि जन्मानि तव च व्यतीतानि। तानि सर्वाण्यहं वेद जानामि अलुप्तविद्याशक्तित्वात्। त्वं तु न जानासि अविद्यावृतत्वात्।

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