Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 6 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् | इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ||३-६||
Transliteration
karmendriyāṇi saṃyamya ya āste manasā smaran . indriyārthānvimūḍhātmā mithyācāraḥ sa ucyate ||3-6||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.6 He who, restraining the organs of action, sits thinking of the sense-objects in mind, he of deluded understanding is called a hypocrite.
।।3.6।। जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Don't just physically show up or complete tasks; engage your mind fully and authentically. Avoid 'quiet quitting' where you're physically present but mentally checked out, resentful, or focused on distractions, as this fosters hypocrisy and leads to ineffective work and personal dissatisfaction.
🧘 For Stress & Anxiety
Physical avoidance of stressors or engaging in calming activities isn't enough if your mind continuously dwells on anxieties, past grievances, or future worries. True stress reduction requires mental discipline to disengage from those thoughts and cultivate inner peace, not just outward calm.
❤️ In Relationships
Be truly present and engaged when interacting with others. Avoid physically being there while your mind is preoccupied with other things (e.g., phone, other people, past conflicts, future plans), as this creates a superficial and inauthentic connection, leading to a sense of disconnect and mistrust.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True self-mastery demands aligning your mind with your actions; mere external restraint without internal mental discipline is self-delusion and hypocrisy.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.6 कर्मेन्द्रियाणि organs of action? संयम्य restraining? यः who? आस्ते sits? मनसा by the mind? स्मरन् remembering? इन्द्रियार्थान् senseobjects? विमूढात्मा of deluded understanding? मिथ्याचारः hypocrite? सः he? उच्यते is called.Commentary The five organs of action? Karma Indriyas? are Vak (organ of speech)? Pani (hands)? Padam (feet)? Upastha (genitals) and Guda (anus). They are born of the Rajasic portion of the five Tanmatras or subtle elements Vak from the Akasa Tanmatra (ether)? Pani from the Vayu Tanmatra (air)? Padam from the Agni Tanmatra (fire)? Upastha from the Apas Tanmatra (water)? and Guda from the Prithivi Tanmatra (earth). That man who? restraining the organs of action? sits revolving in his mind thoughts regarding the objects of the senses is a man of sinful conduct. He is selfdeluded. He is a veritable hypocrite.The organs of action must be controlled. The thoughts should also be controlled. The mind should be firmly fixed on the Lord. Only then will you become a true Yogi. Only then will you attain to Selfrealisation.
Shri Purohit Swami
3.6 He who remains motionless, refusing to act, but all the while brooding over sensuous object, that deluded soul is simply a hypocrite.
Dr. S. Sankaranarayan
3.6. Controlling organs of actions, whosoever sits with his mind, pondering over the sense objects-that person is a man of deluded soul and [he] is called a man of deluded action.
Swami Adidevananda
3.6 He who, controlling the organs of action, lets his mind dwell on the objects of senses, is a deluded person and a hypocrite.
Swami Gambirananda
