Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 63 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Consequences of Anger

Sanskrit Shloka (Original)

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः | स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||२-६३||

Transliteration

krodhādbhavati sammohaḥ sammohātsmṛtivibhramaḥ . smṛtibhraṃśād buddhināśo buddhināśātpraṇaśyati ||2-63||

Word-by-Word Meaning

क्रोधात्from anger
भवतिcomes
संमोहःdelusion
संमोहात्from delusion
स्मृतिविभ्रमःloss of memory
स्मृतिभ्रंशात्from loss of memory
बुद्धिनाशःthe destruction of discriminatio
बुद्धिनाशात्from the,destruction of discrimination

📖 Translation

English

2.63 From anger comes delusion; from delusion loss of memory; from loss of memory the destruction of discrimination; from the destruction of discrimination he perishes.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.63।। क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In the workplace, reacting to setbacks or conflicts with uncontrolled anger can lead to impulsive, ill-conceived decisions (delusion), forgetting professional ethics or past lessons learned from similar situations (loss of memory), and ultimately losing the ability to think strategically or problem-solve effectively (destruction of discrimination). This can jeopardize projects, damage professional relationships, and significantly hinder career progression or lead to serious professional setbacks.

🧘 For Stress & Anxiety

For mental health, allowing anger to fester creates a spiral of delusion where one misinterprets situations, focuses on negative aspects, and struggles to see solutions clearly. This can lead to forgetting effective coping mechanisms, personal values, or the bigger picture (loss of memory), and losing the capacity for rational self-assessment or constructive action (destruction of discrimination), significantly worsening stress, anxiety, and potentially contributing to burnout or depression.

❤️ In Relationships

In personal relationships, unchecked anger causes misunderstandings and misjudgments (delusion), leading to forgetting shared history, mutual respect, or the other person's true intentions (loss of memory). This erodes the ability to empathize, communicate constructively, or resolve conflicts peacefully (destruction of discrimination), inevitably damaging trust, creating irreparable rifts, and leading to the breakdown of important connections and deep loneliness.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Uncontrolled anger initiates a destructive chain from delusion to loss of discrimination, ultimately leading to self-ruin; master your emotions to preserve your wisdom and well-being.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.63 क्रोधात् from anger? भवति comes? संमोहः delusion? संमोहात् from delusion? स्मृतिविभ्रमः loss of memory? स्मृतिभ्रंशात् from loss of memory? बुद्धिनाशः the destruction of discriminatio? बुद्धिनाशात् from the,destruction of discrimination? प्रणश्यति (he) perishes.Commentary From anger arises delusion. When a man becomes angry he loses his power of discrimination between right and wrong. He will speak and do anything he likes. He will be swept away by the impulse of passion and emotion and will act irrationally.

Shri Purohit Swami

2.63 Anger induces delusion; delusion, loss of memory; through loss of memory, reason is shattered; and loss of reason leads to destruction.

Dr. S. Sankaranarayan

2.63. From wrath delusion comes to be; from delusion is the loss of memory; from the loss of memory is the loss of capacity to decide; due to the loss of capacity to decide, he perishes outright.

Swami Adidevananda

2.63 From anger there comes delusion; from delusion, the loss of memory; from the loss of memory, the destruction of discrimination; and with the destruction of discrimination, he is lost.

