Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 59 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः | रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||२-५९||
Transliteration
viṣayā vinivartante nirāhārasya dehinaḥ . rasavarjaṃ raso.apyasya paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||2-59||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
2.59 The objects of the senses turn away from the abstinent man leaving the longing (behind); but his longing also turns away on seeing the Supreme.
।।2.59।। निराहारी देही पुरुष से विषय तो निवृत्त (दूर) हो जाते हैं? परन्तु (उनके प्रति) राग नहीं परम तत्व को देखने पर इस (पुरुष) का राग भी निवृत्त हो जाता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your career, you might abstain from distractions (e.g., social media, office gossip) to improve focus. However, true fulfillment comes not just from avoiding distractions, but from realizing a higher purpose or intrinsic value in your work that transcends mere monetary gain or status. When you connect to this deeper 'Supreme' purpose, your attachment to superficial career desires naturally diminishes, leading to more profound satisfaction.
🧘 For Stress & Anxiety
We often manage stress by avoiding stressful situations or engaging in temporary distractions. While helpful, true mental peace arises when we connect with a deeper sense of inner purpose or spiritual calm ('the Supreme'). This realization helps us transcend the persistent longing for things to be different or for specific outcomes, thereby reducing the root cause of stress and anxiety rather than just its symptoms.
❤️ In Relationships
In relationships, you might consciously distance yourself from unhealthy patterns or toxic individuals. However, the underlying longing (rasa) for specific forms of validation, control, or idealized love can still persist. True satisfaction in relationships and a strong sense of self-worth come when you realize your own intrinsic value or connect to a higher, unconditional love ('the Supreme'), making you less dependent on others to fulfill your emotional needs and fostering healthier, less attached connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True freedom from desire comes not from mere abstinence, but from the transformative realization of a higher, supreme truth that makes all lower longings naturally subside.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
2.59 विषयाः the objects of senses? विनिवर्तन्ते turn away? निराहारस्य abstinent? देहिनः of the man? रसवर्जम् leaving the longing? रसः loving (taste)? अपि even? अस्य of his? परम् the Supreme? दृष्ट्वा having seen? निवर्तते turns away.Commentary Knowledge of the Self alone can destroy in toto the subtle Vasanas (latent tendencies) and all the subtle desires? all subtle attachments and even the longing for objects. By practising severe austerities? by abandoning the sensual objects? the objects of the senses may turn away from the ascetic but the relish or taste or longing for the objects will still remain.
Shri Purohit Swami
2.59 The objects of sense turn from him who is abstemious. Even the relish for them is lost in him who has seen the Truth.
Dr. S. Sankaranarayan
2.59. Leaving their taste [behind], the sense-objects retreat from the embodied who abstain from food; his taste too disappears when he sees the Supreme.
Swami Adidevananda
2.59 The objects of senses, excepting relish for the objects, turn away from the abstinent dweller in the body. Even the relish turns aswy from him when what is supreme over the senses i.e., the self, is seen.
