Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 16 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः | उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ||२-१६||

Transliteration

nāsato vidyate bhāvo nābhāvo vidyate sataḥ . ubhayorapi dṛṣṭo.antastvanayostattvadarśibhiḥ ||2-16||

Word-by-Word Meaning

not
असतःof the unreal
विद्यतेis
भावःbeing
not
अभावःnonbeing
विद्यतेis
सतःof the real
उभयोःof the two
अपिalso
दृष्टः(has been) seen
अन्तःthe final truth
तुindeed
अनयोःof these
तत्त्वदर्शिभिःby the knowers of the Truth.Commentary -- The changeless

📖 Translation

English

2.16 The unreal hath no being; there is non-being of the real; the truth about both has been seen by the knowers of the Truth (or the seers of the Essence).

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.16।। असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व,  तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your career, recognize that job roles, projects, successes, and failures are impermanent. Don't attach your self-worth solely to these fleeting outcomes. Focus instead on developing lasting skills, integrity, and a strong work ethic, which contribute to your enduring growth and character. Understand that external circumstances in the workplace will always change, but your inner resolve and values can remain constant.

🧘 For Stress & Anxiety

Many sources of stress and anxiety stem from attachment to impermanent things – wealth, status, opinions of others, or even specific emotional states. By understanding that the 'unreal' (external circumstances, transient thoughts, physical sensations) has no ultimate being and the 'real' (your core consciousness, inner peace) never ceases, you can detach from fleeting worries. This perspective helps in cultivating mental resilience and reducing suffering caused by change or loss.

❤️ In Relationships

Relationships, like all things in the material world, evolve and change. People come and go, and the dynamics shift. Do not cling to specific forms or expectations of relationships, as this can lead to disappointment and pain. Instead, appreciate the essence of connection, love, and shared experience in the present moment, understanding that while external forms may be impermanent, the underlying spiritual connection or the lessons learned can be enduring.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True wisdom lies in discerning the lasting truth from fleeting phenomena; anchor your awareness in the eternal, letting go of attachment to the transient, and find liberation.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.16 न not? असतः of the unreal? विद्यते is? भावः being? न not? अभावः nonbeing? विद्यते is? सतः of the real? उभयोः of the two? अपि also? दृष्टः (has been) seen? अन्तः the final truth? तु indeed? अनयोः of these? तत्त्वदर्शिभिः by the knowers of the Truth.Commentary -- The changeless? homogeneous Atman or the Self always exists. It is the only solid Reality. This phenomenal world of names and forms is ever changing. Hence it is unreal. The sage or the Jivanmukta is fully aware that the Self always exists and that this world is like a mirage. Through his Jnanachakshus or the eye of intuition? he directly cognises the Self. This world vanishes for him like the snake in the rope? after it has been seen that only the rope exists. He rejects the names and forms and takes the underlying Essence in all the names and forms? viz.? AstiBhatiPriya or Satchidananda or ExistenceKnowledgeBliss Absolute. Hence he is a Tattvadarshi or a knower of the Truth or the Essence.What is changing must be unreal. What is constant or permanent must be real.

Shri Purohit Swami

2.16 That which is not, shall never be; that which is, shall never cease to be. To the wise, these truths are self-evident.

Dr. S. Sankaranarayan

2.16. Birth (or existence) does not happen to what is non-existent, and destruction (or non-existence) to what is existent; the finality of these two has been seen by the seers of the reality.

Swami Adidevananda

2.16 The unreal can never come into being, the real never ceases to be. The conclusion about these two is seen by the seers of truth.

