Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 19 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर | असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ||३-१९||
Transliteration
tasmādasaktaḥ satataṃ kāryaṃ karma samācara . asakto hyācarankarma paramāpnoti pūruṣaḥ ||3-19||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.19 Therefore without attachment, do thou always perform action which should be done; for by performing action without attachment man reaches the Supreme.
।।3.19।। इसलिए, तुम अनासक्त होकर सदैव कर्तव्य कर्म का सम्यक् आचरण करो; क्योकि, अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, focus diligently on performing your duties with excellence, contributing your best effort to every task and project. Do not become overly attached to specific outcomes like promotions, raises, or public recognition. While striving for success, cultivate a mindset where the value is in the work itself and the effort applied, not solely in the external reward. This approach fosters sustained motivation, resilience against setbacks, and true professional growth.
🧘 For Stress & Anxiety
To manage stress and improve mental health, practice detaching from the anticipated results of your actions. Many anxieties arise from clinging to desired outcomes or dreading potential failures. Instead, direct your energy towards the 'doing' – the process, the effort, and the immediate task at hand. By letting go of control over external results, you reduce the burden of expectation and disappointment, cultivating inner peace and mental tranquility regardless of external circumstances.
❤️ In Relationships
In relationships, perform your role with love, care, and responsibility without demanding specific returns or controlling the other person's responses. Express affection, offer support, and fulfill your commitments selflessly. When you act out of duty and love without attachment to expectations (e.g., 'they must appreciate this,' 'they must reciprocate exactly'), you prevent resentment, foster genuine connection, and experience greater harmony and freedom in your interactions.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Perform your prescribed duties with unwavering dedication but without attachment to the fruits of your labor, for this path leads to ultimate fulfillment and liberation.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.19 तस्मात् therefore? असक्तः without attachment? सततम् always? कार्यम् which should be done? कर्म action? समाचर perform? असक्तः without attachment? हि because? आचरन् performing? कर्म action? परम् the Supreme? आप्नोति attains? पूरुषः man.Commentary If you perform actions without attachment? for the sake of the Lord? you will attain to Selfrealisation through purity of heart. (Cf.II.64IV.19?23XVIII.49).
Shri Purohit Swami
3.19 Therefore do thy duty perfectly, without care for the results, for he who does his duty disinterestedly attains the Supreme.
Dr. S. Sankaranarayan
3.19. Therefore, unattached always, you should perform action that is to be performed; for, the person, performing action without attachment, attains the Supreme.