3.6 One, who after withdrawing the organs of action, sits mentally recollecting the objects of the senses, that one, of deluded mind, is called a hypocrite.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.6।। शरीर से निष्क्रिय होकर कहीं भी नहीं पहुँचा जा सकता फिर पूर्णत्व की स्थिति के विषय में क्या कहना। जिसने कर्मेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही मन और बुद्धि को विषयों के चिन्तन से बुद्धिमत्तापूर्वक निवृत्त नहीं किया हो तो ऐसे साधक की आध्यात्मिक उन्नति निश्चय ही असुरक्षित और आनन्दरहित होगी।मनोविज्ञान की आधुनिक पुस्तकों मे उपर्युक्त वाक्य का सत्यत्व सिद्ध होता है। शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन का स्वभाव है एक विचार को बारंबार दोहराना। इस प्रकार एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ संस्कार (वासना) बन जाता है और फिर जो कोई विचार हमारे मन में उठता है उनका प्रवाह पूर्व निर्मित दिशा में ही होता है। विचारो की दिशा निश्चित हो जाने पर वही मनुष्य का स्वभाव बन जाता है जो उसके प्रत्येक कर्म में व्यक्त होता है। अत निरन्तर विषयचिन्तन से वैषयिक संस्कार मन में गहराई से उत्कीर्ण हो जाते हैं और फिर उनसे प्रेरित विवश मनुष्य संसार में इसी प्रकार के कर्म करते हुये देखने को मिलता है।जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों में रहता है वास्तव में वह अध्यात्म का सच्चा साधक नहीं वरन् जैसा कि यहाँ कहा गया है विमूढ और मिथ्याचारी है हम सब जानते हैं कि शारीरिक संयम होने पर भी मन की वैषयिक वृत्तियों को संयमित करना सामान्य पुरुष के लिये कठिन होता है।यह समझते हुये कि सामान्य पुरुष अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों से स्वयं को सुरक्षित रखने का उपाय नहीं जान सकता इसलिये भगवान कहते हैं
Swami Ramsukhdas
3.6।। व्याख्या--'कर्मेन्द्रियाणि संयम्य ৷৷. मिथ्याचारः स उच्यते'-- यहाँ 'कर्मेन्द्रियाणि' पदका अभिप्राय पाँच कर्मेन्द्रियों (वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा) से ही नहीं है, प्रत्युत इनके साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियों (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण) से भी है; क्योंकि ज्ञानेन्द्रियोंके बिना केवल कर्मेन्द्रियोंसे कर्म नहीं हो सकते। इसके सिवाय केवल हाथ, पैर आदि कर्मेन्द्रियोंको रोकनेसे तथा आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियोंको न रोकनेसे पूरा मिथ्याचार भी सिद्ध नहीं होता। गीतामें कर्मेन्द्रियोंके अन्तर्गत ही ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गयी हैं। इसलिये गीतामें 'कर्मेन्द्रिय' शब्द तो आता है, पर 'ज्ञानेन्द्रिय' शब्द कहीं नहीं आता। पाँचवें अध्यायके आठवें-नवें श्लोकोंमें देखना, सुनना, स्पर्श करना आदि ज्ञानेन्द्रियोंकी क्रियाओंको भी कर्मेन्द्रियोंकी क्रियाओंके साथ सम्मिलित किया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि गीता ज्ञानेन्द्रियोंको भी कर्मेन्द्रियाँ ही मानती है। गीता मनकी क्रियाओंको भी कर्म मानती है--'शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः' (18। 15)। तात्पर्य यह है कि मात्र प्रकृति क्रियाशील होनेसे प्रकृतिका कार्यमात्र क्रियाशील है।यद्यपि 'संयम्य' पदका अर्थ होता है--इन्द्रियोंका अच्छी तरहसे नियमन अर्थात् उन्हें वशमें करना, तथापि यहाँ इस पदका अर्थ इन्द्रियोंको वशमें करना न होकर उन्हें हठपूर्वक बाहरसे रोकना ही है। कारण कि इन्द्रियोंके वशमें होनेपर उसे मिथ्याचार कहना नहीं बनता।मूढ़ बुद्धिवाला (सत्-असत् के विवेकसे रहित) मनुष्य बाहरसे तो इन्द्रियोंकी क्रियाओंको हठपूर्वक रोक देता है, पर मनसे उन इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है और ऐसी स्थितिको क्रियारहित मान लेता है। इसलिये वह मिथ्याचारी अर्थात् मिथ्या आचरण करनेवाला कहा जाता है।