Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 3 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः | भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ||४-३||
Transliteration
sa evāyaṃ mayā te.adya yogaḥ proktaḥ purātanaḥ . bhakto.asi me sakhā ceti rahasyaṃ hyetaduttamam ||4-3||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.3 That same ancient Yoga has been today taught to thee by Me, for thou art My devotee and My friend; it is the supreme secret.
।।4.3।। वह ही यह पुरातन योग आज मैंने तुम्हें कहा (सिखाया) क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। यह उत्तम रहस्य है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
Key Message in One Line
“4.3 That same ancient Yoga has been today taught to thee by Me, for thou art My devotee and My friend; it is the supreme secret.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.3 सः that? एव even? अयम् this? मया by Me? ते to thee? अद्य today? योगः Yoga? प्रोक्तः has been taught? पुरातनः ancient? भक्तः devotee? असि thou art? मे My? सखा friend? च and? इति thus? रहस्यम् secret? हि for? एतत् this? उत्तमम् best.Commentary This Yoga contains profound and subtle teachings. Hence it is the supreme secret which is revealed by the Lord.
Shri Purohit Swami
4.3 It is the same ancient Path that I have now revealed to thee, since thou are My devotee and My friend. It is the supreme Secret.
Dr. S. Sankaranarayan
4.3. The self-same ancient Yoga has been taught now by Me to you on the ground that you are My devotee and friend too. This is the highest secret.
Swami Adidevananda
4.3 It is the same ancient Yoga which is now taught to you by Me, as you are My devotee and My friend. For, this is a supreme mystery.
Swami Gambirananda
4.3 That ancient Yoga itself, which is this, has been taught to you by Me today, considering that you are My devotee and friend, For, this (Yoga) is a profound secret.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.3।। यहाँ भगवान् अब तक के उपदिष्ट ज्ञान के प्राचीनता की घोषणा करके रूढ़िवादी विचारकों की शंका का निर्मूलन कर देते हैं।शिष्य के प्रति स्नेह भाव होने पर ही कोई गुरु उत्साह और कुशलता पूर्वक उपदेश दे सकता है। श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच ऐसा ही सम्बन्ध था और भगवान् को यह विश्वास था कि उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का वह अनुसरण करेगा। गुरु और शिष्य के बीच इस प्रकार की व्यापारिक व्यवस्था न हो कि तुम शुल्क दो और मैं पढ़ाऊँगा। प्रेम और स्वातन्त्र्य मित्रता और आपसी समझ के वातावरण में ही मन और बुद्धि विकसित होकर खिल उठते हैं। आत्मानुभव का ज्ञान प्रदान करने के लिए आवश्यक गुणों को अर्जुन में देखकर ही श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने इस योग का ज्ञान उसे दिया।