Swami Adidevananda
3.19 Therefore without attachment do your work which ought to be done. For, a man who works without attachment attains to the Supreme.
Swami Gambirananda
3.19 Therefore, remaining unattached, always perform the obligatory duty, for, by performing (one's) duty without attachment, a person attains the Highest.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.19।। भगवान् श्रीकृष्ण उपदेश के समय यह मानकर चलते हैं कि अर्जुन इस विषय में पूर्णतया अनभिज्ञ है परन्तु साथ ही वे उस पर केवल अपने विचार को थोपना भी नहीं चाहते जिन्हें अन्धविश्वासपूर्वक वह स्वीकार कर ले। धर्म परिवर्तन कराना वेदान्त का कार्य नहीं। हिन्दू लोग इससे अनभिज्ञ हैं। कोई भी विधेयात्मक (ऐसा करो) उपदेश देने के पूर्व विस्तार से तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं। कर्म के चक्र को पूर्णत बताने के बाद अब इस श्लोक में वे अन्तिम निर्णय पर पहुँच कर अर्जुन को कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।इसलिये समाज और राष्ट्र के एक योग्य नागरिक होने के नाते तुम सदैव करणीय कर्तव्यों को सम्यक् प्रकार से करो। यहाँ फिर एक बार सब कर्मों में अनासक्त रहने पर बल दिया गया है। आसक्ति अहंकार अहंकारमूलक इच्छा। अत अनासक्ति का अर्थ है अहंकार और स्वार्थ का परित्याग। इसके पूर्व आसक्ति से वासनाओं की उत्पत्ति के विषय में बताया जा चुका है।निम्नांकित कारण से भी तुमको कर्म करने चाहिये।
Swami Ramsukhdas
3.19।। व्याख्या-- 'तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर'-- पूर्वश्लोकोंसे इस श्लोकका सम्बन्ध बतानेके लिये यहाँ 'तस्मात् पद आया है। पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने कहा कि अपने लिये कर्म करनेकी कोई आवश्यकता न रहनेपर भी सिद्ध महापुरुषके द्वारा लोक-संग्रहार्थ क्रियाएँ हुआ करती हैं। इसलिये अर्जुनको भी उसी तरह (निष्काम-भावसे) कर्तव्य-कर्म करते हुए परमात्माको प्राप्त करनेकी आज्ञा देनेके लिये भगवान्ने 'तस्मात्'पदका प्रयोग किया है। कारण कि अपने स्वरूप 'स्व' के लिये कर्म करने और न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं है। कर्म सदैव 'पर'-(दूसरों-) के लिये होता है, 'स्व'के लिये नहीं। अतः दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्म करनेका राग मिट जाता है और स्वरूपमें स्थिति हो जाती है।अपने स्वरूपसे विजातीय (जड) पदार्थोंके प्रति आकर्षणको 'आसक्ति' कहते हैं। आसक्तिरहित होनेके लिये आसक्तिके कारणको जानना आवश्यक है। 'मैं शरीर हूँ' और 'शरीर मेरा है'-- ऐसा माननेसे शरीरादि नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व अन्तःकरणमें अङ्कित हो जाता है। इसी कारण उन पदार्थोंमें आसक्ति हो जाती है। आसक्ति ही पतन करनेवाली है, कर्म नहीं। आसक्तिके कारण ही मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जड पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध मानकर अपने आराम, सुख-भोगके लिये तरह-तरहके कर्म करता है। इस प्रकार जडतासे आसक्तिपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही मनुष्यके बारम्बार जन्म-मरणका कारण होता है-- 'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता 13। 21)। आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।आसक्तिवाला मनुष्य दूसरोंका हित नहीं कर सकता, जबकि आसक्तिरहित मनुष्यसे स्वतःस्वाभाविक प्राणिमात्रका हित होता है। उसके सभी कर्म केवल दूसरोंके हितार्थ होते हैं।