Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 8 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् | स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ||१८-८||
Transliteration
duḥkhamityeva yatkarma kāyakleśabhayāttyajet . sa kṛtvā rājasaṃ tyāgaṃ naiva tyāgaphalaṃ labhet ||18-8||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
18.8 He who abandons action on account of the fear of bodily trouble (because it is painful), does not obtain the merit of renunciation by doing such Rajasic renunciation.
।।18.8।। जो मनुष्य, कर्म को दु:ख समझकर शारीरिक कष्ट के भय से त्याग देता है, वह पुरुष उस राजसिक त्याग को करके कदापि त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Avoiding challenging projects or career changes solely due to the perceived effort or discomfort involved, rather than a strategic decision. This Rajasic abandonment prevents deeper learning and long-term career growth, as valuable experience often comes from overcoming difficulties.
🧘 For Stress & Anxiety
Giving up on beneficial but difficult mental health practices (e.g., therapy, mindfulness, challenging self-reflection, lifestyle changes) because they initially cause discomfort or require consistent effort. True well-being and resilience often require facing temporary discomfort and pushing through perceived difficulty.
❤️ In Relationships
Walking away from relationships or difficult conversations at the first sign of trouble or discomfort, rather than working through challenges with patience and understanding. This Rajasic avoidance prevents deeper connection, mutual growth, and the development of strong, lasting bonds that are forged through shared effort and resolution.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True growth and fulfillment come from facing challenges with determination, not from abandoning tasks solely due to discomfort or fear of effort.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
18.8 दुःखम् (it is) painful? इति thus? एव even? यत् which? कर्म action? कायक्लेशभयात् from fear of bodily trouble? त्यजेत् abandons? सः he? कृत्वा performing? राजसम् Rajasic? त्यागम् abandonment? न not? एव even? त्यागफलम् the fruit of abandonment? लभेत् obtains.Commentary Phalam Fruit or reward Moksha or emancipation which is the reward of renunciation of all actions accompanied with wisdom.Determination and persistence are reired for the performance of religious duties and actions. One may begin action but may relinish it before it is completed on account of some difficulties or physical suffering. What then is Sattvic renunciation The Lord says --
Shri Purohit Swami
18.8 To avoid an action through fear of physical suffering, because it is likely to be painful, is to act from passion, and the benefit of renunciation will not follow.
Dr. S. Sankaranarayan
18.8. He who would, out of fear of bodily exertion, relinish an action, just because it is painful-that person, having [thus] made relinishment, an act of the Rajas (Strand), would not at all gain the fruit of [that] relinishment.
Swami Adidevananda
18.8 He who renounces acts as painful from fear of bodily suffering, performs a Rajasika abandonment; he does not gain the fruit of abandonment.
Swami Gambirananda