यहाँ इस ज्ञान को रहस्य कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो फिर भी अनुभवी पुरुष के उपदेश के बिना वह आत्मा के अस्तित्व का कभी आभास भी नहीं पा सकता। समस्त बुद्धि वृत्तियों को प्रकाशित करने वाली आत्मा स्वयं बुद्धि के परे होती है। इसलिये मनुष्य की विवेक सार्मथ्य कभी भी नित्य अविकारी आत्मा को विषय रूप में नहीं जान सकती। यही कारण है कि सत्य के विज्ञान को यहाँ उत्तम रहस्य कहा गया है।किसी के मन में यह शंका न रह जाये कि भगवान् के वाक्यों में परस्पर विरोध है इसलिये अर्जुन मानो आक्षेप करता हुआ प्रश्न पूछता है
Swami Ramsukhdas
4.3।। व्याख्या-- 'भक्तोऽसि मे सखा चेति' अर्जुन भगवान्को अपना प्रिय सखा पहलेसे ही मानते थे (गीता 11। 41 42), पर भक्त अभी (गीता 2। 7 में) हुए हैं अर्थात् अर्जुन सखा भक्त तो पुराने हैं, पर दास्य भक्त नये हैं। आदेश या उपदेश दास अथवा शिष्यको ही दिया जाता है, सखाको नहीं। अर्जुन जब भगवान्के शरण हुए, तभी भगवान्का उपदेश आरम्भ हुआ।जो बात सखासे भी नहीं कही जाती, वह बात भी शरणागत शिष्यके सामने प्रकट कर दी जाती है। अर्जुन भगवान्से कहते हैं कि 'मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए, मुझको शिक्षा दीजिये।' इसलिये भगवान् अर्जुनके सामने अपनेआपको प्रकट कर देते हैं, रहस्यको खोल देते हैं। अर्जुनका भगवान्के प्रति बहुत विशेष भाव था, तभी तो उन्होंने वैभव और अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित 'नारायणी सेना' का त्याग करके निःशस्त्र भगवान्को अपने 'सारथि' के रूपमें स्वीकार किया (टिप्पणी प0 211)।साधारण लोग भगवान्की दी हुई वस्तुओंको तो अपनी मानते हैं (जो अपनी हैं ही नहीं), पर भगवान्को अपना नहीं मानते (जो वास्तवमें अपने हैं)। वे लोग वैभवशाली भगवान्को न देखकर उनके वैभवको ही देखते हैं। वैभवको ही सच्चा माननेसे उनकी बुद्धि इतनी भ्रष्ट हो जाती है कि वे भगवान्का अभाव ही मान लेते हैं अर्थात् भगवान्की तरफ उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। कुछ लोग वैभवकी प्राप्तिके लिये ही भगवान्का भजन करते हैं। भगवान्को चाहनेसे तो वैभव भी पीछे आ जाता है, पर वैभवको चाहनेसे भगवान् नहीं आ सकते। वैभव तो भक्तके चरणोंमें लोटता है; परन्तु सच्चे भक्त वैभवकी प्राप्तिके लिये भगवान्का भजन नहीं करते। वे वैभवको नहीं चाहते, अपितु भगवान्को ही चाहते हैं। वैभवको चाहनेवाले मनुष्य वैभवके भक्त (दास) होते हैं और भगवान्को चाहनेवाले मनुष्य भगवान्के भक्त होते हैं। अर्जुनने वैभव-(नारायणी सेना-) का त्याग करके केवल भगवान्को अपनाया, तो युद्धक्षेत्रमें भीष्म, द्रोण, युधिष्ठिर आदि महापुरुषोंके रहते हुए भी गीताका महान् दिव्य उपदेश केवल अर्जुनको ही प्राप्त हुआ और बादमें राज्य भी अर्जुनको मिल गया!'स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः'-- इन पदोंका यह तात्पर्य नहीं है कि मैंने कर्मयोगको पूर्णतया कह दिया है, प्रत्युत यह तात्पर्य है कि जो कुछ कहा है, वह पूर्ण है। आगे भगवान्के जन्मके विषयमें अर्जुनद्वारा किये गये प्रश्नका उत्तर देकर भगवान्ने पुनः उसी कर्मयोगका वर्णन आरम्भ किया है।