Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 64 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः | इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ||१८-६४||
Transliteration
sarvaguhyatamaṃ bhūyaḥ śṛṇu me paramaṃ vacaḥ . iṣṭo.asi me dṛḍhamiti tato vakṣyāmi te hitam ||18-64||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
18.64 Hear thou again My supreme word, most secret of all; because thou art dearly beloved of Me, I will tell thee what is good.
।।18.64।। पुन: एक बार तुम मुझसे समस्त गुह्यों में गुह्यतम परम वचन (उपदेश) को सुनो। तुम मुझे अतिशय प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारे हित की बात कहूंगा।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Seek out mentors and leaders who genuinely care for your personal and professional growth, not just your performance. Be receptive to foundational advice, even if repeated, as it often holds the deepest wisdom for long-term success. Offer guidance to colleagues and subordinates with their highest good in mind, fostering trust.
🧘 For Stress & Anxiety
Find solace and mental stability in the knowledge that there are benevolent forces or trusted individuals in your life who offer wisdom for your ultimate well-being. Practice deep, attentive listening to internal wisdom or external guidance, understanding that its source is pure care, which can alleviate anxiety and promote inner peace.
❤️ In Relationships
Cultivate relationships built on deep trust, mutual love, and sincere care. Be willing to share profound truths and essential life advice with loved ones, and also to receive it from them, understanding that such communication, even when repeated, stems from a desire for each other's highest good.
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Key Message in One Line
“When love and trust form the foundation, the deepest wisdom for your ultimate welfare is lovingly revealed and must be profoundly heard.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
18.64 सर्वगुह्यतमम् the most secret of all? भूयः again? श्रृणु hear? मे My? परमम् supreme? वचः word? इष्टः beloved? असि (thou) art? मे of Me? दृढम् dearly? इति thus? ततः therefore? वक्ष्यामि (I) will speak? ते thy? हितम् what is good.Commentary Now listen once more with rapt attention to My words. Thou art very dear to Me. Thou art a sincere aspirant. Therefore I am telling thee this most mysterious truth. Hear from Me this mystery of all mysteries. I shall tell it to you again to make a deep impression on your mind? although it has been declared more than once. I do not hope to get any reward from thee. Thou art My most beloved friend and disciple. Therefore I will speak what is good for thee? the means of attaining Selfrealisation. This is the supreme good or the highest of all kinds of good for thee.
Shri Purohit Swami
18.64 Only listen once more to My last word, the deepest secret of all; thou art My beloved, thou are My friend, and I speak for thy welfare.
Dr. S. Sankaranarayan
18.64. Yet again, you must listen to My ultimate (or supreme) message which is the highest secret of all. You are My dear one and have a firm intellect. Hence I shall tell you what is good to you :
Swami Adidevananda
18.64 Hear again My supreme word, the most secret of all; as you are exceedingly loved by Me, I am telling what is good for you.
Swami Gambirananda
