Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 60 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा | कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोपि तत् ||१८-६०||
Transliteration
svabhāvajena kaunteya nibaddhaḥ svena karmaṇā . kartuṃ necchasi yanmohātkariṣyasyavaśopi tat ||18-60||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
18.60 O Arjuna, bound by thy own Karma (action) born of thy own nature, that which from delusion thou wishest not to do, even that thou shalt do helplessly.
।।18.60।। हे कौन्तेय ! तुम अपने स्वाभाविक कर्मों से बंधे हो, (अत:) मोहवशात् जिस कर्म को तुम करना नहीं चाहते हो, वही तुम विवश होकर करोगे।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Acknowledge your core competencies, inclinations, and professional responsibilities. Even if a task feels daunting or undesirable, if it aligns with your fundamental skills and role (your 'nature'), you will likely be compelled to complete it effectively. Resisting an inevitable project or responsibility aligned with your core expertise out of temporary dislike or fear only delays the inevitable and creates unnecessary stress.
🧘 For Stress & Anxiety
Much mental suffering arises from resisting what is inherent to oneself or one's situation. Recognizing and accepting your innate personality traits, natural aptitudes, or unavoidable responsibilities can reduce internal conflict. Fighting against your deepest nature or the dictates of your circumstances (born of past actions) is a source of severe stress; surrendering to what 'must' be done, even if initially unpalatable, brings a certain peace and reduces anxiety.
❤️ In Relationships
Understand that individuals act predominantly according to their intrinsic nature. Trying to fundamentally change someone's core personality out of a deluded expectation is often futile and leads to frustration. Similarly, recognize your own behavioral patterns and how they inevitably manifest in relationships. Acceptance of self and others, acknowledging inherent tendencies, can foster more harmonious interactions and reduce conflict.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“You are bound by your true nature and the karma born of it; resisting inevitable actions out of delusion only prolongs the struggle.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
18.60 स्वभावजेन born of (thy) own nature? कौन्तेय O son of Kunti? निबद्धः bound? स्वेन (thy) own? कर्मणा by action? कर्तुम् to do? न not? इच्छसि (thou) wishest? यत् which? मोहात् from delusion? करिष्यसि (thou) shalt do? अवशः helpless? अपि also? तत् that.Commentary Thou art endowed? O Arjuna? with martial alities? prowess? valour? skill? etc. Thou art? therefore? bound by these innate alities. Thou wilt be forced to fight by thy own nature. Nature will constrain thee to fight? much against thy will.
Shri Purohit Swami
18.60 O Arjuna! Thy duty binds thee. From thine own nature has it arisen, and that which in thy delusion thou desire not to do, that very thing thou shalt do. Thou art helpless.
Dr. S. Sankaranarayan
18.60. O son of Kunti ! Being bound fully by your own duty, born of your own nature, and also being [hence] not independent, you would perform what you do not wish to perform, because of your-delusion.
Swami Adidevananda
18.60 O Arjuna, bound by your own duty born out of your own inner disposition, and having no control over your own will, you will be compelled to do that very thing which you now desire not to do through delusion.
Swami Gambirananda
