Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 22 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन | नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ||३-२२||

Transliteration

na me pārthāsti kartavyaṃ triṣu lokeṣu kiñcana . nānavāptamavāptavyaṃ varta eva ca karmaṇi ||3-22||

Word-by-Word Meaning

not
मेmy
पार्थO Partha
अस्तिis
कर्तव्यम्to be done (duty)
त्रिषुin the three
लोकेषुworlds
किञ्चनanything
not
अनवाप्तम्unattained
अवाप्तव्यम्to be attained
वर्तेam
एवalso
and

📖 Translation

English

3.22 There is nothing in the three worlds, O Arjuna, that should be done by Me, nor is there anything unattained that should be attained; yet I engage Myself in action.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।3.22।। यद्यपि मुझे त्रैलोक्य में कुछ भी कर्तव्य नहीं हैं तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य (अवाप्तव्यम्) वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Even when you've achieved significant success or feel 'accomplished' in your career, continue to engage diligently in your work. As a leader or experienced professional, your sustained effort and commitment set a vital example for colleagues and subordinates, ensuring high standards and inspiring others, rather than acting solely for personal promotion or gain.

🧘 For Stress & Anxiety

Release the burden of constant striving for personal acquisition or specific outcomes. When you act out of duty, purpose, or to set a positive example, rather than from a need to attain something for yourself, you diminish anxiety about results and personal 'success' or 'failure'. Focus on the integrity of the action itself, finding peace in selfless contribution.

❤️ In Relationships

In family and social circles, act with genuine care and effort for the well-being of others, without expecting anything in return. Be a role model for ethical behavior, kindness, and responsibility. Your consistent, selfless actions, even when you personally 'don't need to,' contribute to the harmony and growth of the collective, especially influencing younger generations.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Act diligently and selflessly, especially as a leader, not for personal gain or unfulfilled desire, but to uphold righteousness and set an inspiring example for all.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

3.22 न not? मे my? पार्थ O Partha? अस्ति is? कर्तव्यम् to be done (duty)? त्रिषु in the three? लोकेषु worlds? किञ्चन anything? न not? अनवाप्तम् unattained? अवाप्तव्यम् to be attained? वर्ते am? एव also? च and? कर्मणि in action.Commentary I am the Lord of the universe and therefore I have no personal grounds to engage. Myself in action. I have nothing to achieve as I have all divine wealth? as the wealth of the universe is Mine? and yet I engage Myself in action.Why do you not follow My example Why do you not endeavour to prevent the masses from following the wrong path by setting an example yourself If you set an example? people will follow you as you are a leader with noble alities.

Shri Purohit Swami

3.22 There is nothing in this universe, O Arjuna, that I am compelled to do, nor anything for Me to attain; yet I am persistently active.

Dr. S. Sankaranarayan

3.22. O son of Prtha ! For Me, in the three worlds there is nothing that must be done; nor is there any thing unattained [so far] to be attained; and yet I exert in action.

Swami Adidevananda

3.22 For me, Arjuna, there is nothing in all the three worlds which ought to be done, nor is there anything unacired that ought to be acired. Yet I go on working.

