Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 33 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि | प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ||३-३३||

Transliteration

sadṛśaṃ ceṣṭate svasyāḥ prakṛterjñānavānapi . prakṛtiṃ yānti bhūtāni nigrahaḥ kiṃ kariṣyati ||3-33||

Word-by-Word Meaning

सदृशम्in accordance
चेष्टतेacts
स्वस्याःof his own
प्रकृतेःof nature
ज्ञानवान्a wise man
अपिeven
प्रकृतिम्to nature
यान्तिfollow
भूतानिbeings
निग्रहःrestraint
किम्what

📖 Translation

English

3.33 Even a wise man acts in accordance with his own nature; beings will follow Nature; what can restraint do?

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।3.33।। ज्ञानवान् पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति पर ही जाते हैं, फिर इनमें (किसी का) निग्रह क्या करेगा।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your career, understand that your inherent nature (strengths, inclinations, dislikes) heavily influences your performance and satisfaction. Rather than constantly fighting against your core tendencies with sheer willpower, strive for self-awareness. Align your roles or projects with your natural aptitudes where possible. More importantly, develop the ability to manage your 'Raga-Dvesha' – your likes and dislikes towards tasks, colleagues, or outcomes. This enables you to approach challenges with equanimity, reducing stress and improving sustained effort, even in tasks that don't perfectly align with your nature.

🧘 For Stress & Anxiety

This verse suggests that much stress arises from either fighting against one's own deep-seated nature or being excessively swayed by likes and dislikes. To manage stress, practice self-observation to understand your innate reactions and tendencies. Instead of merely suppressing uncomfortable feelings or desires, acknowledge their natural origin. The path to inner peace lies in transcending the reactive patterns of Raga-Dvesha, cultivating a sense of detachment from outcomes, and recognizing that persistent mental suppression without addressing the root cause is often ineffective and exhausting. Seek conscious control over your responses rather than just forcing actions.

❤️ In Relationships

In relationships, acknowledge that everyone, including yourself, acts according to their nature. This understanding fosters empathy and reduces judgment. Instead of trying to force others to change their fundamental character or constantly reacting to their 'natural' behaviors with anger or frustration, focus on managing your own Raga-Dvesha – your attachments, expectations, and aversions concerning them. Accept the inherent differences and work on your internal responses. This allows for more harmonious interactions and prevents unnecessary conflict stemming from unmet expectations or rigid beliefs about how others 'should' be.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True mastery isn't achieved by brute-force suppression, but by understanding your inherent nature and transcending the powerful influence of your likes and dislikes.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

3.33 सदृशम् in accordance? चेष्टते acts? स्वस्याः of his own? प्रकृतेः of nature? ज्ञानवान् a wise man? अपि even? प्रकृतिम् to nature? यान्ति follow? भूतानि beings? निग्रहः restraint? किम् what? करिष्यति will do.Commentary He who reads this verse will come to the conclusion that there is no scope for mans personal exertion. It is not so. Read the following verse. It clearly indicates that man can coner Nature if he rises above the sway of RagaDvesha (love and hatred).The passionate and ignorant man only comes under the sway of his natural propensities? and his lower nature. He cannot have any restraint over the senses and the two currents of likes and dislikes. The seeker after Truth who is endowed with the four means? and who is constantly practising meditation can easily control Nature. (Cf.II.60V.14XVIII.59).

Shri Purohit Swami

3.33 Even the wise man acts in character with his nature; indeed, all creatures act according to their natures. What is the use of compulsion then?

Dr. S. Sankaranarayan

3.33. Even a man of knowledge acts in conformity to his own Prakrti, the elements go [back] to the Prakrti; [and] what will the restraint avail ?