Swami Gambirananda

2.16 Of the unreal there is no being; the real has no nonexistence. But the nature of both these, indeed, has been realized by the seers of Truth.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.16।। वेदान्त शास्त्र में सत् असत् का विवेक अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया गया है। हमारे दर्शनशास्त्र में इन दोनों की ही परिभाषायें दी हुई हैं। असत् वस्तु वह है जिसकी भूतकाल में सत्ता नहीं थी और भविष्य में भी वह नहीं होगी परन्तु वर्तमान में उसका अस्तित्व प्रतीतसा होता है। माण्डूक्य कारिका की भाषा में जिसका अस्तित्व प्रारम्भ और अन्त में नहीं है वह वर्तमान में भी असत् ही है हमें दिखाई देने वाली वस्तुयें मिथ्या होने पर भी उन्हें सत् माना जाता है।स्वाभाविक ही सत्य वस्तु वह है जो भूतवर्तमान भविष्य इन तीनों कालों में भी नित्य अविकारी रूप में रहती है। सामान्य व्यवहार में यदि कोई व्यक्ति किसी स्तम्भ को भूत समझ लेता है तो स्तम्भ की दृष्टि से भूत को असत् कहा जायेगा क्योंकि भूत अनित्य है और स्तम्भ का ज्ञान होने पर वहाँ रहता नहीं। इसी प्रकार स्वप्न से जागने पर स्वप्न के बच्चों के लिये हमें कोई चिन्ता नहीं होती क्योंकि जागने पर स्वप्न के मिथ्यात्व का हमें बोध होता है। प्रतीत होने पर भी स्वप्न मिथ्या है। अत तीनों काल में अबाधित वस्तु ही सत्य कहलाती है।शरीर मन और बुद्धि इन जड़ उपाधियों के साथ हमारा जीवन परिच्छिन्न है क्योंकि इनके द्वारा प्राप्त बाह्य विषय भावना और विचारों के अनुभव क्षणिक होते हैं। इन तीनों में ही नित्य परिवर्तन हो रहा है। एक अवस्था का नाश दूसरी अवस्था की उत्पत्ति है। परिभाषा के अनुसार ये सब असत् हैं।क्या इनके पीछे कोई सत्य वस्तु है इसमें कोई संदेह नहीं कि वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों के लिये किसी एक अविकारी अधिष्ठान आश्रय की आवश्यकता है। शरीर मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले असंख्य अनुभवों को एक सूत्र में धारण कर एक पूर्ण जीवन का अनुभव कराने के लिये निश्चय ही एक नित्य अपरिर्तनशील सत् वस्तु का अधिष्ठान आवश्यक है।मणियों को धारण करने वाले एक सूत्र के समान हममें कुछ है जो परिवर्तनों के मध्य रहते हुये विविध अनुभवों को एक साथ बांधकर रखता है। सूक्ष्म विचार करने पर यह ज्ञान होगा कि वह कुछ अपनी स्वयं की चैतन्य स्वरूप आत्मा है। असंख्य अनुभव जो प्रकाशित हुये उनमें से कोई अनुभव आत्मा नहीं है। जीवन जो कि अनुभवों की एक धारा है योग है इस चैतन्य के कारण ही सम्भव है। बाल्यावस्था युवावस्था और वृद्धावस्था में होने वाले अनुभवों को यह चैतन्य ही प्रकाशित करता है। अनुभव आते हैं और जाते हैं। जिस चैतन्य के कारण मैंने सबको जाना जिसके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है वह चैतन्य आत्मा जन्म और नाश से रहित नित्य सत्य वस्तु है।तत्त्वदर्शी पुरुष इन दोनों सत् और असत् आत्मा और अनात्मा के तत्त्व को पहचानते हैं। इन दोनों के रहस्यमय संयोग से यह विचित्र जगत् उत्पन्न होता है।फिर वह नित्य सद्वस्तु क्या है सुनो

