Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 55 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Inner Contentment

Sanskrit Shloka (Original)

श्रीभगवानुवाच | प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् | आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ||२-५५||

Transliteration

śrībhagavānuvāca . prajahāti yadā kāmānsarvānpārtha manogatān . ātmanyevātmanā tuṣṭaḥ sthitaprajñastadocyate ||2-55||

Word-by-Word Meaning

प्रजहातिcasts off
यदाwhen
कामान्desires
सर्वान्all
पार्थO Partha
मनोगतान्of the mind
आत्मनिin the Self
एवonly
आत्मनाby the Self
तुष्टःsatisfied
स्थितप्रज्ञःof steady wisdom
तदाthen

📖 Translation

English

2.55 The Blessed Lord said When a man completely casts off, O Arjuna, all the desires of the mind and is satisfied in the Self by the Self, then is he said to be one of steady wisdom.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.55।। श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Instead of constantly chasing promotions, recognition, or external rewards (the desires of the mind), focus on finding intrinsic satisfaction in the work itself—the learning, the contribution, the mastery. This leads to a more stable and fulfilling career, less prone to burnout or disappointment when external outcomes don't meet expectations.

🧘 For Stress & Anxiety

Much stress stems from unfulfilled desires or the fear of losing what we have. By releasing these mental cravings and cultivating satisfaction from within (e.g., through mindfulness, gratitude, self-acceptance), one can achieve profound peace, resilience, and emotional stability, reducing anxiety and constant mental agitation.

❤️ In Relationships

Avoid placing the burden of your happiness entirely on your partner or friends. When you are 'satisfied in the Self by the Self,' you approach relationships from a place of wholeness, not neediness. This fosters healthier connections, reduces possessiveness, lessens emotional dependency, and allows you to give and receive love more freely, without demanding specific outcomes or behaviors.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True wisdom and lasting peace come from releasing the mind's incessant desires and finding complete satisfaction within your own Self.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.55 प्रजहाति casts off? यदा when? कामान् desires? सर्वान् all? पार्थ O Partha? मनोगतान् of the mind? आत्मनि in the Self? एव only? आत्मना by the Self? तुष्टः satisfied? स्थितप्रज्ञः of steady wisdom? तदा then? उच्यते (he) is called.Commentary In this verse Lord Krishna gives His answer to the first part of Arjunas estion.If anyone gets sugarcandy will he crave for blacksugar Certainly not. If anyone can attain the supreme bliss of the Self? will he thirst for the sensual pleasures No? not at all. The sumtotal of all the pleasures of the world will seem worthless for the sage of steady wisdom who is satisfied in the Self. (Cf.III.17VI.7?8).

Shri Purohit Swami

2.55 Lord Shri Krishna replied: When a man has given up the desires of his heart and is satisfied with the Self alone, be sure that he has reached the highest state.

Dr. S. Sankaranarayan

2.55. The Bhagavat said O son of Prtha ! When a man casts off all desires existing in his mind and remains content in the Self by the self (mind), then he is called 'a man-of-stabilized-intellect.

Swami Adidevananda

2.55 The Lord said When a man renounces all the desires of the mind, O Arjuna, when he is satisfied in himself with himself, then he is said to be of firm wisdom.

