Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 16 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः | अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ||३-१६||
Transliteration
evaṃ pravartitaṃ cakraṃ nānuvartayatīha yaḥ . aghāyurindriyārāmo moghaṃ pārtha sa jīvati ||3-16||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.16 He who does not follow here the wheel thus set revolving, who is of sinful life, rejoicing in the senses, he lives in vain, O Arjuna.
।।3.16।। जो पुरुष यहाँ इस प्रकार प्रवर्तित हुए चक्र का अनुवर्तन नहीं करता हे पार्थ इंन्द्रियों में रमने वाला वह पाप आयु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, view your work as part of a larger 'wheel' or ecosystem. Contribute diligently and ethically, understanding your role's impact beyond personal gain. Avoid being driven solely by immediate gratification or superficial rewards; instead, seek to add value and fulfill your professional responsibilities for a truly purposeful career, rather than just 'punching the clock' or chasing ephemeral pleasures.
🧘 For Stress & Anxiety
Many modern stresses stem from a lack of purpose or the relentless pursuit of fleeting sensory pleasures (material possessions, constant entertainment, etc.) that ultimately leave one feeling empty. This verse encourages connecting your actions to a greater good or a universal order. By focusing on your duties, contributing to society, and exercising self-control over excessive indulgence, you can find a deeper sense of fulfillment and reduce the existential anxiety that comes from living a 'vain' or 'worthless' life.
❤️ In Relationships
Approach relationships with a spirit of contribution and mutual interdependence, rather than self-centered seeking of gratification. 'Rejoicing in the senses' in this context can mean using others for personal pleasure or gain without offering genuine care or fulfilling relational duties. To foster meaningful connections, understand your responsibilities to others and the 'wheel' of reciprocal action, moving beyond superficial interactions to build bonds based on shared purpose and selfless giving.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“To live a life of purpose and true fulfillment, actively contribute to the interconnected world, uphold your duties, and transcend selfish desires for sensory indulgence.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.16 एवम् thus? प्रवर्तितम् set revolving? चक्रम् wheel? न not? अनुवर्तयति follows? इह here? यः who? अघायुः living in sin? इन्द्रियारामः rejoicing in the senses? मोघम् in vain? पार्थ O Partha? सः he? जीवति lives.Commentary This is the wheel of action set in motion by the Creator on the basis of the Veda and sacrifice.He who does not follow the wheel by studying the Vedas and performing the sacrifices prescribed therein but who indulges only in sensual pleasures lives in vain. He is wasting his life. He is leading a worthless life indeed.One who does not live in accordance with this law and who is selfish commits sin. He violates the law of the Creator and that is the worst sin.
Shri Purohit Swami
3.16 Thus he who does not help the revolving wheel of sacrifice, but instead leads a sinful life, rejoicing in the gratification of his senses, O Arjuna, he breathes in vain.
Dr. S. Sankaranarayan
3.16. Whosoever does not roll forward the wheel, thus set in motion in this world, he is a man of sinful life rejoicing in the senses; and he lives in vain, O son of Prtha !
Swami Adidevananda
3.16 He who does not follow the wheel thus set in motion here, lives in sin, satisfying the senses, O Arjuna. He lives in vain.
