Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 72 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Inner Stability/Equanimity

Sanskrit Shloka (Original)

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति | स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ||२-७२||

Transliteration

eṣā brāhmī sthitiḥ pārtha naināṃ prāpya vimuhyati . sthitvāsyāmantakāle.api brahmanirvāṇamṛcchati ||2-72||

Word-by-Word Meaning

एषाthis
ब्राह्मीof Brahmic
स्थितिःstate
पार्थO Partha
not
एनाम्this
प्राप्यhaving obtained
विमुह्यतिis deluded
स्थित्वाbeing established
अस्याम्in this
अन्तकालेat the end of life
अपिeven
ब्रह्मनिर्वाणम्oneness with Brahman

📖 Translation

English

2.72 This is the Brahmic seat (eternal state), O son of Pritha. Attaining to this, none is deluded. Being established therein, even at the end of life, one attains to oneness with Brahman.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.72।। हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate a mindset where your value and peace are not solely dependent on job titles, promotions, or financial success. Engage fully in your work with diligence and integrity, but remain internally detached from the outcomes, viewing both successes and setbacks with equanimity. This allows for clear decision-making, resilience, and a deeper sense of purpose beyond fleeting professional gains.

🧘 For Stress & Anxiety

Achieve an inner state of unshakeable calm by understanding the transient nature of external stressors and identifying with your eternal self, rather than your fluctuating emotions or circumstances. This 'Brahmic state' protects you from anxiety, fear, and emotional turbulence, fostering profound mental peace and clarity, regardless of external chaos.

❤️ In Relationships

Approach relationships with deep understanding and unconditional regard, free from the delusion of conditional love, attachment, or expectations that often lead to pain. Recognize the spiritual essence in others and yourself, allowing for more authentic, compassionate, and stable connections that transcend superficial conflicts and transient emotions.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Cultivate unwavering inner wisdom and detachment to transcend delusion, achieve lasting peace, and realize ultimate liberation, a state that remains accessible even at life's final moment.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.72 एषा this? ब्राह्मी of Brahmic? स्थितिः state? पार्थ O Partha? न not? एनाम् this? प्राप्य having obtained? विमुह्यति is deluded? स्थित्वा being established? अस्याम् in this? अन्तकाले at the end of life? अपि even? ब्रह्मनिर्वाणम् oneness with Brahman? ऋच्छति attains.Commentary The state described in the previous verse -- to renounce everything and to live in Brahman -- is the Brahmic state or the state of Brahman. If one attains to this state one is never deluded. He attains Moksha if he stays in that state even at the hour of his death. It is needless to say that he who gets establised in Brahman throughout his life attains to the state of Brahman or,BrahmaNirvana (Cf.VIII.5?6).Maharshi Vidyaranya says in his Panchadasi that Antakala here means the moment at which Avidya or mutual superimposition of the Self and the notSelf ends.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the second discourse entitledThe Sankhya Yoga.,

Shri Purohit Swami

2.72 O Arjuna! This is the state of the Self, the Supreme Spirit, to which if a man once attain, it shall never be taken from him. Even at the time of leaving the body, he will remain firmly enthroned there, and will become one with the Eternal."

Dr. S. Sankaranarayan

2.72. O son of Prtha ! This is the Brahmanic state; having attained this, one never gets deluded [again]; and even by remaining in this [for a while] one attains at the time of death, the Brahman, the Tranil One.

Swami Adidevananda

2.72 This is the Brahmi-state, O Arjuna. None attaining to this is deluded. By abiding in this state even at the hour of death, one wins the self.