भगवान् कहते हैं कि सृष्टिके आदिमें मैंने सूर्यके प्रति जो कर्मयोग कहा था, वही आज मैंने तुमसे कहा है। बहुत समय बीत जानेपर वह योग अप्रकट हो गया था, और मैं भी अप्रकट ही था। अब मैं भी अवतार लेकर प्रकट हुआ हूँ और योगको भी पुनः प्रकट किया है। अतः अनादिकालसे जो कर्मयोग मनुष्योंको कर्मबन्धनसे मुक्त करता आ रहा है, वह आज भी उन्हें कर्मबन्धनसे मुक्त कर देगा।'रहस्यं ह्येतदुत्तमम्'-- जिस प्रकार अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनके सामने 'सर्वगुह्यतम' बात प्रकट की कि 'तू' मेरी शरणमें आ जा मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा', उसी प्रकार यहाँ 'उत्तम रहस्य' प्रकट करते हैं कि 'मैंने ही सृष्टिके आदिमें सूर्यको उपदेश दिया था और वही मैं आज तुझे उपदेश दे रहा हूँ'।भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि तेरा सारथि बनकर तेरी आज्ञाका पालन करनेवाला होकर भी मैं आज तुझे वही उपदेश दे रहा हूँ, जो उपदेश मैंने सृष्टिके आदिमें सूर्यको दिया था। मैं साक्षात् वही हूँ और अभी अवतार लेकर गुप्तरीतिसे प्रकट हुआ हूँ-- यह बहुत रहस्यकी बात है। इस रहस्यको आज मैं तेरे सामने प्रकट कर रहा हूँ; क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है।साधारण मनुष्यकी तो बात ही क्या है, साधककी दृष्टि भी उपदेशकी ओर अधिक एवं उपदेष्टाकी ओर कम जाती है। इस प्रसङ्गको पढ़ने-सुननेपर उपदिष्ट 'योग' पर तो दृष्टि जाती है, पर उपदेष्टा भगवान् श्रीकृष्ण ही आदि नारायण हैं--इसपर प्रायः दृष्टि नहीं जाती। जो बात साधारणतः पकड़में नहीं आती, वह रहस्यकी होती है। भगवान् यहाँ 'रहस्यम्' पदसे अपना परिचय देते हैं, जिसका तात्पर्य है कि साधककी दृष्टि सर्वथा भगवान्की ओर ही रहनी चाहिये।अपने-आपको 'आदि उपदेष्टा 'कहकर भगवान् मानो अपनेको मानवमात्रका 'गुरु' प्रकट करते हैं। नाटक खेलते समय मनुष्य जनताके सामने अपने असली स्वरूपको प्रकट नहीं करता, पर किसी आत्मीय जनके सामने अपनेको प्रकट भी कर देता है। ऐसे ही मनुष्य-अवतारके समय भी भगवान् अर्जुनके सामने अपना ईश्वरभाव प्रकट कर देते हैं अर्थात् जो बात छिपाकर रखनी चाहिये, वह बात प्रकट कर देते हैं। यही उत्तम रहस्य है।कर्मयोगको भी उत्तम रहस्य माना जा सकता है। जिन कर्मोंसे जीव बँधता है '(कर्मणा बध्यते जन्तुः)' उन्हीं कर्मोंसे उसकी मुक्ति हो जाय यह उत्तम रहस्य है। पदार्थोंको अपना मानकर अपने लिये कर्म करनेसे बन्धन होता है, और पदार्थोंको अपना न मानकर (दूसरोंका मानकर) केवल दूसरोंके हितके लिये निःस्वार्थभावपूर्वक सेवा करनेसे मुक्ति होती है। अनुकूलता-प्रतिकूलता, धनवत्ता-निर्धनता, स्वस्थता-रुग्णता आदि कैसी ही परिस्थिति क्यों न हो, प्रत्येक परिस्थितिमें इस कर्मयोगका पालन स्वतन्त्रतापूर्वक हो सकता है। कर्मयोगमें रहस्यकी तीन बातें मुख्य हैं (1) मेरा कुछ नहीं है। कारण कि मेरा स्वरूप सत् (अविनाशी) है और जो कुछ मिला है, वह सब असत् (नाशवान्) है, फिर असत् मेरा कैसे हो सकता है? अनित्यका नित्यके साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है? (2) मेरे लिये कुछ नहीं चाहिये। कारण कि स्वरूप-(सत्-) में कभी अपूर्ति या कमी होती ही नहीं फिर किस