Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 18 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Nature of the Self (Atman)

Sanskrit Shloka (Original)

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः | अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ||२-१८||

Transliteration

antavanta ime dehā nityasyoktāḥ śarīriṇaḥ . anāśino.aprameyasya tasmādyudhyasva bhārata ||2-18||

Word-by-Word Meaning

अन्तवन्तःhaving an end
इमेthese
देहाःbodies
नित्यस्यof the everlasting
उक्ताःare said
शरीरिणःof the embodied
अनाशिनःof the indestructible
अप्रमेयस्यof the immesaurable
तस्मात्therefore
युध्यस्वfight
भारतO Bharata.Commentary -- Lord Krishna explains to Arjuna the nature of the allpervading

📖 Translation

English

2.18 These bodies of the embodied Self, Which is eternal, indestructible and immeasurable, are said to have an end. Therefore fight, O Arjuna.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.18।। इस नाशरहित अप्रमेय नित्य देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भारत ! तुम युद्ध करो।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your career, focus on developing enduring skills, character, and the lasting impact of your contributions rather than solely on temporary roles, projects, or material gains. Embrace change and challenges, understanding that while specific job circumstances are impermanent, your personal growth and underlying purpose can be eternal.

🧘 For Stress & Anxiety

Alleviate stress by realizing that your true self is beyond the temporary fluctuations of your physical body, possessions, or external circumstances. Detach from anxieties related to aging, illness, loss, or failure, knowing that your fundamental essence remains untouched and eternal, fostering deep mental resilience.

❤️ In Relationships

Appreciate relationships for their enduring spiritual connection, love, and shared experiences, rather than solely for their physical presence or temporary forms. Accept the natural impermanence of physical proximity or specific relationship dynamics, while cherishing the deeper, immeasurable impact and lessons learned.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Understand that while your body is transient, your true Self is eternal and indestructible; therefore, act with courage and conviction in your duties, unburdened by fear of temporary loss.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.18 अन्तवन्तः having an end? इमे these? देहाः bodies? नित्यस्य of the everlasting? उक्ताः are said? शरीरिणः of the embodied? अनाशिनः of the indestructible? अप्रमेयस्य of the immesaurable? तस्मात् therefore? युध्यस्व fight? भारत O Bharata.Commentary -- Lord Krishna explains to Arjuna the nature of the allpervading? immortal Self in a variety of ways and thus induces him to fight by removing his delusion? grief and despondency which are born of ignorance.

Shri Purohit Swami

2.18 The material bodies which this Eternal, Indestructible, Immeasurable Spirit inhabits are all finite. Therefore fight, O Valiant Man!

Dr. S. Sankaranarayan

2.18. These physical bodies that have an end and suffer the peculiar destruction, are declared to belong to the eternal embodied Soul, Which is destructionless and imcomprehensible. Therefore fight, O descendent of Bharata !

Swami Adidevananda

2.18 These bodiesof the Jiva (the embodied self) are said to have an end while the Jiva itself is eternal, indestructible and incomprehensibel. Therefore, fight O Bharata (Arjuna).