Swami Ramsukhdas

2.16।। व्याख्या -- 'नासतो विद्यते भावः'-- शरीर उत्पत्तिके पहले भी नहीं था मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी इसका क्षणप्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालोंमें कभी भावरूपसे नहीं रहता। अतः यह असत् है। इसी तरहसे इस संसारका भी भाव नहीं है यह भी असत् है। यह शरीर तो संसारका एक छोटासानमूना है इसलिये शरीरके परिवर्तनसे संसारमात्रके परिवर्तनका अनुभव होता है कि इस संसारका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमानमें भी अभाव हो रहा है। संसारमात्र कालरूपी अग्निमें लकड़ीकी तरह निरन्तर जल रहा है। लकड़ीके जलनेपर तो कोयला और राख बची रहती है पर संसारको कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीतिसे जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसारका अभावहीअभाव कर देती है। इसलिये कहा गया है कि असत्की सत्ता नहीं है।  'नाभावो विद्यते सतः'-- जो सत् वस्तु है उसका अभाव नहीं होता अर्थात् जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था तब भी देही था देह नष्ट होनेपर भी देही रहेगा और वर्तमानमें देहके परिवर्तनशील होनेपर भी देही उसमें ज्योंकात्यों ही रहता है। इसी रीतिसे जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था उस समय भी परमात्मतत्त्व था संसारका अभाव होनेपर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमानमें संसारके परिवर्तनशील होनेपर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्योंकात्यों ही है।  मार्मिक बात   संसारको हम एक ही बार देख सकते हैं दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी दूसरे क्षणमें वह वैसी नहीं रहती जैसे सिनेमा देखते समय परदेपर दृश्य स्थिर दीखता है पर वास्तवमें उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीनपर फिल्म तेजीसे घूमनेके कारण वह परिवर्तन इतनी तेजीसे होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं  (टिप्पणी प0 56.1) । इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तवमें संसार एक बार भी नहीं दीखता। कारण कि शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि जिन करणोंसे हम संसारको देखते हैं अनुभव करते हैं वे करण भी संसारके ही हैं। अतः वास्तवमें संसारसे ही संसार दीखता है। जो शरीरसंसारसे सर्वथा सम्बन्धरहित है उस स्वरूपसे संसार कभी दीखता ही नहीं तात्पर्य यह है कि स्वरूपमें संसारकी प्रतीति नहीं है। संसारके सम्बन्धसे ही संसारकी प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूपका संसारसे कोई सम्बन्ध है ही नहीं। दूसरी बात संसार (शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि) की सहायताके बिना चेतनस्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसारमें ही है स्वरूपमें नहीं। स्वरूपका क्रियासे कोई सम्बन्ध है ही नहीं। संसारका स्वरूप है क्रिया और पदार्थ। जब स्वरूपका न तो क्रियासे और न पदार्थसे ही कोई सम्बन्ध है तब यह सिद्ध हो गया कि शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिसहित सम्पूर्ण संसारका अभाव है। केवल परमात्मतत्त्वका ही भाव (सत्ता) है जो निर्लिप्तरूपसे सबका प्रकाशक और आधार है।  'उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः'-- इन दोनोंके अर्थात् सत्असत् देहीदेहके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंने इनका तत्त्व देखा है इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत्तत्त्व ही विद्यमान है। असत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है और सत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है अर्थात् दोनोंका तत्त्व एक सत् ही है दोनोंका तत्त्व भावरूपसे एक ही है। अतः सत् और असत् इन दोनोंके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंके द्वारा जाननेमें आनेवाला एक सत्तत्त्व ही है। असत्की जो सत्ता प्रतीत होती है वह सत्ता भी वास्तवमें सत्की ही है। सत्की सत्तासे ही असत् सत्तावान् प्रतीत होता है। इसी सत्को  'परा प्रकृति'  (गीता 7। 5)  'क्षेत्रज्ञ'  (गीता 13। 12)  'पुरुष' (गीता 13। 19) और  'अक्ष'  (गीता 15। 16) कहा गया है तथा असत्को  'अपरा प्रकृति क्षेत्र प्रकृति'  और  'क्षर'  कहा गया है। अर्जुन भी शरीरोंको लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करनेसे ये सब मर जायँगे। इसपर भगवान् कहते हैं कि क्या युद्ध न करनेसे ये नहीं मरेंगे असत् तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है। परन्तु इसमें जो सत्रूपसे है उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है। ग्यारहवें श्लोकमें आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं उन दोनोंके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते। बारहवेंतेरहवें श्लोकोंमें देहीकी नित्यताका वर्णन है उसमें 'धीर' शब्द आया है। चौदहवेंपंद्रहवें श्लोकोंमें संसारकी अनित्यताका वर्णन आया है तो उसमें भी 'धीर' शब्द आया है। ऐसे ही यहाँ (सोलहवें श्लोकमें) सत्असत्का विवेचन आया है तो इसमें 'तत्त्वदर्शी' (टिप्पणी प0 56.2)  शब्द आया है। इन श्लोकोंमें  'पण्डित धीर' और 'तत्त्वदर्शी' पद देनेका तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं समझदार होते हैं उनको शोक नहीं होता। अगर शोक होता है तो वे विवेकी नहीं हैं समझदार नहीं हैं। सम्बन्ध-- सत् और असत् क्या है इसको आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.16।। असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व,  तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.16।।नित्य आत्मेत्युक्तम् किमात्मैव नित्य आहोस्विदन्यदपि अन्यदपि तत्किमिति आह नास इति नासतः कारणस्य सतो ब्रह्मणश्चाभावा न विद्यते प्रकृतिः पुरुपश्चैव नित्यां कालश्च सत्तम इति वचनाच्छीविष्णुपुराणं। पृथग्विद्यत इत्यादरार्थः। असतः कारणत्वं च सदसद्रूपया चासों गुणमय्याऽगुणो विभुः इति भागवते असतः सदजायत इति च अव्यक्तेश्च। सम्प्रदायश्चैतत्सिद्धमित्याह उभयोरपीति। अन्तो निर्णयः।