Swami Gambirananda

2.55 The Blessed said O Partha, when one fully renounces all the desires that have entered the mind, and remains satisfied in the Self alone by the Self, then he is called a man of steady wisdom.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.55।। आत्मानुभवी पुरुष के आन्तरिक और बाह्य जीवन का वर्णन कर भेड़ की खाल में छिपे भालुओं के समान पाखण्डी गुरुओं से भिन्न सच्चे गुरु को पहचानने में गीता हमारी सहायता करती है। इसके अतिरिक्त यह प्रकरण साधकों के लिये विशेष महत्त्व का है क्योंकि इसमें आत्मानुभूति के लिये आवश्यक जीवन मूल्यों एवं विभिन्न परिस्थितियों में मन की स्थिति कैसी होनी चाहिये इसका विस्तार से वर्णन है।इस विषय के प्रारम्भिक श्लोक में ही ज्ञानी पुरुष की आन्तरिक मनस्थिति के वे समस्त लक्षण वर्णित हैं जिन्हे हमको जानना चाहिये। उपनिषद् रूपी उद्यान में खिले शब्द रूपी सुमनों की इस विशिष्ट सुगन्ध से सुपरिचित होने पर ही हमें इस श्लोक में प्रयुक्त शब्दोंें का सम्यक् ज्ञान हो सकता है। जिसने मन में स्थित सभी कामनाओं को त्याग दिया वह पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है। श्रीकृष्ण ने अब तक जो कहा उसके सन्दर्भ में इस श्लोक का अध्ययन करने पर हम वास्तव में व्यास जी के प्रेरणाप्रद शब्दों के द्वारा औपनिषदीय सुरभि का अनुभव कर सकते हैं।आत्मस्वरूप अज्ञान से दूषित बुद्धि कामनाओं के पल्लवित होने के लिये योग्य क्षेत्र बन जाती है। परन्तु जिस पुरुष का अज्ञान आत्मानुभव के सम्यक् ज्ञान से निवृत्त हो जाता है उसका निष्काम हो जाना स्वाभाविक है। यहाँ कार्य के निषेध से कारण का निषेध किया गया है। जहाँ कामनायें नहीं वहाँ अज्ञान नष्ट हो चुका है और ज्ञान तो वहाँ प्रकाशित हो ही रहा है।यदि सामान्य जनों से ज्ञानी को विशिष्टता प्रदान करने वाला यही एक मात्र लक्षण हो तो आज का कोई भी शिक्षित व्यक्ति हिन्दू महात्मा को पागल ही समझेगा क्योंकि आत्मानुभव के बाद उस ज्ञानी में इतनी भी सार्मथ्य नहीं रहेगी कि वह इच्छा कर सके इच्छा क्या है इच्छा मन की वह क्षमता है जो भविष्य में ऐसी वस्तु को पाने की योजना बनाये जिससे कि मनुष्य पहले से अधिक सुखी बन सके। ज्ञानी पुरुष इस सार्मथ्य को भी खो देगा यह है भौतिकवादियों द्वारा की जाने वाली आलोचना।उपर्युक्त प्रकार से इस श्लोक की आलोचना नहीं की जा सकती क्योंकि दूसरी पंक्ति में यह बताया गया है कि ज्ञानी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप में सन्तुष्ट रहता है। केवल यह नहीं कहा कि वह सब कामनाओं को त्याग देता है वरन् निश्चित रूप से वह आत्मानन्द का अनुभव करता है।यह सर्वविदित तथ्य है कि बाल्यावस्था में जिन खिलौनों के साथ बालक रमता है उनको युवावस्था में वह छोड़ देता है। आगे वृद्ध होने पर उसकी इच्छायें परिवर्तित हो जाती हैं और युवावस्था में आकर्षक प्रतीत होने वाली वस्तुओं के प्रति उसके मन में कुछ राग नहीं रह जाता।अज्ञान दशा में मनुष्य स्वयं को परिच्छिन्न अहंकार के रूप में जानता है। इसलिये विषयोपभोग की स्पृहा अपनी भावनाओं एवं विचारों के साथ आसक्ति स्वाभाविक होती है। अज्ञान के नष्ट होने पर यह अहंकार अपने शुद्ध अनन्त स्वरूप में विलीन हो जाता है और स्थितप्रज्ञ पुरुष आत्मा द्वारा आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है। सब कामनायें समाप्त हो जाती हैं क्योंकि वह स्वयं आनन्दस्वरूप बनकर स्थित हो जाता है।