वस्तुकी कामना की जाय? अनुत्पन्न अविनाशी तत्त्वके लिये उत्पन्न होनेवाली नाशवान् वस्तु कैसे काममें आसकती है? (3) अपने लिये कुछ नहीं करना है। इसमें पहला कारण यह है कि स्वयं चेतन परमात्माका अंश है और कर्म जड है। स्वयं नित्य-निरन्तर रहता है, पर कर्मका तथा उसके फलका आदि और अन्त होता है। इसलिये अपने लिये कर्म करनेसे आदि-अन्तवाले कर्म और फलसे अपना सम्बन्ध जुड़ता है। कर्म और फलका तो अन्त हो जाता है, पर उनका सङ्ग भीतर रह जाता है, जो जन्म-मरणका कारण होता है-- 'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता 13। 21)। दूसरा कारण यह है कि 'करने' का दायित्व उसीपर आता है जो कर सकता है अर्थात् जिसमें करनेकी योग्यता है और जो कुछ पाना चाहता है। निष्क्रिय निर्विकार अपरिवर्तनशील और पूर्ण होनेके कारण चेतन स्वरूप शरीरके सम्बन्धके बिना कुछ कर ही नहीं सकता इसलिये यह विधान मानना पड़ेगा कि स्वरूपको अपने लिये कुछ नहीं करना है। तीसरा कारण यह है कि स्वरूप सत् है और पूर्ण है; अतः उसमें कभी कमी आती ही नहीं, आनेकी सम्भावना भी नहीं-- 'नाभावो विद्यते सतः' (गीता 2। 16)। कमी न आनेके कारण उसमें कुछ पानेकी इच्छा भी नहीं होती। इससे स्वतः सिद्ध होता है कि स्वरूपपर 'करने' का दायित्व नहीं है अर्थात् उसे अपने लिये कुछ नहीं करना है।कर्मयोगमें 'कर्म' तो संसारके लिये होते हैं और 'योग' अपने लिये होता है। परन्तु अपने लिये कर्म करनेसे 'योग' का अनुभव नहीं होता। 'योग' का अनुभव तभी होगा जब कर्मोंका प्रवाह पूरा-का-पूरा संसारकी ओर ही हो जाय। कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, धन, सम्पत्ति आदि जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब-का-सब संसारसे अभिन्न है, संसारका ही है और उन्हें संसारकी सेवामें ही लगाना है। अतः पदार्थ और क्रियारूप संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये ही दूसरोंके लिये कर्म करना है। यही कर्मयोग है। कर्मयोग सिद्ध होनेपर करनेका राग, पानेकी लालसा, जीनेकी इच्छा और मरनेका भय-- ये सब मिट जाते हैं।जैसे सूर्यके प्रकाशमें लोग अनेक कर्म करते हैं, पर सूर्यका उन कर्मोंसे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता, ऐसे ही 'स्वयं'-(चेतन-) के प्रकाशमें सम्पूर्ण कर्म होते हैं, पर 'स्वयं' का उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता; क्योंकि 'स्वयं' चेतन तथा अपरिवर्तनशील है और कर्म जड तथा परिवर्तनशील हैं। परन्तु जब 'स्वयं' भूलसे उन पदार्थों और कर्मोंके साथ थोड़ा-सा भी सम्बन्ध मान लेता है अर्थात् उन्हें अपने और अपने लिये मान लेता है, तो फिर वे कर्म अवश्य ही उसे बाँध देते हैं।नियत-कर्मका किसी भी अवस्थामें त्याग न करना तथा नियत समयपर कार्यके लिये तत्पर रहना भी सूर्यकी अपनी विलक्षणता है। कर्मयोगी भी सूर्यकी तरह अपने नियत-कर्मोंको नियत समयपर करनेके लिये सदा तत्पर रहता है।