Swami Gambirananda

2.72 O Partha, this is the state of being established in Brahman. One does not become deluded after attaining this. One attains identification with Brahman by being established in this state even in the closing years of one's life.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.72।। सब इच्छाओं के त्याग का अर्थ है अहंकार का त्याग। अहंकार रहित अवस्था निष्क्रिय अर्थहीन शून्य नहीं है। जहाँ भ्रान्तिजनित अहंकार समाप्त हुआ वहीं पर पूर्ण ज्ञानस्वरूप आत्मा प्रकाशित होता है। अपने हृदय में स्थित आत्मा को पहचानने का ही अर्थ है उसी समय सर्वत्र व्याप्त नित्य ब्रह्म को पहचानना। अहंकार के नष्ट होने पर नित्य चैतन्य आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् उसके साथ एकत्व का अनुभव ही होता है। अत इस साक्षात्कार को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है।यहाँ एक शंका उठ सकती है कि क्या आत्मानुभव के पश्चात् भी हमें पुन मोहित होकर अहंकार से उत्पन्न दुखों का भोग हो सकता है ऐसे किसी पुनर्मोह का यहाँ निषेध करके भगवान् हमारे भय को दूर कर देते हैं और भी एक बात है कि आत्मसाक्षात्कार का युवावस्था में ही होना आवश्यक नहीं हैं। वृद्धावस्था अथवा जीवन के अन्तिम क्षणों में भी यदि मनुष्य अपने स्वयंसिद्ध नित्य स्वरूप को पहचान लेता है तब भी वह अनुभव ब्राह्मी स्थिति के लिए पर्याप्त है।मिथ्या का निषेध और सत्य का प्रतिपादन यही वह मार्ग है जिसका उपनिषदों में आत्मप्राप्ति के लिए उपदेश है। कर्मयोग उस ज्ञान का व्यावहारिक स्वरूप है जिसका निरूपण व्यासजी ने गीता में अपनी मौलिक शैली में किया है। अनासक्त भाव से सिद्धि और असिद्धि में समान रहते हुए कर्म करने का अर्थ है अहंकार के अधिकार को ही समाप्त करना और इस प्रकार अनजाने ही वहाँ उच्चतर सत्य की स्थापना करना। अस्तु वेदान्त के निदिध्यासन से गीता में वर्णित कर्मयोग की साधना भिन्न नहीं है। परन्तु अर्जुन भगवान् के केवल वाच्यार्थ को ही ग्रहण करता है और उसके मन में एक सन्देह उत्पन्न होता है जिसे वह तृतीय अध्याय के प्रारम्भ में व्यक्त करता है। अत अगले अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण कर्मयोग का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हैं।conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायांयोगाशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगोनाम द्वितीयोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुन संवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय समाप्त होता है।कपिल मुनि जी के सांख्य दर्शन के अर्थ में इस अध्याय का नाम सांख्ययोग नहीं है। यहाँ सांख्य शब्द का प्रयोग उसकी व्युत्पत्ति के आधार पर किया गया है जिसके अनुसार सांख्य का अर्थ हैं किसी विषय का युक्तियुक्त वह विवेचन जिसमें अनेक तर्क प्रस्तुत करने के पश्चात् किसी विवेकपूर्ण निष्कर्ष पर हम पहुँचते हैं। इस अर्थ में तत्त्वज्ञान से पूर्ण इस अध्याय को संकल्प वाक्य में सांख्ययोग कहा गया है।यह सत्य है कि मूल महाभारत में गीता के अध्यायों के अन्त में यह संकल्प वाक्य नहीं मिलते। किसी एक व्यक्ति को इनकी रचना का श्रेय देने के विषय में व्याख्याकारों में मतभेद है। तथापि यह स्वीकार किया जाता है कि एक अथवा अनेक विद्वानों ने प्रत्येक अध्याय के विषय का अध्ययन कर उसका उचित नामकरण किया है। गीता के सभी विद्यार्थियों के लिए वास्तव में ये नाम उपयोगी हैं। श्री शंकराचार्य जी ने इस विषय पर भाष्य नहीं लिखा है।