Swami Gambirananda
2.59 The objects recede from an abstinent man, with the exception of the taste (for them). Even the taste of this person falls away after realization the Absolute.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।2.59।। प्रत्याहार या उपरति की क्षमता के बिना कभी कोई व्यक्ति किसी रोग के कारण या क्षणिक दुख के आवेग में अथवा व्रत आदि कारणों से विषय उपभोग को छोड़ देता है। उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि विषयों से वैराग्य अथवा द्वेष हो गया है किन्तु उनके प्रति मन में स्थित राग केवल कुछ समय के लिये अव्यक्त अवस्था में रहता है। अर्जुन के मन में शंका उत्पन्न होती है कि संभवत योगी का इन्द्रिय संयम भी क्षणिक अनित्य ही हो जो अनुकूल या प्रलोभनपूर्ण परिस्थितियों में टूट जाता हो। उसकी इस शंका का निवारण यहाँ किया गया है।यदि आप दुकानों से ग्राहकों तक उपभोग के विषय की गति का अवलोकन करें तो इस सिद्धांत को स्पष्ट रूप में समझ सकते हैं। उपभोग की वे वस्तुयें केवल उन्हीं लोगों के घर पहुँचती हैं जो उनकी तीव्र इच्छा किये हुये उन वस्तुओं को पाने के लिये प्रयत्न कर रहे होते हैं। मद का भण्डार तब खाली हो जाता है जब बोतलें चलकर मद्यपियों की आलमारियों को भर देती हैं लुहार के बनाये हल केवल किसान के घर जाते हैं और न कि किसी कलाकार कवि चिकित्सक या वकील के घर में। इसी प्रकार उन विषयों के इच्छुक लोगों के पास ही वे विषय पहुँचते हैं। भोगों के त्यागी व्यक्ति से भोग की वस्तुयें दूर ही रहती हैं।निराहार रहने से विषय तो दूर हो जायेंगे परन्तु उनके प्रति मन में पूर्वानुभवजनित रस अर्थात् स्वाद या राग निवृत्त नहीं होता। भगवान् यहाँ आश्वासन देते हैं कि परम आत्मतत्त्व की अपरोक्षानुभूति होने पर यह राग भी समाप्त हो जाता है या भुने हुये बीजों के समान मनुष्य के मन में विषय प्रभावहीन हो जाते हैं।इस तथ्य को समझना कठिन नहीं क्योंकि हम जानते हैं कि अनुभव की एक अवस्था विशेष में प्राप्त अनिष्ट वस्तुयें और दुख दूसरी अवस्था में उसी प्रकार नहीं रहते। स्वप्नावस्था का राज्य मेरी जाग्रदवस्था के दारिद्र्य को दूर नहीं करता किन्तु जाग्रदवस्था का दारिद्र्य भी स्वप्न के राज्य का उपभोग करने से मुझे वंचित नहीं कर सकता जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में रहते हुए अहंकार ने असंख्य विषय वासनायें अर्जित कर ली हैं। परन्तु अवस्थात्रय अतीत शुद्ध चैतन्य स्वरूप को पहचान कर अहंकार ही समाप्त हो जाता है तब ये वासनायें किस पर अपना प्रभाव दिखायेंगी।आत्मप्रज्ञा प्राप्त करने के इच्छुक साधक का सर्वप्रथम उसकी इन्द्रियों पर संयम होना आवश्यक है अन्यथा
Swami Ramsukhdas
2.59।। व्याख्या-- 'विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः रसवर्जम्'-- मनुष्य निराहार दो तरहसे होता है--(1) अपनी इच्छासे भोजनका त्याग कर देना अथवा बीमारी आनेसे भोजनका त्याग हो जाना और (2) सम्पूर्ण विषयोंका त्याग करके एकान्तमें बैठना अर्थात् इन्द्रियोंको विषयोंसे हटा लेना। यहाँ इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेवाले साधकके लिये ही 'निराहारस्य' पद आया है। रोगीके मनमें यह रहता है कि क्या करूँ, शरीरमें पदार्थोंका सेवन करनेकी सामर्थ्य नहीं है, इसमें मेरी परवश्ता है; परन्तु जब मैं ठीक हो जाऊँगा, शरीरमें शक्ति आ जायगी, तब मैं पदार्थोंका सेवन करूँगा। इस तरह उसके भीतर रसबुद्धि रहती है। ऐसे ही इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेपर विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर साधकके भीतर विषयोंमें जो रसबुद्धि, सुखबुद्धि है, वह जल्दी निवृत्त नहीं होती। जिनका स्वाभाविक ही विषयोंमें राग नहीं है और जो तीव्र वैराग्यवान् हैं, उन साधकोंकी रसबुद्धि साधनावस्थामें ही निवृत्त हो जाती है। परन्तु जो तीव्र वैराग्यके बिना ही विचारपूर्वक साधनमें लगे हुए हैं; उन्हीं साधकोंके लिये यह कहा गया है कि विषयोंका त्याग कर देनेपर भी उनकी रसबुद्धि निवृत्त नहीं होती। 'रसोऽप्यस्य परं दृष्टा निवर्तते'-- इस स्थितप्रज्ञकी रसबुद्धि परमात्माका अनुभव हो जानेपर निवृत्त हो जाती है। रसबुद्धि निवृत्त होनेसे वह स्थितप्रज्ञ हो ही जाता है-- यह नियम नहीं है। परन्तु स्थितप्रज्ञ होनेसे रसबुद्धि नहीं रहती--यह नियम है। 