Sri Anandgiri

।।2.16।।अधिकारिविशेषणे तितिक्षुत्वे हेत्वन्तरपरत्वेनोत्तरश्लोकमवतारयति  इतश्चेति।  इतःशब्दार्थमेव स्फुटयति  यस्मादिति।  यतः शीतादेः शोकादिहेतोरनात्मनो नास्ति वस्तुत्वं वस्तुनश्चात्मनो निर्विकारत्वेनैकरूपत्वमतो मुमुक्षोर्विशेषणं तितिक्षुत्वं युक्तमित्याह  नेत्यादिना।  कार्यस्यासत्त्वेऽपि कारणस्य सत्त्वे नात्यन्तासत्त्वासिद्धिरित्याशङ्क्य विशिनष्टि  सकारणस्येति।  नासत इत्युपादाय पुनर्नकारानुकर्षणमन्वयार्थम्। असतः शून्यस्यास्तित्वप्रसङ्गाभावादप्रसक्तप्रतिषेधप्रसक्तिरित्याशङ्क्याह  नहीति।  विमतमतात्त्विकमप्रामाणिकत्वाद्रज्जुसर्पवत् नहि धर्मिग्राहकस्य प्रत्यक्षादेस्तत्त्वावेदकं प्रामाण्यं कल्प्यते विषयस्य दुर्निरूपत्वादतोऽनिर्वाच्यं द्वैतमित्यर्थः। कथं पुनरध्यक्षादिविषयस्य शीतोष्णादिद्वैतस्य दुर्निरूपत्वेनानिर्वाच्यत्वं तत्राह  विकारो हीति।  ततश्च विमतं मिथ्या आगमापायित्वात्संप्रतिपन्नवदिति फलितमाह  विकारश्चेति।  वाचारम्भणश्रुतेर्द्वैतमिथ्यात्वेऽनुग्राहकत्वं दर्शयितुं चकारः। किञ्च कार्यं कारणाद्भिन्नमभिन्नं वेति विकल्प्याद्यं दूषयति  यथेति।  निरूप्यमाणमन्तर्बहिश्चेति शेषः। विमतं कारणान्न तत्त्वतो भिद्यते कार्यत्वाद्धटवदित्यर्थः। इतोऽपि कारणाद्भेदेन नास्ति कार्यम्आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति न्यायादित्याह  जन्मेति।  यदि कार्यं कारणादभिन्नं तदा तस्य भेदेनासत्त्वे पूर्वस्मादविषयः। तादात्म्येनावस्थानं तु न युक्तं तस्यापि कारणव्यतिरेकेणाभावात्। कार्यकारणविभागविधुरे वस्तुनि कार्यकारणपरम्पराया विभ्रमत्वादित्यभिप्रेत्याह  मृदादीति।  कार्यकारणविभागविहीनं वस्त्वेव नास्तीति मन्वानश्चोदयति  तदसत्त्व इति।  अनुवृत्तव्यावृत्तबुद्धिद्वयदर्शनादनुवृत्ते च व्यावृत्तानां कल्पितत्वादकल्पितं सर्वभेदकल्पनाधिष्ठानमकार्यकारणं वस्तु सिध्यतीति परिहरति  न सर्वत्रेति।  संप्रति सतो वस्तुत्वे प्रमाणमनुमानमुपन्यस्यति  यद्विषयेति।  