Swami Ramsukhdas

।।2.72।। व्याख्या-- 'एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ'-- यह ब्राह्मी स्थिति है अर्थात् ब्रह्मको प्राप्त हुए मनुष्यकी स्थिति है। अहंकाररहित होनेसे जब व्यक्तित्व मिट जाता है, तब उसकी स्थिति स्वतः ही ब्रह्ममें होती है। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही व्यक्तित्व था। उस सम्बन्धको सर्वथा छोड़ देनेसे योगीकी अपनी कोई व्यक्तिगत स्थिति नहीं रहती। अत्यन्त नजदीकका वाचक होनेसे यहाँ  'एषा'  पद पूर्वश्लोकमें आये 'विहाय कामान्' 'निःस्पृहः निर्ममः' और 'निरहङ्कारः' पदोंका लक्ष्य करता है। भगवान्के मुखसे 'तेरी बुद्धि जब मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्तिसे तर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा'--ऐसा सुनकर अर्जुनके मनमें यह जिज्ञासा हुई कि वह स्थिति क्या होगी? इसपर अर्जुनने स्थितप्रज्ञके विषयमें चार प्रश्न किये। उन चारों प्रश्नोंका उत्तर देकर भगवान्ने यहाँ वह स्थिति बतायी कि वह ब्राह्मी स्थिति है। तात्पर्य है कि वह व्यक्तिगत स्थिति नहीं है अर्थात् उसमें व्यक्तित्व नहीं रहता। वह नित्ययोगकी प्राप्ति है। उसमें एक ही तत्त्व रहता है। इस विषयकी तरफ लक्ष्य करानेके लिये ही यहाँ  'पार्थ'  सम्बोधन दिया गया है।  'नैनां प्राप्य विमुह्यति'-- जबतक शरीरमें अहंकार रहता है, तभीतक मोहित होनेकी सम्भावना रहती है। परन्तु जब अहंकारका सर्वथा अभाव होकर ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव हो जाता है, तब व्यक्तित्व टूटनेके कारण फिर कभी मोहित होनेकी सम्भावना नहीं रहती। सत् और असत्को ठीक तरहसे न जानना ही मोह है। तात्पर्य है कि स्वयं सत् होते हुए भी असत्के साथ अपनी एकता मानते रहना ही मोह है। जब साधक असत्को ठीक तरहसे जान लेता है, तब असत्से उसका सम्बन्ध-विच्छेद हो जात��� है  (टिप्पणी प0 109)  और सत्में अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। इस स्थितिका अनुभव होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता (गीता 4। 35)।  'स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति'-- यह मनुष्य-शरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। इसलिये भगवान् यह मौका देते हैं कि साधारण-से-साधारण और पापी-से-पापी व्यक्ति ही क्यों न हो, अगर वह अन्तकालमें भी अपनी स्थिति परमात्मामें कर ले अर्थात् जडतासे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर ले, तो उसे भी निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जायगी, वह जन्म-मरणसे मुक्त हो जायगा। ऐसी ही बात भगवान्ने सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें कही है कि 'अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ एक भगवान् ही हैं--ऐसा प्रयाणकालमें भी मेरेको जो जान लेते हैं, वे मेरेको यथार्थरूपसे जान लेते हैं अर्थात् मेरेको प्राप्त हो जाते हैं।' आठवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा कि 'अन्तकालमें मेरा स्मरण करता हुआ कोई प्राण छोड़ता है, वह मेरेको ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।'