Swami Gambirananda
3.16 O Partha, he lives in vain who does not follow here the wheel thus set in motion, whose life is sinful, and who indulges in the senses.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.16।। खनिज वनस्पति एवं पशु जगत् के समस्त सदस्य अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से ही यज्ञ भावना का पालन करते हुए प्रकृति में प्रवर्तित कर्मचक्र के निर्विघ्न चलने में अपना योगदान देते हैं। केवल मनुष्य को ही यह स्वतन्त्रता है कि चाहे तो वह इसका पालन करे अथवा विरोध। जब तक किसी पीढ़ी के अधिकसेअधिक लोग सामंजस्यकेनियम के अनुसार जीवन जीते हैं तब तक उतनी ही अधिक मात्रा में वे सुख समृद्धि से सम्पन्न होकर रहते हैं। ऐसे काल को ही सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का स्वर्ण युग कहा जाता है।परन्तु सभी मनुष्यों के लिये सदैव यह सम्भव नहीं होता कि वे इस सनातन नियम का दृढ़तापूर्वक पालन कर सकें। इतिहास के किसीकिसी काल में मनुष्य इस नियम के विरुद्ध खड़ा हो जाता है और तब जीवन में शांति और विकास का राज्य विखरता हुआ अन्त में मात्र खण्डहर रह जाता है। ऐसे तिमिराच्छन्न युग निराशा और अशांति युद्ध और महामारी बाढ़ और अकाल से प्रताड़ित और त्रस्त युग होते हैं।स्वाभाविक ही मन में यह प्रश्न उठता है कि सुख शान्ति का उज्ज्वल दिवस अस्त होकर जगत् में निराशा और अविवेक की अन्धकारपूर्ण रात्रि आने का क्या कारण है इसका उत्तर गीता में दिया गया हुआ है।व्यक्तियों से समाज बनता है। किसी समाज की उपलब्धियों के कारण हम उसे कितना ही गौरवान्वित करें फिर भी समाज के निर्माता व्यक्तियों के व्यक्तिगत योगदान की अवहेलना नहीं की जा सकती। व्यक्तियों के योग्य होने पर समाज सरलता से आगे बढ़ता है। परन्तु इकाई रूप व्यक्तियों का त्रुटिपूर्णसंगठन होने पर सम्पूर्ण समाज रूपी महल ही ढह जाता है। मनुष्य का विनाशकारी जीवन प्रारम्भ होता है उसके अत्यधिक इन्द्रियों के विषय में रमने से देह को ही अपना स्वरूप समझकर उसके पोषण एवं सुखसुविधाओं का ध्यान रखने में ही वे व्यस्त हो जाते हैं। अत्यधिक देहासक्ति के कारण वे पशुवत विषयोपभोग के अतिरिक्त जीवन का अन्य श्रेष्ठ लक्ष्य ही नहीं जानते और इसलिये उच्च जीवन जीने के मार्ग के ज्ञान की भी उन्हे कोई आवश्यकता अनुभव नहीं होती।ऐसे युग में कोई भी व्यक्ति यज्ञ की भावना से कर्म करने में प्रवृत्त नहीं होता जिसके बिना उत्पादन के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ (पर्जन्य) नहीं बनतीं जिससे कि उत्पादन क्षमता (देव) आनन्ददायक पोषक वस्तुओं (अन्न) के रूप में प्रगट हो सकें। विषयों के भोगियों को यहां इन्द्रिया रामा कहा गया जिनमें से प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही भोग की चिन्ता करता है और अनजाने ही विश्व के कर्मचक्र में घर्षण उत्पन्न करता है। इन लोगों का जीवन पापपूर्ण माना गया है और गीता का कथन है वे व्यर्थ ही जीते हैं।अब एक प्रश्न है क्या इस प्रकार प्रवर्तित चक्र का पालन सबको अनिवार्य है अथवा केवल उसके लिये जिसे ज्ञानयोग में अभी निष्ठा प्राप्त नहीं हुई है उत्तर में भगवान् कहते हैं
Swami Ramsukhdas