Swami Adidevananda

3.33 Even the man of knowledge acts according to his nature; all beings follow their nature. What will repression do?

Swami Gambirananda

3.33 Even a man of wisdom behaves according to his own nature. Being follow (their) nature. What can restraint do?

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।3.33।। जिस प्रकार के विचारों का चिन्तन हम करते हैं उनसे विचारों की दिशा निर्धारित होती है और वे स्थायी भाव का रूप लेते हैं इसको ही हमारा स्वभाव कहा जाता है। किसी समय मनुष्य का स्वभाव उसके मन में उठने वाले विचारों से निश्चित किया जाता है। यहाँ कहा गया है कि ज्ञानवान् पुरुष भी अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करता है।यहाँ ज्ञानवान शब्द का अर्थ है वह पुरुष जिसने कर्मयोग के सिद्धान्त को भली भाँति समझ लिया है। यद्यपि वह सिद्धान्त को जानता है तथापि उसे कार्यान्वित करने में कठिनाई आती है क्योंकि उसका स्वभाव उसके कार्य में बाधा उत्पन्न करता है। पूर्वाजिर्त वासनाओं के कारण इस सरल से प्रतीत होने वाले सिद्धांत को मनुष्य अपने जीवन में नहीं उतार पाता। इसका एक मात्र कारण है प्राणिमात्र अपने स्वभाव का अनुसरण करते हैं। स्वभाव के शक्तिशाली होने पर किसी का निग्रह क्या करेगा यह अन्तिम वाक्य भगवान् के उपदेश में निराशा का उद्गार नहीं किन्तु उनकी परिपूर्ण दृष्टि का परिचायक है। वे वस्तु स्थिति से परिचित हैं कि प्रत्येक व्यक्ति जीवन के उच्च मार्ग पर चलने की क्षमता नहीं रखता। विकास के सोपान की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े असंख्य मनुष्यों के लिये इस मार्ग का अनुसरण कदापि सम्भव नहीं क्योंकि विषयों में आसक्ति तथा पाशविक प्रवृत्तियों से वे इस प्रकार बंधे होते हैं कि उन सबका एकाएक त्याग करना उन सबके लिये सम्भव नहीं होता। जिस मनुष्य में कर्म के प्रति उत्साह तथा जीवन में कुछ पाने की महत्त्वाकांक्षा है केवल वही व्यक्ति इस कर्मयोग का आचरण करके स्वयं को कृतार्थ कर सकता है। भगवान् का यह कथन उनकी विशाल हृदयता एवं सहिष्णुता का परिचायक है।प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी स्वभाव है यदि उसी के अनुसार कर्म करने को वह विवश है तो फिर पुरुषार्थ के लिये कोई अवसर ही नहीं रह जाता। इस कारण यह उपदेश भी निष्प्रयोजन हो जाता है। इस पर भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।3.33।। व्याख्या-- 'प्रकृतिं यान्ति भूतानि'-- जितने भी कर्म किये जाते हैं, वे स्वभाव अथवा सिद्धान्तको (टिप्पणी प0 174.1) सामने रखकर किये जाते हैं। स्वभाव दो प्रकारका होता है-- राग-द्वेषरहित और राग-द्वेषयुक्त। जैसे, रास्तेमें चलते हुए कोई बोर्ड दिखायी दिया और उसपर लिखा हुआ पढ़ लिया तो यह पढ़ना न तो राग- द्वेषसे हुआ और न किसी सिद्धान्तसे, अपितु राग-द्वेषरहित स्वभावसे स्वतः हुआ। किसी मित्रका पत्र आनेपर उसे रागपूर्वक पढ़ते हैं, और शत्रुका पत्र आनेपर उसे द्वेषपूर्वक पढ़ते हैं तो यह पढ़ना राग-द्वेषयुक्त स्वभावसे हुआ। गीता, रामायण आदि सत्- शास्त्रोंको पढ़ना 'सिद्धान्त' से पढ़ना हुआ। मनुष्य-जन्म परमात्मप्राप्तिके लिये ही है; अतः परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे कर्म करना भी सिद्धान्तके अनुसार कर्म करना है।