दूसरी बात, उपर्युक्त पदोंसे भगवान् उस ब्राह्मी स्थितिकी महिमाका वर्णन करते हैं कि इसमें यदि अन्तकालमें भी कोई स्थित हो जाय, तो वह शान्त ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। जैसे समबुद्धिके विषयमें भगवान्ने कहा था कि इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा कर लेता है (2। 40) ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि अन्तकालमें भी ब्राह्मी स्थिति हो जाय, जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय, तो निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। इस स्थितिका अनुभव होनेमें जडताका राग ही बाधक है। यह राग अन्तकालमें भी कोई छोड़ देता है तो उसको अपनी स्वतःसिद्ध वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है।यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो अनुभव उम्रभरमें नहीं हुआ, वह अन्तकालमें कैसे होगा? अर्थात् स्वस्थ अवस्थामें तो साधककी बुद्धि स्वस्थ होगी, विचार-शक्ति होगी, सावधानी होगी तो वह ब्राह्मी स्थितिका अनुभव कर लेगा; परन्तु अन्तकालमें प्राण छूटते समय बुद्धि विकल हो जाती है, सावधानी नहीं रहती--ऐसी अवस्थामें ब्राह्मी स्थितिका अनूभव कैसे होगा? इसका समाधान यह है कि मृत्युके समयमें जब प्राण छूटते हैं, तब शरीर आदिसे स्वतः ही सम्बन्ध-विच्छेद होता है। यदि उस समय उस स्वतःसिद्ध तत्त्वकी तरफ लक्ष्य हो जाय, तो उसका अनुभव सुगमतासे हो जाता है। कारण कि निर्विकल्प अवस्थाकी प्राप्तिमें तो बुद्धि, विवेक आदिकी आवश्यकता है, पर अवस्थातीत तत्त्वकी प्राप्तिमें केवल लक्ष्यकी आवश्यकता है  (टिप्पणी प0 110) । वह लक्ष्य चाहे पहलेके अभ्याससे हो जाय, चाहे किसी शुभ संस्कारसे हो जाय, चाहे भगवान् या सन्तकी अहैतुकी कृपासे हो जाय लक्ष्य होनेपर उसकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है।यहाँ  'अपि'  पदका तात्पर्य है कि अन्तकालसे पहले अर्थात् जीवित-अवस्थामें यह स्थिति प्राप्ति कर ले तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है; परन्तु अगर अन्तकालमें भी यह स्थिति हो जाय अर्थात् निर्मम-निरहंकार हो जाय तो वह भी मुक्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि यह स्थिति तत्काल हो जाती है। स्थितिके लिये अभ्यास करने, ध्यान करने, समाधि लगानेकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है।भगवान्ने यहाँ कर्मयोगके प्रकरणमें 'ब्रह्मनिर्वाणम्' पद दिया है। इसका तात्पर्य है कि जैसे सांख्ययोगीको निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है (गीता 5। 2426) ऐसे ही कर्मयोगीको भी निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। इसी बातको पाँचवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा है कि सांख्ययोगी द्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है, वही स्थान कर्मयोगीद्वारा भी प्राप्त किया जाता है। विशेष बात   जड और चेतन--ये दो पदार्थ है। प्राणिमात्रका स्वरूप चेतन है, पर उसने जडका सङ्ग किया हुआ है। जडकी तरफ आकर्षण होना पतनकी तरफ जाना है और चिन्मयतत्त्वकी तरफ आकर्षण होना उत्थानकी तरफ जाना है, अपना कल्याण करना है। जडकी तरफ जानेमें 'मोह' की मुख्यता होती है और परमात्मतत्त्वकी तरफ जानेमें 'विवेक' की मुख्यता होती है। समझनेकी दृष्टिसे मोह और विवेकके दो-दो विभाग कर सकते