यद्व्यावृत्तेष्वनुवृत्तं तत्सत् यथा सर्पधारादिष्वनुगतोरज्ज्वादेरिदमंशः। विमतं सत्यमव्यभिचारित्वात्संप्रतिपन्नवदित्यर्थः। व्यावृत्तस्य कल्पितत्वे प्रमाणमाह  यद्विषयेत्यादिना।  यद्व्यावृत्तं तन्मिथ्या यथा सर्पधारादि विमतं मिथ्या व्यभिचारित्वात्संप्रतिपन्नवदित्यर्थः इत्यनुमानद्वयमनुसृत्य सतोऽकल्पितत्वमसतश्च कल्पितत्वं स्थितमिति शेषः। ननु नेदमनुमानद्वयमुपपद्यते समस्तद्वैतवैतथ्यवादिनो विभागाभ��वादनुमानादिव्यवहारानुपपत्तेस्तत्राह  सदसदिति।  उक्ते विभागे बुद्धिद्वयाधीने स्थिते सत्यनुमानादिव्यवहारो निर्वहति प्रातिभासिकविभागेन वियोगात्परमार्थस्यैव तद्धेतुत्वे केवलव्यतिरेकाभावादित्यर्थः। कुतः सदसद्विभागस्य बुद्धिद्वयाधीनत्वं बुद्धिविभागस्यापि तत्राभावात्तत्राह  सर्वत्रेति।  व्यवहारभूमिः सप्तम्यर्थः। बुद्धिविभागस्यापि कल्पितस्यैव बोध्यविभागप्रतिभासहेतुतेति भावः। बुद्धिद्वयमनुरुध्य सदसद्विभागो सतः सामान्यरूपतया विशेषाकाङ्क्षायां सामान्यविशेषे द्वे वस्तुनी वस्तुभूते स्यातामिति चेत्तत्राह  समानाधिकरण इति।  पदयोः सामानाधिकरण्यं बुद्ध्योरुपचर्यते सोऽयमिति सामानाधिकरण्यवद्धटः सन्नित्यादि सामानाधिकरण्यमेकवस्तुनिष्ठं वस्तुभेदे घटपटयोरिव तदयोगादित्यर्थः। नीलमुत्पलमितिवद्धर्मधर्मिविषयतया सामानाधिकरण्यस्य सुवचत्वान्न वस्त्वैक्यविषयत्वमिति चेन्नेत्याह  न   नीलेति।  नहि सामान्यविशेषयोर्भेदेऽभेदे च तद्भावो भेदाभेदौ च विरुद्धावतो जातिव्यक्त्योः सामानाधिकरण्यं नीलोत्पलयोरिव न गौणं किंतु व्यावृत्तमनुवृत्ते कल्पितमित्येकनिष्ठमित्यर्थः। सामान्यविशेषयोरुक्तन्यायं गुणगुण्यादावतिदिशति  एवमिति।  तुल्यौ हि तत्रापि विकल्पदोषाविति भावः। सामानाधिकरण्यानुपपत्त्या द्वे वस्तुनी सामान्यविशेषाविति पक्षं प्रतिक्षिप्य विशेषाएव वस्तूनीति पक्षं प्रतिक्षिपति  तयोरिति।  बुद्धिव्यभिचाराद्बोध्यव्यभिचारोऽपि कथं व्यावृत्तानां विशेषाणामवस्तुत्वमित्याशङ्क्याह  तथाचेति।  विकारो हि स इत्यादाविति शेषः। न चैकं वस्तु सामान्यविशेषात्मकमेकस्य द्वैरूप्यविरोधादित्यभिप्रेत्य सामान्यमेकमेव वस्तु तद्बुद्धेरव्यभिचाराद् बोधस्यापि सतस्तथात्वादित्याह  नत्विति।  