Swami Gambirananda

2.63 From anger follows delusion; from delusion, failure of memory; from failure of memory, the loss of understanding; from the loss of understanding, he perishes.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.63।। इस श्लोक के आगे पाँच सुन्दर श्लोकों में श्रीकृष्ण हिन्दू मनोविज्ञान के अनुसार देवत्व की स्थिति से मनुष्य के पतन का कारण बताते हैं। इसका एक मात्र प्रयोजन है महाबाहु अर्जुन को सभी ओर से इन्द्रियों को वश में रखने के महत्व को समझाना। इन्द्रियों पर स्वामित्व रखने वाला पुरष ही हिन्दू शास्त्रों के अनुसार स्थितप्रज्ञ कहलाता है।यह प्रकरण उन समस्त साधकों के आत्मचरित्र की रूपरेखा भी प्रस्तुत करता है जो दीर्घ काल तक साधनारत रहने के उपरान्त भी असफलता एवं निराशा की चट्टानों से टकराकर चूरचूर हो जाते हैं। वेदान्त के सच्चे साधक का पतन असम्भव है। असफल साधकों के उदाहरण कम नहीं हैं और उन सभी की असफलता का एक मात्र कारण विषयों के शिकार होना ही है। यह भी देखा गया है कि एक बार पतन होने पर वे फिर सम्हल नहीं पाते उनके लिये पतन का अर्थ है सम्पूर्ण नाश पतन की सीढ़ी का यह बहुत सुन्दर वर्णन है। स्वयं के नाश की सीढ़ी का वर्णन इतना विस्तारपूर्वक इसलिये किया गया है कि हमारे जैसे साधक यह समझ सकें कि पुन अपने पूर्ण दिव्य स्वरूप को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है।जैसे छोटे से बीज से बड़े वृक्ष की उत्पत्ति होती है वैसे ही हमारे नाश का बीज है असद् विचार और मिथ्या कल्पनायेंे। विचार में रचना शक्ति है यह हमारा निर्माण अथवा नाश कर सकती है। निर्माण और विनाश उस शक्ति के सदुपयोग और दुरुपयोग पर निर्भर करते हैं। जब मनुष्य किसी विषय को सुन्दर और सुख का साधन समझकर उसका निरन्तर चिन्तन करता है तब उससे उत्पन्न होती है उस विषय में आसक्ति। इस आसक्ति के और अधिक बढ़ने पर वह उसकी उत्कट इच्छा या कामना का रूप लेती है जिसको पूर्ण किये बिना मनुष्य शान्ति से नहीं बैठ सकता। यदि कामना पूर्ति के मार्ग में कोई विघ्न आता है तो उस विघ्न की ओर होने वाली प्रतिक्रिया को कहते हैं क्रोध।क्रोध का परिणाम यह होता है कि मनुष्य जहाँ जो वस्तु या गुण नहीं है उसे वहाँ देखने लग जाता है जिसे मोह नाम दिया गया है। मोह का अर्थ है अविवेक। मोह ही स्मृति के नाश का कारण है। क्रोध के आवेश में मनुष्य सभी सम्बन्ध भूलकर चाहें जैसा व्यवहार कर सकता है। श्रीशंकराचार्य लिखतें हैं कि क्रोधावेश में मनुष्य अपने पूज्य गुरु एवं मातापिता के ऋण को भूलकर उनका भी तिरस्कार करता है।इस प्रकार असद् विचारों से प्रारम्भ होकर आसक्ति (संग) इच्छा क्रोध मोह और स्मृति के नाश तक जब मनुष्य का पतन हुआ तो अगली सीढ़ी है बुद्धि का नाश। बुद्धि में विवेक की वह सार्मथ्य है जिससे हम अच्छेबुरे धर्मअधर्म का निर्णय कर सकते हैं। निषिद्ध कर्मों को करते समय बुद्धि हमें उससे परावृत्त करने का प्रयत्न भी करती है। यदि यह बुद्धि ही नष्ट हो जाय तो मनुष्य का मनुष्यत्व ही नष्ट हुआ समझना चाहिये। बुद्धिनाश के बाद तो वह पशु से भी हीन व्यवहार करता है और फिर कभी जीवन में श्रेष्ठ और उच्च ध्येय को न समझ सकता है और न प्राप्त कर सकता है। यहाँ मनुष्य के ऩाश से तात्पर्य यह है कि अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान कर वह मनुष्य जीवन के परमपुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त करने योग्य नहीं रह जाता।विषयों के चिन्तन को यहाँ सभी अनर्थों का कारण बताया है। अब मोक्ष प्राप्ति का साधन बताते हैं