हैं-- (1) अहंता-ममातयुक्त मोह एवं कामनायुक्त मोह (2) सत्-असत् का विवेक एवं कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक। प्राप्त वस्तु, शरीरादिमें अहंता-ममता करना--यह अहंता-ममतायुक्त मोह है; और अप्राप्त वस्तु, घटना, परिस्थिति आदिकी कामना करना--यह कामनायुक्त मोह है। शरीरी (शरीरमें रहनेवाला) अलग है और शरीर अलग है, शरीरी सत् है और शरीर असत् है, शरीरी चेतन है और शरीर जड है--इसको ठीक तरहसे अलग-अलग जानना सत्-असत् का विवेक है और कर्तव्य क्या है अकर्तव्य क्या है, धर्म क्या है, अधर्म क्या है--इसको ठीक तरहसे समझकर उसके अनुसार कर्तव्य करना और अकर्तव्यका त्याग करना कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक है। पहले अध्यायमें अर्जुनको भी दो प्रकारका मोह हो गया था, जिसमें प्राणिमात्र फँसे हुए हैं। अहंताको लेकर 'हम दोषोंको जाननेवाले धर्मात्मा है' और ममताको लेकर 'ये कुटुम्बी मर जायँगे'--यह अहंता-ममतायुक्त मोह हुआ। हमें पाप न लगे, कुलके नाशका दोष न लगे, मित्रद्रोहका पाप न लगे, नरकोंमें न जाना पड़े, हमारे पितरोंका पतन न हो--यह कामना-युक्त मोह हुआ।उपर्युक्त दोनों प्रकारके मोहको दूर करनेके लिये भगवान्ने दूसरे अध्यायमें दो प्रकारका विवेक बताया है--शरीरी-शरीरका, सत्-असत् का विवेक (2। 11 30) और कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक (2। 31 53)।शरीरी-शरीरका विवेक बताते हुए भगवान्ने कहा कि मैं, तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे--यह बात भी नहीं और आगे नहीं रहेंगे--यह बात भी नहीं अर्थात् हम सभी पहले भी थे और आगे भी रहेंगे तथा ये शरीर पहले भी नहीं थे और आगे भी नहीं रहेंगे तथा बीचमें भी प्रतिक्षण बदल रहे हैं। जैसे शरीरमें कुमार, युवा और वृद्धावस्था-- ये अवस्थाएँ बदलती हैं और जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है, ऐसे ही जीव पहले शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है यह तो अकाट्य नियम है। इसमें चिन्ताकी, शोककी बात ही क्या है? कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक बताते हुए भगवान्ने कहा कि क्षत्रियके लिये युद्धसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है। अनायास प्राप्त हुआ युद्ध स्वर्गप्राप्तिका खुला दरवाजा है। तू युद्धरूप स्वधर्मका पालन नहीं करेगा तुझे पाप लगेगा। यदि तू जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान करके युद्ध करेगा तो तुझे पाप नहीं लगेगा। तेरा तो कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है, फलमें कभी नहीं। तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति न हो। इसलिये तू कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर और समतामें स्थित होकर कर्मोंको कर; क्योंकि समता ही योग है। जो मनुष्य समबुद्धिसे युक्त होकर कर्म करता है, वह जीवित-अवस्थामें ही पुण्य-पापसे रहित हो जाता है। जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको और श्रुतिविप्रति-पत्तिको पार कर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा।  इस प्रकार ँ़ तत् सत् इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या औ योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ।।2।।

