Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 71 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः | सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ||१८-७१||
Transliteration
śraddhāvānanasūyaśca śṛṇuyādapi yo naraḥ . so.api muktaḥ śubhā.Nllokānprāpnuyātpuṇyakarmaṇām ||18-71||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
18.71 Also the man who hears this, full of faith and free from malice, he, too, liberated, shall attain to the happy worlds of those of righteous deeds.
।।18.71।। तथा जो श्रद्धावान् और अनसुयु (दोषदृष्टि रहित) पुरुष इसका श्रवणमात्र भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ (श्रेष्ठ) लोकों को प्राप्त कर लेगा।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach work and learning with genuine belief in the process and your capacity to grow, free from envy of colleagues' successes or cynical judgment of new ideas. Actively listen to feedback and new information without prejudice, fostering an environment of open-minded development.
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivate faith in your ability to navigate challenges or in a greater purpose, letting go of the stress that arises from constant comparison or resentment towards circumstances. A non-malicious attitude helps you release internal criticism and external blame, promoting mental peace and resilience.
❤️ In Relationships
Engage with others with a foundation of trust and good faith, listening to their perspectives and experiences without immediate judgment or underlying ill-will. Freedom from malice strengthens bonds, encourages empathy, and allows for constructive communication, leading to healthier, more supportive connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“A receptive mind, imbued with faith and free from malice, unlocks profound wisdom and inner liberation, even in the simple act of hearing sacred teachings.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
18.71 श्रद्धावान् full of faith? अनसूयः free from malice? च and? श्रृणुयात् may hear? अपि also? यः who? नरः man? सः he? अपि also? मुक्तः liberated? शुभान् happy? लोकान् worlds? प्राप्नुयात् shall attain? पुण्यकर्मणाम् of those of righteous deeds.Commentary Liberated from sin.Punyakarmanam Of those who have done Agnihotra and such other sacrifices.He too Much more so who understands the teachings of the Gita? lives in its spirit and who practises the most valuable spiritual instructions contained in it.
Shri Purohit Swami
18.71 Yea, he who listens to it with faith and without doubt, even he, freed from evil, shalt rise to the worlds which the virtuous attain through righteous deeds.
Dr. S. Sankaranarayan
18.71. A man who would at least hear to [this] with faith and without indignation-he too, freed [from sins], will attain the auspicious worlds of men of meritorius acts.
Swami Adidevananda
18.71 And the man who listens to it with faith and without cavilling, he too shall be released, and shall reach the auspicious realms of those who have performed virtuous deeds.
Swami Gambirananda