18.64 Listen again to My highest utterance which is the profoundest of all. Since you are ever dear to Me, therefore I shall speak what is beneficial to you.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।18.64।। सम्भवत? जब भगवान् ने यह देखा कि अर्जुन अभी तक कुछ निश्चित निर्णय नहीं ले पा रहा है? तब स्नेहवश वे पुन अपने उपदेश के मुख्य सिद्धांत को दोहराने का वचन देते हैं। इस पुनरुक्ति का प्रमुख कारण केवल मित्रप्रेम और अर्जुन के हित की कामना ही है।वह गुह्यतम उपदेश क्या है
Swami Ramsukhdas
।।18.64।। व्याख्या -- सर्वगुह्यतमं भूयः श्रुणु मे परमं वचः -- पहले तिरसठवें श्लोकमें भगवान्ने गुह्य (कर्मयोगकी) और गुह्यतर (अन्तर्यामी निराकारकी शरणागतिकी) बात कही और इदं तु ते गुह्यतमम् (9। 1) तथा इति गुह्यतमं शास्त्रम् (15। 20) -- इन पदोंसे गुह्यतम (अपने प्रभावकी) बात कह दी? पर सर्वगुह्यतम बात गीतामें पहले कहीं नहीं कही। अब यहाँ अर्जुनकी घबराहटको देखकर भगवान् कहते हैं कि मैं सर्वगुह्यतम अर्थात् सबसे अत्यन्त गोपनीय बात फिर कहूँगा? तू मेरे परम? सर्वश्रेष्ठ वचनोंको सुन।इस श्लोकमें सर्वगुह्यतमम् पदसे भगवान्ने बताया कि यह हरेकके सामने प्रकट करनेकी बात नहीं है और सड़सठवें श्लोकमें इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन पदसे भगवान्ने बताया कि इस बातको असहिष्णु और अभक्तसे कभी मत कहना। इस प्रकार दोनों तरफसे निषेध करके बीचमें (छियासठवें श्लोकमें) सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज -- इस सर्वगुह्यतम बातको रखा है। दोनों तरफसे निषेध करनेका तात्पर्य है कि यह गीताभरमें अत्यन्त रहस्यमय खास उपदेश है। (टिप्पणी प0 966)दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें धर्मसम्मूढचेताः कहकर अर्जुन अपनेको धर्मका निर्णय करनेमें अयोग्य समझते हुए भगवान्से पूछते हैं? उसके शिष्य बनते हैं और शिक्षा देनेके लिये कहते हैं। अतः भगवान् यहाँ (18। 66 में) कहते हैं कि तू धर्मके निर्णयका भार अपने ऊपर मत ले? वह भार मेरेपर छोड़ दे -- मेरे ही अर्पण कर दे और अनन्यभावसे केवल मेरी शरणमें आ जा। फिर तेरेको जो पाप आदिका डर है? उन सब पापोंसे मैं तुझे मुक्त कर दूँगा। तू सब चिन्ताओंको छोड़ दे। यही भगवान्का सर्वगुह्यतम परम वचन है।भूयः श्रृणु का तात्पर्य है कि मैंने यही बात दूसरे शब्दोंमें पहले भी कही थी? पर तुमने ध्यान नहीं दिया। अतः मैं फिर वही बात कहता हूँ। अब इस बातपर तुम विशेषरूपसे ध्यान दो।यह सर्वगुह्यतमवाली बात भगवान्ने पहले मत्परः ৷৷. मच्चित्तः सततं भव (18। 57) और मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादत्तरिष्यसि (18। 58) पदोंसे कह दी थी परन्तु सर्वगुह्यतमम् पद पहले नहीं कहा? और अर्जुनका भी उस बातपर लक्ष्य नहीं गया। इसलिये अब फिर उस बातपर अर्जुनका लक्ष्य करानेके लिये और,उस बातका महत्त्व बतानेके लिये भगवान् यहाँ सर्वगुह्यतमम् पद देते हैं।इष्टोऽसि मे दृढमिति -- इससे पहले भगवान्ने कहा था कि जैसी मरजी आये? वैसा कर। जो अनुयायी है? आज्ञापालक है? शरणागत है? उसके लिये ऐसी बात कहनेके समान दूसरा क्या दण्ड दिया जा सकता है अतः इस बातको सुनकर अर्जुनके मनमें भय पैदा हो गया कि भगवान् मेरा त्याग कर रहे हैं। उस भयको दूर करनेके लिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि तुम मेरे अत्यन्त प्यारे मित्र हो (टिप्पणी प0 967.1)।यदि अर्जुनके मनमें भय या संदेह न होता? तो भगवान्कोतुम मेरे अत्यन्त प्यारे मित्र हो -- यह कहकर सफाई देनेकी क्या जरूरत थी सफाई देना तभी बनता है? जब दूसरेके मनमें भय हो? सन्देह हो? हलचल हो। इष्टः कहनेका दूसरा भाव यह है कि भगवान् अपने शरणागत भक्तको अपना ईष्टदेव मान लेते हैं। भक्त सब कुछ छोड़कर केवल भगवान्को अपना इष्ट मानता है? तो भगवान् भी उसको अपना इष्ट मान लेते हैं क्योंकि भक्तिके विषयमें भगवान्का यह कानून है -- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् (गीता 4। 