Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 69 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Propagation of Wisdom

Sanskrit Shloka (Original)

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः | भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ||१८-६९||

Transliteration

na ca tasmānmanuṣyeṣu kaścinme priyakṛttamaḥ . bhavitā na ca me tasmādanyaḥ priyataro bhuvi ||18-69||

Word-by-Word Meaning

not
and
तस्मात्than he
मनुष्येषुamong men
कश्चित्any
मेof Me
प्रियकृत्तमःone who does dearer service
भविताshall be
not
and
मेof Me
तस्मात्than he
अन्यःanother
प्रियतरःdearer

📖 Translation

English

18.69 Nor is there any among men who does dearer service to Me, nor shall there be another on earth dearer to Me than he.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.69।। न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा।।

How to Apply This Verse in Modern Life

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When to Chant/Recall This Verse

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Key Message in One Line

The greatest act of devotion and service is to selflessly share profound wisdom with others, earning immense divine favor and profound personal fulfillment.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

18.69 न not? च and? तस्मात् than he? मनुष्येषु among men? कश्चित् any? मे of Me? प्रियकृत्तमः one who does dearer service? भविता shall be? न not? च and? मे of Me? तस्मात् than he? अन्यः another? प्रियतरः dearer? भुवि on the earth.Commentary He who hands down this Gita to My devotees does immense service to Me. He is very dear to Me. There is none in the present generation who des dearer service to Me? nor shall there be in future also in this world.Bhuvi On earth in this world.

Shri Purohit Swami

18.69 Nor is there among men any who can perform a service dearer to Me than this, or any man on earth more beloved by Me than he.

Dr. S. Sankaranarayan

18.69. And, excepting him there would be none among men who is the best performer of what is dear to Me; and other than him there shall be none else who is dearer to Me on earth.

Swami Adidevananda

18.69 Not among men is there any one who does dearer service to Me than he. Nor shall there be another on earth dearer to Me than he.