18.71 Any man who, being reverential and free from cavilling, might even hear (this), he too, becoming free, shall attain the blessed worlds of those who perform virtuous deeds.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।18.71।। गीता का विषय दूर से दर्शन करके केवल प्रशंसा करने योग्य नहीं है। गीतोपदिष्ट ज्ञान से पूर्णतया लाभान्वित होने के लिए साधक का व्यक्तित्व सभी स्तरों पर सुगठित होना आवश्यक है। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ दो गुणों का विशेष रूप से उल्लेख करते हैं जिनसे सम्पन्न श्रोता को श्रवण का सर्वाधिक आनन्द प्राप्त होगा।श्रद्धावान् श्रद्धा का अर्थ अन्धविश्वास नहीं है। बुद्धि की वह क्षमता श्रद्धा है? जिसके द्वारा मनुष्य (1) शास्त्रीय शब्दों के सूक्ष्म आशय को समझ पाता है? (2) समझकर उनको धारण कर सकता है (3) उन्हें पूर्णतया आत्मसात् करने में समर्थ होता है और? (4) इस प्रकार? प्राप्त ज्ञान के अनुसार अपने जीवन को निर्मित कर सकता है। स्वाभाविक है कि श्रद्धावान् पुरुष गुरु के उपदेश से सर्वाधिक लाभान्वित होता है। अज्ञात वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उचित प्रमाण की आवश्यकता होती है और उस प्रमाण के सत्यत्व के विषय में विश्वास की भी। उस विश्वास के बिना ज्ञान की ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। प्रमाण में यह विश्वास श्रद्धा कहलाता है।अनसुयु जैसा कि अनेक स्थानों पर कहा जा चुका है? अनसुयु का अर्थ है वह पुरुष जो गुणों में दोष नहीं देखता है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि हिन्दू धर्म में दर्शनशास्त्र के अध्येताओं को समीक्षा या समालोचना करने की स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की गई है। इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि शास्त्र के श्रवण या अध्ययन के पूर्व ही हमें उसके विषय में पूर्वाग्रह नहीं बना लेने चाहिए। पूर्वाग्रहों से दूषित बुद्धि सत्य का यथार्थ ज्ञान कदापि नहीं प्राप्त कर सकती।उक्त दोनों गुणों से सम्पन्न श्रोता को सर्वाधिक लाभ होगा। वह पापों से मुक्त होकर पुण्यकर्मी लोगों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करता है। इसका अर्थ यह है कि ऐसा श्रोता पुरुष अपनी वासनाओं से मुक्त होकर आंतरिक शांति और आनन्द का अनुभव करता है। आनन्द का साम्राज्य हमारे हृदय में ही स्थित है। उसकी प्राप्ति के लिए सुदूर स्थित कहीं स्वर्ग में जाने की आवश्यकता नहीं है। अभी और यहीं आनन्द की प्राप्ति होती है यह वेदान्त का सत्य वचन है।आचार्य का यह कर्तव्य है कि वह यह देखें कि शिष्य ने यथावत् ज्ञान ग्रहण किया है अथवा नहीं। यदि उपदिष्ट साधन मार्ग शिष्य की उन्नति के लिए अनुकूल या पर्याप्त नहीं है? तो आचार्य को ऐसे शिष्य की सहायता करनी चाहिए जिससे कि वह शिष्य अपना सन्तुलन प्राप्त कर सके।इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं
Swami Ramsukhdas
।।18.71।।व्याख्या -- श्रद्धावाननसूयश्च৷৷. पुण्यकर्मणाम् -- गीताकी बातोंको जैसा सुन ले? उसको प्रत्यक्षसे भी बढ़कर पूज्यभावसहित वैसाकावैसा माननेवालेका नाम श्रद्धावान् है? और उन बातोंमें कहीं भी? किसी भी विषयमें किञ्चिन्मात्र भी कमी न देखनेवालेका नाम अनसूयः है। ऐसा श्रद्धावान् और दोषदृष्टिसे रहित मनुष्य गीताको केवल सुन भी ले? तो वह भी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पुण्यकारियोंके शुभ लोकोंको प्राप्त कर लेता है।यहाँ दो बार अपि पद देनेका तात्पर्य है कि जो गीताका प्रचार करता है? अध्ययन करता है? उसके लिये तो कहना ही क्या है पर जो सुन भी लेता है? वह मनुष्य भी पापोंसे छूटकर शुभ लोकोंको प्राप्त हो जाता है।