Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 29 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः | आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ||२-२९||

Transliteration

āścaryavatpaśyati kaścidenam āścaryavadvadati tathaiva cānyaḥ . āścaryavaccainamanyaḥ śṛṇoti śrutvāpyenaṃ veda na caiva kaścit ||2-29||

Word-by-Word Meaning

आश्चर्यवत्as a wonder
पश्यतिsees
कश्चित्sone one
एनम्this (Self)
आश्चर्यवत्as a wonder
वदतिspeaks of
तथाso
एवalso
and
अन्यःanother
आश्चर्यवत्as a wonder
and
एनम्this
अन्यःanother
श्रृणोतिhears
श्रुत्वाhaving heard
अपिeven
एनम्this
वेदknows
not
and
एवalso
कश्चित्any one.Commentary The verse may also be interpreted in this manner. He that sees

📖 Translation

English

2.29 One sees This (the Self) as a wonder; another speaks of It as a wonder; another hears of It as a wonder; yet having heard, none understands It at all.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.29।। कोई इसे आश्चर्य के समान देखता है;  कोई इसके विषय में आश्चर्य के समान कहता है;  और कोई अन्य पुरुष इसे आश्चर्य के समान सुनता है;  और फिर कोई सुनकर भी नहीं जानता।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Some truly transformative ideas, leadership intuition, or innovative solutions in work can be observed and discussed, but their essence often remains a 'wonder' that defies easy replication or deep understanding. This encourages humility in approaching complex challenges and seeking deeper insights beyond surface-level information or instruction. True mastery and groundbreaking innovation often stem from an elusive 'knowing' that isn't easily taught or formalized, pushing us to strive for genuine insight rather than mere imitation.

🧘 For Stress & Anxiety

Recognizing that intellectual understanding or external quick-fixes often fall short in alleviating deep-seated stress or existential angst. The true nature of peace, rooted in understanding the Self, is profound and not easily grasped by the intellect alone. This perspective can help temper expectations for easy solutions to inner turmoil, encouraging a more patient and experiential approach to mental well-being rather than just information absorption or superficial coping mechanisms.

❤️ In Relationships

We often marvel at the unique qualities of others or the mysterious depth of love and connection. Yet, truly understanding another person's inner world or the full essence of a relationship goes beyond mere observation or conversation. This highlights the inherent difficulty in achieving profound mutual understanding and fosters patience, empathy, and acceptance of the 'wonder' that each individual and relationship represents, rather than expecting complete intellectual grasp or becoming frustrated by perceived lack of full comprehension.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The profound nature of reality, especially the true Self, remains an elusive wonder, defying full comprehension through ordinary perception, speech, or intellect alone.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.29 आश्चर्यवत् as a wonder? पश्यति sees? कश्चित् sone one? एनम् this (Self)? आश्चर्यवत् as a wonder? वदति speaks of? तथा so? एव also? च and? अन्यः another? आश्चर्यवत् as a wonder? च and? एनम् this? अन्यः another? श्रृणोति hears? श्रुत्वा having heard? अपि even? एनम् this? वेद knows? न not? च and? एव also? कश्चित् any one.Commentary The verse may also be interpreted in this manner. He that sees? hears and speaks of the Self is a wonderful man. Such a man is very rare. He is one among many thousands. Thus the Self is very hard to understand.

Shri Purohit Swami

2.29 One hears of the Spirit with surprise, another thinks It marvellous, the third listens without comprehending. Thus, though many are told about It, scarcely is there one who knows It.

Dr. S. Sankaranarayan

2.29. This someone observes as a wonder; similarly another speaks of This as a wonder; another hears This as a wonder; but even after hearing, not even one understands This.

Swami Adidevananda

2.29 One looks upon This (self) as a wonder; likewise another speaks of It as a wonder; still another hears of It as a wonder; and even after hearing of It, one knows It not.

