Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 51 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः | जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ||२-५१||

Transliteration

karmajaṃ buddhiyuktā hi phalaṃ tyaktvā manīṣiṇaḥ . janmabandhavinirmuktāḥ padaṃ gacchantyanāmayam ||2-51||

Word-by-Word Meaning

कर्मजम्actionborn
बुद्धियुक्ताःpossessed of knowledsge
हिindeed
फलम्the fruit
त्यक्त्वाhaving abandoned
मनीषिणःthe wise
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताःfreed from the fetters of birth
पदम्the abode
गच्छन्तिgo

📖 Translation

English

2.51 The wise, possessed of knowledge, having abandoned the fruits of their actions, and being freed from the fetters of birth, go to the place which is beyond all evil.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.51।। बुद्धियोग युक्त मनीषी लोग कर्मजन्य फलों को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हुये अनामय अर्थात् निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Focus on the quality of your work, the process, and the value you create, rather than being solely driven by promotions, bonuses, or external validation. Cultivate a mindset where your satisfaction comes from the effort and skill applied, not just the outcome, fostering a sense of purpose beyond material gain.

🧘 For Stress & Anxiety

Reduce anxiety and mental distress by accepting that you can control your actions but not their ultimate results. Practice detachment from outcomes, understanding that both success and failure are temporary, allowing you to maintain equanimity and inner peace regardless of external circumstances.

❤️ In Relationships

Invest your energy in loving, supporting, and contributing to relationships without demanding specific returns, expectations, or control over others' actions. Find fulfillment in the act of giving and connecting, rather than being attached to how others respond or validate you, fostering healthier, less conditional bonds.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Act with wisdom and skill, detaching from the desire for specific outcomes, to transcend suffering and attain lasting inner freedom and peace.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.51 कर्मजम् actionborn? बुद्धियुक्ताः possessed of knowledsge? हि indeed? फलम् the fruit? त्यक्त्वा having abandoned? मनीषिणः the wise? जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः freed from the fetters of birth? पदम् the abode? गच्छन्ति go? अनामयम् beyond evil.Commentary Clinging to the fruits of actions is the cause of rirth. Man takes a body to enjoy them. If anyone performs actions for the sake of God in fulfilment of His purpose without desire for the fruits? he is released from the bonds of birth and attains to the blissful state or the immortal abode.Sages who possess evenness of mind abandon the fruits of their actions and thus escape from good and bad actions.Buddhi referred to in the three verses 49? 50 and 51 may be the wisdom of the Sankhyas? i.e.? the knowledge of the Self or AtmaJnana which dawns when the mind is purified by Karma Yoga.

Shri Purohit Swami

2.51 The sages guided by Pure Intellect renounce the fruit of action; and, freed from the chains of rebirth, they reach the highest bliss.

Dr. S. Sankaranarayan

2.51. By renouncing the fruit, born of action, the intelligent ones endowed with determining faculty and freed from the bond of birth, go to the place that is devoid of illness.

Swami Adidevananda

2.51 The wise who possess evenness of mind, relinishing the fruits born of action, are freed from the bondage of birth, and go to the region beyond all ills.

Swami Gambirananda

2.51 Because, those who are devoted to wisdom, (they) becoming men of Enlightenment by giving up the fruits produced by actions, reach the state beyond evils by having become freed from the bondage of birth.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.51।। योगयुक्त बनने के उपदेश को सुनकर अर्जुन के मन में प्रश्न उठा कि आखिर समभाव से उसको कर्म क्यों करने चाहिये। भगवान् इस प्रश्न का कुछ पूर्वानुमान कर इस श्लोक में उसका उत्तर देते हैं। बुद्धियुक्त मनीषी का अर्थ है वह पुरुष जो जीने की कला को जानता हुआ फल की चिन्ताओं से मुक्त होकर मन के पूर्ण सन्तुलन को बनाये हुये सभी कर्म करता है। दूसरे शब्दों में अहंकार और स्वार्थ से रहित व्यक्ति ही मनीषी कहलाता है।मन के साथ तादात्म्य से अहंकार उत्पन्न होता है और वह फलासक्ति के कारण बन्धनों में फँस जाता है। जीवन में उच्च लक्ष्य को रखने पर ही अहंकार और स्वार्थ का त्याग संभव है।