इस प्रकार देखना, सुनना, सूघँना, स्पर्श करना आदि मात्र क्रियाएँ स्वभाव और सिद्धान्त--दोनोंसे होती हैं। राग-द्वेषरहित स्वभाव दोषी नहीं होता, प्रत्युत राग-द्वेषयुक्त स्वभाव दोषी होता है। राग-द्वेषपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ मनुष्यको बाँधती हैं; क्योंकि इनसे स्वभाव अशुद्ध होता है और सिद्धान्तसे होनेवाली क्रियाएँ उद्धार करनेवाली होती हैं; क्योंकि इनसे स्वभाव शुद्ध होता है। स्वभाव अशुद्ध होनेके कारण ही संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद नहीं होता। स्वभाव शुद्ध होनेसे संसारसे माने हुए सम्बन्धकासुगमतापूर्वक विच्छेद हो जाता है।ज्ञानी महापुरुषके अपने कहलानेवाले शरीरद्वारा स्वतः क्रियाएँ हुआ करती हैं; क्योंकि उसमें कर्तृत्वाभिमान नहीं होता। परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले साधककी क्रियाएँ सिद्धान्तके अनुसार होती है। जैसे लोभी पुरुष सदा सावधान रहता है कि कहीं कोई घाटा न लग जाय, ऐसे ही साधक निरन्तर सावधान रहता है कि कहीं कोई क्रिया राग-द्वेषपूर्वक न हो जाय। ऐसी सावधानी होनेपर साधकका स्वभाव शीघ्र शुद्ध हो जाता है और परिणाम-स्वरूप वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।यद्यपि क्रियामात्र स्वाभाविक ही प्रकृतिके द्वारा होती है, तथापि अज्ञानी पुरुष क्रियाओंके साथ अपना सम्बन्ध मानकर अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता मान लेता है (गीता 3। 27)। पदार्थों और क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, जिनसे जन्म-मरणरूप बन्धन होता है। परन्तु प्रकृतिसे सम्बन्ध न माननेवाला साधक अपनेको सदा अकर्ता ही देखता है (गीता 13। 29)।स्वभावमें मुख्य दोष प्राकृत पदार्थोंका राग ही है। जबतक स्वभावमें राग रहता है, तभीतक अशुद्ध कर्म होते हैं। अतः साधकके लिये राग ही बन्धनका मुख्य कारण है।राग माने हुए 'अहम्' में रहता है और मन, बुद्धि, इन्द्रियों एवं इन्द्रियोंके विषयोंमें दिखायी देता है। अहम् दो प्रकारका है 1 चेतनद्वारा जडके साथ माने हुए सम्बन्धसे होनेवाला तादात्म्यरूप अहम्। 2 जड प्रकृतिका धातुरूप 'अहम्'-- 'महाभूतान्यहंकारः' (गीता 13। 5)।जड प्रकृतिके धातुरूप अहम् में कोई दोष नहीं है; क्योंकि यह 'अहम्' मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिकी तरह एक करण ही है। इसलिये सम्पूर्ण दोष माने हुए 'अहम्' में ही हैं। ज्ञानी महापुरुषमें तादात्म्यरूप 'अहम्' का सर्वथा अभाव होता है; अतः उसके कहलानेवाले शरीरके द्वारा होनेवाली समस्त क्रियाएँ प्रकृतिके धातुरूप 'अहम्' से ही होती हैं। वास्तवमें समस्त प्राणियोंकी सब क्रियाएँ इस धातुरूप 'अहम्' से ही होती हैं, परन्तु जड शरीरको 'मैं' और 'मेरा' माननेवाला अज्ञानी पुरुष उन क्रियाओंको अपनी तथा अपने लिये मान लेता है और बँध जाता है। कारण कि क्रियाओंको अपनी और अपने लिये माननेसे ही राग उत्पन्न होता है (टिप्पणी प0 174.2)।      'सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि'-- यद्यपि अन्तःकरणमें राग-द्वेष न रहनेसे ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति निर्दोष होती है और वह प्रकृतिके वशीभूत नहीं होता, तथापि वह चेष्टा तो अपनी प्रकृति-(स्वाभाव-) के अनुसार ही करता है। जैसे, कोई ज्ञानी महापुरुष अंग्रेजी भाषा नहीं जानता और उससे अंग्रेजी बोलनेके लिये कहा जाय, तो वह बोल नहीं सकेगा। वह जिस भाषाको जानता है, उसी भाषामें बोलेगा।