Swami Gambirananda

2.29 Someone visualizes It as a wonder; and similarly indeed, someone else talks of It as a wonder; and someone else hears of It as a wonder. And some one else, indeed, does not realize It even after hearing about It.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.29।। परमार्थ तत्त्व का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि वह अनन्त सर्वज्ञ और आनन्दस्वरूप है जबकि हमारा अपने ही विषय में अनुभव यह है कि हम परिच्छिन्न अज्ञानी और दुखी हैं। इस प्रकार जो हमारा वास्तविक आत्मस्वरूप है उससे सर्वथा भिन्न हमारा प्रत्यक्ष अनुभव है। पारमार्थिक स्वरूप और प्रत्यक्ष अनुभव इन दोनों का अन्तर शीत और उष्ण प्रकाश और अंधकार के अन्तर के समान प्रतीत हो रहा है। क्या कारण है कि हम अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव नहीं कर पाते हैं अज्ञान अवस्था में जब हम सत्य को जानना चाहते हैं तब हमारी यह धारणा होती है कि वह सत्य एक ऐसा लक्ष्य है जो कहीं दूर स्थान में स्थित है जिसकी प्राप्ति किसी काल विशेष में ही होगी। परन्तु यदि हम भगवान के उपदेश पर विश्वास करें तो यह ज्ञात होगा कि हम उस सत्य से कभी भी दूर नहीं हैं क्योंकि वह तो हमारा स्वरूप ही है। एक र्मत्य जीव अमरत्व से उतना ही दूर है जितना कि स्वप्नद्रष्टा जाग्रत पुरुष से।जो मनुष्य अपने आत्मस्वरूप के वैभव के प्रति जागरूक है वही ईश्वर है और स्वस्वरूप के वैभव से विस्मृत ईश्वर ही मोहित जीव हैप्रथम तो इस जीव को शरीर मन और बुद्धि के परे स्थित आत्मा के अस्तित्व के विचार को ही समझना कठिन होता है और जब वह आत्मविकास की साधना का अभ्यास करके अपने आनन्दस्वरूप को पहचानता है तब वह उस इन्द्रियातीत अनन्त आनन्दस्वरूप का अनुभव कर आश्चर्यचकित रह जाता है।आश्चर्य की भावना जब मन में उठती है तब उसमें यह सार्मथ्य होती है कि क्षण भर के लिए आश्चर्यचकित व्यक्ति को और कुछ सूझता ही नहीं और वह उस क्षण उस भावना के साथ तदाकार हो जाता है। प्रयोग के तौर पर आप किसी व्यक्ति को अचानक आश्चर्यचकित कर दें और फिर उसके मुख के भावों को देखें। मुँह खुला हुआ कुछ न देखती हुई बाहर निकली हुई आँखें प्रत्येक शिरा तनाव से खिंची हुई वह व्यक्ति पुतले के समान क्षण भर के लिए अपने ही स्थान पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ खड़ा रह जाता है।इसी प्रकार आत्मानुभव का भी वह आनन्द है जब आत्मा ही आत्मा के साथ आत्मा में ही रमण कर रही होती है। और इसीलिए महान ऋषियों ने इस अनुभव को आश्चर्य शब्द से सूचित किया जब अहंकार जीव समाप्त होकर शुद्ध अनन्तस्वरूप मात्र रह जाता है।अज्ञानी पुरुष समझता है कि मैं शरीर हूँ जिसमें आत्मा का वास है परन्तु ज्ञानी पुरुष जानता है कि मैं आत्मा हूँ जिसने शरीर धारण किया है । जो साधक सम्यक् प्रकार से इस उपदेश का श्रवण करते हैं उनको आगे उसी पर मनन करने को उत्साहित किया जाता है और तत्पश्चात् जब तक यथार्थ में आत्मसाक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक उसके लिए ध्यान करने का उपदेश किया गया है। इस श्लोक से अज्ञानी पुरुष को भी श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा इस विरले प्रकार के श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करने की प्रेरणा मिल सकती है। आत्मतत्त्व को विषय के रूप में नहीं जाना जा सकता। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि इसको सुनकर कोई भी व्यक्ति इसे नहीं जानता।अगले श्लोक में इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