।।3.16।। व्याख्या--'पार्थ'--नवें श्लोकमें प्रारम्भ किये हुए प्रकरणका उपसंहार करते हुए भगवान् यहाँ अर्जुनके लिये पार्थ सम्बोधन देकर मानो यह कह रहे हैं कि तुम उसी पृथा(कुन्ती) के पुत्र हो जिसने आजीवन कष्ट सहकर भी अपने कर्तव्यका पालन किया था। अतः तुम्हारेसे भी अपने कर्तव्यकी अवहेलना नहीं होनी चाहिये। जिस युद्धको तू घोर कर्म कह रहा है वह तेरे लिये घोर कर्म नहीं प्रत्युत यज्ञ (कर्तव्य) है। इसका पालन करना ही सृष्टिचक्रके अनुसार बरतना है और इसका पालन न करना सृष्टिचक्रके अनुसार न बरतना है।'एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः'--जैसे रथके पहियेका छोटासा अंश भी टूट जानेपर रथके समस्त अङ्गोंको एवं उसपर बैठे रथी और सारथिको धक्का लगता है ऐसे ही जो मनुष्य चौदहवेंपन्द्रहवें श्लोकोंमें वर्णित सृष्टिचक्रके अनुसार नहीं चलता वह समष्टि सृष्टिके संचालनमें बाधा डालता है।संसार और व्यक्ति दो (विजातीय) वस्तु नहीं हैं। जैसे शरीरका अङ्गोंके साथ और अङ्गोंका शरीरके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है ऐसे ही संसारका व्यक्तिके साथ और व्यक्तिका संसारके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब व्यक्ति कामना ममता आसक्ति और अहंताका त्याग करके अपने कर्तव्यका पालन करता है तब उससे सम्पूर्ण सृष्टिमें स्वतः सुख पहुँचता है।'इन्द्रियारामः' जो मनुष्य कामना ममता आसक्ति आदिसे युक्त होकर इन्द्रियोंके द्वारा भोग भोगता है उसे यहाँ भोगोंमें रमण करनेवाला कहा गया है। ऐसा मनुष्य पशुसे भी नीचा है क्योंकि पशु नये पाप नहीं करता प्रत्युत पहले किये गये पापोंका ही फल भोगकर निर्मलताकी ओर जाता है परन्तु इन्द्रियाराम मनुष्य नयेनये पाप करके पतनकी ओर जाता ��ै और साथ ही सृष्टिचक्रमें बाधा उत्पन्न करके सम्पूर्ण सृष्टिको दुःख पहुँचाता है।'अघायुः'-- सृष्टिचक्रके अनुसार न चलनेवाले मनुष्यकी आयु उसका जीवन केवल पापमय है। कारण कि इन्द्रियोंके द्वारा भोगबुद्धिसे भोग भोगनेवाला मनुष्य हिंसारूप पापसे बच ही नहीं सकता। स्वार्थी अभिमानी और भोग तथा संग्रहको चाहनेवाले मनुष्यके द्वारा दूसरोंका अहित होता है अतः ऐसे मनुष्यका जीवन पापमय होता है। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी कहते हैं। पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद। ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद।। (मानस 7। 39) 'मोघं पार्थ स जीवति'--अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यकी सभ्य भाषामें निन्दा या ताड़ना करते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐसा मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है अर्थात् वह मर जाय तो अच्छा है तात्पर्य यह है कि यदि वह अपने कर्तव्यका पालन करके सृष्टिको सुख नहीं पहुँचाता तो कमसेकम दुःख तो न पहुँचाये। जैसे भगवान् श्रीरामके वनवासके समय अयोध्यावासियोंके चित्रकूट आनेपर कोल किरात भील आदि जंगली लोगोंने उनसे कहा था कि हम आपके वस्त्र और बर्तन नहीं चुरा लेते यही हमारी बहुत बड़ी सेवा है--'यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई'।। (मानस 2।251।