भगवान् भी अपनी प्रकृति-(स्वभाव-) को वशमें करके जिस योनिमें अवतार लेते हैं, उसी योनिके स्वभावके अनुसार चेष्टा करते हैं; जैसे--भगवान् राम या कृष्ण-रूपसे मनुष्ययोनिमें अवतार लेते हैं तथा मत्स्य, कच्छप, वराह आदि योनियोंमें अवतार लेते हैं तो वहाँ उस-उस योनिके अनुसार ही चेष्टा करते हैं। तात्पर्य है कि भगवान्के अवतारी शरीरोंमें भी वर्ण, योनिके अनुसार स्वभावकी भिन्नता रहती है, पर परवशता नहीं रहती। इसी तरह जिन महापुरुषोंका प्रकृति-(जडता-) से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है, उनमें स्वभावकी भिन्नता तो रहती है, पर परवशता नहीं रहती। परन्तु जिन मनुष्योंका प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हुआ है, उनमें स्वभावकी भिन्नता और परवशता--दोनों रहती हैं। यहाँ स्वस्याः पदका तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति निर्दोष होती है। वह प्रकृतिके वशमें नहीं होता, प्रत्युत प्रकृति उसके वशमें होती है। कर्मोंकी फल-जनकताका मूल बीज कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थ-बुद्धि है। ज्ञानी महापुरुषमें कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थ-बुद्धि नहीं होती। उसके द्वारा चेष्टामात्र होती है। बन्धनकारक कर्म होता है, चेष्टा या क्रिया नहीं। इसीलिये यहाँ चेष्टते पद आया है। उसका स्वभाव इतना शुद्ध होता है कि उसके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ भी महान् शुद्ध एवं साधकोंके लिये आदर्श होती हैं।पीछेके और वर्तमान जन्मके संस्कार, माता-पिताके संस्कार, वर्तमानका सङ्ग, शिक्षा, वातावरण, अध्ययन, उपासना, चिन्तन, क्रिया, भाव आदिके अनुसार स्वभाव बनता है। यह स्वभाव सभी मनुष्योंमें भिन्न-भिन्न होताहै और इसे निर्दोष बनानेमें सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं। व्यक्तिगत स्वभावकी भिन्नता ज्ञानी महापुरुषोंमें भी रहती है। चेतनमें भिन्नता होती ही नहीं और प्रकृति-(स्वभाव-) में स्वाभाविक भिन्नता रहती है। प्रकृति है ही विषम। जैसे एक जाति होनेपर भी आम आदिके वृक्षोंमें अवान्तर भेद रहता है, ऐसे ही प्रकृति (स्वभाव) शुद्ध होनेपर भी ज्ञानी महापुरुषोंमें प्रकृतिका भेद रहता है।ज्ञानी महापुरुषका स्वभाव शुद्ध (राग-द्वेषरहित) होता है अतः वह प्रकृतिके वशमें नहीं होता। इसके विपरीत अशुद्ध (रागद्वेषयुक्त) स्वभाववाले मनुष्य अपनी बनायी हुई परवशतासे बाध्य होकर कर्म करते हैं।'निग्रहः किं करिष्यति'-- जिनका स्वभाव महान् शुद्ध एवं श्रेष्ठ है, उनकी क्रियाएँ भी अपनी प्रकृतिके अनुसार हुआ करती हैं, फिर जिनका स्वभाव अशुद्ध (राग-द्वेषयुक्त) है, उन पुरुषोंकी क्रियाएँ तो प्रकृतिके अनुसार होंगी ही। इस विषयमें हठ उनके काम नहीं आयेगा। जिसका जैसा स्वभाव है, उसे उसीके अनुसार कर्म करने पड़ेंगे। यदि स्वभाव अशुद्ध हो तो वह अशुद्ध कर्मोंमें और शुद्ध हो ते वह शुद्ध कर्मोंमें मनुष्यको लगा देगा। अर्जुन भी जब हठपूर्वक युद्धरूप कर्तव्य-कर्मका त्याग करना चाहते हैं, तब भगवान् उन्हें यही कहते हैं कि तेरा स्वभाव तुझे बलपूर्वक युद्धमें लगा देगा-- 'प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति' (18। 59); क्योंकि तेरे स्वभावमें क्षात्रकर्म (युद्ध आदि) करनेका प्रवाह है। इसलिये स्वाभाविक कर्मोंसे बँधा हुआ तू परवश होकर युद्ध करेगा अर्थात् इसमें तेरा हठ काम नहीं आयेगा-- 'करिष्यस्यवशोऽपि तत्' (18। 