Swami Gambirananda

2.18 These destructible bodies are said to belong to the everlasting, indestructible, indeterminable, embodied One. Therefore, O descendant of Bharata, join the battle.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.18।। आत्मा द्वारा धारण किये हुये भौतिक शरीर नाशवान् हैं जबकि आत्मा नित्य अविनाशी और अप्रमेय अर्थात् बुद्धि के द्वारा जानी नहीं जा सकती। यहाँ आत्मा नित्य और अविनाशी है ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि आत्मा का न पूर्णत नाश होता है और न अंशत।नित्य आत्मतत्त्व को अज्ञेय कहा है जिसका अर्थ यह नहीं कि वह अज्ञात है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हम इन्द्रियों के द्वारा विषयों को जानते हैं उस प्रकार इस आत्मा को नहीं जाना जा सकता। इसका कारण यह है कि इन्द्रियाँ मन और बुद्धि आदि हमारे ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं वे स्वत जड़ हैं और चैतन्य आत्मा की उपस्थिति में ही वे अन्य वस्तुओं को प्रकाशित कर सकते हैं। अब जिस चैतन्य के कारण इन्द्रियाँ आदि उपकरण विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं तब उसी चैतन्य को वे प्रत्यक्ष विषय के रूप में किस प्रकार जान सकते हैं यह सर्वथा असम्भव है और इसी दृष्टि से यहाँ आत्मा को अज्ञेय कहा गया है। आत्मा स्वत सिद्ध है।इसलिये हे भारत तुम युद्ध करो वास्तव में इस वाक्य के द्वारा सबको युद्ध करने का आदेश नहीं दिया गया है। जिस धर्म की आधारशिला क्षमा और उदार सहिष्णुता है उसी धर्म के शास्त्रीय ग्रन्थों में इस प्रकार का युद्ध का नारा संभव नहीं हो सकता। कोई टीकाकार यदि ऐसा अर्थ करता है तो वह अनुचित है और वह गीता को महाभारत के सन्दर्भ में नहीं पढ़ रहा है। हे भारत तुम युद्ध करो ये शब्द धर्म का आह्वान है प्रत्येक व्यक्ति के लिये जिससे वह पराजय की प्रवृत्ति को छोड़कर जीवन में आने वाली प्रत्येक परिस्थिति का निष्ठापूर्वक और साहस के साथ सामना करे। अधर्म का सक्रिय प्रतिकार यह गीता में श्रीकृष्ण का मुख्य संदेश है।अब आगे भगवान् उपनिषदों के दो मन्त्र सिद्ध करने के लिये उद्धृत करते हैं कि शास्त्र का मुख्य प्रयोजन संसार के मूल कारण मोह अविद्या की निवृत्ति करना है। भगवान् कहते हैं यह तुम्हारी मिथ्या धारणा है कि भीष्म और द्रोण मेरे द्वारा मारे जायेंगे और मैं उनका हत्यारा बनूँगा৷৷. कैसे