Swami Tejomayananda

।।2.72।। हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.72।।उपसंहरति एषेति। ब्राह्मी स्थितिः ब्रह्मविषया स्थितिः लक्षणम्। अन्तकालेऽप्यस्यां स्थित्वैव ब्रह्म गच्छति अन्यथा जन्मान्तरं प्राप्नोति।यं यं वाऽपि 8।6 इति वक्ष्यमाणत्वात्। ज्ञानिनामपि सति प्रारब्धकर्मणि शरीरान्तरं युक्तम्।भोगेन त्वितरे इति ह्युक्तम्। सन्ति हि बहुशरीरफलानि कर्माणि कानिचित्सप्तजन्मनि विप्रः स्यात् इत्यादेः दृष्टेश्च ज्ञानिनामपि बहुशरीरप्राप्तेः। तथा ह्युक्तम्स्थितप्रज्ञोऽपि यस्तूर्ध्वः प्राप्य रुद्रपदं गतः। साङ्कर्षणं ततो मुक्तिमगाद्विष्णुप्रसादतः इति गारुडे।महादेव परे जन्मनि तव मुक्तिर्निरूप्यते इति नारदीये।निश्चितफलं च ज्ञानं तस्य तावदेव चिरम् छां.उ.6।14।2़। यदु৷৷. च नार्चिषमेवाभिसम्भवन्ति छां.उ.4।15।5 इत्यादिश्रुतिभ्यः न च कायव्यूहापेक्षा तद्यथेषीकातूलम् छां.उ.5।24।3। तद्यथा पुष्करपलाशे छां.उ.4।14।3ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि 4।37 इत्यादिवचनेभ्यः। प्रारब्धे त्वविरोधः प्रमाणाभावाच्च। न च तच्छास्त्रं प्रमाणम्।अक्षपादकणादानां साङ्ख्ययोगजटाभृताम्। मतमालम्ब्य ये वेदं दूषयन्त्यल्पचेतसः इति निन्दावचनात्।यत्र तु स्तुतिस्तत्र शिवभक्तानां स्तुतिपरत्वमेव न सत्यत्वम्। न हि तेषामपीतरग्रन्थविरुद्धार्थे प्रामाण्यम्। तथाह्युक्तम्एष मोहं सृजाम्याशु यो जनान्मोहयिप्यति। त्वं च रुद्र महाबाहो मोहशास्त्राणि कारय। अतथ्यानि वितथ्यानि दर्शयस्व महाभुज। प्रकाशं कुरु चात्मानमप्रकाशं च मां कुरु इति वाराहे।कुत्सितानि च मिश्राणि रुद्रो विष्णुप्रचोदितः। चकार शास्त्राणि विभुः ऋषयस्तत्प्रचोदिताः। दधीचाद्याः पुराणानि तच्छास्त्रसमयेन तु। चक्रुर्वेदैश्च ब्राह्मणानि वैष्णवा विष्णुचोदिताः। पञ्चरात्रं भारतं च मूलरामायणं तथा। तथा पुराणं भागवतं विष्णुर्वेद इतीरितः। अतः शैवपुराणानि योज्यान्यन्याविरोधतः इति नारदीये।अतो ज्ञानिनां भवत्येव मुक्तिः। भीष्मादीनां तु तत्क्षणे मुक्त्यभावः। स्मरंस्त्यजतीति वर्तमानव्यपदेशो हि कृतः। तच्चोक्तम्ज्ञानिनां क्रमयुक्तानां कायत्यागक्षणो यदा। विष्णुमाया तदा तेषां मनो बाह्यं करोति हि इति गारुडे। न चान्येषां तदा स्मृतिर्भवति।बहु��न्मविपाकेन भक्तिज्ञानेन ये हरिम्। भजन्ति तत्स्मृतिं त्वन्ते देवो याति न चान्यथा इति ब्रह्मवैवर्ते। निर्वाणमशरीरम्।कायो बाणं शरीरं च इत्यभिधानात्।एतद्बाणमवष्टभ्य इति प्रयोगाच्च। निर्वाणशब्दप्रतिपादनंअनिन्द्रियाः म.भा.12।336।29 इत्यादिवत्। कथमन्यथा सर्वपुराणादिप्रसिद्धाऽऽकृतिर्भगवत उपपद्यते। न चान्यद्भगवत उत्तमं ब्रह्म।ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शद्ब्यते इति भागवते।भगवन्तं परं ब्रह्मपरं ब्रह्मञ्जनार्दन।परमं यो महद्ब्रह्म म.भा.13।149।9यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। 15।18योऽप्तावतीन्द्रियग्राह्यः।नास्ति नारायणसमं न भूतं न भविष्यति।न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यः 11।43 इत्यादिभ्यः। न च तस्य ब्रह्मणोऽशरीरत्वादेतत्कल्प्यम् तस्यापि शरीरश्रवणात् आनन्दरूपममृतम् मुं.उ.2।2।7 सुवर्णज्योतिः तै.उ.3।10।6 दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशः छां.उ.8।1।2 इत्यादिषु।यदि रूपं न स्यात् आनन्दमित्येव स्यात् न त्वानन्दरूपमिति। कथं सुवर्णरूपत्वं स्यादरूपस्य कथं दहरत्वम् दहरस्थश्च केचित्स्वदेहेत्यादौ रूपवानुच्यते सहस्रशीर्षा पुरुषः ऋक्सं.8।