संसारसे प्राप्त सामग्री-(शरीरादि-) से हमने अभीतक अपने लिये ही कर्म किये हैं। उसको अपने ही सुखभोग और संग्रहमें लगाया है। इसलिये संसारका हमारेपर ऋण है, जिसे उतारनेके लिये केवल संसारके हितके लिये कर्म करना आवश्यक है। अपने लिये (फलकी कामना रखकर) कर्म करनेसे पुराना ऋण तो समाप्त होता नहीं, नया ऋण और उत्पन्न हो जाता है। ऋणसे मुक्त होनेके लिये बार-बार संसारमें आना पड़ता है। केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करनेसे पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और अपने लिये कुछ न करने तथा कुछ न चाहनेसे नया ऋण उत्पन्न नहीं होता। इस तरह जब पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और नया ऋण उत्पन्न नहीं होता, तब बन्धनका कोई कारण न रहनेसे मनुष्य स्वतः मुक्त हो जाता है।कोई भी कर्म निरन्तर नहीं रहता पर आसक्ति (अन्तःकरणमें) निरन्तर रहा करती है, इसलिये भगवान् 'सततम् असक्तः' पदोंसे निरन्तर आसक्तिरहित होनेके लिये कहते हैं। 'मेरेको कहीं भी आसक्त नहीं होना है'--ऐसी जागृति साधकको निरन्तर रखनी चाहिये। निरन्तर आसक्ति-रहित रहते हुए जो विहित-कर्म सामने आ जाय, उसे कर्तव्यमात्र समझकर कर देना चाहिये--ऐसा उपर्युक्त पदोंका भाव है।वास्तवमें देखा जाय तो किसीके भी अन्तःकरणमें आसक्ति निरन्तर नहीं रहती। जब संसार निरन्तर नहीं रहता, प्रतिक्षण बदलता रहता है, तब उसकी आसक्ति निरन्तर कैसे रह सकती है? ऐसा होते हुए भी मानेहुए 'अहम्' के साथ आसक्ति निरन्तर रहती हुई प्रतीत होती है।'कार्यम्' अर्थात् कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसको कर सकते हैं और जिसको अवश्य करना चाहिये। दूसरे शब्दोंमें कर्तव्यका अर्थ होता है--अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंका हित करना अर्थात् दूसरोंकी उस शास्त्रविहित न्याययुक्त माँगको पूरा करना, जिसे पूरा करनेकी सामर्थ्य हमारेमें है। इस प्रकार कर्तव्यका सम्बन्ध परहितसे है।कर्तव्यका पालन करनेमें सब स्वतन्त्र और समर्थ हैं कोई पराधीन और असमर्थ नहीं है। हाँ, प्रमाद और आलस्यके कारण अकर्तव्य करनेका बुरा अभ्यास (आदत) हो जानेसे तथा फलकी इच्छा रहनेसे ही वर्तमानमें कर्तव्य-पालन कठिन मालूम देता है, अन्यथा कर्तव्य-पालनके समान सुगम कुछ नहीं है। कर्तव्यका सम्बन्ध परिस्थितिके अनुसार होता है। मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें स्वतन्त्रतापूर्वक कर्तव्यका पालन कर सकता है। कर्तव्यका पालन करनेसे ही आसक्ति मिटती है। अकर्तव्य करने तथा कर्तव्य न करनेसे आसक्ति और बढ़ती है। कर्तव्य अर्थात् दूसरोंके हितार्थ कर्म करनेसे वर्तमानकी आसक्ति और कुछ न चाहनेसे भविष्यकी आसक्ति मिट जाती है।'समाचर' पदका तात्पर्य है कि कर्तव्य-कर्म बहुत सावधानी, उत्साह तथा तत्परतासे विधिपूर्वक करने चाहिये। कर्तव्य-कर्म करनेमें थोड़ी भी असावधानी होनेपर कर्मयोगकी सिद्धिमें बाधा लग सकती है। वर्ण, आश्रम, प्रकृति (स्वभाव) और परिस्थितिके अनुसार जिस मनुष्यके लिये जो शास्त्रविहित कर��तव्य-कर्म बताया गया है, अवसर प्राप्त होनेपर उसके लिये वही 'सहज कर्म' है। सहज कर्ममें यदि कोई दोष दिखायी दे, तो भी उसका त्याग नहीं करना चाहिये (गीता 18। 48) ;क्योंकि सहज कर्मको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता (गीता 18। 47) इसीलिये यहाँ भगवान् अर्जुनको मानो यह कह रहे हैं कि तू क्षत्रिय है; अतः युद्ध करना (घोर दीखनेपर भी) तेरा सहज कर्म है; घोर कर्म नहीं। अतः सामने आये हुए सहज कर्मको अनासक्त होकर कर देना चाहिये। अनासक्त होनेपर ही समता प्राप्त होती है।