18.8 Whatever action one may relinish merely as being painful, from fear of physical suffering, he, having resorted to renunciation based on rajas, will surely not acire the fruits of renunciation.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।18.8।। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य कर्म को दुखदायक समझकर कायाक्लेश के भय से त्याग दे? तो उसका त्याग राजस कहा जायेगा। इसका अभिप्राय यह है कि यदि कर्तव्य कर्म दुखदायक और थकाने वाले न हों? तो रजोगुणी पुरुष उन्हें करने में तत्पर रहेगा? परन्तु कर्मशील पुरुष होकर जो अपनी व्यक्तिगत सुखसुविधाओं का त्याग नहीं कर सकता? उसे श्रेष्ठ और साहसी पुरुष कदापि नहीं कहा जा सकता। ऐसे कर्मों का कोई विशेष पुरस्कार नहीं मिलता। भगवान् तो कहते हैं? वह अपने त्याग का कोई फल प्राप्त नहीं करता है।वस्तुत अपने कर्तव्यों का पालन ही महानतम त्याग है? और विशेषत तब वह और भी अधिक श्रेष्ठ बन जाता है? जब मनुष्य को अपनी शारीरिक सुख सुविधाओं का भी त्याग करना पड़ता है। स्वयं अर्जुन भी युद्ध करने में संकोच करके अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा था। इस प्रकार? उसका त्याग राजस श्रेणी का ही कहा जा सकता था।वास्तविक त्याग हमें सदैव आत्माभिव्यक्ति के विशालतर क्षेत्र में पहुँचाता है? जहाँ हम श्रेष्ठतर दिव्य आनन्द का अनुभव कर सकते हैं। त्याग के द्वारा ही एक कली खिलकर फूल बन जाती है? और वह फूल अपनी कोमल पंखुड़ियों और मनमोहक सुगन्ध का त्याग कर ही फल के सम्पन्न पद को प्राप्त होता हैं।
Swami Ramsukhdas
।।18.8।। व्याख्या -- दुःखमित्येव यत्कर्म -- यज्ञ? दान आदि शास्त्रीय नियत कर्मोंको करनेमें केवल दुःख ही भोगना पड़ता है? और उनमें है ही क्या क्योंकि उन कर्मोंको करनेके लिये अनेक नियमोंमें बँधना पड़ता है और खर्चा भी करना पड़ता है -- इस प्रकार राजस पुरुषको उन कर्मोंमें केवल दुःखहीदुःख दीखता है। दुःख दीखनेका कारण यह है कि उनका परलोकपर? शास्त्रोंपर? शास्त्रविहित कर्मोंपर और उन कर्मोंके परिणामपर श्रद्धाविश्वास नहीं होता।,कायक्लेशभयात्त्यजेत् -- राजस मनुष्यको शास्त्रमर्यादा और लोकमर्यादाके अनुसार चलनेसे शरीरमें क्लेश अर्थात् परिश्रमका अनुभव होता है (टिप्पणी प0 876)। राजस मनुष्यको अपने वर्ण? आश्रम आदिके धर्मका पालन करनेमें और मातापिता? गुरु? मालिक आदिकी आज्ञाका पालन करनेमें पराधीनता और दुःखका अनुभव होता है तथा उनकी आज्ञा भङ्ग करके जैसी मरजी आये? वैसा करनेमें स्वाधीनता और सुखका अनुभव होता है। राजस मनुष्योंके विचार यह होते हैं कि गृहस्थमें आराम नहीं मिलता? स्त्रीपुत्र आदि हमारे अनुकूल नहीं हैं अथवा सब कुटुम्बी मर गये हैं? घरमें काम करनेके लिये कोई रहा नहीं? खुदको तकलीफ उठानी पड़ती है? इसलिये साधु बन जायँ तो आरामसे रहेंगे? रोटी? कपड़ा आदि सब चीजें मुफ्तमें मिल जायँगी? परिश्रम नहीं करना पड़ेगा कोई ऐसी सरकारी नौकरी मिल जाय? जिससे काम कम करना पड़े और रुपये आरामसे मिलते रहें? हम काम न करें तो भी उस नौकरीसे हमें कोई छुड़ा न सके? हम नौकरी छोड़ देंगे तो हमें पेंशन मिलती रहेगी? इत्यादि। ऐसे विचारोंके कारण उन्हें घरका कामधन्धा करना अच्छा नहीं लगता और वे उसका त्याग कर देते हैं।यहाँ शङ्का होती है कि ज्ञानप्राप्तिके साधनोंमें दुःख और दोषको बारबार देखनेकी बात कही है (गीता 13। 8) और यहाँ कर्मोंमें दुःख देखकर उनका त्याग करनेको राजस त्याग कहा है अर्थात् कर्मोंके त्यागका निषेध किया है -- इन दोनों बातोंमें परस्पर विरोध प्रतीत होता है। इसका समाधान है कि वास्तवमें इन दोनोंमें विरोध नहीं है? प्रत्युत इन दोनोंका विषय अलगअलग है। वहाँ (गीता 13। 