यद्यपि उसने इन्द्रियोंके विषयोंको बाहरसे त्याग दिया है और ऐसा समझता है कि मैं कर्म नहीं करता हूँ, तथापि ऐसी अवस्थामें भी वह वस्तुतः कर्मरहित नहीं हुआ है। कारण कि बाहरसे क्रियारहित दीखनेपर भी अहंता, ममता और कामनाके कारण रागपूर्वक विषयचिन्तनके रूपमें विषय-भोगरूप कर्म तो हो ही रहा है।सांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा सकता है और मनसे भी। बाहरसे रागपूर्वक भोगोंको भोगनेसे अन्तःकरणमें भोगोंके जैसे संस्कार पड़ते हैं, वैसे ही संस्कार मनसे भोगोंको भोगनेसे अर्थात् रागपूर्वक भोगोंका चिन्तन करनेसे भी पड़ते हैं। बाहरसे भोगोंका त्याग तो मनुष्य विचारसे, लोक-लिहाजसे और व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके भयसे भी कर सकता है, पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे कोई बाधा नहीं आती। अतः वह मनसे भोगोंको भोगता रहता है और मिथ्या अभिमान करता है कि मैं भोगोंका त्यागी हूँ। मनसे भोग भोगनेसे विशेष हानि होती है क्योंकि इसके सेवनका विशेष अवसर मिलता है। अतः साधकको चाहिये कि जैसे वह बाहरके भोगोंसे अपनेको बचाता है, उनका त्याग करता है, ऐसे ही मनसे भोगोंके चिन्तनका भी विशेष सावधानीसे त्याग करे।अर्जुन भी कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना चाहते हैं और भगवनान्से पूछते हैं कि आप मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? इसके उत्तरमें यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य अहंता, ममता, आसक्ति, कामना आदि रखते हुए केवल बाहरसे कर्मोंका त्याग करके अपनेको क्रियारहित ���ानता है, उसका आचरण मिथ्या है। तात्पर्य यह है कि साधकको कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके उन्हें कामना-आसक्तिसे रहित होकर तत्परतापूर्वक करते रहना चाहिये। सम्बन्ध-- चौथे श्लोकमें भगवान्ने कर्मयोग और सांख्ययोग--दोनोंकी दृष्टिसे कर्मोंका त्याग अनावश्यक बताया। फिर पाँचवें श्लोकमें कहा कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। छठे श्लोकमें हठपूर्वक इन्द्रियोंकी क्रियाओंको रोककर अपनेको क्रियारहित मान लेनेवालेका आचरण मिथ्या बताया। इससे सिद्ध हुआ कि कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेमात्रसे उनका वास्तविक त्याग नहीं होता। अतः आगेके श्लोकमें भगवान् वास्तविक त्यागकी पहचान बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.6।। जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.6 3.7।।तथापि शक्तितः त्यागः कार्य इत्याह कर्मेन्द्रियाणीति। मन एव प्रयोजकमिति दर्शयितुमन्वयव्यतिरेकावाह मनसा स्मरन् मनसा नियम्येति। कर्मयोगं स्ववर्णाश्रमोचितम्। न तु गृहस्थकर्मैवेति नियमः सन्न्यासादिविधानात् सामान्यवचनाच्च।
Sri Anandgiri
।।3.6।।आत्मज्ञवदनात्मज्ञस्यापि तर्हि कर्माकुर्वतो न प्रत्यवायः शरीरेन्द्रियसंघातं नियन्तुमसमर्थस्य मूर्खस्यापि संन्याससंभवादित्याशङ्क्याह यस्त्विति। तस्य चोदिताकरणं तच्छब्देन परामृश्यते तदसदिति। मिथ्याचारत्वादिति भावः। मिथ्याचारतामेव वर्णयति कर्मेन्द्रियाणीति।
Sri Vallabhacharya
।।3.6।।यश्च कर्मेन्द्रियैः कर्माकरणे नैष्कर्म्यसम्भव उक्तः सोऽपि न साधुः मानसक्रियानिवर्त्यत्वेनोक्तस्वरूपत्वासम्भवादित्याह कर्मेन्द्रियाणीति।साङ्ख्ये प्रकीर्तितस्त्यागस्त्यागोऽपि मनसैव हि। अत्यागे योगमार्गो हि सिद्धे योगे कृतार्थता। तदर्थं प्रक्रिया काचित्पुराणेऽपि निरूपिता। ऋषिभिर्बहुधा प्रोक्ता फलमेकमबाह्यतः। कर्मत्यागेन सन्न्यासो मनसा तत्स्मृतेः पुनः। प्रत्यवायसमुद्भेदस्तस्मात्तत्करणं मतम्। अतो यः पुमान्स्वयं मनसा कर्मकर्त्ता मानसविषयव्यापारवान् स मूढात्मा व्यर्थाचार उच्यते।
Sridhara Swami
।।3.6।।अतोऽज्ञं कर्मत्यागिनं निन्दति कर्मेन्द्रियाणीति। वाक्पाण्यादीनि कर्मेन्द्रियाण्यपि संयम्य निगृह्य यो मनसा भगवद्ध्यानच्छलेनेन्द्रियार्थान् विषयान् स्मरन्नास्ते अविशुद्धतया मनसा आत्मनि स्थैर्यभावात् स मिथ्याचारः कपटाचारो दाम्भिक उच्यत इत्यर्थः।