Swami Ramsukhdas

2.63।।  व्याख्या-- 'ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते'-- भगवान्के परायण न होनेसे, भगवान्का चिन्तन न होनेसे विषयोंका ही चिन्तन होता है। कारण कि जीवके एक तरफ परमात्मा है और एक तरफ संसार है। जब वह परमात्माका आश्रय छोड़ देता है, तब वह संसारका आश्रय लेकर संसारका ही चिन्तन करता है; क्योंकि संसारके सिवाय चिन्तनका कोई दूसरा विषय रहता ही नहीं। इस तरह चिन्तन करते-करते मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति, राग, प्रियता पैदा हो जाती है। आसक्ति पैदा होनेसे मनुष्य उन विषयोंका सेवन करता है। विषयोंका सेवन चाहे मानसिक हो चाहे शारीरिक हो, उससे जो सुख होता है, उससे विषयोंमें प्रियता पैदा होती है। प्रियतासे उस विषयका बार-बार चिन्तन होने लगता है। अब उस विषयका सेवन क,रे चाहे न करे, पर विषयोंमें राग पैदा हो ही जाता है--यह नियम है।   'सङ्गात्संजायते कामः'-- विषयोंमें राग पैदा होनेपर उन विषयोंको (भोगोंको) प्राप्त करनेकी कामना पैदा हो जाती है कि वे भोग, वस्तुएँ मेरेको मिलें।  'कामात्क्रोधोऽभिजायते'-- कामनाके अनुकूल पदार्थोंके मिलते रहनेसे 'लोभ' पैदा हो जाता है और कामनापूर्तिकी सम्भावना हो रही है, पर उसमें कोई बाधा देता है, तो उसपर 'क्रोध' आ जाता है। कामना एक ऐसी चीज है, ज���समें बाधा पड़नेपर क्रोध पैदा हो ही जाता है। वर्ण, आश्रम, गुण, योग्यता आदिको लेकर अपनेमें जो अच्छाईका अभिमान रहता है, उस अभिमानमें भी अपने आदर, सम्मान आदिकी कामना रहती है; उस कामनामें किसी व्यक्तिके द्वारा बाधा पड़नेपर भी क्रोध पैदा हो जाता है। 'कामना' रजोगुणी वृत्ति है, 'सम्मोह' तमोगुणी वृत्ति है और 'क्रोध' रजोगुण तथा तमोगुणके बीचकी वृत्ति है। कहीं भी किसी भी बातको लेकर क्रोध आता है तो उसके मूलमें कहीं-न-कहीं राग अवश्य होता है। जैसे, नीति-न्यायसे विरुद्ध काम करनेवालेको देखकर क्रोध आता है, तो नीति-न्यायमें राग है। अपमान-तिरस्कार करनेवालेपर क्रोध आता है, तो मान-सत्कारमें राग है। निन्दा करनेवालेपर क्रोध आता है, तो प्रशंसामें राग है। दोषारोपण करनेवालेपर क्रोध आता है, तो निर्दोषताके अभिमानमें राग है; आदिआदि।  'क्रोधाद्भवति सम्मोहः'-- क्रोधसे सम्मोह होता है अर्थात् मूढ़ता छा जाती है। वास्तवमें देखा जाय तो काम क्रोध लोभ और ममता इन चारोंसे ही सम्मोह होता है जैसे (1) कामसे जो सम्मोह होता है, उसमें विवेकशक्ति ढक जानेसे मनुष्य कामके वशीभूत होकर न करनेलायक कार्य भी कर बैठता है। (2) क्रोधसे जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्य अपने मित्रों तथा पूज्यजनोंको भी उलटी-सीधी बातें कह बैठता है और न करनेलायक बर्ताव भी कर बैठता है। (3) लोभसे जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्यको सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म आदिका विचार नहीं रहता, और वह कपट करके लोगोंको ठग लेता है। (4) ममतासे जो सम्मोह होता है, उसमें समभाव नहीं रहता, प्रत्युत पक्षपात पैदा हो जाता है।अगर काम, क्रोध, लोभ और ममता इन चारोंसे ही सम्मोह होता है, तो फिर भगवान्ने यहाँ केवल क्रोधका ही नाम क्यों लिया? इसमें गहराईसे देखा जाय तो काम, लोभ और ममता--इनमें तो अपने सुखभोग और स्वार्थकी वृत्ति जाग्रत रहती है, पर क्रोधमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी वृत्ति जाग्रत् रहती है। अतः क्रोधसे जो सम्मोह होता है, वह काम, लोभ और ममतासे पैदा हुए सम्मोहसे भी भयंकर होता है। इस दृष्टिसे भगवान्ने यहाँ केवल क्रोधसे ही सम्मोह होना बताया है।  'सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः'-- मूढ़ता छा जानेसे स्मृति नष्ट हो जाती है अर्थात् शास्त्रोंसे, सद्विचारोंसे जो निश्चय किया था कि 'अपनेको ऐसा काम करना है, ऐसा साधन करना है, अपना उद्धार करना है' उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है, उसकी याद नहीं रहती।  'स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः'-- स्मृति नष्ट होनेपर बुद्धिमें प्रकट होनेवाला विवेक लुप्त हो जाता है अर्थात् मनुष्यमें नया विचार करनेकी शक्ति नहीं रहती।  'बुद्धिनाशात्प्रणश्यति'-- विवेक लुप्त हो जानेसे मनुष्य अपनी स्थितिसे गिर जाता है। अतः इस पतनसे बचनेके लिये सभी साधकोंको भगवान्के परायण होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है। यहाँ विषयोंका ध्यान करनेमात्रसे राग, रागसे काम, कामसे क्रोध, क्रोधसे सम्मोह, सम्मोहसे स्मृतिनाश, स्मृतिनाशसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे पतन--यह जो क्रम बताया है, इसका विवेचन करनेमें तो देरी लगती है, पर इन सभी वृत्तियोंके पैदा होनेमें और उससे मनुष्यका पतन होनेमें देरी नहीं लगती। बिजलीके करेंटकी तरह ये सभी वृत्तियाँ तत्काल पैदा होकर मनुष्यका पतन करा देती हैं।सम्बन्ध-- अब भगवान् आगेके श्लोकमें स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है?'-- इस चौथे प्रश्नका उत्तर देते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.63।। क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.62 2.63।।रागादिदोषकारणमाह परिहाराय श्लोकद्वयेन। सम्मोहोऽधर्मेच्छा। तथा हि मोहशब्दार्थ उक्त उपगीतासुमोहसंज्ञितम्। अधर्मलक्षणं च नियतं पापकर्मसु इति। तथाचान्यत्रसम्मोहोऽधर्मकामिता इति। स्मृतिविभ्रमः प्रतिषेधादिस्मृतिनाशः। बुद्धिनाशः सर्वात्मना दोषबुद्धिनाशः। विनश्यति नरकाद्यनर्थं प्राप्नोति। तथा ह्युक्तम् अधर्मकामिनः शास्त्रे विस्मृतिर्जायते यदा। दोषादृष्टेस्तत्कृतेश्च नरकं प्रतिपद्यते।