18.60 Being bound by your own duty born of nature, O son of Kunti, you, being helpless, will verily do that which you do not wish to do owing to indiscrimination.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।18.60।। भगवान् श्रीकृष्ण का? सारांश में? कथन यह है मैं तुम्हें इसलिये युद्ध में प्रवृत्त नहीं कर रहा हूँ कि मुझे तुमसे सहानुभूति नहीं है? वरन् इसलिये कि इसके अतिरिक्त तुम्हारे लिए अन्य कोई मार्ग ही नहीं रहा है। तुम्हारे लिये कोई विकल्प ही नहीं है। यद्यपि तुम दुराग्रह कर रहे हो कि तुम युद्ध नहीं करोगे? किन्तु यह तुम्हारा केवल मोह और भ्रम ही है। तुम्हें युद्ध करना ही पड़ेगा? क्योंकि तुम्हारा स्वभाव अपना प्रभाव अवश्य दिखायेगा। इस प्रकरण में भगवान् श्रीकृष्ण ने बारम्बार कहा है? तुम मेरा सतत् स्मरण करो। इसका अर्थ क्या है किस प्रकार हम ईश्वर का स्मरण करें क्या इसका अर्थ ईश्वर का ध्यान करना है हमारा परमेश्वर के साथ क्या संबंध होना चाहिये क्या हम उन्हें कोई ऐतिहासिक पुरुष मानें? अथवा सदैव हमारे हृदय में वास करने वाले आत्मतत्त्व के रूप में उन्हें जाने एक लगनशील विद्यार्थी के मन में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर अगले श्लोक में दिये गये हैं
Swami Ramsukhdas
।।18.60।। व्याख्या -- स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा -- पूर्वजन्ममें जैसे कर्म और गुणोंकी वृत्तियाँ रही हैं? इस जन्ममें जैसे मातापितासे पैदा हुए हैं अर्थात् मातापिताके जैसे संस्कार रहे हैं? जन्मके बाद जैसा देखासुना है? जैसी शिक्षा प्राप्त हुई है और जैसे कर्म किये हैं -- उन सबके मिलनेसे अपनी जो कर्म करनेकी एक आदत बनी है? उसका नाम स्वभाव है। इसको भगवान्ने स्वभावजन्य स्वकीय कर्म कहा है। इसीको स्वधर्म भी कहते हैं -- स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि (गीता 2। 31)।कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत् -- स्वभावजन्य क्षात्रप्रकृतिसे बँधा हुआ तू मोहके कारण जो नहीं करना चाहता? उसको तू परवश होकर करेगा। स्वभावके अनुसार ही शास्त्रोंने कर्तव्यपालनकी आज्ञा दी है। उस आज्ञामें यदि दूसरोंके कर्मोंकी अपेक्षा अपने कर्मोंमें कमियाँ अथवा दोष दीखते हों? तो भी वे दोष बाधक (पापजनक) नहीं होते -- श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। (गीता 3। 35 18। 47)। उस स्वभावज कर्म (क्षात्रधर्म)के अनुसार तू युद्ध करनेके लिये परवश है। युद्धरूप कर्तव्यको न करनेका तेरा विचार मूढ़तापूर्वक किया गया है।जो जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं? उनका स्वभाव सर्वथा शुद्ध होता है। अतः उनपर स्वभावका आधिपत्य नहीं रहता अर्थात् वे स्वभावके परवश नहीं होते फिर भी वे किसी काममें प्रवृत्त होते हैं? तो अपनी प्रकृति(स्वभाव) के अनुसार ही काम करते हैं। परन्तु साधारण मनुष्य प्रकृतिके परवश होते हैं? इसलिये उनका स्वभाव उनको जबर्दस्ती कर्ममें लगा देता है (गीता 3। 33)। भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तेरा क्षात्रस्वभाव भी तुझे जबर्दस्ती युद्धमें लगा देगा परन्तु उसका फल तेरे लिये बढ़िया नहीं होगा। यदि तू शास्त्र या सन्तमहापुरुषोंकी आज्ञासे अथवा मेरी आज्ञासे युद्धरूप कर्म करेगा? तो वही कर्म तेरे लिये कल्याणकारी हो जायगा। कारण कि शास्त्र अथवा मेरी आज्ञासे कर्मोंको करनेसे? उन कर्मोंमें जो रागद्वेष हैं? वे स्वाभाविक ही मिटते चले जायँगे क्योंकि तेरी दृष्टि आज्ञाकी तरफ रहेगी? रागद्वेषकी तरफ नहीं। अतः वे कर्म बन्धनकारक न होकर कल्याणकारक ही होंगे।विशेष बातगीतामें प्रकृतिकी परवशताकी बात सामान्यरूपसे कई जगह आयी है (जैसे -- 3। 5 8। 19 9। 8 आदि) परन्तु दो जगह प्रकृतिकी परवशताकी बात विशेषरूपसे आयी है -- प्रकृतिं यान्ति भूतानि (3। 33) और यहाँ प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति (18। 59) (टिप्पणी प0 960)। इससे स्वभावकी प्रबलता ही सिद्ध होती है क्योंकि कोई भी प्राणी जिसकिसी योनिमें भी जन्म लेता है? उसकी प्रकृति अर्थात् स्वभाव उसके साथमें रहता है। अगर उसका स्वभाव परम शुद्ध हो अर्थात् स्वभावमें सर्वथा असङ्गता हो तो उसका जन्म ही क्यों होगा यदि उसका जन्म होगा तो उसमें स्वभावकी मुख्यता रहेगी -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)। जब स्वभावकी ही मुख्यता अथवा परवशता रहेगी और प्रत्येक क्रिया स्वभावके अनुसार ही होगी? तो फिर शास्त्रोंका विधिनिषेध किसपर लागू होगा गुरुजनोंकी शिक्षा किसके काम आयेगी और मनुष्य दुर्गुणदुराचारोंका त्याग