2.29।। व्याख्या-- 'आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्'--   इस देहीको कोई आश्चर्यकी तरह जानता है। तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरी चीजें देखने सुनने पढ़ने और जाननेमें आती हैं वैसे इस देहीका जानना नहीं होता। कारण कि दूसरी वस्तुएँ इदंतासे ( यह करके) जानते हैं अर्थात् वे जाननेका विषय होती हैं पर यह देही इन्द्रिय मनबुद्धिका विषय नहीं है। इसको तो स्वयंसे अपनेआपसे ही जाना जाता है। अपनेआपसे जो जानना होता है वह जानना लौकिक ज्ञानकी तरह नहीं होता प्रत्युत बहुत विलक्षण होता है। 'पश्यति'  पदके दो अर्थ होते हैं नेत्रोंसे देखना और स्वयंके द्वारा स्वयंको जानना। यहाँ  'पश्यति'  पद स्वयंके द्वारा स्वयंको जाननेके विषयमें आया है (गीता 2। 55 6। 20 आदि)। जहाँ नेत्र आदि करणोंसे देखना (जानना) होता है वहाँ द्रष्टा (देखनेवाला) दृश्य (दीखनेवाली वस्तु) और दर्शन (देखनेकी शक्ति) यह त्रिपुटी होती है। इस त्रिपुटीसे ही सांसारिक देखनाजानना होता है। परन्तु स्वयंके ज्ञानमें यह त्रिपुटी नहीं होती है अर्थात् स्वयंका ज्ञान करणसापेक्ष नहीं है। स्वयंका ज्ञान तो स्वयंके द्वारा ही होता है अर्थात् वह ज्ञान करणनिरपेक्ष है। जैसे मैं हूँ ऐसा जो अपने होनेपन ज्ञान है इसमें किसी प्रमाणकी या किसी करणकी आवश्यकता नहीं है। इस अपने होनेपनको इदंता से अर्थात् दृश्यरूपसे नहीं देख सकते। इसका ज्ञान अपनेआपको ही होता है। यह ज्ञान इन्द्रियजन्य या बुद्धिजन्य नहीं है। इसलिये स्वयंको (अपनेआपको) जानना आश्चर्यकी तरह होता है। जैसे अँधेरे कमरेमें हम किसी चीजको लाने जाते हैं तो हमारे साथ प्रकाश भी चाहिये और नेत्र भी चाहिये अर्थात् उस अँधेरे कमरेमें प्रकाशकी सहायतासे हम उस चीजको नेत्रोंसे देखेंगे तब उसको लायेंगे। परन्तु कहीं दीपक जल रहा है और हम उस दीपकको देखने जायँगे तो उस दीपकको देखनेके लिये हमें दूसरे दीपककी आवश्यकता नहीं पड़ेगी क्योंकि दीपक स्वयंप्रकाश है। वह अपनेआपको स्वयं ही प्रकाशित करता है। ऐसे ही अपने स्वरूपको देखनेके लिये किसी दूसरे प्रकाशकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह देही (स्वरूप) स्वयंप्रकाश है। अतः यह अपनेआपसे ही अपनेआपको जानता है। स्थूल सूक्ष्म और कारण ये तीन शरीर हैं। अन्नजलसे बना हुआ स्थूलशरीर है। यह स्थूलशरीर इन्द्रियोंका विषय है। इस स्थूलशरीरके भीतर पाँच ज्ञानेन्द्रियों पाँच कर्मेन्द्रियाँ पाँच प्राण मन और बुद्धि इन सत्रह तत्त्वोंसे बना हुआ सूक्ष्मशरीर है। यह सूक्ष्मशरीर इन्द्रियोंका विषय नहीं है प्रत्युत बुद्धिका विषय हैं। जो बुद्धिका भी विषय नहीं है जिसमें प्रकृति स्वभाव रहता है वह कारणशरीर है। इन तीनों शरीरोंपर विचार किया जाय तो यह स्थूलशरीर मेरा स्वरूप नहीं है क्योंकि यह प्रतिक्षण बदलता है और जाननेमें आता है। सूक्ष्मशरीर भी बदलता है और जाननेमें आता है अतः यह भी मेरा स्वरूप नहीं है। कारणशरीर प्रकृतिस्वरूप है पर देही (स्वरूप) प्रकृतिसे भी अतीत है अतः कारणशरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है। यह देही जब प्रकृतिको छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है तब यह अपनेआपसे अपनेआपको जान लेता है। यह जानना सांसारिक वस्तुओंको जाननेकी अपेक्षा सर्वथा विलक्षण होता है इसलिये इसको  'आश्चर्यवत् पश्यति'  कहा गया है। यहाँ भगवान्ने कहा है कि अपनेआपका अनुभव करनेवाला कोई एक ही होता है  'कश्चित्'  और आगे सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भी यही बात कही है कि कोई एक मनुष्य ही मेरेको तत्त्वसे जानता है  'कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः'।  इन पदोंसे ऐसा मालूम होता है कि इस अविनाशी तत्त्वको जानना बड़ा कठिन है दुर्लभ है। परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। इस तत्त्वको जानना कठिन नहीं है दुर्लभ नहीं है प्रत्युत इस तत्त्वको सच्चे हृदयसे जाननेवालेकी इस तरफ लगनेवालेकी कमी है। यह कमी जाननेकी जिज्ञासा कम होनेके कारण ही है।  'आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः'-- ऐसे ही दूसरा पुरुष इस देहीका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है क्योंकि यह तत्त्व वाणीका विषय नहीं है। जिससे वाणी भी प्रकाशित होती है वह वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है जो महापुरुष इस तत्त्वका वर्णन करता है वह तो शाखाचन्द्रन्यायकी तरह वाणीसे इसका केवल संकेत ही करता है जिससे सुननेवालेका इधर लक्ष्य हो जाय। अतः इसका वर्णन आश्चर्यकी तरह ही होता है। यहाँ जो  'अन्यः'  पद आया है उसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो जाननेवाला है उससे यह कहनेवाला अन्य है क्योंकि जो स्वयं जानेगा ही नहीं वह वर्णन क्या करेगा अतः इस पदका तात्पर्य यह है कि जितने जाननेवाले हैं उनमें वर्णन करनेवाला कोई एक ही होता है। कारण कि सबकेसब अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष उस तत्त्वका विवेचन करके सुननेवालेको उस तत्त्वतक नहीं पहुँचा सकते। उसकी शंकाओंका तर्कोंका पूरी तरह समाधान करनेकी क्षमता नहीं रखते। अतः वर्णन करनेवालेकी विलक्षण क्षमताका द्योतन करनेके लिये ही यह अन्यः पद दिया गया है।  'आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति'-- दूसरा कोई इस देहीको आश्चर्यकी तरह सुनता है। तात्पर्य है कि सुननेवाला शास्त्रोंकी लोकलोकान्तरोंकी जितनी बातें सुनता आया है उन सब बातोंसे इस देहीकी बात विलक्षण मालूम देती है। कारण कि दूसरा जो कुछ सुना है वह सबकासब इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदिका विषय है परन्तु यह देही इन्द्रियों आदिका विषय नहीं है प्रत्युत यह इन्द्रियों आदिके विषयको प्रकाशित करता है। अतः इस देहीकी विलक्षण बात वह आश्चर्यकी तरह सुनता है। यहाँ  'अन्यः'  पद देनेका तात्पर्य है कि जाननेवाला और कहनेवाला इन दोनोंसे सुननेवाला (तत्त्वका जिज्ञासु) अलग है।  'श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्'-- इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसने सुन लिया तो अब वह जानेगा ही नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि केवल सुन करके (सुननेमात्रसे) इसको कोई भी नहीं जान सकता। सुननेके बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा तब वह अपनेआपसे ही अपनेआपको जानेगा  (टिप्पणी प0 69) । यहाँ कोई कहे कि शास्त्रोँ और गुरुजनोंसे सुनकर ज्ञान तो होता ही है फिर यहाँ सुन करके भी कोई नहीं जानता ऐसा कैसे कहा गया है इस विषयपर थोड़ी गम्भीरतासे विचार करके देखें कि शास्त्रोंपर श्रद्धा स्वयं शास्त्र नहीं कराते और गुरुजनोंपर श्रद्धा स्वयं गुरुजन नहीं कराते किन्तु साधक स्वयं ही शास्त्र और गुरुपर श्रद्धाविश्वास करता है स्वयं ही उनके सम्मुख होता है। अगर स्वयंके सम्मुख हुए बिना ही ज्ञान हो जाता तो आजतक भगवान्के बहुत अवतार हुए हैं बड़ेबड़े जीवन्मुक्त महापुरुष हुए हैं उनके सामने कोई अज्ञानी रहना ही नहीं चाहिये था। अर्थात् सबको तत्त्वज्ञान हो जाना चाहिये था पर ऐसा देखनेमें नहीं आता। श्रद्धाविश्वासपूर्वक सुननेसे स्वरूपमें स्थित होनेमें सहायता तो जरूर मिलती है पर स्वरूपमें स्थित स्वयं ही होता है। अतः उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य तत्त्वज्ञानको असम्भव बतानेमें नहीं प्रत्युत उसे करणनिरपेक्ष बतानेमें है। मनुष्य किसी भी रीतिसे तत्त्वको जाननेका प्रयत्न क्यों न करे पर अन्तमें अपनेआपसे ही अपनेआपको जानेगा। श्रवण मनन आदि साधन तत्त्वके ज्ञानमें परम्परागत साधन माने जा सकते हैं पर वास्तविक बोध करणनिरपेक्ष (अपनेआपसे) ही होता है। अपनेआपसे अपनेआपको जानना क्या होता है एक होता है करना एक होता है देखना और एक होता है जानना। करनेमें कर्मेन्द्रियोंकी देखनेमें ज्ञानेन्द्रियोंकी और जाननेमें स्वयंकी मुख्यता होती है। ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा जानना नहीं होता प्रत्युत देखना होता है जो कि व्यवहारमें उपयोगी है। स्वयंके द्वारा जो जानना होता है वह दो तरहका होता है एक तो शरीरसंसारके साथ मेरी सदा भिन्नता है और दूसरा परमात्माके साथ मेरी सदा अभिन्नता है। दूसरे शब्दोंमें परिवर्तनशील नाशवान् पदार्थोंके साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है और अपरिवर्तनशील अविनाशी परमात्माके साथ मेरा नित्य सम्बन्ध है। ऐसा जाननेके बाद फिर स्वतः अनुभव होता है। उस अनुभवका वाणीसे वर्णन नहीं हो सकता। वहाँ तो बुद्धि भी चुप हो जाती है।  सम्बन्ध -- अबतक देह और देहीका जो प्रकरण चल रहा था उसका आगेके श्लोकमें उपसंहार करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.29।। कोई इसे आश्चर्य के समान देखता है;  कोई इसके विषय में आश्चर्य के समान कहता है;  और कोई अन्य पुरुष इसे आश्चर्य के समान सुनता है;  और फिर कोई सुनकर भी नहीं जानता।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.29।।देहयोगवियोगस्य नियतत्वादात्मनश्चेश्वरसरूपत्वात् सर्वथानाशान्न शोकः कार्य इत्युपसंहर्तुमैश्वरं सामर्थ्यं पुनर्दर्शयति आश्चर्यवदिति। दुर्लभत्वेनेत्यर्थः। तद्ध्याश्चर्यं लोके। दुर्लभोऽपीश्वरसरूपत्वात्सूक्ष्मत्वाच्चात्मनस्तद्द्रष्टा।