विशेष बातजब जीव मनुष्ययोनिमें लेता है, तब उसको शरीर धन जमीन मकान आदि सब सामग्री मिलती है और जब वह यहाँसे जाता है तब सब सामग्री यहीं छूट जाती है। इस सीधी-सादी बातसे यह सहज ही सिद्ध होता है कि शरीरादि सब सामग्री मिली हुई है, अपनी नहीं है। जैसे मनुष्य काम करनेके लिये किसी कार्यालय (आफिस) में जाता है तो उसे कुर्सी, मेज, कागज आदि सब सामग्री कार्यालयका काम करनेके लिये ही मिलती है, अपनी मानकर घर ले जानेके लिये नहीं। ऐसे ही मनुष्यको संसारमें शरीरादि सब सामग्री संसारका काम (सेवा) करनेके लिये ही मिली है अपनी माननेके लिये नहीं। मनुष्य तत्परता और उत्साहपूर्वक कार्यालयका काम करता है तो उस कामके बदलेमें उसे वेतन मिलता है। काम कार्यालयके लिये होता है और वेतन अपने लिये। इसी प्रकार संसारके लिये ही सब काम करनेसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और योग (परमात्माके साथ अपने नित्य सम्बन्ध) का अनुभव हो जाता है। 'कर्म' और 'योग' दोनों मिलकर कर्मयोग कहलाता है। कर्म संसारके लिये होता है और योग अपने लिये। यह योग ही मानो वेतन है।संसार साधनका क्षेत्र है। यहाँ प्रत्येक सामग्री साधनके लिये मिलती है, भोग और संग्रहके लिये कदापि नहीं। सांसारिक सामग्री अपनी और अपने लिये है ही नहीं। अपनी वस्तु--परमात्म-तत्त्व मिलनेपर फिर अन्य किसी वस्तुको पानेकी इच्छा नहीं रहती (गीता 6। 22)। परन्तु सांसारिक वस्तुएँ चाहे जितनी प्राप्त हो जायँ, पर उन्हें पानेकी इच्छा कभी मिटती नहीं, प्रत्युत और बढ़ती है।जब मनुष्य मिली हुई वस्तुको अपनी और अपने लिये मान लेता है, तब वह अपनी इस भूलके कारण बँध जाता है। इस भूलको मिटानेके लिये कर्मयोगका अनुष्ठान ही सुगम और श्रेष्ठ उपाय है। कर्मयोगी किसी भी वस्तुको अपनी और अपने लिये न मानते हुए उसे दूसरोंकी सेवामें (उन्हींकी मानकर) लगाता है। अतः वह सुगमतापूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।कर्म तो सभी प्राणी किया करते हैं, पर साधारण प्राणी और कर्मयोगीद्वारा किये गये कर्मोंमें बड़ा भारी अन्तर होता है। साधारण मनुष्य (कर्मी) आसक्ति, ममता, कामना आदिको साथ रखते हुए कर्म करता है और कर्मयोगी आसक्ति ममता कामना आदिको छोड़कर कर्म करता है। कर्मीके कर्मोंका प्रवाह अपनी तरफ होता है और कर्मयोगीके कर्मोंका प्रवाह संसारकी तरफ। इसलिये कर्मी बँधता है और कर्मयोगी मुक्त होता है।'असक्तो ह्याचरन्कर्म'-- मनुष्य ही आसक्तिपूर्वक संसारसे अपना सम्बन्ध जोड़ता है, संसार नहीं। अतः मनुष्यका कर्तव्य है कि वह संसारके हितके लिये ही सब कर्म करे और बदलेमें उनका कोई फल न चाहे। इस प्रकार आसक्तिरहित होकर अर्थात् मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिये, इस भावसे संसारके लिये कर्म करनेसे संसारसे स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।कर्मयोगी संसारकी सेवा करनेसे वर्तमानकी वस्तुओंसे और कुछ न चाहनेसे भविष्यकी वस्तुओंसे सम्बन्धविच्छेद करता है।मेलेमें स्वयंसेवक अपना कर्तव्य समझकर दिनभर यात्रियोंकी सेवा करते हैं और बद���ेमें किसीसे कुछ नहीं चाहते; अतः रात्रिमें सोते समय उन्हें किसीकी याद नहीं आती। कारण कि सेवा करते समय उन्होंने किसीसे कुछ चाहा नहीं। इसी प्रकार जो सेवाभावसे दूसरोंके लिये ही सब कर्म करता है और किसीसे मान, बड़ाई आदि कुछ नहीं चाहता, उसे संसारकी याद नहीं आती। वह सुगमतापूर्वक संसार0-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। कर्म तो सभी किया करते हैं, पर कर्मयोग तभी होता है, जब आसक्तिरहित होकर दूसरोंके लिये कर्म किये जाते हैं। आसक्ति शास्त्रहित कर्तव्य-कर्म करनेसे ही मिट सकती है-- 'धर्म तें बिरति' (मानस 3। 16। 1)। शास्त्र-निषिद्ध कर्म करनेसे आसक्ति कभी नहीं मिट सकती। 