व्यभिचरतीति पूर्वेण संबन्धः। विशेषाणां व्यभिचारित्वे सतश्चाव्यभिचारित्वे फलितमुपसंहरति  तस्मादिति।  असत्त्वं कल्पितत्वम्। तच्छब्दार्थमेव स्फोरयति  व्यभिचारादिति।  सद्बुद्धिविषयस्य सतोऽकल्पितत्वे तच्छब्दोपात्तमेव हेतुमाह  अव्यभिचारादिति।  सद्बुद्धिव्यभिचारद्वारा बोध्यस्यापि व्यभिचारात्तदव्यभिचारित्वहेतोरसिद्धिरिति शङ्कते  घटे विनष्ट इति।  सद्बुद्धेर्घटमात्रबुद्धिवद्धटविषयत्वाभावान्न घटनाशे व्यभिचारोऽस्तीति परिहरति  न   पटादाविति।  सद्बुद्धेरघटविषयत्वे निरालम्बनत्वायोगाद् विषयान्तरं वक्तव्यमित्याशङ्क्याह  विशेषणेति।  सतोऽकल्पितत्वहेतोरव्यभिचारित्वस्यासिद्धिमुद्धृत्य विशेषाणां कल्पितत्वहेतोर्व्यभिचारित्वस्यासिद्धिं शङ्कते  सदिति।  यथा सद्बुद्धिर्घटे नष्टे पटादौ दृष्टत्वादव्यभिचारिणी अव्यभिचारः सतो दर्शितस्तथा घटबुद्धिरपि घटे नष्टे घटान्तरे दृष्टेत्यव्यभिचाराद्धटे व्यभिचारासिद्धौ विशेषान्तरेष्वपि कल्पितत्वहेतोर्व्यभिचारो न सिध्यतीत्यर्थः। घटबुद्धेर्घटान्तरे दृष्टत्वेऽपि पटादावदृष्टत्वेन व्यभिचारात् पटादिविशेषेष्वपि व्यभिचारित्वसिद्धिरित्युत्तरमाह  पटादाविति।  विशेषाणामेवं व्यभिचारित्वे सतोऽपि तदुपपत्तेरव्यभिचारित्वहेतुसिद्धितादवस्थ्यमिति शङ्कते  सद्बुद्धिरिति।  घटादिनाशदेशे तदुपरक्ताकारेण सत्त्वाभानेऽपि नासत्त्वं घटाद्यभावाधिष्ठानतया भानादित्याह  न विशेष्येति।  यथा सर्वगता जातिरित्यत्र खण्डमुण्डादिव्यक्त्यभावदेशे गोत्वं व्यञ्जकाभावान्न व्यज्यते न गोत्वाभावात् तथा सत्त्वमपि घटादिनाशे व्यञ्जकाभावान्न भाति न स्वरूपाभावादित्युक्तमेव प्रपञ्चयति  सदित्यादिना।  सप्रतियोगिकविशेषणत्वव्यभिचारेऽपि स्वरूपाव्यभिचाराद्युक्तं सतः सत्त्वमिति भावः। द्वयोः सतोरेव विशेषणविशेष्यत्वदर्शनाद्धटसतोरपि विशेषणविशेष्यत्वे द्वयोः सत्त्वध्रौव्याद्धटादिविकल्पितत्वानुमानं सामानाधिकरण्यधीबाधितमिति चोदयति  एकेति।  अनुभवमनुसृत्य बाधितविषयत्वमुक्तानुमानस्य निरस्यति  नेत्यादिना।  