11) अर्थात् जो भक्त जैसे मेरे शरण होते हैं? मैं भी उनको वैसे ही आश्रय देता हूँ। भगवान्की दृष्टिमें भक्तके समान और कोई श्रेष्ठ नहीं है। भागवतमें भगवान् उद्धवजीसे कहते हैं -- तुम्हारेजैसे प्रेमी भक्त मुझे जितने प्यारे हैं? उतने प्यारे न ब्रह्माजी हैं? न शंकरजी हैं? न बलरामजी हैं और तो क्या? मेरे शरीरमें निवास करनेवाली लक्ष्मीजी और मेरी आत्मा भी उतनी प्यारी नहीं है (टिप्पणी प0 967.2)।दृढम् कहनेका तात्पर्य है कि जब तुमने एक बार कह दिया कि मैं आपके शरण हूँ (2। 7) तो अब तुम्हें बिलकुल भी भय नहीं करना चाहिये। कारण कि जो मेरी शरणमें आकर एक बार भी सच्चे हृदयसे कह देता है कि मैं आपका ही हूँ ? उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय (सुरक्षित) कर देता हूँ -- यह मेरा व्रत है (टिप्पणी प0 967.3)। ततो वक्ष्यामि ते हितम् -- तू मेरा अत्यन्त प्यारा मित्र है? इसलिये अपने हृदयकी अत्यन्त गोपनीय और अपने दरबारकी श्रेष्ठसेश्रेष्ठ बात तुझे कहूँगा। दूसरी बात? मैं जो आगे शरणागतिकी बात कहूँगा? उसका यह तात्पर्य नहीं है कि मेरी शरणमें आनेसे मुझे कोई लाभ हो जायगा? प्रत्युत इसमें केवल तेरा ही हित होगा। इससे सिद्ध होता है कि प्राणिमात्रका हित केवल इसी बातमें है कि वह किसी दूसरेका सहारा न लेकर केवल भगवान्की ही शरण ले।भगवान्की शरण होनेके सिवाय जीवका कहीं भी? किञ्चन्मात्र भी हित नहीं है। कारण यह है कि जीव साक्षात् परमात्माका अंश है। इसलिये वह परमात्माको छोड़कर किसीका भी सहारा लेगा तो वह सहारा टिकेगा नहीं। जब संसारकी कोई भी वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति? अवस्था आदि स्थिर नहीं है? तो फिर उनका सहारा कैसे स्थिर रह सकता है उनका सहारा तो रहेगा नहीं? पर चिन्ता? शोक? दुःख आदि रह जायँगे जैसे? अग्निसे अङ्गार दूर हो जाता है तो वह काला कोयला बन जाता है -- कोयला होय नहीं उजला? सौ मन साबुन लगाय। पर वही कोयला जब पुनः अग्निसे मिल जाता है? तब वह अङ्गार (अग्निरूप) बन जाता है और चमक उठता है। ऐसे ही यह जीव भगवान्से ��िमुख हो जाता है तो बारबार जन्मतामरता और दुःख पाता रहता है? पर जब यह भगवान्के सम्मुख हो जाता है अर्थात् अनन्यभावसे भगवान्की शरणमें हो जाता है? तब यह भगवत्स्वरूप बन जाता है और चमक उठता है? तथा संसारमात्रका कल्याण करनेवाला हो जाता है।
Swami Tejomayananda
।।18.64।। पुन: एक बार तुम मुझसे समस्त गुह्यों में गुह्यतम परम वचन (उपदेश) को सुनो। तुम मुझे अतिशय प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारे हित की बात कहूंगा।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।18.64।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Anandgiri
।।18.64।।गीताशास्त्रस्य पौर्वापर्येण विमर्शनद्वारा तात्पर्यार्थं प्रतिपत्तुमसमर्थं प्रत्याह -- भूयोऽपीति। किमर्थमिच्छन्पुनःपुनरभिदधासीत्याशङ्क्याह -- न भयादिति। हितमिति साधारणनिर्देशे कथं परममित्यादिविशेषणमित्याशङ्क्याह -- तद्धीति।
Sri Vallabhacharya
।।18.64।।एतस्याशेषतो दुर्ज्ञेयत्वात् स्वयमेवातिमात्रमनुगृह्णन् स्वीयाय स्वतत्त्वमुपदिशति -- सर्वगुह्यतममिति। अत्रभूयः इति पदमिदं गुह्यतममिति गुह्यतमं शास्त्रं इत्यादौ स्वस्यैव मूलपुरुषोत्तमतायामुक्तायामप्यस्य मयि नरादिबुद्ध्यापादनपूर्वकमन्य एव कश्चन पुरुषोत्तमोऽन्तर्यामिरूपो निर्गुण एतद्वचसाऽऽज्ञाय भजनीय इति सन्देहवारणायोक्तम्। स्पष्टमन्यत्।
Sridhara Swami
।।18.64।।अतिगम्भीरं गीताशास्त्रमशेषतः पर्यालोचयितुमशक्नुवतः कृपया स्वयमेव तस्य सारं संगृह्य कथयति -- सर्वगुह्यतममितित्रिभिः। सर्वेभ्योऽपि गुह्येभ्यो गुह्यतमं मे वचः तत्रतत्रोक्तमपि भूयः पुनः पुनरपि वक्ष्यमाणं श्रृणु। पुनः पुनः कथने हेतुमाह -- दृढमत्यन्तं मे मम त्वमिष्टः प्रियोऽसीति मत्वा। तत एव हेतोस्ते हितं वक्ष्यामि। यद्वा त्वं ममेष्टोऽसि मया वक्ष्यमाणं च दृढं सर्वप्रमाणोपेतमिति निश्चित्य ततस्ते वक्ष्यामीत्यर्थः। दृढमतिरिति केचित्पठन्ति।