2) ऐसे ही अपनेकर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्य कमसेकम सृष्टिचक्रमें बाधा न डालें तो यह उनकी सेवा ही है। सृष्टिचक्रके अनुसार न चलनेवाले मनुष्यके लिये भगवान्ने पहले 'स्तेन एव सः' (3। 12) वह चोर ही है और 'भुञ्जते ते त्वघम्' (3। 13) वे तो पापको ही खाते हैं इस प्रकार कहा और अब इस श्लोकमें 'अघायुरिन्द्रियारामः' वह पापायु और इन्द्रियाराम है --ऐसा कहकर उसके जीनेको भी व्यर्थ बताते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने भी कहा है--तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा।। उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके।। (मानस 1। 4। 3) सम्बन्ध--संसारसे 'सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये जो अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उस मनुष्यकी पूर्वश्लोकमें ताड़ना की गयी है। परन्तु जिसने अपने कर्तव्यका पालन करके संसारसे सम्बन्धविच्छेद कर लिया है उस महापुरुषकी स्थितिका वर्णन भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.16।। जो पुरुष यहाँ इस प्रकार प्रवर्तित हुए चक्र का अनुवर्तन नहीं करता हे पार्थ इंन्द्रियों में रमने वाला वह पाप आयु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.16।।तानि चाक्षराणि भूताभिव्यङ्ग्यानीति चक्रम्। तदेतज्जगच्चक्रं यो नानुवर्तयति स तद्विनाशकत्वादघायुः पापनिमित्तमेव यस्यायुः सोऽघायुः।
Sri Anandgiri
।।3.16।।अधिकृतेनाध्ययनादिद्वारा जगच्चक्रमनुवर्तनीयमन्यथेश्वराज्ञातिलङ्घिनस्तस्य प्रत्यवायः स्यादित्याह एवमिति।न कर्मणामनारम्भात् इत्यादिनोक्तमुपसंहरति तस्मादिति। जगच्चक्रस्य प्रागुक्तप्रकारेणानुवर्तने वृथा जीवनमघसाधनं यस्मात्तस्माज्जीवता नियतं कर्म कर्तव्यमित्यर्थः। यद्यधिकृतेन कर्तव्यमेव कर्म तर्हि किमित्यज्ञेनेति विशिष्यते ज्ञाननिष्ठेनापि तत्कर्तव्यमेवाधिकृतत्वाविशेषादित्याशङ्क्य पूर्वोक्तमनुवदति प्रागिति। नहि ज्ञानकर्मणोर्विरोधाज्ज्ञाननिष्ठेन कर्म कर्तुं शक्यते तथा चानात्मज्ञेनैव चित्तशुद्ध्यादिपरंपरया ज्ञानार्थं कर्मानुष्ठेयमिति प्रतिपादितमित्यर्थः। तर्हि यज्ञार्थादित्यादि। किमर्थं नहि तत्र ज्ञाननिष्ठा प्रतिपाद्यते कर्मनिष्ठा तु पूर्वमेवोक्तत्वान्नात्र वक्तव्येत्याशङ्क्य वृत्तमर्थान्तरमनुवदति प्रतिपाद्येति। प्रासङ्गिकमज्ञस्य कर्मकर्तव्यतोक्तिप्रसङ्गागतमिति यावद् बहुकारणमीश्वरप्रसादो देवताप्रीतिश्चेत्यादि दोषसंकीर्तनंतैर्दत्तानप्रदाय इत्यादि।
Sri Vallabhacharya
।।3.16।।यस्मादेवं प्रजापतिना कृतोपदेशेनैव भूतानां पुरुषार्थसिद्ध्यर्थं कर्माज्ञप्तं प्रवर्त्तितम् तस्मात्तदननुवर्त्तयतो वृथैव जीवितमित्याह एवं प्रवर्त्तित्तमिति। कर्मचक्रं कर्मणोऽनुशासनं वा यो नर इन्द्रियारामो नानुसरति।
Sridhara Swami
।।3.16।।यस्मादेवं परमेश्वरेणैव भूतानां पुरुषार्थसिद्धये कर्मादिचक्रं प्रवर्तितं तस्मात्तदुकुर्वतो वृथैव जीवितमित्याह एवमिति। परमेश्वरवाक्यभूताद्वेदाख्याद्ब्रह्मणः पुरुषाणां कर्मणि प्रवृत्तिः ततः कर्मनिष्पत्तिः ततः पर्जन्यः ततोऽन्नम् ततो भूतानि भूतानां च पुनस्तथैव कर्मणि प्रवृत्तिरित्येवं प्रवर्तितं चक्रं यो नानुवर्तयति नानुतिष्ठति सोऽघायुः अघं पापरुपमायुर्यस्य सः। यत इन्द्रियैर्विषयेष्वेव रमति न तु ईश्वराराधनार्थे कर्मणि। अतो मोघं व्यर्थ स जीवति।