4।17।1य.सं.31।1 रुक्मवर्णं कर्तारं मुं.उ.3।1।3 आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् य.सं.31।18 सर्वतः पाणिपादं तत् 13।13श्वे.उ.3।16 विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः। ऋक्सं. 8।3।16।3य.सं.17।19 इत्यादिवचनात्। विश्वरूपाध्यायादेश्च रूपवानवसीयते। अतिपरिपूर्णतमज्ञानैश्वर्यवीर्यानन्दयशश्श्रीशक्त्यादिमांश्च भगवान्। पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकीं ज्ञानबलक्रिया च। श्वे.उ.6।8 यः सर्वज्ञः मुं.उ.1।1।92।2।7 आनन्दं ब्रह्मणः तै.उ.2।4।12।9।1 एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति। बृ.उ.4।3।32अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यसहस्रलक्षामितकान्तिकान्तम्।मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतोऽनन्तविग्रहे भाग.6।4।48विज्ञानशक्तिरहमासमन्तशक्तेः भाग.3।9।24तुर्यं तत्सर्वदृक् सदा। गौ.पा.का.1।12आत्मानमन्यं च स वेद विद्वान् भाग.11।11।7अन्यतमो मुकुन्दात्को नाम लोके भगवत्पदार्थः भाग.3।18।21ऐश्वर्यस्य समग्रस्य। वि.पु.6।5।74अतीव परिपूर्णं ते सुखं ज्ञानं च सौभगम्। यच्चात्ययुक्तं स्मर्तुं वा शक्तः कर्तुमतः परः इत्यादिभ्यः। तानि सर्वाण्यन्योन्यानन्यरूपाणि। विज्ञानमानन्दं ब्रह्म बृ.उ.3।9।28 आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् तै.उ.3।6 सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म तै.उ.2।1 यस्य ज्ञानमयं तपः मुं.उ.।1।19 समा भग प्रविश स्वाहा तै.उ.1।4।3न तस्य प्राकृता मूर्तिर्मांसमेदोस्थिसम्भवा। न योगित्वादीश्वरत्वात्सत्यरूपोऽच्युतो विभुः। सद्देहःसुखगन्धश्च ज्ञानभाः सत्पराक्रमः। ज्ञानज्ञानः सुखसुखः स विष्णुः परमोऽक्षरः इति पैङ्गिखिले।देहोऽयं मे सदानन्दो नायं प्रकृतिनिर्मितः। परिपूर्णश्च सर्वत्र तेन नारायणोऽस्म्यहम्। इत्यादि ब्रह्मवैवर्ते।तदेव लीलया चासौ परिच्छिन्नादिरूपेण दर्शयति मायया।न च गर्भैऽवसद्देव्या न चापि वसुदेवतः। न चापि राघवाज्जातो न चापि जमदग्नितः। नित्यानन्दोऽव्ययोऽप्येवं क्रीडते मोघदर्शनः इति च पाद्मे।न वै स आत्माऽऽत्मव (तां सुहृत्तमाः सक्तस्त्रिलोक्यां) तामधीश्वरो भुङ्क्ते हि दुःखं भगवान्वासुदेवः भाग.5।19।6स्वर्गादेरीशिताञ्जः परमसुखनिधिर्बोधरूपोऽय बोधं लोकानां दर्शयन्यो मुनिसुतहृतात्मप्रियार्थे जगाम।स ब्रह्मवन्द्यचरणो जनमोहनाय स्त्रीसङ्गिनामिति रतिं प्रथयंश्चचार।पूर्तेरचिन्त्यवीर्यो यो यश्च दाशरथिः स्वयम्। रुद्रवाक्यमृतं कर्तुमजितो जितवत्स्थितः। योऽजितो विजितो भक्त्या गाङ्गेयं न जघान ह। न चाम्बां ग्राहयामास करुणः कोऽपरस्ततः इत्यादिभ्यश्च स्कान्दे।न तत्र संसारधर्मा निरूप्याः यत्र च परापरभेदोऽवगम्यते तत्राज्ञबुद्धिमपेक्ष्यावरत्वं विश्वरूपमपेक्ष्य अन्यत्र। तच्चोक्तम् परिपूर्णानि रूपाणि समान्यखिलरूपतः। तथाप्यपेक्ष्य मन्दानां दृष्टिं त्वामृषयोऽपि हि। परावरं वदन्त्येव ह्यभक्तानां विमोहनम् इति गारु़डे। न चात्र किञ्चिदुपचारादिति वाच्यम् अचिन्त्यशक्तेः पदार्थवैचित्र्याच्चेत्युक्तम्।रामकृष्णादिरूपाणि परिपूर्णानि सर्वदा। न चाणुमात्रं भिन्नानि तथाप्यस्प्तान्विमोहसि इत्यादेश्च नारदीये। तस्मात्सर्वदा सर्वरूपेष्वपरिगणितानन्तगुणगणं नित्यनिरस्ताशेषदोषं च नारायणाख्यं परं ब्रह्मापरोक्षज्ञान्यृच्छतीति च सिद्धम्।