Sri Anandgiri

।।2.63।।क्रोधस्य संमोहहेतुत्वमनुभवेन द्रढयति  क्रुद्धो हीति।  आक्रोशत्यधिक्षिपति तदयोग्यत्वमपेरर्थः। संमोहकार्यं कथयति  संमोहादिति।  स्मृतेर्निमित्तनिवेदनद्वारा स्वरूपं निरूपयति  शास्त्रेति।  क्षणिकत्वादेव तस्याः स्वतो नाशसंभवान्न संमोहाधीनत्वं तस्येत्याशङ्क्याह  स्मृतीति।  स्मृतिभ्रंशेऽपि कथं बुद्धिनाशः स्वरूपतः सिध्यति तत्राह  कार्येति।  ननु पुरुषस्य नित्यसिद्धस्य बुद्धिनाशेऽपि प्रणाशो न कल्पते तत्राह  तावदेवेति।  कार्याकार्यविवेचनयोग्यान्तःकरणाभावे सतोऽपि पुरुषस्य करणाभावादपगततत्त्वविवेकविवक्षया नष्टत्वव्यपदेशः तदेतदाह  पुरुषार्थेति।

Sri Vallabhacharya

।।2.62 2.63।।एवं बाह्येन्द्रियसंयमाभावे दोष उक्तः इदानीं मनोनिरोधाभावे योगबुद्धिभ्रंशदोष इति कथयंस्तस्य स्थिरप्रज्ञतां दर्शयति चतुर्भिः। तत्र मनःसंयमाभावे दोषमाह द्वाभ्याम् ध्यायत इति विषयानिति। विचारयतश्चिन्तयत इति यावत् आसक्तिर्भवति ततः कामाभिलाषः। ततः प्रतिहतादेव क्रोधः। ततो विवेकाभावः। ततश्च शास्त्राचार्योपदिष्टार्थः स्मृतेर्विप्लवः। ततो व्यवसायात्मिकबुद्धेर्नाशः। ततः प्रणश्यति अत्यन्तविस्मृतिं प्राप्तः प्राकृत एव भवति अविशुद्धोऽपि च।

Sridhara Swami

।।2.63।।किंच  क्रोधादिति।  क्रोधात्संमोहः कार्याकार्यविवेकाभावः। ततः शास्त्राचार्योपदिष्टार्थस्मृतेर्विभ्रमो विचलनम्। ततो बुद्धेश्चेतनाया विनाशो वृक्षादिष्विवाभिभवः। ततः प्रणश्यति मृततुल्यो भवति।

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