Swami Gambirananda

3.22 In all the three worlds, O Partha, there is no duty whatsoever for Me (to fulfil); nothing remains unachieved or to be achieved. [According to S. the translation of this portion is: There is nothing unattained that should be attained.-Tr.] (Still) do I continue in action.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।3.22।। पूर्णस्वरूप में स्थित योगेश्वर श्रीकृष्ण को तीनों लोकों में किसी वस्तु की इच्छा नहीं थी। यदि वे चाहते तो अपने स्वयं के लिये राज्य स्थापित कर उसमें सुख से रह सकते थे. परन्तु केवल कर्तव्य पालन का उत्तरदायित्व समझते हुए पाण्डवों के धर्म और न्याय संगत पक्ष का साथ देने के लिए ही वे युद्धभूमि में आये थे।बाल्यकाल से लेकर महाभारत युद्ध के क्षण तक उनका सम्पूर्ण जीवन अनासक्ति का ज्वलन्त उदाहरण हैं। यद्यपि उन्हें जीवन में प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्य नहीं थी तथापि वे सदैव कर्म में ही रत रहे मानो उनके लिए कर्म करना उत्साह और आनन्द से परिपूर्ण एक क्रीडा हो।इसी सन्दर्भ में भगवान कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।3.22।। व्याख्या--'न मे पार्थास्ति ৷৷. नानवाप्तमवाप्तव्यम्'-- भगवान् किसी एक लोकमें सीमित नहीं है। इसलिये वे तीनों लोकोंमें अपना कोई कर्तव्य न होनेकी बात कह रहे हैं।भगवान्के लिये त्रिलोकीमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है; क्योंकि उनके लिये कुछ भी पाना शेष नहीं है।कुछ-न-कुछ पानेके लिये ही सब (मनुष्य, पशु ,पक्षी आदि) कर्म करते हैं। भगवान् उपर्युक्त पदोंमें बहुत विलक्षण बात कह रहे हैं कि कुछ भी करना और पाना शेष न होनेपर भी मैं कर्म करता हूँ ! अपने लिये कोई कर्तव्य न होनेपर भी भगवान् केवल दूसरोंके हितके लिये अवतार लेते हैं और साधु पुरुषोंका उद्धार, पापी पुरुषोंका विनाश तथा धर्मकी संस्थापना करनेके लिये कर्म करते हैं (गीता 4। 8)। अवतारके सिवाय भगवान्की सृष्टि-रचना भी जीवमात्रके उद्धारके लिये ही होती है। स्वर्गलोक पुण्यकर्मोंका फल भुगतानेके लिये है और चौरासी लाख योनियाँ एवं नरक पाप-कर्मोंका फल भुगतानेके लिये हैं। मनुष्य-योनि पुण्य और पाप--दोनोंसे ऊँचे उठकर अपना कल्याण करनेके लिये है। ऐसा तभी सम्भव है, जब मनुष्य अपने लिये कुछ न करे। वह सम्पूर्ण कर्म--स्थूल शरीरसे होनेवाली 'क्रिया', सूक्ष्म शरीरसे होनेवाला 'चिन्तन' और कारण शरीरसे होनेवाली 'स्थिरता' केवल दूसरोंके हितके लिये ही करे, अपने लिये नहीं। कारण कि जिनसे सब कर्म किये जाते हैं, वे स्थूल, सूक्ष्म और कारण--तीनों ही शरीर संसारके हैं, अपने नहीं। इसलिये कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि सम्पूर्ण सामग्रीको (जो वास्तवमें संसारकी ही है) संसारकी ही मानता है और उसे संसारकी सेवामें लगाता है। अगर मनुष्य संसारकी वस्तुको संसारकी सेवामें न लगाकर अपने सुख-भोगमें लगाता है तो बड़ी भारी भूल करता है। संसारकी वस्तुको अपनी मान लेनेसे ही फलकी इच्छा होती है और फलप्राप्तिके लिये कर्म होता है। इस तरह जबतक मनुष्य कुछ पानेकी इच्छासे कर्म करता है, तबतक उसके लिये कर्तव्य अर्थात् 'करना' शेष रहता है।गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो मालूम होता है कि मनुष्यमात्रका अपने लिये कोई कर्तव्य है ही नहीं। कारण कि प्रापणीय वस्तु (परमात्मतत्त्व) नित्यप्राप्त है और स्वयं (स्वरूप) भी नित्य है, जबकि कर्म और कर्म-फल अनित्य अर्थात् उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला है। अनित्य-(कर्म और फल-) का सम्बन्ध नित्य-(स्वयं-) के साथ हो ही कैसे सकता है! कर्मका सम्बन्ध 'पर'- (शरीर और संसार-) से है 'स्व' से नहीं। कर्म सदैव 'पर' के द्वारा और 'पर' के लिये ही होता है। इसलिये अपने लिये कुछ करना है ही नहीं। जब मनुष्यमात्रके लिये कोई कर्तव्य नहीं है, तब भगवान्के लिये कोई कर्तव्य हो ही कैसे सकता है! कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषके लिये भगवान्ने इसी अध्यायके सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें कहा है कि उस महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य नहीं है; क्योंकि उसकी रति, तृप्ति और संतुष्टि अपने-आपमें ही होती है। इसलिये उसे संसारमें करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणीसे किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। ऐसा होनेपर भी वह महापुरुष लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है। इसी प्रकार यहाँ भगवान् अपने लिये कहते हैं कि कोई भी कर्तव्य न होने तथा कुछ भी पाना बाकी न होनेपर भी मैं लोकसंग्रहार्थ कर्म करता हूँ। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान्के साथ एकता होती है--'मम साधर्म्यमागताः' (गीता 14। 2)। जैसे भगवान् त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष हैं (गीता 3। 23 4। 11), ऐसे ही संसारमें तत्त्वज्ञ पुरुष भी आदर्श हैं (गीता 3। 25)।'वर्त एव च कर्मणि'--यहाँ 'एव' पदसे भगवान्का तात्पर्य है कि मैं उत्साह एवं तत्परतासे, आलस्य-रहित होकर, सावधानीपूर्वक, साङ्गोपाङ्ग कर्तव्य-कर्मोंको करता हूँ। कर्मोंका न त्याग करता हूँ, न उपेक्षा।जैसे इंजनके पहियोंके चलनेसे इंजनसे जुड़े हुए डिब्बे भी चलते रहते हैं, ऐसे ही भगवान् और सन्त-महापुरुष (जिनमें करने और पानेकी इच्छा नहीं है) इंजनके समान कर्तव्य-कर्म करते हैं, जिससे अन्यमनुष्य भी उन्हींका अनुसरण करते हैं। अन्य मनुष्योंमें करने और पानेकी इच्छा रहती है। ये इच्छाएँ निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करनेसे ही दूर होती हैं। यदि भगवान् और सन्त-महापुरुष कर्तव्य-कर्म न करें तो दूसरे मनुष्य भी कर्तव्य-कर्म नहीं करेंगे, जिससे उनमें प्रमाद-आलस्य आ जायगा और वे अकर्तव्य करने लग जायँगे! फिर उन मनुष्योंकी इच्छाएँ कैसे मिटेंगी! इसलिये सम्पूर्ण मनुष्योंके हितके लिये भगवान् और सन्त-महापुरुषोंके द्वारा स्वाभाविक ही कर्तव्य-कर्म होते हैं।     भगवान् सदैव कर्तव्यपरायण रहते हैं, कभी कर्तव्यच्युत नहीं होते। अतः भगवत्परायण साधकको भी कभी कर्तव्यच्युत नहीं होना चाहिये। कर्तव्यच्युत होनेसे ही वह भगवत्तत्त्वके अनुभवसे वञ्चित रहता है। नित्य कर्तव्य-परायण रहनेसे साधकको भगवत्तत्त्वका अनुभव सुगमता-पूर्वक हो सकता है।