घटादेः सति कल्पितत्वानुमानस्य दोषराहित्ये फलितमुपसंहरति  तस्मादिति।  प्रथमपादव्याख्यानपरिसमाप्तावितिशब्दः। ननु नेदं व्याख्यानं भाष्यकाराभिप्रेतं सर्वद्वैतशून्यत्वविवक्षायां शास्त्रतद्भाष्यविरोधात्केनापि पुनर्दुर्विदग्धेन स्वमनीषिकयोत्प्रेक्षितमेतदिति चेत् मैवम् किमिदं द्वैतप्रपञ्चस्य शून्यत्वं किं तुच्छत्वं किं सद्विलक्षणत्वं नाद्योऽनभ्युपगमात् द्वितीयानभ्युपगमे तु तवैव शास्त्रविरोधो भाष्यविरोधश्च सर्वं हि शास्त्रं तद्भाष्यं च द्वैतस्य सत्यत्वानधिकरणत्वसाधनेनाद्वैतसत्यत्वे पर्यवसितमिति त्रैविद्यवृद्धैस्तत्र तत्र प्रतिष्ठापितं तथा च प्रक्षेपाशङ्कासंप्रदायपरिचयाभावादिति द्रष्टव्यम्। अनात्मजातस्य कल्पितत्वेनावस्तुत्वप्रतिपादनपरतया प्रथमपादं व्याख्याय द्वितीयपादमात्मनः सर्वकल्पनाधिष्ठानस्याकल्पितत्वेन वस्तुत्वप्रसाधनपरतया व्याकरोति   तथेति।  नन्वात्मनः सदात्मनो विशेषेषु विनाशिषु तदुपरक्तस्य विनाशः स्यादित्याशङ्क्य विशिष्टनाशेऽपि स्वरूपानाशस्योक्तत्वान्मैवमित्याह  सर्वत्रेति।  ननु कदाचिदसदेव पुनः सत्त्वमापद्यते प्रागसतो घटस्य जन्मना सत्त्वाभ्युपगमात् स च कदाचिदसत्त्वं प्रतिपद्यते स्थितिकाले सतो घटस्य पुनर्नाशेनासत्त्वाङ्गीकारादेवं सदसतोरव्यवस्थितत्वाविशेषादुभयोरपि हेयत्वमुपादेयत्वं वा तुल्यं स्यादिति तत्राह  एवमिति।  तुशब्दो दृष्टशब्देन संबध्यमानो दृष्टिमवधारयति। नहि प्रागसतो घटस्य सत्त्वमसत्त्वे स्थिते सत्त्वप्राप्तिविरोधादसत्त्वनिवृत्तिश्च सत्त्वप्राप्त्या चेत्प्राप्तमितरेतराश्रयत्वमन्तरेणैव सत्त्वापत्तिमसत्त्वनिवृत्तावसत्त्वमनवकाशि भवेत्। एतेन सतोऽसत्त्वापत्तिरपि प्रतिनीतेति भावः। कथं तर्हि सतोऽसत्त्वमसतश्च सत्त्वं प्रतिभातीत्याशङ्क्य तत्त्वदर्शनाभावादित्याह  तत्त्वेति।  तस्य भावस्तत्त्वं नच तच्छब्देन परामर्शयोग्यं किंचिदस्ति। प्रकृतं प्रतिनियतमित्याशङ्क्य व्याचष्टे  तदित्यादिना।  ननु सदसतोरन्यथात्वं केचित्प्रतिपद्यन्ते केचित्तु तयोरुक्तनिर्णयमनुसृत्य तथात्वमेवाभिगच्छन्ति तत्र केषां मतमेषितव्यमिति तत्राह  त्वमपीति।