Swami Ramsukhdas

2.55।। व्याख्या-- [गीताकी यह एक शैली है कि जो साधक जिस साधन (कर्मयोग, भक्तियोग आदि) के द्वारा सिद्ध होता है, उसी साधनसे उसकी पूर्णताका वर्णन किया जाता है। जैसे, भक्तियोगमें साधक भगवान्के सिवाय और कुछ है ही नहीं--ऐसे अनन्य-योगसे उपासना करता है (12। 6) अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें द्वेष-भावसे रहित हो जाता है (12। 13)। ज्ञानयोगमें साधक स्वयंको गुणोंसे सर्वथा असम्बद्ध एवं निर्लिप्त देखता है (14। 19) अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण गुणोंसे सर्वथा अतीत हो जाता है (14। 22--25)। ऐसे ही कर्मयोगमें कामनाके त्यागकी बात मुख्य कही गयी है; अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है--यह बात इस श्लोकमें बताते हैं]।  'प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्'-- इन पदोंका तात्पर्य यह हुआ कि कामना न तो स्वयंमें है और न मनमें ही है। कामना तो आने-जानेवाली है और स्वयं निरन्तर रहनेवाला है; अतः स्वयंमें कामना कैसे हो सकती है? मन एक करण है और उसमें भी कामना निरन्तर नहीं रहती, प्रत्युत उसमें आती है-- 'मनोगतान्'  अतः मनमें भी कामना कैसे हो सकती है परन्तु शरीर-इन्द्रयाँ-मन-बुद्धिसे तादात्म्य होनेके कारण मनुष्य मनमें आनेवाली कामनाओंको अपनेमें मान लेता है।  'जहाति'  क्रियाके साथ  'प्र' उपसर्ग देनेका तात्पर्य है कि साधक कामनाओंका सर्वथा त्याग कर देता है, किसी भी कामनाका कोई भी अंश किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता। अपने स्वरूपका कभी त्याग नहीं होता और जिससे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, उसका भी त्याग नहीं होता। त्याग उसीका होता है, जो अपना नहीं है, पर उसको अपना मान लिया है। ऐसे ही कामना अपनेमें नहीं है, पर उसको अपनेमें मान लिया है। इस मान्यताका त्याग करनेको ही यहाँ  'प्रजहाति'  पदसे कहा गया है। यहाँ  'कामान्'  शब्दमें बहुवचन होनेसे  'सर्वान्'  पद उसीके अन्तर्गत आ जाता है, फिर भी  सर्वान्  पद देनेका तात्पर्य है कि कोई भी कामना न रहे और किसी भी कामनाका कोई भी अंश बाकी न रहे।  'आत्मन्येवात्मना तुष्टः'   जिस कालमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है अर्थात् अपनेआपमें सहज स्वाभाविक सन्तोष होता है। सन्तोष दो तरहका होता है--एक सन्तोष गुण है और एक सन्तोष स्वरूप है। अन्तःकरणमें किसी प्रकारकी कोई भी इच्छा न हो--यह सन्तोष गुण है; और स्वयंमें असन्तोषका अत्यन्ताभाव है--यह सन्तोष स्वरूप है। यह स्वरुपभूत सन्तोष स्वतः सर्वदा रहता है। इसके लिये कोई अभ्यास या विचार नहीं करना पड़ता। स्वरूपभूत सन्तोषमें प्रज्ञा (बुद्धि) स्वतः स्थिर रहती है।  'स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते'  स्वयं जब बहुशाखाओंवाली अनन्त कामनाओंको अपनेमें मानता था, उस समय भी वास्तवमें कामनाएँ अपनेमें नहीं थीं और स्वयं स्थितप्रज्ञ ही था। परन्तु उस समय अपनेमें कामनाएँ माननेके कारण बुद्धि स्थिर न होनेसे वह स्थितप्रज्ञ नहीं कहा जाता था अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव नहीं होता था। अब उसने अपनेमें से सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर दिया अर्थात् उनकी मान्यताको हटा दिया, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है अर्थात् उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव हो जाता है। साधक तो बुद्धिको स्थिर बनाता है। परन्तु कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर बुद्धिको स्थिर बनाना नहीं पड़ता, वह स्वतःस्वाभाविक स्थिर हो जाती है। कर्मयोगमें साधकका कर्मोंसे ज्यादा सम्बन्ध रहता है। उसके लिये योगमें आरूढ़ होनेमें भी कर्म कारण हैं  'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते'  (गीता 6। 3)। इसलिये कर्मयोगीका कर्मोंके साथ सम्बन्ध साधक-अवस्थामें भी रहता है और सिद्धावस्थामें भी। सिद्धावस्थामें कर्मयोगीके द्वारा मर्यादाके अनुसार कर्म होते रहते हैं जो दूसरोंके लिये आदर्श होते हैं (गीता 3। 21)। इसी बातको भगवान्ने चौथे अध्यायमें कहा है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए निर्लिप्त रहता है और निर्लिप्त रहते हुए ही कर्म करता है-- 'कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः'  (4। 