Swami Tejomayananda

।।3.22।। यद्यपि मुझे त्रैलोक्य में कुछ भी कर्तव्य नहीं हैं तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य (अवाप्तव्यम्) वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।3.22।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।3.22।।कृतार्थस्यापि लोकसंग्रहार्थं विहितं कर्म कर्तव्यमित्युक्त्वा तत्रैव भगवन्तमुदाहरणत्वेनोपन्यस्यति यदीत्यादिना। अप्राप्तस्य प्राप्तये तवापि कर्तृत्वसंभवाद् न किंचिदपि विद्यते कर्तव्यमिति कथमुक्तमित्याशङ्क्याह नानवाप्तमिति। प्रतीकमुपादाय व्याख्यानद्वारा विद्यावतोऽपि कर्मप्रवृत्तिं संभावयति नेत्यादिना। अन्वयार्थं पुनर्नञोऽनुवादः। भगवतो नास्ति कर्तव्यमित्येतदाकाङ्क्षाद्वारा स्फोरयति कस्मादित्यादिना। प्रयोजनाभावे त्वयापि नानुष्ठेयं कर्मेत्याशङ्क्य लोकसंग्रहार्थं ममापि कर्मानुष्ठानमिति मत्वाह तथापीति।

Sri Vallabhacharya

।।3.22।।अत्र चाहमेव निदर्शनमित्याह न म इति त्रिभिः।

Sridhara Swami

।।3.22।।अत्र चाहमेव दृष्टान्त इत्याह त्रिभिः न मे पार्थेति। हे पार्थ मे कर्तव्यं नास्ति। यतस्त्रिष्वपि लोकेष्वनवाप्तमप्राप्तं सदवाप्तव्यं प्राप्यं नास्ति तथापि कर्मण्यहं वर्ते। कर्म करोम्येवेत्यर्थः।

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