Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 22 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ||४-२२||
Transliteration
yadṛcchālābhasantuṣṭo dvandvātīto vimatsaraḥ . samaḥ siddhāvasiddhau ca kṛtvāpi na nibadhyate ||4-22||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.22 Content with what comes to him without effort, free from the pairs of opposites and envy, even-minded in success and failure, though acting, he is not bound.
।।4.22।। यदृच्छया (अपने आप) जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही सन्तुष्ट रहने वाला, द्वन्द्वों से अतीत तथा मत्सर से रहित, सिद्धि व असिद्धि में समभाव वाला पुरुष कर्म करके भी नहीं बन्धता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivate a mindset of diligent effort without becoming overly attached to specific outcomes like promotions or bonuses. Celebrate successes with humility and face setbacks with resilience, understanding that both are temporary. Focus on the quality of your work and your contribution, rather than constantly comparing your achievements or rewards with colleagues, which fosters contentment and reduces professional envy.
🧘 For Stress & Anxiety
Practice accepting circumstances as they arise, whether favorable or challenging, without allowing them to dictate your inner peace. Develop equanimity towards life's 'pairs of opposites' – praise and criticism, comfort and discomfort, gain and loss. This detachment from external validation and aversion helps stabilize your emotional state, significantly reducing stress and anxiety related to uncontrollable events.
❤️ In Relationships
Approach relationships with a spirit of acceptance, being content with the connection as it naturally unfolds rather than demanding specific behaviors or outcomes from others. Avoid the pitfall of comparing your relationships or life circumstances to those of friends or acquaintances, which often leads to envy. Maintain an even temper and stable emotional responses during disagreements or difficult phases, fostering healthier, more resilient connections.
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When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Cultivate inner balance, contentment, and freedom from envy to act effectively without being bound by the results or dualities of life.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.22 यदृच्छालाभसन्तुष्टः content with what comes to him without effort? द्वन्द्वातीतः free from the pairs of,opposites? विमत्सरः free from envy? समः evenminded? सिद्धौ in success? असिद्धौ in failure? च and? कृत्वा acting? अपि even? न not? निबध्यते is bound.Commentary The sage is ite satisfied with what comes to him by chance. In verses IV. 18? 19? 20? 22? 22 and 23 there is only a reiteration of the results of the knowledge of the Self which is beyond action. The sage who identifies himself with the actionless Self is not bound as action and its cause which bind one to the round of birth and death have been burnt in the fire of the knowledge of the Self or BrahmaJnana. Just as a seed burnt in the fire cannot germinate? so also the Karmas or actions burnt by the fire of knowledge of the Self cannot produce future birth.Ordinary people think that the sage is also a doer of actions? an agent? active and therefore bound? when they see him doing actions. This is a mistake. From his own point of view and? in truth? he is not an agent at all. He really does no action at all. He feels and says? I do nothing at all. Nature does or the three alities of Nature do everything.He is not affected by heat and cold? pleasure and pain? success and failure? as he always has a balanced state of mind. He is not attached even to the things which are necessary for the bare maintenance of his body. He experiences neither pleasure nor pain? whether or not he obtains food and the other things which are reired for the maintenance of his body. The reason is that he is resting in his essential nature as ExistenceKnowledgeBliss Absolute (SatchidanandaSvarupa) he is swimming in the ocean of bliss. So he does not care for his body and its needs.
Shri Purohit Swami
4.22 Content with what comes to him without effort of his own, mounting above the pairs of opposites, free from envy, his mind balanced both in success and failure; though he acts, yet the consequences do not bind him.
Dr. S. Sankaranarayan
4.22. Remaining contended wiht the gain brought by chance, transcending the dualities (pairs of opposites), entertaining no jealously, and remaning eal in success and in failure, he does not get bound, even when he acts.
Swami Adidevananda
4.22 Content with what chance may bring, rising above the pairs of opposites, free from ill-will, even-minded in success and failure, though he acts, he is not bound.