Sri Anandgiri

।।2.72।।तत्र तत्र संक्षेपविस्तराभ्यां प्रदर्शितां ज्ञाननिष्ठामधिकारिप्रवृत्त्यर्थत्वेन स्तोतुमुत्तरश्लोकमवतारयति  सैषेति।  गृहस्थः संन्यासीत्युभावपि चेन्मुक्तिभोगिनौ किं तर्हि कष्टेन सर्वथैव संन्यासेनेत्याशङ्क्य संन्यासिव्यतिरिक्तानामन्तरायसंभवादपेक्षितः संन्यासो मुमुक्षोरित्याह  एषेति।  स्थितिमेव व्याचष्टे  सर्वमिति।  न विमुह्यतीति पुनर्नञोऽनुकर्षणमन्वयार्थं संन्यासिनो विमोहाभावेऽपि गृहस्थो धनहान्यादिनिमित्तं प्रायेण विमुह्यति। विक्षिप्तः सन्परमार्थविवेकरहितो भवतीत्यर्थः। यथोक्ता ब्राह्मी स्थितिः सर्वकर्मसंन्यासपूर्विका ब्रह्मनिष्ठा तस्यां स्थित्वा तामिमामायुषश्चतुर्थेऽपि भागे कृत्वेत्यर्थः। अपिशब्दसूचितं कैमुतिकन्यायमाह  किमु   वक्तव्यमिति।  तदेवं तत्त्वंपदार्थौ तदैक्यं वाक्यार्थस्तज्ज्ञानादेकाकिनो मुक्तिस्तदुपायश्चेत्येतेषामेकैकत्रश्लोके प्राधान्येन प्रदर्शितमिति निष्ठाद्वयमुपायोपेयभूतमध्यायेन सिद्धम्।इति परमहंस श्रीमदानन्दगिरिकृतटीकायां द्वितीयोऽध्यायः।।2।।

Sri Vallabhacharya

।।2.72।।उक्तां योगवन्निष्ठां स्तुवन्नुपसंहरति एषेति। ब्रह्म हि निर्दोषं समम् तस्यैवेति ब्राह्मी ब्रह्मसम्बन्धिनी वा स्थितिः स्थितधीलक्षणा। अस्यां स्थित्वा ब्रह्मसुखं प्राप्नोति।

Sridhara Swami

।।2.72।।उक्तां ज्ञाननिष्ठां स्तुवन्नुपसंहरति  एषेति।  ब्राह्मीस्थितिर्ब्रह्मज्ञाननिष्ठा एषा एवंविधा। एनां परमेश्वराराधनेन शुद्धान्तःकरणः पुमान् प्राप्य न विमुह्यति पुनः संसारमोहं न प्राप्नोति। यतः अन्तकाले मृत्युसमयेऽप्यस्यां क्षणमात्रमपि स्थित्वा ब्रह्मणि निर्वाणं लयमृच्छति प्राप्नोति किं पुनर्वक्तव्यं बाल्यमारभ्य स्थित्वा प्राप्नोतीति।

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