8 में) भोगोंमें दुःख और दोषको देखनेकी बात है और यहाँ नियत कर्तव्यकर्मोंमें दुःखको देखनेकी बात है। इसलिये वहाँ भोगोंका त्याग करनेका विषय है और यहाँ कर्तव्यकर्मोंका त्याग करनेका विषय है। भोगोंका तो त्याग करना चाहिये? पर कर्तव्यकर्मोंका त्याग कभी नहीं करना चाहिये। कारण कि जिन भोगोंमें सुखबुद्धि और गुणबुद्धि हो रही है? उन भोगोंमें बारबार दुःख और दोषको देखनेसे भोगोंसे वैराग्य होगा? जिससे परमात्मतत्त्वकी प्राप्त होगी परन्तु नियत कर्तव्यकर्मोंमें दुःख देखकर उन कर्मोंका त्याग करनेसे सदा पराधीनता और दुःख भोगना पड़ेगा -- यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः (गीता 3। 9)। तात्पर्य यह हुआ कि भोगोंमें दुःख और दोष देखनेसे भोगासक्ति छूटेगी? जिससे कल्याण होगा और कर्तव्यमें दुःख देखनेसे कर्तव्य छूटेगा? जिससे पतन होगा।कर्तव्यकर्मोंका त्याग करनेमें तो राजस और तामस -- ये दो भेद होते हैं? पर परिणाम(आलस्य? प्रमाद? अतिनिद्रा आदि) में दोनों एक हो जाते हैं अर्थात् परिणाममें दोनों ही तामस हो जाते हैं? जिसका फल अधोगति होता है -- अधो गच्छन्ति तामसाः (गीता 14। 18)।एक शङ्का यह भी हो सकती है कि सत्सङ्ग? भगवत्कथा? भक्तचरित्र सुननेसे किसीको वैराग्य हो जाय तो वह प्रभुको पानेके लिये आवश्यक कर्तव्यकर्मोंको भी छोड़ देता है और केवल भगवान्के भजनमें लग जाता है। इसलिये उसका वह कर्तव्यकर्मोंका त्याग राजस कहा जाना चाहिये ऐसी बात नहीं है। सांसारिक कर्मोंको छोड़कर जो भजनमें लग जाता है? उसका त्याग राजस या तामस नहीं हो सकता। कारण कि भगवान्को प्राप्त करना मनुष्यजन्मका ध्येय है अतः उस ध्येयकी सिद्धिके लिये कर्तव्यकर्मोंका त्याग करना वास्तवमें कर्तव्यका त्याग करना नहीं है? प्रत्युत असली कर्तव्यको करना है। उस असली कर्तव्यको करते हुए आलस्य? प्रमाद आदि दोष नहीं आ सकते क्योंकि उ���की रुचि भगवान्में रहती है। परन्तु राजस और तामस त्याग करनेवालोंमें आलस्य? प्रमाद आदि दोष आयेंगे ही क्योंकि उसकी रुचि भोगोंमें रहती है।स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् -- त्यागका फल शान्ति है। राजस मनुष्य त्याग करके भी त्यागके फल(शान्ति) को नहीं पाता। कारण कि उसने जो त्याग किया है? वह अपने सुखआरामके लिये ही किया है। ऐसा त्याग तो पशुपक्षी आदि भी करते हैं। अपने सुखआरामके लिये शुभकर्मोंका त्याग करनेसे राजस मनुष्यको शान्ति तो नहीं मिलती? पर शुभकर्मोंके त्यागका फल दण्डरूपसे जरूर भोगना पड़ता है।
Swami Tejomayananda
।।18.8।। जो मनुष्य, कर्म को दु:ख समझकर शारीरिक कष्ट के भय से त्याग देता है, वह पुरुष उस राजसिक त्याग को करके कदापि त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।18.8।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Anandgiri
।।18.8।।इतश्च नित्यकर्मत्यागो नाज्ञस्य संभवतीत्याह -- किञ्चेति। ननु मोहं विनैव दुःखात्मकं कर्म कायक्लेशभयात्त्यजति। करणानि हि कार्यं जनयन्ति श्राम्यन्ति च? तथाच न तत्त्यागस्तामसो युक्तस्तत्राह --,दुःखमित्येवेति। यत्कर्म दुःखात्मकमशक्यसाध्यमित्येवालोच्य ततो निवर्तते देहस्येन्द्रियाणां च क्लेशात्मनो भयात्त्यजति स तत्त्यक्त्वा रजोनिमित्तं त्यागं कृत्वापि न तत्फलं मोक्षं लभते? किंतु कृतेनैव राजसेन त्यागेन तदनुरूपं नरकं प्रतिपद्यत इत्याह -- दुःखमित्येवेत्यादिना।
Sri Vallabhacharya
।।18.8।।प्रसङ्गादेव राजसमप्याह -- दुःखमिति। नियतस्यैव यस्य परम्परया मोक्षसाधनभूतस्यापि दुःखात्मकद्रव्यार्जनसाध्ययज्ञात्मकतया बह्वायासरूपतया च त्यागो राजसः रजोहेतुकत्वाद्राजसं त्यागं कृत्वा तत्फलं ज्ञाननिष्ठालक्षणं न लभेत सत्त्वसञ्जातत्वाज्ज्ञानस्येत्यर्थः।
Sridhara Swami
।।18.8।।राजसं त्यागमाह -- दुःखमिति। अकर्त्रात्मबोधं विना केवलं दुःखमित्येवं ज्ञात्वा शरीरायासभयान्नित्यं कर्म त्यजेदिति यत्तादृशस्त्यागो राजसः? दुःखस्य राजसत्वात्। अतस्तं राजसं त्यागं कृत्वा राजसः पुरुषस्त्यागस्य फलं ज्ञाननिष्ठालक्षणं नैव लभत इत्यर्थः।