18)। भगवान्ने तिरपनवें श्लोकमें योगकी प्राप्तिमें बुद्धिकी दो बातें कही थीं--संसारसे हटनेमें तो बुद्धि निश्चल हो और परमात्मामें लगनेमें बुद्धि अचल हो अर्थात् निश्चल कहकर संसारका त्याग बताया और अचल कहकर परमात्मामें स्थिति बतायी। उन्हीं दो बातोंको लेकर यहाँ  'यदा'  और  'तदा'  पदसे कहा गया है कि जब साधक कामनाओंसे सर्वथा रहित हो जाता है और अपने स्वरूपमें ही सन्तुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। तात्पर्य है कि जबतक कामनाका अंश रहता है तबतक वह साधक कहलाता है और जब कामनाओंका सर्वथा अभाव हो जाता है तब वह सिद्ध कहलाता है। इन्हीं दो बातोंका वर्णन भगवान्ने इस अध्यायकी समाप्तितक किया है; जैसे--यहाँ  प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्  पदोंसे संसारका त्याग बताया और फिर  'आत्मन्येवात्मना तुष्टः'  पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। छप्पनवें श्लोकके पहले भागमें (तीन चरणोंमें) संसारका त्याग और  'स्थितधीर्मुनिः'  पदसे परमात्मामें स्थित बतायी। सत्तावनवें और अट्ठावनवें श्लोकमें पहले संसारका त्याग बताया और फिर  'तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता'  पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। उनसठवें श्लोकके पहले भागमें संसारका त्याग बताया और  'परं दृष्ट्वा'  पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। साठवें श्लोकसे इकसठवें श्लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर  'युक्त आसीत मत्परः'  आदि पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। बासठवेंसे पैंसठवें श्लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर  'बुद्धिः पर्यवतिष्ठते'  पदोंसे परमात्मानें स्थित बतायी। छाछठवेंसे अड़सठवें श्लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर  'तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठता'  पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। उन्हत्तरवें श्लोकमें  'या निशा सर्वभूतानाम्'  तथा  'यस्यां जाग्रति भूतानि'  पदोंसे संसारका त्याग बताया और  'तस्यां जागर्ति संयमी'  तथा  'सा निशा पश्यतो मुनेः'  पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। सत्तरवें और इकहत्तरवें श्लोकमें पहले संसारका त्याग बताया और फिर  'स शान्तिमधिगच्छति'  पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। बहत्तर��ें श्लोकमें  'नैनां प्राप्य विमुह्यति'  पदोंसे संसारका त्याग बताया और  'ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति' आदि पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। सम्बन्ध   अब आगेके दो श्लोकोंमें स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है इस दूसरे प्रश्नका उत्तर देते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.55।। श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.55।।गमनादिप्रवृत्तिर्नात्यभिसन्धिपूर्विका मात्रादिप्रवृत्तिवदितिया निशा 2।69 इत्यादिना दर्शयिष्यँल्लक्षणं प्रथमत आह एवं परमानन्दतृप्तः किमर्थमेवं प्रवृत्तिं करोतीति प्रश्नाभिप्रायः। प्रारब्धकर्मणेषत्तिरोहितब्रह्मणो वासना प्रायोऽल्पाभिसन्धिप्रवृत्तिः सम्भवतीत्याशयवान् परिहरति। प्रायः सर्वान्कामान्प्रजहाति शुकादीनामपीषद्दर्शनात्।त्वत्पादभक्तिमिच्छन्ति ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः इत्युक्तेस्तामिच्छन्ति। यदा त्विन्द्रादीनामाग्रहो दृश्यते तदाऽभिभूतं तेषाम्। तच्चोक्तम्आधिकारिकपुंसां तु बृहत्कर्मत्वकारणात्। उद्भवाभिभवौ ज्ञाने ततोऽन्येभ्यो विलक्षणाः इति। अत एव वैलक्षण्यादनधिकारिणां आग्रहादि चेदस्ति न ते ज्ञानिन इत्यवगन्तव्यम्।न चात्र समाधिं कुर्वतो लक्षणमुच्यतेयः सर्वत्रानभिस्नेहः 2।57 इत्यादिस्नेहनिषेधात्। नहि समाधिं कुर्वतस्तस्य शुभाशुभप्राप्तिरस्ति असम्प्रज्ञातसमाधेः। सम्प्रज्ञाते त्वविरोधस्तथापि न तत्रैवेति नियमः।कामादयो न जायन्ते ह्यपि विक्षिप्तचेतसाम्। ज्ञानिनां ज्ञाननिर्धूतमलानां देवसंश्रयात् इति च स्मृतेः। मनोगता हि कामाः अतस्तत्रैव तद्विरुद्धज्ञानोत्पत्तौ युक्तं हानं तेषामिति दर्शयति मनोगतानिति। विरोधश्चोच्यतेरसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते 2।59 इति। न चैतददृष्ट्या अपलपनीयम् पुरुषवैशेष्यात्। आत्मना परमात्मना। परमात्मन्येव स्थितः सन्। आत्माख्ये तस्मिन्स्थितस्य तत्प्रसादादेव तुष्टिर्भवतिविषयांस्तु परित्यज्य रामे स्थितिमतस्ततः। देवाद्भवति वै तुष्टिर्नान्यथा तु कथञ्चन इति नारायणरामकल्पेः अतो नात्मा जीवः।

