Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 57 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Karma Yoga / Detached Action

Sanskrit Shloka (Original)

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः | बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ||१८-५७||

Transliteration

cetasā sarvakarmāṇi mayi saṃnyasya matparaḥ . buddhiyogamupāśritya maccittaḥ satataṃ bhava ||18-57||

Word-by-Word Meaning

चेतसाmentally
सर्वकर्माणिall actions
मयिin Me
संन्यस्यresigning
मत्परःhaving Me as the highest goal
बुद्धियोगम्the Yoga of discrimination
उपाश्रित्यresorting to
मच्चित्तःwith the mind fixed on Me
सततम्always
भवbe.Commentary Do thou

📖 Translation

English

18.57 Mentally renouncing all actions in Me, having Me as the highest goal, resorting to the Yoga of discrimination do thou ever fix thy mind on Me.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.57।। मन से समस्त कर्मों का संन्यास मुझमें करके मत्परायण होकर बुद्धियोग का आश्रय लेकर तुम सतत मच्चित्त बनो।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach work as a dedicated offering, performing tasks with diligence and skill, but mentally detaching from the immediate results and personal gain. Let your highest goal be the inherent purpose or value of the work itself, not just its outcome. Use discriminative wisdom to make ethical decisions and prioritize tasks effectively, maintaining a focused and steady mind amidst professional demands.

🧘 For Stress & Anxiety

Reduce anxiety by mentally surrendering the outcomes of your efforts. Understand that while you control your actions, the results are often beyond your complete control. Adopt a higher perspective, anchoring your mind in a sense of purpose or a spiritual ideal (the 'Me' in the verse). This steady inner focus and discriminative understanding of what you can and cannot control can significantly alleviate mental stress and rumination.

❤️ In Relationships

Engage in relationships with a spirit of selfless service and unconditional regard, without excessive attachment to how others respond or to specific expectations. Let compassion and the well-being of the relationship (or the individuals within it) be your highest goal. Apply discrimination to understand dynamics, boundaries, and your role, maintaining a steady, non-reactive mind through challenges and joys.

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Cultivate inner peace and purposeful living by performing all actions with detached dedication, anchoring your mind in a higher goal, and discerning truth through unwavering discriminative wisdom.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

18.57 चेतसा mentally? सर्वकर्माणि all actions? मयि in Me? संन्यस्य resigning? मत्परः having Me as the highest goal? बुद्धियोगम् the Yoga of discrimination? उपाश्रित्य resorting to? मच्चित्तः with the mind fixed on Me? सततम् always? भव be.Commentary Do thou? O Arjuna? surrender all thy actions to Me whilst at the same time fixing thy mind on discrimination. Then through that discrimination thou wilt see thy Self as separate from the body and activity and existing in My pure Being. Chetasa Mentally with the discriminative faith that knowledge finally leads to liberation when the heart is purified through selfless works done with the spirit of offering to God.Sarvakarmani All actions producing visible and invisible results.Me The Lord As taught in verse 27 of chapter IX Whatever thou doest? whatever thou eatest? etc.? do thou dedicate all thy actions to Me.Matparah Taking Me? Vaasudeva? as the supreme goal? and his whole self centred in Me.Resorting to Buddhi Yoga As thy sole refuge steadymindedness.

Shri Purohit Swami

18.57 Surrender then thy actions unto Me, live in Me, concentrate thine intellect on Me, and think always of Me.

Dr. S. Sankaranarayan

18.57. [Hence] renouncing by mind all actions in Me, O descendant of Bharata, and taking hold of the knowledge-Yoga, you must always be with your thought-organ [turned] towards Me.

Swami Adidevananda

18.57 Surrendering all acts to me by your mind, thinking of Me as the goal, and resorting to Buddhi-yoga, focus your thought ever on Me.

Swami Gambirananda

18.57 Mentally surrendering all actions to Me and accepting Me as the supreme, have your mind ever fixed on Me by resorting to the concentration of your intellect.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।18.57।। मन से अर्थात् ज्ञानपूर्वक समस्त कर्मों का संन्यास मुझमें करो। इस वाक्य का अर्थ है कर्मों में कर्तृत्वाभिमान और फलासक्ति का त्याग करके केवल ईश्वरार्पण की भावना से कर्म करो। इस सिद्धांत का विस्तृत विवेचन इसके पूर्व किया जा चुका है।मत्पर भव जिस पुरुष के लिए मैं अर्थात् परमात्मा ही परम लक्ष्य है? वह पुरुष मत्पर कहा जाता है। ईश्वर को ही जीवन का लक्ष्य समझे बिना हममें ईश्वरार्पण की भावना नहीं आ सकती। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को ईश्वर परायण होने का उपदेश देते हैं।बुद्धियोग कर्मयोग में अर्पण बुद्धि अर्थात् भावना का महत्व होने से उसे ही भगवान् श्रीकृष्ण ने बुद्धियोग की संज्ञा प्रदान की है। इसका भी विवेचन किया जा चुका है।मच्चित्तभव जिसका मन मुझ परमात्मा में स्थित है वह मच्चित है। मुझमें कर्मों का संन्यास करके तथा मत्पर बनो? इन दो वाक्यों से क्रमश कर्म एवं ज्ञान योग इंगित किया गया है? और अब मच्चित शब्द से भक्ति को सूचित कर रहे हैं।मानसिक जीवन का यह नियम है कि जैसा हम चिन्तन करते हैं? वैसे ही हम बनते हैं। इस नियमानुसार जो भक्त सतत कृष्ण तत्त्व का चिन्तन करता है वह स्वयं श्रीकृष्ण परमात्मा स्वरूप बन जाता है। यही अव्यय आत्मस्वरूप है।यदि कोई मनुष्य भगवान् के इस उपदेश को अस्वीकार करता है? तो उसकी क्या गति होगी सुनो