कर्मयोगका ठीक-ठीक पालन किया जाय तो यदि कर्मयोगीमें ज्ञानके संस्कार हैं तो उसे ज्ञानकी प्राप्ति, और यदि भक्तिके संस्कार हैं तो उसे भक्तिकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है। कर्मयोगका पालन करनेसे अपना ही नहीं, प्रत्युत संसारमात्रका भी परम हित होता है। दूसरे लोग देखें या न देखें, समझें या न समझें, मानें या न मानें अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे दूसरे लोगोंको कर्तव्य-पालनकी प्रेरणा स्वतः मिलती है और इस प्रकार सबकी सेवा भी हो जाती है।मार्मिक बातगीतामें भगवान्ने उपदेशके आरम्भमें दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे तीसवें श्लोकतक मनुष्यमात्रके अनुभव-(विवेक-) का वर्णन किया है। यह मनुष्यमात्रका ही अनुभव नहीं है, प्रत्युत जीवमात्रका भी अनुभव है; कारण कि 'मैं हूँ'--ऐसे अपनी सत्ता-(होनेपन-) का अनुभव स्थावर-जङ्गम सभी प्राणियोंको है। वृक्ष, पर्वत आदिको भी इसका अनुभव है, पर वे इसे व्यक्त नहीं कर सकते। पशु-पक्षियोंमें तो प्रत्यक्ष देखनेमें भी आता है; जैसे-- पशु-पक्षी आपसमें लड़ते हैं तो अपनी सत्ताको लेकर ही लड़ते हैं। यदि अपनी अलग सत्ताका अनुभव न हो तो वे लड़ें ही क्यों? मनुष्यको तो इसका प्रत्यक्ष अनुभव है ही; परन्तु वह न तो अपने अनुभवकी ओर दृष्टि डालता है और न उसका आदर ही करता है। इस अनुभवको ही विवेक या निजज्ञान कहते हैं। यह विवेक सबमें स्वतः है और भगवत्प्रदत्त है।इन्द्रियाँ मन और बुद्धि प्रकृतिके अंश हैं इसलिये इनसे होनेवाला ज्ञान प्रकृतिजन्य है। शास्त्रोंको पढ़सुनकर इन इन्द्रियोंमनबुद्धिके द्वारा जो पारमार्थिक ज्ञान होता है वह ज्ञान भी एक प्रकारसे प्रकृतिजन्य ही है। परमात्मतत्त्व इस प्रकृतिजन्य ज्ञानकी अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण है। अतः परमात्मतत्त्वको निज-ज्ञान (स्वयंसे होनेवाला ज्ञान) से ही जाना जा सकता है। निज-ज्ञान अर्थात् विवेकको महत्त्व देने से 'मैं कौन हूँ? मेरा क्या है? जड और चेतन क्या हैं ?प्रकृति और परमात्मा क्या हैं?-- यह सब जाननेकी शक्ति आ जाती है। यही विवेक कर्मयोगमें भी काम आता है-- यह मार्मिक बात है। कर्मयोगमें विवेककी दो बातें मुख्य हैं-- (1) अपने होनेपन-('मैं हूँ'-) में कोई संदेह नहीं है और (2) अभी जो वस्तुएँ मिली हुई हैं, उनपर अपना कोई आधिपत्य नहीं है;क्योंकि वे पहले अपनी नहीं थीं और बादमें भी अपनी नहीं रहेंगी। मैं (स्वयं) निरन्तर रहता हूँ और ये मिली हुई वस्तुएँ-- शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि निरन्तर बदलती रहती हैं और इनका निरन्तर वियोग होता रहता है। जैसे कर्मोंका आरम्भ और समाप्ति होती है, ऐसे ही उनके फलका भी संयोग और वियोग होता है। इसलिये कर्मों और पदार्थोंका सम्बन्ध संसारसे है, स्वयंसे नहीं। इस प्रकार विवेक जाग्रत् होते ही कामनाका नाश हो जाता है। कामनाका नाश होनेपर स्वतःसिद्ध निष्कामता प्रकट हो जाती है अर्थात् कर्मयोग पूर्णतः सिद्ध हो जाता है। कामनासे विवेक ढक जाता है (गीता 3। 