'रसोऽप्यस्य' पदसे यह तात्पर्य निकलता है कि रसबुद्धि साधककी अहंतामें अर्थात् 'मैं' -पनमें रहती है। यही रसबुद्धि स्थूलरूपसे रागका रूप धारण कर लेती है। अतः साधकको चाहिये कि वह अपनी अहंतासे ही रसको निकाल दे कि 'मैं तो निष्काम हूँ; राग करना, कामना करना मेरा काम नहीं है'। इस प्रकार निष्कामभाव आ जानसे अथवा निष्काम होनेका उद्देश्य होनेसे रसबुद्धि नहीं रहती और परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे रसकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है।सम्बन्ध-- रसकी निवृत्ति न हो क्या आपत्ति है? इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।2.59।। निराहारी देही पुरुष से विषय तो निवृत्त (दूर) हो जाते हैं? परन्तु (उनके प्रति) राग नहीं परम तत्व को देखने पर इस (पुरुष) का राग भी निवृत्त हो जाता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।2.59।।न चैतल्लक्षणं ज्ञानमयत्नतो भवतीत्याहोत्तरश्लोकैः। निराहारत्वेन विषयभोगसामर्थ्याभाव एव भवति इतरविषयाकाङ्क्षाभावो वा रसाकाङ्क्षादिर्न निवर्तते स त्वपरोक्षज्ञानादेव निवर्तत इत्याह विषया इति।इन्द्रियाणि जयन्त्याशु निराहारा मनीषिणः। वर्जयित्वा तु रसनमसौ रस्ये हि वर्धते इति वचनाद्भागवते 11।8।20 रसशब्दस्य रागवाचिन्वाच्च।
Sri Anandgiri
।।2.59।।इन्द्रियाणां विषयेभ्यो वैमुख्येऽपि तद्विषयरागानुवृत्तौ कथं प्रज्ञालाभः स्यादिति शङ्कते तत्रेति। व्यवहारभूमिः सप्तम्यर्थः। विषयाननाहरतस्तदुपभोगविमुखस्येत्यर्थः। रागश्चेन्नोपसंह्रियते न तर्हि प्रज्ञालाभः संभवति रागस्य तत्परिपन्थित्वादिति मत्वाह स कथमिति। रागनिवृत्त्युपायमुपदिशन्नुत्तरमाह उच्यत इति। विषयोपभोगपराङ्मुखस्य कुतो विषयपरावृत्तिस्तत्परावृत्तिश्चाप्रस्तुतेत्याशङ्क्याह यद्यपीति। निराहारस्येत्यस्य व्याख्यानमनाह्रियमाणविषयस्येति। यो हि विषयप्रवणो न भवति तस्यात्यन्तिके तपसि क्लेशात्मके व्यवस्थितस्य विद्याहीनस्यापीन्द्रियाणि विषयेभ्यः सकाशाद्यद्यपि संह्रियन्ते तथापि रागोऽवशिष्यते स च तत्त्वज्ञानादुच्छिद्यत इत्यर्थः। रसशब्दस्य माधुर्यादिषड्विधरसविषयत्वं निषेधति रसशब्द इति। वृद्धप्रयोगमन्तरेण कथं प्रसिद्धिरित्याशङ्क्याह स्वरसेनेति। स्वेच्छयेति यावत्। रसिकः स्वेच्छावशवर्ती रसज्ञो विवक्षितापेक्षितज्ञातेत्यर्थः। कथं तर्हि तस्य निवृत्तिस्तत्राह सोऽपीति। दृष्टिमेवोपलब्धिपर्यायां स्पष्टयति अहमेवेति। रागापगमे सिद्धमर्थमाह निर्बीजमिति। ननु सम्यग्ज्ञानमन्तरेण रागो नापगच्छति चेत्तदपगमादृते रागवतः सम्यग्ज्ञानोदयायोगादितरेतराश्रयतेति नेत्याह नासतीति। इन्द्रियाणां विषयपारवश्ये विवेकद्वारा परिहृते स्थूलो रागो व्यावर्तते ततश्च सम्यग्ज्ञानोत्पत्त्या सूक्ष्मस्यापि रागस्य सर्वात्मना निवृत्त्युपपत्तेर्नेतरेतराश्रयतेत्यर्थः। प्रज्ञास्थैर्यस्य सफलत्वे स्थिते फलितमाह तस्मादिति।
Sri Vallabhacharya
।।2.59।।यतो निराहारस्य विषयेभ्यः प्रत्याहृतेन्द्रियस्य सतः विषया विनिवर्त्तन्ते नान्यस्य निराहारस्य रसवर्जं विषया वा निवर्त्तन्ते न तु रसस्तदिन्द्रियस्य सर्वबलवत्त्वात्साधकाकर्षकत्वाच्च। रसनिवृत्त्युपायमाह रसोऽपि अस्य सिद्धस्य स्थिरधियः परमात्मानमानन्दमनुभूय निवर्त्तते महानन्दाग्रेऽल्पानन्दवस्तुनि सर्वस्य प्रवृत्त्यसम्भवनियमात्। अग्रे चैतस्यासनभाषणमननव्रतान्यात्मनिष्ठायुक्तानि लक्षितानि।
Sridhara Swami
।।2.59।।ननु नेन्द्रियाणां विषयेष्वप्रवृत्तिः स्थितप्रज्ञस्य लक्षणं भवितुमर्हति। जडानामातुराणामुपवासपराणां च विषयेष्वप्रवृत्तेरविशेषात्तत्राह विषया इति। इन्द्रियैर्विषयाणामाहरणं ग्रहणमाहारः। निराहारस्येन्द्रियैर्विषयग्रहणमकुर्वतो देहिनो देहाभिमानिनोऽज्ञस्य विषया विनिवर्तन्ते। तदनुभवो निवर्तत इत्यर्थः। किंतु रसो रागोऽभिलाषस्तद्वर्जम्। अभिलाषस्तु न निवर्तत इत्यर्थः। रसोऽपि रागोऽपि परं परमात्मानं दृष्ट्वाऽस्य स्थितप्रज्ञस्य स्वतो निवर्तते। नश्यतीत्यर्थः। यद्वा निराहारस्योपवासपरस्य विषयाः प्रायशो विनिवर्तन्ते क्षुधासंतप्तस्य शब्दस्पर्शाद्यपेक्षाभावात्। परंतु रसवर्जम्। रसापेक्षा तु न निवर्तत इत्यर्थः। शेषं समानम्।