Swami Gambirananda
4.22 Remaining satisfied with what comes unasked for, having transcended the dualities, being free from spite, and eipoised under success and failure, he is not bound even by performing actions.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.22।। अहंकार से परे आत्मस्वरूप में स्थित पुरुष इच्छा तथा फलासक्ति से प्रेरित होकर कर्म नहीं करता। कर्मों को करने से प्राप्त फल से ही वह सन्तुष्ट रहता है। अहंकाररहित अवस्था का अर्थ है अन्तकरण पर पूर्ण संयम। स्वभाविक ही शीतउष्ण सिद्धिअसिद्धि सुखदुख इत्यादि द्वन्द्वात्मक अनुभव उसे व्यथित नहीं कर सकते क्योंकि वे सब मन की बाह्यजगत् के साथ होने वाली प्रतिक्रियायें मात्र हैं।मन के प्रभावहीन होने पर बुद्धि अपने पूर्वाग्रह ईर्ष्या और मत्सर आदि से ज्ञानी पुरुष को प्रभावित नहीं कर सकती। सामान्यत सिद्धि में हमें हर्षातिरेक और असिद्धि में अत्यन्त विषाद होता है। परन्तु जब अविद्याजनित अहंकार पूर्णरूप से दैवी स्वरूप को प्राप्त हो जाता है तब वह पुरुष सफलता और असफलता में समान भाव से स्थित रहता है। ऐसा ज्ञानी पुरुष कर्म करके भी कर्मफलों से नहीं बंधता।जब आत्मज्ञानी पुरुष हमारे मध्य रहता हुआ कर्म करता है तब उसका व्यवहार सामान्य जनों के समान ही प्रतीत होता है तथापि उसके कर्मों में एक विशेष शक्ति और प्रभाव दिखाई पड़ता है जो उसे कर्मक्षेत्र में सामान्य से कहीं अधिक सफलता प्रदान करता है। श्रीकृष्ण के कथनानुसार ऐसे पुरुष को कर्मों का बंधन नहीं होता। सामान्य जनों को ज्ञानी पुरुष की इस उपलब्धि को समझने में कठिनाई होती है।जिस दैवी प्रेरणा एवं भावना से ज्ञानी पुरुष जगत् में कर्म करता है उसका वर्णन भगवान् अगले श्लोकों में करते हैं
Swami Ramsukhdas
4.22।। व्याख्या--'यदृच्छालाभसंतुष्टः'--कर्मयोगी निष्कामभावपूर्वक साङ्गोपाङ्ग रीतिसे सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म करता है। फल-प्राप्तिका उद्देश्य न रखकर कर्म करनेपर फलके रूपमें उसे अनुकूलता या प्रतिकूलता, लाभ या हानि, मान या अपमान, स्तुति या निन्दा आदि जो कुछ मिलता है, उससे उसके अन्तःकरणमें कोई असन्तोष पैदा नहीं होता। जैसे, वह व्यापार करता है तो उसे व्यापारमें लाभ हो अथवा हानि उसके अन्तःकरणपर उसका कोई असर नहीं पड़ता। वह हरेक परिस्थितिमें समानरूपसे सन्तुष्ट रहता है; क्योंकि उसके मनमें फलकी इच्छा नहीं होती। तात्पर्य यह है कि व्यापारमें उसे लाभ-हानिका ज्ञान तो होता है तथा वह उसके अनुसार यथोचित चेष्टा भी करता है, पर परिणाममें वह सुखी-दुःखी नहीं होता। यदि साधकके अन्तःकरणपर अनुकूलता-प्रतिकूलताका थोड़ा असर पड़ भी जाय, तो भी उसे घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि साधकके अन्तःकरणमें वह प्रभाव स्थायी नहीं रहता, शीघ्र मिट जाता है।उपर्युक्त पदोंमें आया 'लाभ' शब्द प्राप्तिके अर्थमें है, जिसके अनुसार केवल लाभ या अनुकूलताका मिलना ही 'लाभ' नहीं है, प्रत्युत लाभ-हानि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि जो कुछ प्राप्त हो जाय, वह सब 'लाभ' ही है। 'विमत्सरः'--कर्मयोगी सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ अपनी एकता मानता है--'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (गीता 5। 7)। इसलिये उसका किसी भी प्राणीसे किञ्चिन्मात्र भी ईर्ष्याका भाव नहीं रहता।'विमत्सरः' पद अलगसे देनेका भाव यह है कि अपनेमें किसी प्राणीके प्रति किञ्चिन्मात्र भी ईर्ष्याका भाव न आ जाय, इस विषयमें कर्मयोगी बहुत सावधान रहता है। कारण कि कर्मयोगीकी सम्पूर्ण क्रियाएँ प्राणिमात्रके हितके लिये ही होती हैं; अतः यदि उसमें किञ्चिन्मात्र भी ईर्ष्याका भाव होगा, तो उसकी सम���पूर्ण क्रियाएँ दूसरोंके हितके लिये नहीं हो सकेंगी।