मनुष्यकी वाणीमें प्रायः भ्रम? प्रमाद? लिप्सा और कारणापाटव -- ये चार दोष होते हैं (टिप्पणी प0 992.2)। अतः मनुष्यकी वाणी सर्वथा निर्दोष नहीं हो सकती। परन्तु भगवान्की दिव्य वाणीमें इन चारोंमेंसे कोई भी दोष नहीं रह सकता क्योंकि भगवान् निर्दोषताकी परावधि हैं अर्थात् भगवान्से बढ़कर निर्दोषता किसीमें,कभी होती ही नहीं। इसलिये भगवान्के वचनोंमें किसी प्रकारके संशयकी सम्भावना ही नहीं है। अतः गीता सुननेवालेको कोई विषय समझमें कम आये? विचारद्वारा कोई बात न जँचे? तो समझना चाहिये कि इस विषयको समझनेमें मेरी बुद्धिकी कमी है? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ -- इस भावको दृढ़तासे धारण करनेपर असूयादोष मिट जाता है। भगवान्में अत्यधिक श्रद्धाविश्वासपूर्वक भक्ति होनेपर भी असूयादोष नहीं रहता।चैतन्य महाप्रभुका एक भक्त था। वह रोज गीताका पाठ करते हुए मस्त हो जाता था? गद्गद हो जाता था और रोने लगता था। वह शुद्ध पाठ नहीं करता था। उसके पाठमें अशुद्धियाँ आती थीं। उसके विषयमें किसीने चैतन्य महाप्रभुसे शिकायत कर दी किदेखिये प्रभु वह बड़ा पाखण्ड करता है पाठ तो शुद्ध करता नहीं और रोता रहता है। चैतन्य महाप्रभुने उसको अपने पास बुलाकर पूछा -- तुम गीताका पाठ करते हो? तो क्या उसका अर्थ जानते हो उसने कहा -- नहीं प्रभु फिर पूछा -- तो फिर तुम रोते क्यों हो उसने कहा -- मैं जब अर्जुन उवाच पढ़ता हूँ तो अर्जुन भगवान्से पूछ रहे हैं -- ऐसा मेरेको प्रत्यक्ष दीखता है और जब मैं श्रीभगवानुवाच पढ़ता हूँ? तो भगवान् अर्जुनके प्रश्नोंका उत्तर दे रहे हैं -- ऐसा मेरेको प्रत्यक्ष,दीखता है। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका आपसमें संवाद हो रहा है -- ऐसा प्रत्यक्ष दीखता है परन्तु अर्जुन क्या पूछते हैं और भगवान् क्या उत्तर देते हैं? यह मेरी समझमें नहीं आता। मैं तो उन दोनोंके दर्शन करकरके राजी होता हूँ। उसकी ऐसी श्रद्धाभक्ति देखकर चैतन्य महाप्रभु बहुत प्रसन्न हुए। इस प्रकारकी श्रद्धाभक्तिवाला मनुष्य गीताको केवल सुन भी ले? तो उसकी मुक्तिमें कोई सन्देह नहीं रहता। वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पुण्यकारियोंके शुभ लोकोंको प्राप्त हो जाता है।यहाँ पुण्यकर्मणाम् पदसे सकामभावपूर्वक यज्ञ? अनुष्ठान आदि पुण्यकर्म करनेवालोंको नहीं लेना चाहिये क्योंकि भगवान्ने उनको ऊँचा नहीं माना है? प्रत्युत उनके बारेमें कहा है कि वे बारबार आवागमनको प्राप्त होते हैं (गीता 9। 21)। यहाँ उन पुण्यकर्मा भक्तोंको लेना चाहिये? जिनको भगवान्का प्रेमदर्शन आदिकी प्राप्ति होती है। ऐसे पुण्यकर्मा भक्तोंको अपनेअपने इष्टके अनुसार वैकुण्ठ? साकेत? गोलोक? कैलास आदि जिन दिव्य लोकोंकी प्राप्ति होती है? असूयादोषरहित श्रद्धावान् पुरुषको गीता सुननेमात्रसे उन लोकोंकी प्राप्ति हो जाती है। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें गीता सुननेका माहात्म्य बताकर अब अर्जुनकी क्या स्थिति है? क्या दशा है? आदि सब कुछ जानते हुए भी भगवान् भगवद्गीताश्रवणके माहात्म्यको सबके सामने प्रकट करनेके उद्देश्यसे आगेके श्लोकमें अर्जुनसे प्रश्न करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।18.71।। तथा जो श्रद्धावान् और अनसुयु (दोषदृष्टि रहित) पुरुष इसका श्रवणमात्र भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ (श्रेष्ठ) लोकों को प्राप्त कर लेगा।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।18.71।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Anandgiri
।।18.71।।प्रवक्तुरध्येतुश्च फलमुक्त्वा श्रोतुरिदानीं फलं कथयति -- अथेति।
Sri Vallabhacharya
।।18.71।।श्रद्धावानिति। स्पष्टार्थः।
Sridhara Swami
।।18.71।।अन्यस्य जपतो योऽन्यः कश्चिच्छृणोति तस्यापि फलमाह -- श्रद्धावानिति। यो नरः श्रद्धायुक्तः केवलं श्रृणुयादपि श्रद्धावानपि कश्चित्किमर्थमुच्चर्जपति अबद्धं जपतीति वा दोषदृष्टिं करोति तद्व्यावृत्त्यर्थमाह। अनसूयश्च असूयारहितो यः श्रृणुयात्सोऽपि सर्वैः पापैर्मुक्तः सन् अश्वमेधादिपुण्यकृताँल्लोकान्प्राप्नुयात्।