'परमाप्नोति पुरुषः'--जैसे तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने 'परम्' पदसे सांख्ययोगीके परमात्माको प्राप्त होनेकी बात कही, ऐसी ही यहाँ 'परम्' पदसे कर्मयोगीके परमात्माको प्राप्त होनेकी बात कहते हैं। तात्पर्य यह है कि साधक (रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार) किसी भी मार्ग--कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोगपर क्यों न चले, उसके द्वारा प्राप्तव्य वस्तु एक परमात्मा ही हैं (गीता 5। 45)। प्राप्तव्य तत्त्व वही हो सकता है, जिसकी प्राप्तिमें विकल्प, सन्देह और निराशा न हो तथा जो सदा हो, सब देशमें हो, सब कालमें हो, सभीके लिये हो, सबका अपना हो और जिस तत्त्वसे कोई कभी किसी अवस्थामें किञ्चिन्मात्र भी अलग न हो सके अर्थात् जो सबको सदा अभिन्नरूपसे स्वतः प्राप्त हो। शङ्का कर्म करते हुए कर्मयोगीका कर्तृत्वाभिमान कैसे मिट सकता? क्योंकि कर्तृत्वाभिमान मिटे बिना परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं हो सकता। समाधान--साधारण मनुष्य सभी कर्म अपने लिये करता है। अपने लिये कर्म करनेसे मनुष्यमें कर्तृत्वाभिमान रहता है। कर्मयोगी कोई भी क्रिया अपने लिये नहीं करता। वह ऐसा मानता है कि संसारसे शरीर, इन्द्रियाँमन, बुद्धि, पदार्थ, रुपये आदि जो कुछ सामग्री मिली है, वह सब संसारकी ही है, अपनी नहीं। जब कभी अवसर मिलता है, तभी वह सामग्री, समय, सामर्थ्य आदिको संसारकी सेवामें लगा देता है, उनको संसारकी सेवामें लगाते हुए कर्मयोगी ऐसा मानता है कि संसारकी वस्तु ही संसारकी सेवामें लगा रहा हूँ अर्थात् सामग्री, समय, सामर्थ्य, आदि उन्हींके हैं, जिनकी सेवा हो रही है। ऐसा माननेसे कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता।कर्तृत्वमें कारण है-- भोक्तृत्व। कर्मयोगी भोगकी आशा रखकर कर्म करता ही नहीं। भोगकी आशावाला मनुष्य कर्मयोगी नहीं होता। जैसे अपने हाथोंसे अपना ही मुख धोनेपर यह भाव नहीं आता कि मैंने बड़ा उपकार किया है; क्योंकि मनुष्य हाथ और मुख दोनोंको अपने ही अंग मानता है, ऐसे ही कर्मयोगी भी शरीरको संसारका ही अङ्ग मानता है। अतः यदि अङ्गने अङ्गीकी ही सेवा की है तो उसमें कर्तृत्वाभिमान कैसा ? यह नियम है कि मनुष्य जिस उद्देश्यको लेकर कर्ममें प्रवृत्त होता है, कर्मके समाप्त होते ही वह उसी लक्ष्यमें तल्लीन हो जाता है। जैसे व्यापारी धनके उद्देश्यसे ही व्यापार करता है, तो दूकान बंद करते ही उसका ध्यान स्वतः रुपयोंकी ओर जाता है और वह रुपये गिनने लगता है।उसका ध्यान इस और नहीं जाता कि आज कौन-कौन ग्राहक आये ? किस-किस जातिके आये ?आदि-आदि। कारण कि ग्राहकोंसे उसका कोई प्रयोजन नहीं। संसारका उद्देश्य रखकर कर्म करनेवाला मनुष्य संसारमें कितना ही तल्लीन क्यों न हो जाय, पर उसकी संसारसे एकता नहीं हो सकती; क्योंकि वास्तवमें संसारसे एकता है ही नहीं। संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील और जड है ,जबकि 'स्वयं' (अपना स्वरूप) अचल और चेतन है। परन्तु परमात्माका उद्देश्य रखकर कर्म करनेवालेकी परमात्मासे एकता हो ही जाती है (चाहे साधकको इसका अनुभव हो या न हो); क्योंकि 'स्वयं' की परमात्माके साथ स्वतःसिद्ध (तात्त्विक) एकता है। इस प्रकार जब कर्ता 'कर्तव्य' बनकर अपने उद्देश्य-(परमात्मतत्त्व-) के साथ एक हो जाता है तब कर्तृत्वाभिमानका प्रश्न ही नहीं रहता।कर्मयोगी जिस उद्देश्य परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये सब कर्म करता है उस(परमात्मतत्त्व) में कर्तृत्वाभिमान अथवा कर्तृत्व (कर्तापन) नहीं है। अतः प्रत्येक क्रियाके आदि और अन्तमें उस उद्देश्यके साथ एकताका अनुभव होनेके कारण कर्मयोगीमें कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता।प्राणिमात्रके द्वारा किये हुए प्रत्येक कर्मका आरम्भ और अन्त होता है। कोई भी कर्म निरन्तर नहीं रहता। अतः किसीका भी कर्तृत्व निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत कर्मका अन्त होनेके साथ ही कर्तृत्वका भी अन्त हो जाता है। परन्तु मनुष्यसे भूल यह होती है कि जब वह कोई क्रिया करता है, तब तो अपनेको उस क्रियाका कर्ता मानता ही है, पर जब उस क्रियाको नहीं करता, तब भी अपनेको वैसा ही कर्ता मानता रहता है। इस प्रकार अपनेको निरन्तर कर्ता मानते रहनेसे उसका कर्तृत्वाभिमान मिटता नहीं, प्रत्युत दृढ़ होता है। जैसे, कोई पुरुष व्याख्यान देते समय तो वक्ता (व्याख्यानदाता) होता है, पर जब दूसरे समयमें भी वह अपनेको वक्ता मानता रहता है, तब उसका कर्तृत्वाभिमान नहीं मिटता। अपनेको निरन्तर व्याख्यानदाता माननेसे ही उसके मनमें यह भाव आता है कि 'श्रोता मेरी सेवा करें मेरा आदर करें, मेरी आवश्यकताओंकी पूर्ति करें, और 'मैं इन साधारण आदमियोंके पास कैसे बैठ सकता हूँ, मैं यह साधारण काम कैसे कर सकता हूँ' आदि। इस प्रकार उसका व्याख्यानरूप कर्मके साथ निरन्तर सम्बन्ध बना रहता है। इसका कारण है--व्याख्यानरूप कर्मसे धन, मान, बड़ाई, आराम आदि कुछ-न-कुछ पानेका भाव होना। यदि अपने लिये कुछ भी पानेका भाव न रहे तो कर्तापन केवल कर्म करनेतक ही सीमित रहता है और कर्म समाप्त होते ही कर्तापन अपने उद्देश्यमें लीन हो जाता है।जैसे मनुष्य भोजन करते समय ही अपनेको उसका भोक्ता अर्थात् भोजन करनेवाला मानता है, भोजन करनेके बाद नहीं, ऐसे ही कर्मयोगी किसी क्रियाको करते समय ही अपनेको उस क्रियाका कर्ता मानता है, अन्य समय नहीं। जैसे, कर्मयोगी व्याख्यानदाता है और लोगोंमें उसकी बहुत प्रतिष्ठा है। परन्तु कभी व्याख्यान सुननेका काम पड़ जाय तो वह कहीं भी बैठकर सुगमतापूर्वक व्याख्यान सुन सकता है। उस समय उसे न आदरकी आवश्यकता है, न ऊँचे आसनकी; क्योंकि तब वह अपनेको श्रोता मानता है, व्याख्यानदाता नहीं। कभी व्याख्यान देनेके बाद उसे कोई कमरा साफ करनेका काम प्राप्त हो जाय तो वह उस कामको वैसी ही तत्परतासे करता है, जैसी तत्परतासे वह व्याख्यान देनेका कार्य करता है। उसके मनमें थोड़ा भी यह भाव नहीं आता कि 'इतना बड़ा व्याख्यानदाता होकर मैं यह कमरा-सफाईका तुच्छ काम कैसे कर सकता हूँ! लोग क्या कहेंगे! मेरी इज्जत धूलमें मिल जायगी' इत्यादि। वह अपनेको व्याख्यान देते समय व्याख्यानदाता, कथा-श्रवणके समय श्रोता और कमरा साफ करते समय कमरा साफ करनेवाला मानता है। अतः उसका कर्तृत्वाभिमान निरन्तर नहीं रहता। जो वस्तु निरन्तर नहीं रहती ,अपितु बदलती रहती है, वह वास्तवमें नहीं होती और उसका सम्बन्ध भी निरन्तर नहीं रहता--यह सिद्धान्त है। इस सिद्धान्तपर दृष्टि जाते ही साधकको वास्तविका-(कर्तृत्वाभिमानसे रहित स्वरूप-) का अनुभव हो जाता है।कर्मयोगी सब क्रियाएँ उसी भावसे करता है, जिस भावसे नाटकमें एक स्वाँगधारी पात्र करता है। जैसे नाटकमें हरिश्चन्द्रका स्वाँग नाटक-(खेल-) के लिये ही होता है, और नाटक समाप्त होते ही हरिश्चन्द्ररूप स्वाँगका स्वाँगके साथ ही त्याग हो जाता है, ऐसे ही कर्मयोगीका कर्तापन भी स्वाँगके समान केवल क्रिया करनेतक ही सीमित रहता है। जैसे नाटकमें हरिश्चन्द्र बना हुआ व्यक्ति हरिश्चन्द्रकी सब क्रियाएँ करते हुए भी वास्तवमें अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता (वास्तविक हरिश्चन्द्र) नहीं मानता, ऐसे ही कर्मयोगी शास्त्रविहित सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी वास्तवमें अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता नहीं मानता। कर्मयोगी शरीरादि सब पदार्थोंको स्वाँगकी तरह अपना और अपने लिये न मानकर उन्हें (संसारका मानते हुए) संसारकी ही सेवामें लगाता है। अतः किसी भी अवस्थामें कर्मयोगीमें किञ्चिन्मात्र भी कर्तृत्वाभिमान नहीं रह सकता।