Sri Vallabhacharya

।।2.16।।अस्तित्वरूपविकारं निराकुर्वन् अशोच्यतामाह नासत इति। उत्पत्यनन्तरभावित्वादस्तित्वविकारादिरिति भावः। यथा असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत तै.उ.2।7 इति श्रुतौ कथमसतः सज्जायेत छा.उ.6।2।2 इति तर्कविरोधादसद्वादो निराकृतस्तथाऽत्रापि भगवताऽसद्वादो निराक्रियते। असतः कालत्रयेऽप्यविद्यमानस्य खपुष्पादेर्भावः सत्ता न विद्यते। अथ च सतो विद्यमानस्य कालत्रयेऽपि सतोऽप्यात्मनः अभावो न। आत्मा नाऽभून्नास्ति न भविष्यतीत्यप्रतीतेः। असतो हि न सत्तेत्यतो देहादीनां सत्ताऽपि न वक्तुं शक्या विनाशित्वात्। असत्ताऽपि न वक्तुं शक्या उत्पत्तिमत्त्वात्। यतोऽसतो भावः उत्पत्तिर्नोपपद्यते इत्यतः सदसत्त्वं देहादिप्रपञ्चस्यास्य वाच्यं सदसद्भिन्नत्वे च सदसत्वानपायात्। अत एवोक्तम् छाया प्रत्याह्वयाभासा असन्तोऽप्यर्थकारिणः। एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयम् इति विनाशिस्वरूपत्वेऽपि अर्थकारित्वात्सत्वम्यथासतोदानयनाद्यभावात् इति भागवतवाक्यात्। सदसत्स्वरूपमप्रकृतिकार्यत्वादपि तथात्वमिति वयमवोचाम। इदमेवानित्यत्वं प्रागभावप्रतियोगित्वेन ध्वंसप्रतियोगित्वात्। नित्यत्वं चास्य प्रकृतिकारणभूतसच्चिदानन्दात्मकब्रह्मानन्यत्वदृशेत्यवधेयम्। यथोक्तं श्रीविष्णुपुराणे तदेतदक्षयं नित्यं जगन्मुनिवराखिलम् इत्यादिअक्षरात्मकमेतद्धि इति च। न च वेदस्तुतावसत्त्वमेवास्योपपादितमिति वाच्यम् ततो भेदेन सत्त्वनिराकरणात्। मीमांसकादिमतस्य निराकरणीयत्वेन कटाक्षितत्वमिति तत्रैवोक्तंव्यवहृतये विकल्प ईषित इत्यादि। यद्वा नासत इति। अत्रायं विचारः। सद्विविधं शुद्धमशुद्धं च शुद्धमात्मगतं अशुद्धमनात्मगतमिति। तथा च असत आत्मापेक्षया शुद्धसत्त्वरहितस्य जनस्य देहादेर्भावः शुद्धं सत्वमस्तित्वं न विद्यते किन्तु विकृतमस्थिरं च तथा सतः शुद्धास्तित्ववत आत्मनः अक्षरात्मैकाभिप्रायेणैकवचनम् तस्याभावोऽसत्वं शुद्धास्तित्वाभावो विकृतमस्तित्वं न विद्यते इति उभयोरनयोर्निर्णयस्तत्त्वदर्शिभिर्दृष्टः। एतेन वृद्धिविपरिणामावपि निराकृतौ।

Sridhara Swami

।।2.16।।ननु तथापि शीतोष्णादिकमतिदुःसहं कथं सोढव्यम् अत्यन्तं तत्सहने च कदाचिद्देहनाशस्यापि संभवादित्याशङ्क्य तत्त्वविचारतः सर्वं सोढुं शक्यमित्याशयेनाह  नेति।  असतः अनात्मधर्मत्वादविद्यमानस्य शीतोष्णादेरात्मनि भावः सत्ता न विद्यते। तथा सतः सत्स्वभावस्यात्मनोऽभावो विनाशो न विद्यते एवमुभयोः सदसतोरन्तो निर्णयो दृष्टः। कैः तत्त्वदर्शिभिर्वस्तुयाथात्म्यविद्भिः। एवंभूतविवेकेन सहस्वेत्यर्थः।

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