Swami Ramsukhdas

2.51।। व्याख्या-- 'कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः'-- जो समतासे युक्त हैं, वे ही वास्तवमें मनीषी अर्थात् बुद्धिमान् हैं। अठारहवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भी कहा है कि जो मनुष्य अकुशल कर्मोंसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मोंमें राग नहीं करता, वह मेधावी (बुद्धिमान्) है। कर्म तो फलके रूपमें परिणत होता ही है। उसके फलका त्याग कोई कर ही नहीं सकता। जैसे, कोई खेतीमें निष्कामभावसे बीज बोये, तो क्य खेतीमें अनाज नहीं होगा ?बोया है तो पैदा अवश्य होगा। ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है, तो उसको कर्मका फल तो मिलेगा ही। अतः यहाँ कर्मजन्य फलका त्याग करनेका अर्थ है --कर्मजन्य फलकी इच्छा, कामना, ममता, वासनाका त्याग करना। इसका त्याग करनेमें सभी समर्थ हैं।  'जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः'-- समतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। कारण कि समतामें स्थित हो जानेसे उनमें राग-द्वेष कामना, वासना, ममता आदि दोष किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहते, अतः उनके पुनर्जन्मका कारण ही नहीं रहता। वे जन्म-मरणरूप बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाते हैं।  'पदं गच्छन्त्यनामयम्'-- 'आमय' नाम रोगका है। रोग एक विकार है। जिसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकारका विकार न हो, उसको 'अनामय' अर्थात् निर्विकार कहते हैं। समतायुक्त मनीषीलोग ऐसे निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं। इसी निर्विकार पदको पन्द्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'अव्यय पद' और अठारहवें अध्यायके छप्पनवें श्लोकमें 'शाश्वत अव्यय पद' नामसे कहा गया है। यद्यपि गीतामें सत्त्वगुणको भी अनामय कहा गया है, (14। 6) पर वास्तवमें अनामय (निर्विकार) तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है; क्योंकि वह गुणातीत तत्त्व है, जिसको प्राप्त होकर फिर किसीको भी जन्म-मरणके चक्करमें नहीं आना पड़ता। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें हेतु होनेसे भगवान्ने सत्त्वगुणको भी अनामय कह दिया है। अनामय पदको प्राप्त होना क्या है? प्रकृति विकारशील है, तो उसका कार्य शरीर-संसार भी विकारशील हैं। स्वयं निर्विकार होते हुए भी जब यह विकारी शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह अपनेको भी विकारी मान लेता है। परन्तु जब यह शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग कर देता है, तब इसको अपने सहज निर्विकार स्वरूपका अनुभव हो जाता है। इस स्वाभाविक निर्विकारताका अनुभव होनेको ही यहाँ अनामय पदको प्राप्त होना कहा गया है। इस श्लोकमें  'बुद्धियुक्ताः'  और  'मनीषिणः'  पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जो भी समतामें स्थित हो जाते हैं, वे सब-के-सब अनामय पदको प्राप्त हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं। उनमेंसे कोई भी बाकी नहीं रहता। इस तरह समता अनामय पदकी प्राप्तिका अचूक उपाय है। इससे यह नियम सिद्ध होता है कि जब उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहता, तब स्वतः सिद्ध निर्विकारताका अनुभव हो जाता है। इसके लिये कुछ भी परिश्रम नहीं करना पड़ता; क्योंकि उस निर्विकारताका निर्माण नहीं करना पड़ता, वह तो स्वतः-स्वाभाविक ही है। सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें बताये अनामय पदकी प्राप्तिका क्रम क्या है--इसे आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.51।। बुद्धियोग युक्त मनीषी लोग कर्मजन्य फलों को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हुये अनामय अर्थात् निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.51।।   तदुपायमाह कर्मजमिति। कर्मजं फलं त्यक्त्वाऽकामनयेश्वराय समर्प्य बुद्धियुक्ताः। सम्यग्ज्ञानिनो भूत्वा पदं गच्छन्ति। स योगः कर्म ज्ञानसाधनम्। तन्मोक्षसाधनमिति भावः।

Sri Anandgiri

।।2.51।।समत्वबुद्धियुक्तस्य सुकृतदुष्कृततत्फलपरित्यागेऽपि कथं मोक्षः स्यादित्याशङ्क्याह  यस्मादिति।  समत्वबुद्ध्या यस्मात्कर्मानुष्ठीयमानं दुरितादि त्याजयति तस्मात्परम्परयासौ मुक्तिहेतुरित्यर्थः। मनीषिणो हि ज्ञानातिशयवन्तो बुद्धियुक्ताः सन्तः स्वधर्माख्यं कर्मानुतिष्ठन्तस्ततो जातं फलं देहप्रभेदं हित्वा जन्मलक्षणाद्बन्धाद्विनिर्मुक्ता वैष्णवं पदं सर्वसंसारसंस्पर्शशून्यं प्राप्नुवन्तीति श्लोकोक्तमर्थं श्लोकयोजनया दर्शयति  कर्मजमित्यादिना।  इष्टो देहो देवादिलक्षणोऽनिष्टो देहस्तिर्यगादिलक्षणस्तत्प्राप्तिरेव कर्मणो जातं फलं तद्यथोक्तबुद्धियुक्ता ज्ञानिनो भूत्वा तद्बलादेव परित्यज्य बन्धविनिर्मोकपूर्वकं जीवन्मुक्ताः सन्तो विदेहकैवल्यभाजो भवन्तीत्यर्थः। बुद्धियोगादित्यादौ बुद्धिशब्दस्य समत्वबुद्धिरर्थो व्याख्यातः संप्रति परम्परां परिहृत्य सुकृतदुष्कृतप्रहाणहेतुत्वस्य समत्वबुद्धावसिद्धेर्बुद्धिशब्दस्य योग्यमर्थान्तरं कथयति  अथवेति।  अनवच्छिन्नवस्तुगोचरत्वेनानवच्छिन्नत्वं तस्याः सूचयन्बुद्ध्यन्तराद्विशेषं दर्शयति सर्वत इति। असाधारणं निमित्तं तस्या निर्दिशति  कर्मेति।  यथोक्तबुद्धेर्बुद्धिशब्दार्थत्वे हेतुमाह  साक्षादिति।  जन्मबन्धविनिर्मोकादिरादिशब्दार्थः।

Sri Vallabhacharya

।।2.51।।एवं योगेन व्यवसायिनां सिद्धिप्रकारं सदाचारेण दर्शयति कर्मजमिति। फलं त्यक्त्वा जन्मैव बन्धरूपं तेन विनिर्मुक्ता अनामयं पदं धाम अक्षराख्यं स्वरूपं गच्छन्ति।

Sridhara Swami

।।2.51।।कर्मणां मोक्षसाधनत्वप्रकारमाह  कर्मेति।  कर्मजं फलं त्यक्त्वा केवलमीश्वराराधनार्थमेव कर्म कुर्वाणा मनीषिणो ज्ञानिनो भूत्वा जन्मरूपेण बन्धेन विनिर्मुक्ताः सन्तोऽनामयं सर्वोपद्रवरहितं विष्णोः पदं मोक्षाख्यं गच्छन्ति।

Explore More