Swami Ramsukhdas

2.18।। व्याख्या -- 'अनाशिनः'-- किसी कालमें, किसी कारणसे कभी किञ्चिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जिसकी क्षति नहीं होती, जिसका अभाव नहीं होता, उसका नाम  'अनाशी'  अर्थात् अविनाशी है।  'अप्रमेयस्य'-- जो प्रमा-(प्रमाण-)का विषय नहीं है अर्थात् जो अन्तःकरण और इन्द्रियोंका विषय नहीं है, उसको 'अप्रमेय' कहते हैं। जिसमें अन्तःकरण और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और सन्त-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं, शास्त्र और सन्त-महापुरुष उन्हींके लिये प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और सन्तमें श्रद्धा होती है, वह उसी शास्त्र और सन्तके वचनोंको मानता है। इसलिये यह तत्त्व केवल श्रद्धाका विषय है,  (टिप्पणी प0 58.1)  प्रमाणका विषय नहीं। शास्त्र और सन्त किसीको बाध्य नहीं करते कि तुम हमारेमें श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है। अगर वह शास्त्र और सन्तके वचनोंमें श्रद्धा करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय है; और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय नहीं है।  'नित्यस्य'--  यह नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। किसी कालमें यह न रहता हो--ऐसी बात नहीं है अर्थात् यह सब कालमें सदा ही रहता है।  'अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः'-- इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरीके सम्पूर्ण संसारमें जितने भी शरीर हैं, वे सभी अन्तवाले कहे गये हैं। अन्तवाले कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अन्त हो रहा है। इनमें अन्तके सिवाय और कुछ है ही नहीं, केवल अन्त-ही-अन्त है। उपर्युक्त पदोंमें शरीरीके लिये तो एकवचन दिया है और शरीरोंके लिये बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणीके स्थूल, सूक्ष्म और कारण--ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसारके सम्पूर्ण शरीरोंमें एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे चौबीसवें श्लोकमें भी इसको  'सर्वगतः' पदसे सबमें व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जानेवाले सम्पूर्ण शरीर नाशवान् हैं। जैसे अविनाशीका कोई विनाश नहीं कर सकता, ऐसे ही नाशवान्को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान्का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात् उसका तो नाश ही होगा।  विशेष बात  यहाँ 'अन्तवन्त इमे देहाः' कहनेका तात्पर्य है कि ये जो देह देखनेमें आते हैं, ये सब-के-सब नाशवान् हैं। पर ये देह किसके हैं?  'नित्यस्य', 'अनाशिनः'-- ये देह नित्यके हैं, अविनाशीके हैं। तात्पर्य है कि नित्य-तत्त्वने, जिसका कभी नाश नहीं होता, इनको अपना मान रखा है। अपना माननेका अर्थ है कि अपनेको शरीरमें रख दिया और शरीरको अपनेमें रख लिया। अपनेको शरीरमें रखनेसे 'अहंता' अर्थात् 'मैं'-पन पैदा हो गया और शरीरको अपनेमें रखनेसे ममता अर्थात् मेरापन पैदा हो गया। यह स्वयं जिन-जिन चीजोंमें अपनेको रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें 'मैं'-पन होता ही चला जाता है; जैसे--अपनेको धनमें रख दिया तो 'मैं धनी हूँ'; अपनेको राज्यमें रख दिया तो 'मैं राजा हूँ'; अपनेको विद्यामें रख दिया तो 'मैं विद्वान् हूँ'; अपनेको बुद्धिमें रख दिया तो 'मैं बुद्धिमान् हूँ'; अपनेको सिद्धियों में ख दिया तो 'मैं सिद्ध हूँ'; अपनेको शरीरमें रख दिया तो 'मैं शरीर हूँ'; आदि-आदि। यह स्वयं जिन-जिन चीजोंको अपनेमें रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें 'मेरा'-पन होता ही चला जाता है; जैसे--कुटुम्बको अपनेमें रख लिया तो 'कुटुम्ब मेरा है'; धनको अपनेमें रख लिया तो 'धन मेरा है'; बुद्धिको अपनेमें रख लिया तो ;बुद्धि मेरी है'; शरीरको अपनेमें रख लिया तो 'शरीर मेरा है'; आदि-आदि। जडताके साथ 'मैं' और 'मेरा'-पन होनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं (स्वयं)--दोनों अलग-अलग हैं, इस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। परन्तु जो इस विवेकको आदर देते हैं महत्व देते हैं वे पण्डित होते हैं। ऐसे पण्डितलोग कभी शोक नहीं करते; क्योंकि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है--इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है। 'तस्मात् (टिप्पणी प0 58.2) युध्यस्व'-- भगवान् अर्जुनके लिये आज्ञा देते हैं कि सत्-असत् को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात् प्राप्त कर्तव्यका पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अन्तवाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों--शरीर--शरीरीकी दृष्टिसे शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोकका त्याग करके युद्ध करो।  विशेष बात  यहाँ सत्रहवें और अठारहवें--इन दोनों श्लोकोंमें विशेषतासे सत्तत्त्वका ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरणमें भगवान्का लक्ष्य सत्का बोध करानेमें ही है। सत्का बोध हो जानेसे असत्की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। फिर किसी प्रकारका किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। इस प्रकार सत्का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्यका पालन करना चाहिये। इस विवेचनसे यह बात सिद्ध होती है कि सांख्ययोग एवं कर्मयोगमें किसी विशेष वर्ण और आश्रमकी आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याणके लिये चाहे सांख्ययोगका अनुष्ठान करे, चाहे कर्मयोगका अनुष्ठान करे, इसमें मनुष्यकी पूर्ण स्वतन्त्रता है। परन्तु व्यावहारिक काम करनेमें वर्ण और आश्रमके अनुसार शास्त्रीय विधानकी परम आवश्यकता है, तभी तो यहाँ सांख्ययोगके अनुसार सत्-असत् को विवेचन करते हुए भगवान् युद्ध करनेकी अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं। आगे तेरहवें अध्यायमें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन किया गया है, वहाँ भी  'असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु'-- (13। 9) कहकर पुत्र, स्त्री, घर आदिकी आसक्तिका निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्य-योगके अधिकारी होते तो पुत्र, स्त्री, घर आदिमें आसक्ति-रहित होनेके लिये कहनेकी आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि संन्यासीके पुत्र-स्त्री आदि होते ही नहीं। इस तरह गीतापर विचार करनेसे सांख्ययोग एवं कर्मयोग--दोनों परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रमपर किञ्चिन्मात्र भी अवलम्बित नहीं हैं। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकतक शरीरीको अविनाशी जाननेवालोंकी बात कही। अब उसी बातको अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करनेके लिये जो शरीरीको अविनाशी नहीं जानते उनकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.18।। इस नाशरहित अप्रमेय नित्य देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भारत ! तुम युद्ध करो।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.18।।भवतु देहस्यापि कस्यचिन्नित्यत्वमिति नेत्याह अन्तवन्त इति। अस्तु तर्हि दर्पणनाशात् प्रतिबिम्बनाशवदात्मनाश इत्यत आह नित्यस्य शरीरिण इति। ईश्वरव्यावृत्तये। न च नैमित्तिकनाश इत्याह अनाशिन इति। कुतः अप्रमेयेश्वरसरूपत्वात्। नह्युपाधिबिम्बसन्निध्यनासे प्रतिबिम्बनाशः सति च प्रदर्शके। स्वयमेवात्र प्रदर्शकः चित्त्वात् नित्यश्चोपाधिः कश्चिदस्ति।प्रतिपत्तौ विमोक्षस्य नित्योपाध्या स्वरूपया। चिद्रूपया युतो जीवः केशवप्रतिबिम्बकः इति भगवद्वचनात्।