38 39)। स्वार्थ-बुद्धि, भोग-बुद्धि, संग्रह-बुद्धि रखनेसे मनुष्य अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाता। वह उलझनोंको उलझनसे ही अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे ही सुलझाना चाहता है और इसीलिये वह वर्तमान परिस्थितिको बदलनेका ही उद्योग करता है। परन्तु परिस्थितिको बदलना अपने वशकी बात नहीं है, इसलिये उलझन सुलझनेकी अपेक्षा अधिकाधिक उलझती चली जाती है। विवेक जाग्रत् होनेपर जब स्वार्थ-बुद्धि, भोग-बुद्धि, संग्रह-बुद्धि नहीं रहती, तब अपना कर्तव्य स्पष्ट दीखने लग जाता है और सभी प्रकारकी उलझनें स्वतः सुलझ जाती हैं। बाहरी परिस्थिति कर्मोंके अनुसार ही बनती है अर्थात् वह कर्मोंका ही फल है। धनवत्ता-निर्धनता, निन्दा-स्तुति, आदर-निरादर, यश-अपयश, लाभ-हानि, जन्म-मरण ,स्वस्थता-रुग्णता आदि सभी परिस्थितियाँ कर्मोंके अधीन हैं (टिप्पणी प0 214)। शुभ और अशुभ कर्मोंके फलस्वरूपमें अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति सामने आती रहती है; परन्तु उस परिस्थितिसे सम्बन्ध जोड़कर--उसे अपनी मानकर सुखी-दुःखी होना मूर्खता है। तात्पर्य यह है कि अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका आना तो कर्मोंका फल है, और उससे सुखी-दुःखी होना अपनी अज्ञता--मूर्खताका फल है। कर्मोंका फल मिटाना तो हाथकी बात नहीं है, पर मूर्खता मिटाना बिलकुल हाथकी बात है। जिसे मिटा सकते हैं, उस मूर्खताको तो मिटाते नहीं और जिसे बदल सकते नहीं, उस परिस्थितिको बदलनेका उद्योग करते हैं--यह महान् भूल है !इसलिये अपने विवेकको महत्त्व देकर मूर्खताको मिटा देना चाहिये और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंका सदुपयोग करते हुए उनसे ऊँचे उठ जाना अर्थात् असङ्ग हो जाना चाहिये। जो किसी भी परिस्थितिसे सम्बन्ध न जोड़कर उसका सदुपयोग करता है अर्थात् अनुकूल परिस्थितिमें दूसरोंकी सेवा करता है तथा प्रतिकूलपरिस्थितिमें दुःखी नहीं होता अर्थात् सुखकी इच्छा नहीं करता, वह संसार-बन्धनसे सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है।जिसे मनुष्य नहीं चाहता, वह प्रतिकूल परिस्थिति पहले किये अशुभ-(पाप-) कर्मोंका फल होती है। अतः पाप-कर्म तो करने ही नहीं चाहिये। किसीको कष्ट पहुँचे, ऐसा काम तो स्वप्नमें भी नहीं करना चाहिये। परन्तु वर्तमानमें (नये) पाप-कर्म न करनेपर भी पुराने पाप-कर्मोंके फलस्वरूप जब प्रतिकूल परिस्थिति आ जाती है, तब अन्तःकरणमें चिन्ता, शोक, भय आदि भी आ जाते हैं। इसका कारण यह है कि हमने चिन्ता-शोकको अधिक परिचित बना लिया है। जैसे बिक्री की हुई गाय पुराने स्थानसे परिचित होनेके कारण बार-बार वहीं आ जाती है। परन्तु उसे बार-बार नये स्थानपर पहुँचा दिया जाय, तो फिर वह पुराने स्थानपर आना छोड़ देती है। ऐसे ही आज और अभी यह दृढ़ विचार कर लें कि आने-जानेवाली परिस्थितिसे सम्बन्ध जोड़कर चिन्ता-शोक करना गलती है, यह गलती अब हम नहीं करेंगे, तो फिर ये चिन्ता-शोक आना छोड़ देंगे।विवेककी पूर्ण जागृति न होनेपर भी कर्मयोगीमें एक निश्चयात्मिका बुद्धि रहती है कि जो अपना नहीं है, उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना है और सांसारिक सुखोंको न भोगकर केवल सेवा करनी है। इस निश्चयात्मिका बुद्धिके कारण उसके अन्तःकरणमें सांसारिक सुखोंका महत्त्व नहीं रहता। फिर 'भोगोंमें सुख है'--ऐसे भ्रममें उसे कोई डाल नहीं सकता। अतः इस एक निश्चयको अटल रखनेसे ही उसका कल्याण हो जाता है। सत्सङ्ग-स्वाध्यायसे ऐसी निश्चयात्मिका बुद्धिको बल मिलता है। अतः हरेक साधकको कम-से-कम ऐसा