60)। जैसे सौ मील प्रति घंटेकी गतिसे चलनेवाली मोटर अपनी नियत क्षमतासे अधिक नहीं चलेगी, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषके द्वारा भी अपनी शुद्ध प्रकृतिके विपरीत चेष्टा नहीं होगी। जिनकी प्रकृति अशुद्ध है, उनकी प्रकृति बिगड़ी हुई मोटरके समान है। बिगड़ी हुई मोटरको सुधारनेके दो मुख्य उपाय हैं (1) मोटरको खुद ठीक करना और (2) मोटरको कारखानेमें पहुँचा देना। इसी प्रकार अशुद्ध प्रकृतिको सुधारनेके भी दो मुख्य उपाय हैं-- (1) रागद्वेषसे रहित होकर कर्म करना (गीता 3। 34) और (2) भगवान्के शरणमें चले जाना (गीता 18। 62)। यदि मोटर ठीक चलती है तो हम मोटरके वशमें नहीं हैं, और यदि मोटर बिगड़ी हुई है तो हम हम मोटरके वशमें हैं। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष प्रकृतिके शुद्ध होनेके कारण प्रकृतिके वशमें नहीं होता और अज्ञानी पुरुष प्रकृतिके अशुद्ध होनेके कारण प्रकृतिके वशमें होता है।जिसकी बुद्धिमें जडता-(सांसारिक भोग और संग्रह-) का ही महत्त्व है, ऐसा मनुष्य कितना ही विद्वान् क्यों न हो, उसका पतन अवश्यम्भावी है। परन्तु जिसकी बुद्धिमें जडताका महत्त्व नहीं है और भगवत्प्राप्ति ही जिसका उद्देश्य है, ऐसा मनुष्य विद्वान् न भी हो, तो भी उसका उत्थान अवश्यम्भावी है। कारण कि जिसका उद्देश्य भोग और संग्रह न होकर केवल परमात्माको प्राप्त करना ही है, उसके समस्त भाव, विचार, कर्म आदि उसकी उन्नतिमें सहायक हो जाते हैं। अतः साधकको सर्वप्रथम परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य बना लेना चाहिये, फिर उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये राग-द्वेषसे रहित होकर कर्तव्य-कर्म करने चाहिये। राग-द्वेषसेरहित होनेका सुगम उपाय है--मिले हुए शरीरादि पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानते हुए दूसरोंकी सेवामें लगाना और बदलेमें दूसरोंसे कुछ भी न चाहना। प्रकृतिके वशमें होनेके लिये साधकको चाहिये कि वह किसी आदर्शको सामने रखकर कर्तव्यकर्म करे। आदर्श दो हो सकते हैं-- (1) भगवान्का मत (सिद्धान्त) और (2) श्रेष्ठ महापुरुषोंका आचरण। आदर्शको सामने रखकर कर्म करनेवाले मनुष्यकी प्रकृति शुद्ध हो जाती है और नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है। इसके विपरीत आदर्शको सामने न रखकर कर्म करनेवाला मनुष्य राग-द्वेषपूर्वक ही सब कर्म करता है, जिससे राग-द्वेष पुष्ट हो जाते हैं और उसका पतन हो जाता है-- 'नष्टान् विद्धि'(गीता 3।32)।जैसे नदीके प्रवाहको हम रोक तो नहीं सकते, पर नहर बनाकर मोड़ सकते हैं, ऐसे ही कर्मोंके प्रवाहको रोक तो नहीं सकते, पर उसका प्रवाह मोड़ सकते हैं। निःस्वार्थ-भावसे केवल दूसर��ंके हितके लिये कर्म करना ही कर्मोंके प्रवाहको मोड़ना है। अपने लिये किञ्चिन्मात्र भी कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह मुड़ेगा नहीं। तात्पर्य यह कि केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी ओर हो जाता है और साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। सम्बन्ध प्रत्येक मनुष्यका अपनी प्रकृतिको साथ लेकर ही जन्म होता है; अतः उसे अपनी प्रकृतिके अनुसार कर्म करने ही पड़ते हैं। इसलिये अब भगवान् आगेके श्लोकमें प्रकृतिको शुद्ध करनेका उपाय बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।3.33।। ज्ञानवान् पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति पर ही जाते हैं, फिर इनमें (किसी का) निग्रह क्या करेगा।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।3.33।।एवं चेत्किमिति ते मतं नानुतिष्ठन्ति लोकाः इत्यत आह सदृशमिति। प्रकृतिः पूर्वसंस्कारः।