Sri Anandgiri

।।2.29।।अर्जुनं प्रत्युपालम्भं दर्शयित्वा प्रकृतस्यात्मनो दुर्विज्ञेयत्वात्तं प्रत्युपालम्भो न संभवतीति मन्वानः सन्नाह  दुर्विज्ञेय इति।  तथाचात्माज्ञाननिमित्तविप्रलम्भस्य साधारणत्वादसाधारणोपलम्भस्य निरवकाशतेत्याह  किं त्वामेवेति।  अहंप्रत्ययवेद्यत्वादात्मनो दुर्विज्ञेयत्वमसिद्धमिति शङ्कते  कथमिति।  विशिष्टस्यात्मनोऽहंप्रत्ययस्य दृष्टत्वेऽपि केवलस्य तदभावादस्ति दुर्विज्ञेयतेति श्लोकमवतारयति  आहेति।  आश्चर्यवदित्याद्येन पादेनात्मविषयदर्शनस्य दुर्लभत्वं दर्शयता द्रष्टुर्दौर्लभ्यमुच्यते द्वितीयेन च तद्विषयवेदनस्य दुर्लभत्वोक्तेस्तदुपदेष्टुस्तथात्वं कथ्यते तृतीयेन तदीयश्रवणस्य दुर्लभत्वद्वारा श्रोतुर्विरलता विवक्षिता श्रवणदर्शनोक्तीनां भावेऽपि तद्विषयसाक्षात्कारस्यात्यन्तायासलभ्यत्वं चतुर्थेनाभिप्रेतमिति विभागः। आत्मगोचरदर्शनादिदुर्लभत्वद्वारा दुर्बोधत्वमात्मनः साधयति  आश्चर्यवदिति।  संप्रत्यात्मनि दृष्टुर्वक्तुः श्रोतुः साक्षात्कर्तुश्च दुर्लभत्वाभिधानेन तदीयं दुर्बोधत्वं कथयति  अथवेति।  व्याख्यानद्वयेऽपि फलितमाह  अत   इति।

Sri Vallabhacharya

।।2.29।।सोऽयमात्माऽव्यक्तो यत आश्चर्यवदित्याह आश्चर्यवदिति। अवितर्क्यमिव पश्यतीत्यादि।

Sridhara Swami

।।2.29।।कुतस्तर्हि विद्वांसोऽपि लोके शोचन्ति आत्माज्ञानादेवेत्याशयेनात्मनो दुर्विज्ञेयतामाह  आश्चर्यवदिति।  कश्चिदेनमात्मानं शास्त्राचार्योपदेशाभ्यां पश्यन्नाश्चर्यवत्पश्यति। सर्वगतस्य नित्यज्ञानानन्दस्वभावस्यात्मनोऽलौकिकत्वादैन्द्रजालिकवदघटमानं पश्यन्निव विस्मयेन पश्यति असंभावनाभिभूतत्वात्। तथा आश्चर्यवदन्यो वदति च शृणोति च। अन्य कश्चित्पुनर्विपरीतभावनाभिभूतः श्रुत्वापि नैव वेद। चशब्दादुक्त्वापि न सम्यग्वेदेति द्रष्टव्यम्।

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