करके सद्गुणसदाचारोंमें कैसे प्रवृत्त होगाउपर्युक्त प्रश्नोंका उत्तर यह है कि जैसे मनुष्य गङ्गाजीके उपर्युक्त प्रश्नोंका उत्तर यह है कि जैसे मनुष्य गङ्गाजीके प्रवाहको रोक तो नहीं सकता? पर उसके प्रवाहको मोड़ सकता है? घुमा सकता है। ऐसे ही मनुष्य अपने वर्णोचित स्वभावको छोड़ तो नहीं सकता? पर भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य रखकर उसको रागद्वेषसे रहित परम शुद्ध? निर्मल बना सकता है। तात्पर्य यह हुआ कि स्वभावको शुद्ध बनानेमें मनुष्यमात्र सर्वथा सबल और स्वतन्त्र है? निर्बल और परतन्त्र नहीं है। निर्बलता और परतन्त्रता तो केवल रागद्वेष होनेसे प्रतीत होती है।अब इस स्वभावको सुधारनेके लिये भगवान्ने गीतामें कर्मयोग और भक्तियोगकी दृष्टिसे दो उपाय बताये हैं --,(1) कर्मयोगकी दृष्टिसे -- तीसरे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया है कि मनुष्यके खास शत्रु रागद्वेष ही हैं। अतः रागद्वेषके वशमें नहीं होना चाहिये अर्थात् रागद्वेषको लेकर कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये? प्रत्युत शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये। शास्त्रके आज्ञानुसार अर्थात् शिष्य गुरुकी? पुत्र मातापिताकी? पत्नी पतिकी और नौकर मालिककी आज्ञाके अनुसार प्रसन्नतापूर्वक सब कर्म करता है तो उसमें रागद्वेष नहीं रहते। कारण कि अपने मनके अनुसार कर्म करनेसे ही रागद्वेष पुष्ट होते हैं। शास्त्र आदिकी आज्ञाके अनुसार कार्य करनेसे और कभी दूसरा नया कार्य करनेकी मनमें आ जानेपर भी शास्त्रकी आज्ञा न होनेसे हम वह कार्य नहीं करते तो उससे हमारा राग मिट जायगा और ��भी कार्यको न करनेकी मनमें आ जानेपर भी शास्त्रकी आज्ञा होनेसे हम वह कार्य प्रसन्नतापूर्वक करते हैं तो उससे हमारा द्वेष मिट जाता है।(2) भक्तियोगकी दृष्टिसे -- जब मनुष्य ममतावाली वस्तुओंके सहित स्वयं भगवान्के शरण हो जाता है? तब उसके पास अपना करके कुछ नहीं रहता। वह भगवान्के हाथकी कठपुतली बन जाता है। फिर भगवान्की आज्ञाके अनुसार? उनकी इच्छाके अनुसार ही उसके द्वारा सब कार्य होते हैं? जिससे उसके स्वभावमें रहनेवाले रागद्वेष मिट जाते हैं।तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोगमें रागद्वेषके वशीभूत न होकर कार्य करनेसे स्वभाव शुद्ध हो जाता है (गीता 3। 34) और भक्तियोगमें भगवान्के सर्वथा अर्पित होनेसे स्वभाव शुद्ध हो जाता है (गीता 18। 62)। स्वभाव शुद्ध होनेसे बन्धनका कोई प्रश्न ही नहीं रहता।मनुष्य जो कुछ कर्म करता है? वह कभी रागद्वेषके वशीभूत होकर करता है और कभी सिद्धान्तके अनुसार करता है। रागद्वेषपूर्वक कर्म करनेसे रागद्वेष दृढ़ हो जाते हैं और फिर मनुष्यका वैसा ही स्वभाव बन जाता है। सिद्धान्तके अनुसार कर्म करनेसे उसका सिद्धान्तके अनुसार ही करनेका स्वभाव बन जाता है। जो मनुष्य परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखकर शास्त्र और महापुरुषोंके सिद्धान्तके अनुसार कर्म करते हैं और जो परमात्माको प्राप्त हो गये हैं -- उन दोनों(साधकों और सिद्ध महापुरुषों) के कर्म दुनियाके लिये आदर्श होते हैं? अनुकरणीय होते हैं (गीता 3। 21)। सम्बन्ध -- जीव स्वयं परमात्माका अंश है और स्वभाव अंश है स्वयं स्वतःसिद्ध है और स्वभाव खुदका बनाया हुआ है स्वयं चेतन है और स्वभाव जड है -- ऐसा होनेपर भी जीव स्वभावके परवश कैसे हो जाता है इस प्रश्नके उत्तरमें भगवान् आगेका श्लोक कहते हैं।
Swami Tejomayananda
।।18.60।। हे कौन्तेय ! तुम अपने स्वाभाविक कर्मों से बंधे हो, (अत:) मोहवशात् जिस कर्म को तुम करना नहीं चाहते हो, वही तुम विवश होकर करोगे।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।18.60।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Anandgiri
।।18.60।।इतश्च त्वया युद्धान्न वैमुख्यं कर्तुमुचितमित्याह -- यस्माच्चेति। स्वभावजेन स्वेन कर्मणा निबद्धस्त्वमिति संबन्धः।
Sri Vallabhacharya
।।18.60।।तदुपपादयति -- स्वभावजेनेति। इदं च द्वितीयतृतीयाद्यध्यायार्थविवरणं स्वभावः प्राकृतस्तज्जेन क्षात्त्रकर्मणा निबद्धः अवशः करिष्यस्येव।
Sridhara Swami
।।18.60।।किंच -- स्वभावेति। स्वभावः क्षत्रियत्वे हेतुः पूर्वकर्मसंस्कारस्तस्माज्जातेन स्वकीयेन कर्मणा शौर्यादिना पूर्वोक्तेन निबद्धो यन्त्रितस्त्वं मोहाद्यत्कर्म युद्धलक्षणं कर्तुं नेच्छसि? अवशोऽपि तत्कर्म करिष्यस्येव।