ईर्ष्या-दोष बहुत सूक्ष्म है। दो दूकानदार हैं और आपसमें मित्रता रखते हैं। उनमें एककी दूकान दूसरेकीअपेक्षा ज्यादा चल जाय, तो दूसरेमें थोड़ी ईर्ष्या पैदा हो जायगी कि उसकी दूकान ज्यादा चल गयी, मेरी कम चली। इस प्रकार ईर्ष्या-दोषके कारण मित्रसे भी मित्रकी उन्नति नहीं सही जाती। जहाँ आपसमें प्रेम है, एकता है, मित्रता है, वहाँ भी ईर्ष्या-दोष आ जाता है; फिर जहाँ वैर, भिन्नता आदि हो, वहाँका तो कहना ही क्या है? इसलिये साधकको इस दोषसे बचनेके लिये विशेष सावधान रहना चाहिये।'द्वन्द्वातीतः'--कर्मयोगी लाभ-हानि, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे अतीत होता है, इसलिये उसके अन्तःकरणमें उन द्वन्द्वोंसे होनेवाले राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार नहीं होते।द्वन्द्व अनेक प्रकारके होते हैं; जैसे--भगवान्का सगुण-साकाररूप ठीक है या निर्गुण-निराकाररूप ठीक है, अद्वैत सिद्धान्त ठीक है या द्वैत सिद्धान्त ठीक है, भगवान्में मन लगा या नहीं लगा, एकान्त मिला या नहीं मिला, शान्ति मिली या नहीं मिली, सिद्धि मिली या नहीं मिली, इत्यादि। इन सब द्वन्द्वोंके साथ सम्बन्ध न होनेसे ही साधक निर्द्वन्द्व होता है। जैसे तराजू किसी भी तरफ झुक जाय तो वह बराबर नहीं कहलाता, ऐसे ही साधकके अन्तःकरणमें किसी भी तरफ झुकाव हो जाय तो वह द्वन्द्वातीत नहीं कहलाता। कर्मयोगी सब प्रकारके द्वन्द्वोंसे अतीत होता है, इसलिये वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)।'समः सिद्धावसिद्धौ च'--किसी भी कर्तव्य-कर्मका निर्विघ्नरूपसे पूरा हो जाना सिद्धि है और किसी प्रकारके विघ्न, बाधाके कारण उसका पूरा न होना असिद्धि है। कर्मका फल मिल जाना सिद्धि है और न मिलना असिद्धि है। सिद्धि और असिद्धिमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, आदि विकारोंका न होना ही सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना है। दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें 'सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा' पदोंमें भी यही भाव आया है।अपना कुछ भी नहीं है, अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ भी नहीं करना है--ये तीनों बातें ठीक-ठीक अनुभवमें आ जायँ, तभी सिद्धि और असिद्धिमें पूर्णतः समता आयेगी।'कृत्वापि न निबध्यते'-- यहाँ 'कृत्वा अपि' पदोंका तात्पर्य है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए भी नहीं बँधता, फिर कर्म न करते हुए बँधनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता। वह दोनों अवस्थाओंमें निर्लिप्त रहता है।जैसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये कर्म करनेवाला कर्मयोगी कर्मोंसे नहीं बँधता, वैसे ही शास्त्रविहित सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला कर्मयोगी भी कर्मोंसे नहीं बँधता। वास्तवमें देखा जाय तो कर्मयोगमें कर्म करना, अधिक करना, कम करना अथवा न करना बन्धन या मुक्तिका कारण नहीं है। इनके साथ जो लिप्तता (लगाव) है, वही बन्धनका कारण है और जो निर्लिप्तता है, वही मुक्तिका कारण है। जैसे नाटकमें एक व्यक्ति लक्ष्मणका और दूसरा व्यक्ति मेघनादका स्वाँग धारण करता है और दोनों व्यक्ति अपने-अपने स्वाँगको ठीक-ठीक निभाते हुए भी उससे निर्लिप्त रहते हैं अर्थात् अपनेको वास्तवमें लक्ष्मण या मेघनाद नहीं मानते। ऐसे ही कर्मयोगी अपने वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार कर्तव्यका पालन करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहता है अर्थात् उनसे अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता। उसका सम्बन्ध नित्य-निरन्तर रहनेवाले स्वरूपके साथ रहता है, प्रतिक्षण परिवर्तनशील प्रकृतिके साथ नहीं। इसलिये उसकी स्थिति स्वाभाविक ही समतामें रहती है। समतामें स्थिति रहनेसे वह कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधता।यदि विशेष विचारपूर्वक देखा जाय तो समता स्वतःसिद्ध है। यह प्रत्येक मनुष्यका अनुभव है कि अनुकूल परिस्थितिमें हम जो रहते हैं, प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी हम वही रहते हैं। यदि हम वही (एक ही) न रहते, तो दो अलग-अलग (अनुकूल और प्रतिकूल) परिस्थितियोंका ज्ञान किसे होता? इससे सिद्ध हुआ कि परिवर्तन परिस्थितियोंमें होता है अपने स्वरूपमें नहीं। इसलिये परिस्थितियोंके बदलनेपर भी स्वरूपसे हम सम (ज्यों-के-त्यों) ही रहते हैं। भूल यह होती है कि हम परिस्थितियोंकी ओर तो देखते हैं, पर स्वरूपकी ओर नहीं देखते। अपने सम स्वरूपकी ओर न देखनेके कारण ही हम आने-जाने-वाली परिस्थितियोंसे मिलकर सुखी-दुःखी होते हैं। सम्बन्ध-- तीसरे अध्यायके नवें श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने व्यतिरेक रीति से कहा था कि यज्ञसे अतिरिक्त कर्म मनुष्यको बाँधते हैं। अब तेईसवें श्लोकके उत्तरार्धमें उसी बातको अन्वय रीति से कहते हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.22।। यदृच्छया (अपने आप) जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही सन्तुष्ट रहने वाला, द्वन्द्वों से अतीत तथा मत्सर से रहित, सिद्धि व असिद्धि में समभाव वाला पुरुष कर्म करके भी नहीं बन्धता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.22।।यतचित्तात्मनो लक्षणमाह यदृच्छालाभेति। कथं द्वन्द्वातीतत्वं इति आह समः सिद्धाविति।
Sri Anandgiri
।।4.22।।पूर्वश्लोकेन संगतिं दर्शयन्नुत्तरश्लोकमुत्थापयति त्यक्तेति। अन्नादेरित्यादिशब्देन पादुकाच्छादनादि गृह्यते याचनादिनेत्यादिपदेन सेवाकृष्याद्युपादीयते भिक्षाटनार्थमुद्योगात्प्राक्काले केनापि योग्येन निवेदितं भैक्ष्यमयाचितमभिशस्तं पतितं च वर्जयित्वा संकल्पमन्तरेण पञ्चभ्यः सप्तभ्यो वा गृहेभ्यः समानीतं भैक्ष्यमसंक्लृप्तसिद्धमन्नं भक्तजनैः स्वसमीपमुपानीतमुपपन्नं यदृच्छया। स्वकीयप्रयत्नव्यतिरेकेणेति यावत्। आदिशब्देनमाधूकरमसंक्लृप्तं प्राक्प्रणीतमयाचितम्। तत्तत्कालोपपन्नं च भैक्ष्यं पञ्चविधं स्मृतम् इत्यादि गृह्यते। आविष्कुर्वन्निदं वाक्यमाहेति योजनीयम्। परोत्कर्षामर्षपूर्विका स्वस्योत्कर्षाभिवाञ्छा विगता यस्मादिति व्युत्पत्तिमाश्रित्य विवक्षितमर्थमाह निर्वैरेति। संक्षेपतो दर्शितमर्थं विशदयति य एवंभूत इति। तथापि प्रकृतस्य यतेर्भिक्षाटनादौ कर्तृत्वं प्रतिभाति तदभावे भिक्षाटनाद्यभावेन जीवनाभावप्रसङ्गादित्याशङ्क्याह लोकेति। लौकिकैरविवेकिभिः सह व्यवहारस्य स्नानाचमनभोजनादिलक्षणस्य विदुषापि सामान्येन दर्शनात्तदनुसारेण लौकिकैरध्यारोपितकर्तृत्वभोक्तृत्वाद्विद्वानपि लोकदृष्ट्या भिक्षाटनादौ कर्तृत्वमनुभवतीत्यर्थः। कथं तर्हि तस्याकर्तृत्वं तत्राह स्वानुभवेनेति। यदृच्छेत्यादिपादत्रयं व्याख्याय कृत्वापीत्यादिचतुर्थपादं व्याचष्टे स एवमिति। भिक्षाटनादिना प्रातिभासिकेन कर्मणा विदुषो बद्धत्वाभावेऽपि कर्मान्तरेण निबद्धत्वं भविष्यतीत्याशङ्क्याह बन्धेति। ज्ञानाग्निदग्धत्वादित्येवं शारीरं केवलमित्यादावुक्तस्यायमनुवाद इति योजना। यथोक्तस्य कर्मणो युक्त्या महाविरोधाभ्युपगमसूचनार्थोऽपिशब्दः।
Sri Vallabhacharya
।।4.22।।यतः यदृच्छेति। सिद्धावसिद्धौ च सम इति पूर्वोक्तसाङ्ख्ययोगार्थः प्रदर्शितः न निबद्ध्यत इति अकर्मत्वं सूचितम्।
Sridhara Swami
।।4.22।।किंच यदृच्छेति। अप्रार्थितोपस्थितो लाभो यदृच्छालाभः। तेन संतुष्टः। द्वन्द्वानि शीतोष्णादीन्यतीतोऽतिक्रान्तः। तत्सहनशील इत्यर्थः। विमत्सरो निर्वैरः। यदृच्छालाभस्यापि सिद्धावसिद्धौ च समो हर्षविषादरहितः। य एवंभूतः स पूर्वोत्तरभूमिकयोर्यथायथं विहितं स्वाभाविकं वा कर्म कृत्वापि न बन्धं प्राप्नोति।