कर्मयोगी जैसे कर्तृत्वको अपनेमें निरन्तर नहीं मानता, ऐसे ही माता-पिता, स्त्री-पुत्र ,भाई-भौजाई आदिके साथ अपना सम्बन्ध भी निरन्तर नहीं मानता। केवल सेवा करते समय ही उसके साथ अपना सम्बन्ध (सेवा करनेके लिये ही) मानता है। जैसे, यदि कोई पति है तो पत्नीके लिये पति है अर्थात् पत्नी कर्कशा हो, कुरूपा हो, कलह करनेवाली हो, पर उसे पत्नीरूपमें स्वीकार कर लिया तो अपनी योग्यता, सामर्थ्यके अनुसार उसका भरण-पोषण करना पतिका कर्तव्य है। पतिके नाते उसके सुधारकी बात कह देनी है, चाहे वह माने या न माने। हर समय अपनेको पति नहीं मानना है; क्योंकि इस जन्मसे पहले वह पत्नी थी, इसका क्या पता? और मरनेके बाद भी वह पत्नी रहेगी, इसका भी क्या निश्चय? तथा वर्तमानमें भी वह किसीकी माँ है, किसीकी पुत्री है, किसीकी बहन है, किसीकी भाभी है, किसीकी ननद है, आदि-आदि। वह सदा पत्नी ही तो है नहीं। ऐसा माननेसे उससे सुख लेनेकी इच्छा स्वतः मिटती है और 'केवल भरण-पोषण (सेवा) करनेके लिये ही पत्नी है', यह मान्यता दृढ़ होती है। इस प्रकार कर्मयोगीको संसारमें पिता, पुत्र, पति, भाई आदिके रूपमें जो स्वाँग मिला है, उसे वह ठीक-ठीक निभाता है। दूसरा अपने कर्तव्यका पालन करता है या नहीं, उसकी ओर वह नहीं देखता। अपनेमें कर्तृत्वाभिमान होनेसे ही दूसरोंके कर्तव्यपर दृष्टि जाती है और दूसरोंके कर्तव्यपर दृष्टि जाते ही मनुष्य अपने कर्तव्यसे गिर जाता है; क्योंकि दूसरेका कर्तव्य देखना अपना कर्तव्य नहीं है। जिस प्रकार कर्मयोगी संसारके प्राणियोंके साथ अपना सम्बन्ध निरन्तर नहीं मानता, उसी प्रकार वर्ण, आश्रम, जाति, सम्प्रदाय, घटना, परिस्थिति आदिके साथ भी अपना सम्बन्ध निरन्तर नहीं मानता। जो वस्तु निरन्तर नहीं है, उसका अभाव स्वतः है। अतः कर्मयोगीका कर्तृत्वाभिमान स्वतः मिट जाता है।मार्मिक बातजिसमें कर्तृत्व नहीं है, उस परमात्माके साथ प्राणि-मात्रकी स्वतःसिद्ध एकता है। साधकसे भूल यह होती है कि वह इस वास्तविकताकी तरफ ध्यान नहीं देता।जिस प्रकार झूला कितनी ही तेजीसे आगे-पीछे क्यों न जाय, हर बार वह समता (सम स्थिति) में आता ही है अर्थात् जहाँसे झूलेकी रस्सी बँधी है, उसकी सीधमें (आगे-पीछे जाते समय) एक बार आता ही है, उसी प्रकार प्रत्येक क्रियाके बाद अक्रिय अवस्था (समता) आती ही है। दूसरे शब्दोंमें, पहली क्रियाके अन्त तथा दूसरी क्रियाके आरम्भके बीच और प्रत्येग संकल्प तथा विकल्पके बीच समता रहती ही है।दूसरी बात, यदि वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो झूला चलते हुए (विषम दीखनेपर) भी निरन्तर समतामें ही रहता है अर्थात् झूला आगे-पीछे जाते समय भी निरन्तर (जहाँसे झूलेकी रस्सी बँधी है, उसकी) सीधमें ही रहता है। इसी प्रकार जीव भी प्रत्येक क्रियामें समतामें ही स्थित रहता है। परमात्मासे उसकी एकता निरन्तर रहती है। क्रिया करते समय समतामें स्थिति न दीखनेपर भी वास्तवमें समता रहती ही है, जिसका कोई अनुभव करना चाहे तो क्रिया समाप्त होते ही (उस समताका) अनुभव हो जाता है। यदि साधक इस विषयमें निरन्तर सावधान रहे तो उसे निरन्तर रहनेवाली समता या परमात्मासे अपनी एकताका अनुभव हो जाता है, जहाँ कर्तृत्व नहीं है।