Sri Anandgiri

।।3.33।।भगवन्मतानुवर्तनमन्तरेण परधर्मानुष्ठाने स्वधर्माननुष्ठाने च कारणं पृच्छति कस्मादिति। भगवत्प्रतिकूलत्वमेव तत्र कारणमित्याशङ्क्याह तत्प्रतिकूला इति। राजानुशासनातिक्रमे दोषदर्शनाद्भगवदनुशासनातिक्रमेऽपि दोषसंभवात्प्रतिकूलत्वं भयकारणमित्यर्थः। उत्तरत्वेन श्लोकमवतारयति सदृशमिति। तत्राहेति। सर्वस्य प्राणिवर्गस्य प्रकृतिवशवर्तित्वे कैमुतिकन्यायं सूचयति ज्ञानवानपीति। सर्वाण्यपि भूतान्यनिच्छन्त्यपि प्रकृतिसदृशीं चेष्टां गच्छन्तीति निगमयति प्रकृतिमिति। भूतानां प्रकृत्यधीनत्वेऽपि प्रकृतिर्भगवता निग्राह्येत्याशङ्क्याह निग्रह इति। का पुनरियं प्रकृतिर्यदनुसारिणी भूतानां चेष्टेति पृच्छति प्रकृतिर्नामेति। भगवदभिप्रेतां प्रकृतिं प्रकटयति पूर्वेति। आदिशब्देन ज्ञानेच्छादि संगृह्यते। यथोक्तः संस्कारः स्वशक्त्या प्रवर्तकश्चेत्प्रलयेऽपि प्रवृत्तिः स्यादित्याशङ्क्य विशिनष्टि वर्तमानेति। सर्वो जन्तुरित्युक्तं विवेकिप्रवृत्तेरतथात्वादित्याशङ्क्यपश्वादिमिश्चाविशेषात् इति न्यायमनुसरन्नाह ज्ञानवानिति। ज्ञानवतामज्ञानवतां च प्रकृत्यधीनत्वाविशेषे फलितमाह तस्मादिति। प्रकृतिं यान्ति प्रकृतिसदृशीं चेष्टां गच्छन्त्यनिच्छन्त्यपि सर्वाणि भूतानीत्यर्थः। प्रकृतेर्भगवता तत्तुल्येन वा केनचिन्निग्रहमाशङ्क्यावतारितचतुर्थपादस्यार्थापेक्षितं पूरयति मम वेति।

Sri Vallabhacharya

।।3.33।।ननु तर्हि सर्वे बुधा महाफलत्वात्त्वन्मतमेव किमिति नानुतिष्ठन्ति तत्राह सदृशमिति। कैमुत्येनाह ज्ञानवानिति। शास्त्रीयं ज्ञानं सात्विकं तद्वानपि स्वस्याः परिणतायाः प्रकृतेरनुरूपं चेष्टते। चेष्टायां प्रकृतिरेवानुगुणहेतुः। प्रकृतिमोहित एवाहमित्यभिज्ञ इति मनुते। न परोक्तमनुसन्धत्ते किं पुनर्वक्तव्यमज्ञ एवं भवतीति अतो भूतानि सर्वाणि सात्विकराजसतामसानि स्वभावमनुवर्त्तन्ते वायुं तृणवत्। तत्र निग्रहः शिक्षणं ऐन्द्रियो वा किं करिष्यति प्रकृतेः प्रबलत्वादित्यर्थः।

Sridhara Swami

।।3.33।।ननु तर्हि महाफलत्वादिन्द्रियाणि निगृह्य निष्कामाः सन्तः सर्वेऽपि स्वधर्ममेव किं नानुतिष्ठन्ति तत्राह सदृशमिति। प्रकृतिः प्राचीनकर्मसंस्काराधीनस्वभावः स्वस्याः स्वकीयायाः प्रकृतेः स्वभावस्य सदृशमनुरूपमेव गुणदोषज्ञानवानपि चेष्टते किं पुनर्वक्तव्यमज्ञश्चेष्टत इति। तस्माद्भूतानि सर्वेऽपि प्राणिनः प्रकृतिं यान्त्यनुवर्तन्ते। एवं सति इन्द्रियनिग्रहः किं करिष्यति प्रकृतेर्बलिष्ठत्वादित्यर्थः।

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