Sri Anandgiri

।।2.55।।प्रतिवचनमवतारयितुं पातनिकां करोति  यो हीति।  हिशब्देन कर्मसंन्यासकारणीभूतविरागतासंपत्तिः सूच्यते। आदितो ब्रह्मचर्यावस्थायामिति यावत्। ज्ञानमेव योगो ब्रह्मात्मभावप्रापकत्वात्तस्मिन्निष्ठा परिसमाप्तिस्तस्यामित्यर्थः। कर्मैव योगस्तेन कर्माण्यसंन्यस्य तन्निष्ठायामेव प्रवृत्त इति शेषः। ननु तत्कथमेकेन वाक्येनार्थद्वयमुपदिश्यते द्वैयर्थो वाक्यभेदात् नच लक्षणमेव साधनं कृतार्थलक्षणस्य तत्स्वरूपत्वेन फलत्वे साधनत्वानुपपत्तेरिति तत्राह  सर्वत्रैवेति।  यद्यपि कृतार्थस्य ज्ञानिनो ज्ञानलक्षणं तद्रूपेण फलत्वान्न साधनत्वमधिगच्छति तथापि जिज्ञासोस्तदेव प्रयत्नसाध्यतया साधनं संपद्यते लक्षणं चात्र ज्ञानसामर्थ्यलब्धमनूद्यते न विधीयते विदुषो विधिनिषेधागोचरत्वात् तेन जिज्ञासोः साधनानुष्ठानाय लक्षणानुवादादेकस्मिन्नेव साधनानुष्ठाने तात्पर्यमित्यर्थः। उक्तेऽर्थे भगवद्वाक्यमुत्थापयति  यानीति।  लक्षणानि च ज्ञानसामर्थ्यलभ्यान्ययत्नसाध्यानीति शेषः। स्थितप्रज्ञस्य का भाषेति प्रथमप्रश्नस्योत्तरमाह  प्रजहातीति।  कामत्यागस्य प्रकर्षो वासनाराहित्यं कामानामात्मनिष्ठत्वं कैश्चिदिष्यते तदयुक्तं तेषां मनोनिष्ठत्वश्रुतेरित्याशयवानाह  मनोगतानिति।  आत्मन्येवात्मनेत्याद्युत्तरभागनिरस्यं चोद्यमनुवदति  सर्वकामेति।  तर्हि प्रवर्तकाभावाद्विदुषः सर्वप्रवृत्तेरुपशान्तिरिति नेत्याह  शरीरेति।  उन्मादवानुन्मत्तो विवेकविरहितबुद्धिभ्रमभागी प्रकर्षेण मदमनुभवन् विद्यमानमपि विवेकं निरस्यन्भ्रान्तवद्व्यवहरन्प्रमत्त इति विभागः। उत्तरार्धमवतार्य व्याकरोति  उच्यत इति।  आत्मन्येवेत्येवकारस्यात्मनेत्यत्रापि संबन्धं द्योतयति  स्वेनैवेति।  बाह्यलाभनिरपेक्षत्वेन तुष्टिमेव स्पष्टयति  परमार्थेति।  स्थितप्रज्ञपदं विभजते  स्थितेति।  प्रज्ञाप्रतिबन्धकसर्वकामविगमावस्था तदेति निर्दिश्यते। उक्तमेव प्रपञ्चयति  त्यक्तेति।  आत्मानं जिज्ञासमानो वैराग्यद्वारा सर्वैषणात्यागात्मकं संन्यासमासाद्य श्रवणाद्यावृत्त्या तज्ज्ञानं प्राप्य तस्मिन्नेवासक्त्या विषयवैमुख्येन तत्फलभूतां परितुष्टिं तत्रैव प्रतिलभमानः स्थितप्रज्ञव्यपदेशभागित्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।2.55।।तत्रोत्तरम् प्रजहातीति। इदं तत्स्वरूपमुच्यत इत्यर्थः।

Sridhara Swami

।।2.55।।अत्र च यानि साधकस्य ज्ञानसाधनानि तान्येव स्वाभाविकानि सिद्धस्य लक्षणानि। अतः सिद्धस्य लक्षणानि कथयन्नेवान्तरङ्गाणि ज्ञानसाधनान्याह यावदध्यायसमाप्ति। तत्र प्रथमप्रश्नोत्तरमाह  प्रजहातीति  द्वाभ्याम्। श्रीभगवानुवाच। मनसि स्थितान्कामान्यदा प्रकर्षेण जहाति। त्यागे हेतुः आत्मन्येव स्वस्मिन्नेव परमानन्दरूपे आत्मना स्वयमेव तुष्ट इति। आत्मारामः सन्यदा क्षुद्रविषयाभिलाषांस्त्यजति तदा तेन लक्षणेन मुनिः स्थितप्रज्ञ उच्यत इत्यर्थः।

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