माने हुए कर्तृत्वाभिमानको मिटानेके लिये प्रतीति और प्राप्तका भेद समझ लेना आवश्यक है। जो दीखता है, पर मिलता नहीं, उसे प्रतीति कहते हैं; और जो मिलता है, पर दीखता नहीं, उसे 'प्राप्त' कहते हैं। देखने-सुनने आदिमें आनेवाला प्रतिक्षण परिवर्तनशील संसार 'प्रतीति' है, और सर्वत्र नित्य परिपूर्ण परमात्मतत्त्व 'प्राप्त' है। परमात्म-तत्त्व ब्रह्मासे चींटी-पर्यन्त सबको समानरूपसे स्वतः प्राप्त है। इदंतासे दीखनेवाली प्रतीतिका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। दृश्यमात्र प्रतिक्षण अदृश्यमें जा रहा है। जिनसे प्रतीति होती है, वे इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी प्रतीति ही हैं। नित्य अचल रहनेवाले 'स्वयं' को प्रतीतिकी प्राप्ति नहीं होती। सदा सबमें रहनेवाला परमात्मतत्त्व 'स्वयं' को नित्यप्राप्त है। इसलिये 'प्रतीति' अभावरूप और 'प्राप्त' भावरूप है--नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः (गीता 2। 16)।यावन्मात्र पदार्थ और क्रिया 'प्रतीति' है। क्रियामात्र अक्रियतामें लीन होती है। प्रत्येक क्रियाके आदि और अन्तमें सहज (स्वतःसिद्ध) अक्रिय तत्त्व विद्यमान रहता है। जो आदि और अन्तमें होता है, वही मध्यमें भी होता है--यह सिद्धान्त है। अतः क्रियाके समय भी अखण्ड और सहज अक्रिय तत्त्व ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है। वह सहज अक्रिय तत्त्व (चेतन स्वरूप अथवा परमात्म-तत्त्व) अक्रिय और सक्रिय--दोनों अवस्थाओंको प्रकाशित करनेवाला है अर्थात् वह प्रवृत्ति और निवृत्ति (करने और न करने) दोनोंसे परे है।प्रतीति-(देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया आदि-) से माने हुए सम्बन्ध अर्थात् आसक्तिके कारण ही नित्यप्राप्त परमात्म-तत्त्वका अनुभव नहीं होता। आसक्तिका नाश होते ही नित्यप्राप्त परमात्म-तत्त्वका अनुभव हो जाता है। अतः आसक्तिरहित होकर प्रतीति (अपने कहलानेवाले शरीरादि पदार्थों) को प्रतीति-(संसारमात्र-) की सेवामें लगा देनेसे प्रतीति-(शरीरादि पदार्थों-) का प्रवाह प्रतीति-(संसार-) की तरफ ही हो जाता है और स्वतः प्राप्त परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है। सम्बन्ध-- आसक्तिरहित होकर कर्म करने अर्थात् अपने लिये कोई कर्म न करनेसे क्या कोई परमात्माको प्राप्त हो चुका है? इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.19।। इसलिए, तुम अनासक्त होकर सदैव कर्तव्य कर्म का सम्यक् आचरण करो; क्योकि, अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.19।।यतोऽसम्प्रज्ञातसमाधेरेव कार्याभावः तस्मात्कर्म समाचर।
Sri Anandgiri
।।3.19।।सम्यग्ज्ञाननिष्ठत्वाभावे कर्मानुष्ठानमावश्यकमित्याह यत इति। तस्मात् ज्ञाननिष्ठाराहित्यादिति यावत्। मोक्षमेवापेक्षमाणस्य कथं कर्मणि फलान्तरवति नियोगः स्यादित्याशङ्क्याह असक्तो हीति।
Sri Vallabhacharya
।।3.19।।त्वं तु न साङ्ख्यज्ञानवान्। यतः तस्मादसक्तः कार्यं कर्म कुरु। त्वमिति साङ्ख्ययोगतत्त्वम्। यस्ययद्विहितं नित्यं नैमित्तिकं तदाचरन् असक्तः पुरुषो ब्रह्मविदाप्नोति परं पदम्। भगवदर्थमिति वाऽसङ्गपदार्थः। न हि कामव्यतिरेकेण कर्ममात्रं कश्चिद्देहाभिमानी करोति। नच अहरहः सन्ध्यामुपासीत इत्यादौ नित्ये कर्मणि कामफलाश्रवणान्नैवमिति वाच्यम् तत्रापि विधिप्रयोगेन कामफलकल्पनात् प्रत्यवायपरिहारस्यापि तत्त्वाच्च। ज्योतिष्टोमे स्वर्गकामवत्। अन्यथा प्रवृत्त्यनुपपत्तिः। अतो भगवत्कामनया कर्म कार्यमित्युक्तं भवति तदग्रे स्फुटीकरिष्यते।
Sridhara Swami
।।3.19।। यस्मादेवंभूतस्य ज्ञानिन एव कर्मानुपयोगो नान्यस्य तस्मात्त्वं कर्म कुर्विल्याह तस्मादिति। असक्तः फलसङ्गरहितः सन्कार्यमवश्यकर्तव्यतया विहितं नित्यनैमित्तिकं कर्म सम्यगाचर। हि यस्मादसक्तः कर्माचरन्पुरुषः परं मोक्षं चित्तशुद्धिं ज्ञानद्वारा प्राप्नोति।