Sri Anandgiri

।।2.18।।सदसतोरनन्तरप्रकृतयोः स्वरूपाव्यभिचारित्वेन परमार्थतया सन्निर्धारितम्। इदानीमसन्निर्दिधारयिषया पृच्छति  किं पुनरिति।  असदसदेवेति निर्धारितत्वात् प्रश्नस्य निरवकाशत्वमाशङ्क्य शून्यं व्यावर्त्य विवक्षितमसन्निर्धारयितुं तस्य सावकाशत्वमाह  यत्स्वात्मेति।  देहादेरनात्मवर्गस्य प्रकृतासच्छब्दविषयतेत्याह  उच्यत इति।  तेषां स्वातन्त्र्यं व्युदस्यति  नित्यस्येति।  आकाशादिव्यावृत्त्यर्थं विशिनष्टि  शरीरिण इति।  परिणामिनित्यत्वं व्यवच्छिनत्ति  अनाशिन इति।  तस्य प्रत्यक्षाद्यविषयत्वमाह  अप्रमेयस्येति।  देहादेरवस्तुत्वादात्मनश्चैकरूपत्वाद् युद्धे स्वधर्मे प्रवृत्तस्यापि तव न हिंसादिदोषसंभावनेत्याह  तस्मादिति।  ननु देहादिषु सद्बुद्धेरनुवृत्तेस्तस्या विच्छेदाभावात्कथमन्तवत्त्वं तेषामिष्यते तत्राह  यथेति।  तथेमे देहाः सद्बुद्धिभाजोऽपि प्रमाणतो निरूपणायामवसाने विच्छेदादन्तवन्तो भवन्तीति शेषः। देहत्वादिना च जाग्रद्देहादेरन्तवत्त्वं संप्रतिपन्नवदनुमातुं शक्यमित्याह   स्वप्नेति।  शरीरादेरन्तवत्त्वेऽपि प्रवाहरूपेणात्मनस्तत्संबन्धस्यानन्तवत्त्वमाशङ्क्याह  नित्यस्येति।  प्रवाहस्य प्रवाहिव्यतिरेकेणानिरूपणान्न तदात्मनः देहाद्यभावे संबन्धसिद्धिरित्यभिसंधायोक्तं  विवेकिभिरिति।  पदद्वयस्यैकार्थत्वमाशङ्क्य निरस्यति  नित्यस्येत्यादिना।  नित्यत्वस्य द्वैविध्यसिद्ध्यर्थं नाशद्वैविध्यं प्रतिज्ञातं प्रकटयति  यथेत्यादिना।  नाशस्य निरवशेषत्वेन सावशेषत्वेन च सिद्धे द्वैविध्ये फलितमाह  तत्रेति।  विशेषणाभ्यां कूटस्थनित्यत्वमात्मनोविवक्षितमित्यर्थः। अन्यतरविशेषणमात्रोपादाने परिणामिनित्यत्वमात्मनः शङ्क्येतेत्यनिष्टापत्तिमाशङ्क्याह  अन्यथेति।  औपनिषदत्वविशेषणमाश्रित्याप्रमेयत्वमाक्षिपति  नन्विति।  इतश्चात्मनो नाप्रमेयत्वमित्याह  प्रत्यक्षादिनेति।  तेन चागमप्रवृत्त्यपेक्षया पूर्वावस्थायामात्मैव परिच्छिद्यते तस्मिन्नेवाज्ञातत्वसंभवाद् अज्ञातज्ञापकं प्रमाणमिति च प्रमाणलक्षणादित्यर्थः। एतदप्रमेयमित्यादिश्रुतिमनुसृत्य परिहरति  नेत्यादिना।  कथं मानमनपेक्ष्यात्मनः सिद्धत्वमित्याशङ्क्योक्तं विवृणोति  सिद्धे हीति।  प्रमित्सोः प्रमेयमिति शेषः। तदेव व्यतिरेकमुखेन विशदयति  नहीति।  आत्मनः सर्वलोकप्रसिद्धत्वाच्च तस्मिन्न प्रमाणमन्वेषणीयमित्याह  नह्यात्मेति।  प्रत्यक्षादेरनात्मविषयत्वात्तत्र चाज्ञातताया व्यवहारे संभवात्तत्प्रामाण्यस्य च व्यावहारिकत्वाद्विशिष्टे तत्प्रवृत्तावपि केवले तदप्रवृत्तेः यद्यपि नात्मनि तत्प्रामाण्यं तथापि तद्धितश्रुत्या शास्त्रस्य तत्र प्रवृत्तिरवश्यंभाविनीत्याशङ्क्याह  शास्त्रं त्विति।  