कल्याणकारी निश्चय अवश्य ही बना लेना चाहिये। ऐसा निश्चय बनानेमें सब स्वाधीन हैं, कोई पराधीन नहीं है। इसमें किसीकी किञ्चित् भी सहायताकी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इसमें स्वयं बलवान् है। सम्बन्ध-- मैंने ही सृष्टिके आदिमें सूर्यको उपदेश दिया था और वही मैं आज तुझे उपदेश दे रहा हूँ--इसे सुनकर अर्जुनमें स्वाभाविक यह जिज्ञासा जाग्रत् होती है कि जो अभी मेरे समाने बैठे हैं, इन भगवान् श्रीकृष्णने सृष्टिके आरम्भमें सूर्यको उपदेश कैसे दिया था? अतः इसे अच्छी तरह समझनेके लिये अर्जुन आगेके श्लोकमें भगवान्से प्रश्न करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.3।। वह ही यह पुरातन योग आज मैंने तुम्हें कहा (सिखाया) क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। यह उत्तम रहस्य है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.1 4.3।।श्रीमदमलबोधाय नमः। हरिः ँ़। बुद्धेः परस्य माहात्म्यं कर्मभेदो ज्ञानमाहात्म्यं चोच्यतेऽस्मिन्नध्याये। पूर्वानुष्ठितश्चायं धर्म इत्याह इममिति।
Sri Anandgiri
।।4.3।।किमिति वर्तमाने काले प्रकृतो योगः संप्रदायरहितोऽभूदित्याशङ्क्याधिकार्यभावादित्याह दुर्बलानिति। तदेव दौर्बल्यं प्रकृतोपयोगित्वेन व्याकरोति अजितेन्द्रियानिति। यद्यपि कामक्रोधादिप्रधानान्पुरुषान्प्रतिलभ्य कामक्रोधादिभिरभिभूयमानो योगो नष्टो विच्छिन्नसंप्रदायः संजातस्तथापि योगादृते पुरुषार्थो लोकस्य लभ्यते चेत् किमनेन योगोपदेशेनेत्याशङ्क्य यथोक्तयोगाभावे परमपुरुषार्थाप्राप्तेर्मैवमित्याह लोकं चेति। पूर्वो योगो विच्छिन्नसंप्रदायोऽधुना त्वन्यो योगो मदर्थमुच्यतेभगवतेत्याशङ्क्याह स एवेति। कस्मादन्यस्मै यस्मै कस्मैचित्पुरातनो योगो नोक्तो भगवतेत्याशङ्क्याह भक्तोऽसीति। उक्तमधिकारिणं प्रति योगस्य वक्तव्यत्वे हेतुमाह रहस्यं हीति। अनादिवेदमूलत्वाद्योगस्य पुरातनत्वम्। भक्तिः शरणबुद्ध्या प्रीतिस्तया युक्तो निजरूपमवेक्ष्य भक्तो विवक्षितः। समानवयाः स्निग्धः सहायः सखेत्युच्यते। एतदिति कथं योगो विशेष्यते तत्राह ज्ञानमिति।
Sri Vallabhacharya
।।4.1 4.3।।योगिनः कर्म कर्त्तव्यमिति पूर्वं निरूपितम्। तुरीये तु ततोऽध्याये प्रतीत्यर्थं परम्परा।।1।।योगस्य रूप्यते विष्णुर्वक्ता यस्मादभूद्रविः। उपदेशपदं तस्मादुपदेशाश्रयो मनुः।।2।।इक्ष्वाकूणामपि तथा रामचन्द्रावतारभाक्। तस्य नित्यत्वविधया विधानमुपदिश्यते।।3।।ब्रह्मभावेन सर्वत्र फलादिभावत्यागतः। योगी तदाश्रयेणैव विद्ययाऽमृतमश्नुते।।4।।एवं तावदध्यायद्वयेन योगे स्वधर्मो मोक्षसाधनमुपदिष्टः तमेव ब्रह्मभावेन प्रपञ्चयिष्यन् प्रथमं तावत्परम्पराप्राप्तत्वेन स्तुवन् श्रीभगवानुवाच इममिति त्रिभिः। अव्ययफलत्वादव्ययमिमं योगं विवस्वते प्रोक्तवान् न चेमं तव युद्धप्रोत्साहनायैव केवलं वच्मि किन्तु मन्वन्तरादावेव निखिलजगदुद्धरणायेमं प्रोक्तवानस्मीति सम्प्रदायपूर्वकमाह स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः।
Sridhara Swami
।।4.3।। स एवायमिति। स एवायं योगोऽद्य विच्छिन्ने संप्रदाये सति पुनश्च मया ते तुभ्यमुक्तः। यतस्त्वं मम भक्तोऽसि सखा चेति। अन्यस्मै मया नोच्यते। हि यस्मादिदमुत्तमं रहस्यम्।