Swami Gambirananda

18.69 And as compared with him, none else among human beings is the best accomplisher of what is dear to Me. Moreover, nor will there be anyone else in the world dearer to Me than he.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।18.69।। यह भी आचार्य की स्तुति है। यहाँ भगवान् बताते हैं कि किस प्रकार ऐसा श्रेष्ठ आचार्य भगवत्स्वरूप को प्राप्त होता है। गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण विशेष बल देकर कहते हैं? उसके तुल्य इस जगत् में मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला और कोई नहीं है। केवल इतना ही नहीं? अपितु भविष्य में भी? उससे अधिक मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर कोई न होगा।सम्पूर्ण गीता? में अनेक स्थानों पर इस मनोवैज्ञानिक सत्य को दोहराया गया है कि ध्येयवस्तु से भिन्न समस्त वृत्तियों का परित्याग करके यदि कोई साधक अपने मन को ध्येयवस्तु में एकाग्र या समाहित कर लेता है? तो वह स्वयं ध्येयस्वरूप बनकर अनन्त आत्मा का अनुभव कर सकता है। जो साधक गीता के अध्ययन और चिन्तनमनन में ही अपने समय का सदुपयोग करता है तथा उसी का प्रचार प्रसार करता है? तो उसके मन में उस ज्ञान के प्रति अत्यधिक आदर और सम्मान जागृत होता है। फलत? वह उसके सारतत्त्व से तादात्म्य करके परम शान्ति का अनुभव करता है? जो परमात्मा का स्वरूप ही है। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं? ऐसे पुरुष से बढ़कर मेरा कोई प्रिय नहीं है क्योंकि वह ईश्वर के स्वरूप के ज्ञान का प्रचार करता है। इससे अधिक मेरा अतिशय प्रिय कार्य कोई नहीं है।इस सन्दर्भ में? यह ध्यान रहे कि गीताज्ञान के प्रचार के लिए हमें स्वयं उसमें पूर्ण प्रवीणता प्राप्त करने की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। जो कुछ ज्ञान हम ग्रहण कर पाते हैं? उसका तत्काल ही प्रेमपूर्वक प्रचार ऐसे लोगों में करना चाहिए? जो इस विषय से सर्वथा अनभिज्ञ हैं। प्रचार के साथ ही? हमें इस ज्ञान के अनुसार ही जीवन यापन करना चाहिए ऐसा पुरुष मुझे अतिशय प्रिय है। यह भगवान् श्रीकृष्ण का आश्वासन है।न केवल उपदेशक? वरन् इस ज्ञान का निष्ठावान् जिज्ञासु विद्यार्थी भी अभिनन्दन का पात्र है। भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।18.69।। व्याख्या --   न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः -- जो अपनेमें लौकिकपारलौकिक प्राकृत पदार्थोंकी महत्ता? लिप्सा? आवश्यकता रखता है और रखना चाहता है? वह पराभक्ति ( 18। 68) के अन्तर्गत नहीं आ सकता। पराभक्तिके अन्तर्गत नहीं आ सकता है? जिसका प्राकृत पदार्थोंको प्राप्त करनेका किञ्चिन्मात्र भी उद्देश्य नहीं है और जो भगवत्प्राप्ति? भगवद्दर्शन? भगवत्प्रेम आदि पारमार्थिक उद्देश्य रखकर गीताके अनुसार ही अपना जीवन बनाना चाहता है। ऐसा पुरुष ही भगवद्गीताके प्रचारका अधिकारी होता है। यदि उसमें कभी मानबड़ाई आदिकी इच्छा आ भी जाय तो वह टिकेगी नहीं क्योंकि मानबड़ाई आदि प्राप्त करना उसका उद्देश्य नहीं है।भगवान्के भक्तोंमें गीताका प्रचार करनेवाले उपर्युक्त अधिकारी मनुष्यके लिये ही तस्मात् पद देकर भगवान् कहते हैं कि मनुष्योंमें उसके समान मेरा प्रियकृत्तम अर्थात् अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला कोई भी नहीं है क्योंकि गीताप्रचारके समान दूसरा मेरा कोई प्रिय कार्य है ही नहीं।प्रियकृत्तमः पदमें जो कृत् पद आया है? उसका तात्पर्य है कि गीताका प्रचार करनेमें उसका अपना कोई स्वार्थ नहीं है? मानबड़ाई? आदरसत्कार आदिकी कोई कामना नहीं है केवल भगवत्प्रीत्यर्थ गीताके भावोंका प्रचार करता है। इसलिये वह प्रियकृत्तम -- भगवान्का अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला है।मनुष्योंमें प्रियकृत्तम कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्का अत्यन्त प्यारा बननेके लिये मनुष्योंको ही अधिकार है। संसारमें कामनाओंकी पूर्ति कर लेना कोई महत्त्वकी? बहादुरीकी बात नहीं है। देवता? पशुपक्षी? नारकीय जीव? कीटपतङ्ग? वृक्षलता आदि सभी योनियोंमें कामनाकी पूर्ति करनेका अवसर मिलता है परन्तु कामनाका त्याग करके परमात्माकी प्राप्ति करनेका अवसर तो केवल मनुष्ययोनिमें ही मिलता है। इस मनुष्ययोनिको प्राप्त करके परमात्माकी प्राप्ति करनेमें? परमात्माका अत्यन्त प्यारा बननेमें ही मनुष्यजन्मकी सफलता है।भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि -- जिसमें अपनी मानबड़ाईकी वासना है? कुछ स्वार्थभाव भी है और जिसका अपना उद्धार करनेका तथा गीताके अनुसार जीवन बनानेका उद्देश्य वैसा (प्रियकृत्तमके समान) नहीं बना है परन्तु जिसके हृदयमें गीताका विशेष आदर है और गीताका पाठ करवाना? गीता कण्ठस्थ,करवाना? गीता मुद्रित करवाकर उसकी सस्ती बिक्री करना आदि किसी तरहसे गीताका प्रचार करता है और लोगोंको गीतामें लगाता है? उसके समान पृथ्वीमण्डलपर मेरा दूसरा कोई प्रियतर नहीं होगा।अपने धर्म? सम्प्रदाय? सिद्धान्त आदिका प्रचार करनेवाला व्यक्ति भगवान्का प्रिय तो हो सकता है? पर प्रियतर नहीं होगा। प्रियतर तो किसी तरहसे गीताका प्रचार करनेवाला ही होगा।भगवद्गीतामें अपना उद्धार करनेकी ऐसीऐसी विलक्षण? सुगम और सरल युक्तियाँ बतायी गयी हैं? जिनको मनुष्यमात्र अपने आचरणोंमें ला सकता है। तात्पर्य यह है कि जो गीताका आदर करता है? ऐसा मनुष्य हिंदू? मुसलमान? ईसाई? यहूदी? पारसी? बौद्ध आदि किसी भी धर्मको माननेवाला क्यों न हो किसी भी देश? वेश? वर्ण? आश्रम? सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो अपनी रुचिके अनुसार किसी भी शैली? उपाय? सिद्धान्त? साधनको माननेवाला क्यों न हो? वह यदि अपना किसी तरहका आग्रह न रखकर? पक्षपातविषमताको छोड़कर? किसी भी प्राणीको दुःख पहुँचानेवाली चेष्टाका त्याग करके? मनमें किसी भी लौकिकपारलौकिक उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुकी कामना न रखकर? अपना सम्प्रदाय? अपनी टोनी बनानेका उद्देश्य न रखकर? केवल अपन�� कल्याणका उद्देश्य रखकर गीताके अनुसार चलता है (अकर्तव्यका सर्वथा त्याग करके प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्यका लोकहितार्थ? निष्कामभावपूर्वक पालन करता है)? तो वह भी जीविकासम्बन्धी और खानापीना? सोनाजागना आदि शरीरसम्बन्धी सब काम करते हुए परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है? महान् आनन्द? महान् सुखको (गीता 6। 22) प्राप्त कर सकता है।गीता वेश? आश्रम? अवस्था? क्रिया आदिका परिवर्तन करनेके लिये नहीं कहती? प्रत्युत परिमार्जन करनेके लिये कहती है अर्थात् केवल अपने भाव और उद्देश्यको शुद्ध बनानेके लिये कहती है। गीताकी ऐसी युक्तियोंको जो भगवान्की तरफ चलनेवाले भक्तोंमें कहेगा? उससे उन भक्तोंको पारमार्थिक मार्गमें बढ़नेकी युक्तियाँ मिलेंगी? शंकाओंका समाधान होगा? साधनकी उलझनें सुलझेंगी? पारमार्थिक मार्गकी बाधाएँ दूर होंगी? जिससे वे उत्साहसे सुगमतापूर्वक बहुत ही जल्दी अपने लक्ष्यको प्राप्त कर सकेंगे। इसलिये वह भगवान्को सबसे अधिक प्यारा होगा क्योंकि भगवान् जीवके उद्धारसे बड़े राजी होते हैं? प्रसन्न होते हैं। सम्बन्ध --  जिसमें गीताका प्रचार करनेकी योग्यता नहीं है? वह क्या करे इसको भगवान् आगे के श्लोकमें बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।18.69।। न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।18.69।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।18.69।।ननु सर्वेषां मुक्तिसाधनानां ध्यानस्य श्रेष्ठत्वात्तन्निष्ठस्य मुमुक्षोर्नास्ति विद्यासंप्रदाने प्रवृत्तिरिति तत्राह -- किञ्चेति। इतश्च विद्यासंप्रदानं मुमुक्षुणा यथोक्तविशेषणवते कर्तव्यमित्यर्थः। वर्तमानेषु मध्ये त्वत्तोऽन्यो नास्त्येव प्रियकृत्तमो नाप्यतीतेषु तादृक्कश्चिदासीदिति शेषः। तस्माद्विद्यासंप्रदायकर्तुः सकाशादित्यर्थः। ध्याननिष्ठस्य श्रेष्ठत्वेऽपि स्वसंप्रदायप्रवक्तुः श्रेष्ठतमत्वादुचिता विद्यासंप्रदाने प्रवृत्तिरिति भावः।

Sri Vallabhacharya

।।18.69।।किञ्च -- न च तस्मादिति। मे प्रियकृत्कश्चित्।

Sridhara Swami

।।18.69।।किंच -- नचेति। तस्मान्मद्भक्तेभ्यो गीताशास्त्रव्याख्यातुः सकाशादन्यो मनुष्येषु मध्यें कश्चिदपि मम प्रियकृत्तमोऽत्यन्तं परितोषकर्ता नास्ति। नच कालातरे भविता भविष्यति। ममापि तस्मादन्यः प्रियतरोऽधुना भुवि तावन्नास्ति। नच कालान्तरेऽपि भविष्यतीत्यर्थः।

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