शास्त्रेण प्रत्यग्भूते ब्रह्मणि प्रतिपादिते प्रमात्रादिविभागस्यव्यावृत्तत्वाद्युक्तमस्यान्त्यत्वमपौरुषेयतया निर्दोषत्वाच्चास्य प्रामाण्यमित्यर्थः। तथापि कथमस्य प्रत्यगात्मनि प्रामाण्यं तस्य स्वतःसिद्धत्वेनाविषयत्वादज्ञातज्ञापनायोगादित्याशङक्य स्वतो भानेऽपि प्रतीचो मनुष्योऽहं कर्ताहमित्यादिना मनुष्यत्वकर्तृत्वादीनामतद्धर्माणामध्यारोपणेनात्मनि प्रतीयमानत्वात्तन्मात्रनिवर्तकत्वेनात्मनो विषयत्वमनापद्यैव शास्त्रं प्रामाण्यं प्रतिपद्यते सिद्धंतु निवर्तकत्वादिति न्यायादित्याह  अतद्धर्मेति।  घटादाविव स्फुरणातिशयजनकत्वेन किमित्यात्मन��� शास्त्रप्रामाण्यं नेष्टमित्याशङ्क्य जडत्वाजडत्वाभ्यां विशेषादिति मत्वाह  नत्विति।  ब्रह्मात्मनो मानापेक्षामन्तरेण स्वतः स्फुरणे प्रमाणमाह  तथाचेति।  साक्षादन्यापेक्षामन्तरेणापरोक्षादपरोक्षस्फुरणात्मकं यद्ब्रह्म न च तस्यात्मनोऽर्थान्तरत्वं सर्वाभ्यन्तरत्वेन सर्ववस्तुसारत्वात्तमात्मानं व्याचक्ष्वेति योजना। अप्रमेयत्वेनाविनाशित्वं प्रतिपाद्य फलितं निगमयति  यस्मादिति।  स्वधर्मनिवृत्तिहेतुनिषेधे तात्पर्यं दर्शयति  युद्धादिति।  आत्मनो नित्यत्वादिस्वरूपमुपपाद्य युद्धकर्तव्यत्वविधानाज्ज्ञानकर्मसमुच्चयोऽत्र भातीत्याशङ्क्याह  नहीति।  युध्यस्वेति वचनात्तत्कर्तव्यत्वविधिरस्तीत्याशङ्क्याह  युद्ध इति।  कथं तर्हि कथं भीष्ममहमित्याद्यर्जुनस्य युद्धोपरमपरं वचनमिति तत्राह  शोकेति।  यदि स्वतो युद्धे प्रवृत्तिस्तर्हि भगवद्वचनस्य का गतिरित्याशङ्क्याह  तस्येति।  भगवद्वचनस्य प्रतिबन्धनिवर्तकत्वे सत्यर्जुनप्रवृत्तेः स्वाभाविकत्वे फलितमाह  तस्मादिति।

Sri Vallabhacharya

।।2.18।।उक्तं सर्वं निगमयति अन्तवन्त इति। इमे देहा नित्यस्य शरीरिणोऽस्यान्तवन्तः अनित्याः कृतेऽप्यकृते शोकेऽस्थिरा उक्ताः। शास्त्रे अन्तश्चिदात्मा तु अविनाशी अप्रमेयत्वादग्राह्यत्वा देति युद्ध्यस्व।

Sridhara Swami

।।2.18।।आगमापायधर्मकं संदर्शयति  अन्तवन्त इति।  अन्तो विनाशो विद्यते येषां तेऽन्तवन्तः। नित्यस्य सर्वदैकरुपस्य शरीरिणः शरीरवतः अतएव अनाशिनो विनाशरहितस्याप्रमेयस्यापरिच्छिन्नस्यात्मन इमे सुखदुःखादिधर्मका देहा उक्तास्तत्त्वदर्शिभिः। यस्मादेवमात्मनो न विनाशः नच सुखदुःखादिसंबन्धः तस्मान्मोहजं शोकं त्यक्त्वा युध्यस्व। स्वधर्मे मा त्याक्षीरित्यर्थः।

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