Swami Ramsukhdas

।।18.57।। व्याख्या --   [इस श्लोकमें भगवान्ने चार बातें बतायी हैं --,(1) चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य -- सम्पूर्ण कर्मोंको चित्तसे मेरे अर्पण कर दे।(2) मत्परः -- स्वयंको मेरे अर्पित कर दे।(3) बुद्धियोगमुपाश्रित्य -- समताका आश्रय लेकर संसारसे सम्बन्धविच्छेद कर ले।(4) मच्चितः सततं भव -- निरन्तर मेरेमें चित्तवाला हो जा अर्थात् मेरे साथ अटल सम्बन्ध कर ले।]चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य -- चित्तसे कर्मोंको अर्पित करनेका तात्पर्य है कि मनुष्य चित्तसे यह दृढ़तासे मान ले कि मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर आदि और संसारके व्यक्ति? पदार्थ? घटना? परिस्थिति आदि सब भगवान्के ही हैं। भगवान् ही इन सबके मालिक हैं। इनमेंसे कोई भी चीज किसीकी व्यक्तिगत नहीं है। केवल इन वस्तुओंका सदुपयोग करनेके लिये ही भगवान्ने व्यक्तिगत अधिकार दिया है। इस दिये हुए अधिकारको भी भगवान्के अर्पण कर देना है।शरीर? इन्द्रियाँ? मन आदिसे जो कुछ शास्त्रविहित सांसारिक या पारमार्थिक क्रियाएँ होती हैं? वे सब भगवान्की मरजीसे ही होती हैं। मनुष्य तो केवल अहंकारके कारण उनको अपनी मान लेता है। उन क्रियाओँमें जो अपनापन है? उसे भी भगवान्के अर्पण कर देना है क्योंकि वह अपनापन केवल मूर्खतासे माना हुआ है? वास्तवमें है नहीं। इसलिये उनमें अपनेपनका भाव बिलकुल उठा देना चाहिये और उन सबपर भगवान्की मुहर लगा देनी चाहिये।मत्परः -- भगवान् ही मेरे परम आश्रय हैं? उनके सिवाय मेरा कुछ नहीं है? मेरेको करना भी कुछ नहीं है? पाना भी कुछ नहीं है? किसीसे लेना भी कुछ नहीं है अर्थात् देश? काल? वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिसे मेरा किञ्चिन्मात्र कोई प्रयोजन नहीं है -- ऐसा अनन्यभाव हो जाना ही भगवान्के परायण होना है।एक बात खास ध्यान देनेकी है -- रुपयेपैसे? कुटुम्ब? शरीर आदिको मनुष्य अपना मानते हैं और मनमें यह समझते हैं कि हम इनके मालिक बन गये? हमारा इनपर आधिपत्य है परन्तु वास्तवमें यह बात बिलकुल झूठी है? कोरा वहम है और बड़ा भारी धोखा है। जो किसी चीजको अपनी मान लेता है? वह उस चीजका गुलाम बन जाता है और वह चीज उसका मालिक बन जाती है। फिर उस चीजके बिना वह रह नहीं सकता। अतः जिन चीजोंको मनुष्य अपनी मान लेता है? वे सब उसपर चढ़ जाती हैं और वह तुच्छ हो जाता है। वह चीज चाहे रुपया हो? चाहे कुटुम्बी हो? चाहे शरीर हो? चाहे विद्याबुद्धि आदि हो। ये सब चीजें प्राकृत हैं और अपनेसे भिन्न हैं? पर हैं। इनके अधीन होना ही पराधीन होना है।भगवान् स्वकीय हैं? अपने हैं। उनको मनुष्य अपना मानेगा? तो वे मनुष्यके वशमें हो जायँगे। भगवान्के हृदयमें भक्तका जितना आदर है? उतना आदर करनेवाला संसारमें दूसरा कोई नहीं है। भगवान् भक्तके दास हो जाते हैं और उसे अपना मुकुटमणि बना लेते हैं -- मैं तो हूँ भगतनका दास भगत मेरे मुकुटमणि? परन्तु संसार मनुष्यका दास बनकर उसे अपना मुकुटमणि नहीं बनायेगा। वह तो उसे अपना दास बनाकर पददलित ही करेगा। इसलिये केवल भगवान्के शरण होकर सर्वथा उन्हींके परायण हो जाना चाहिये।बुद्धियोगमुपाश्रित्य -- गीताभरमें देखा जाय तो समताकी बड़ी भारी महिमा है। मनुष्यमें एक समता आ गयी तो वह ज्ञानी? ध्यानी? योगी? भक्त आदि सब कुछ बन गया। परन्तु यदि उसमें समता नहीं आयी तो अच्छेअच्छे लक्षण आनेपर भी भगवान् उसको पूर्णता नहीं मानते। वह समता मनुष्यमें स्वाभाविक रहती है। केवल आनेजानेवाली परिस्थितियोंके साथ मिलकर वह सुखीदुःखी हो जाता है। इसलिये उनमें मनुष्य सावधान रहे कि आनेजानेवाली परिस्थितिके साथ मैं नहीं हूँ। सुख आया? अनुकूल परिस्थिति आयी तो भी मैं हूँ और सुख चला गया? अनुकूल परिस्थिति चली गयी तो भी मैं हूँ। ऐसे ही दुःख आया? प्रतिकूल परिस्थिति आयी तो भी मैं हूँ और दुःख चला गया? प्रतिकूल परिस्थिति चली गयी तो भी मैं हूँ। अतः सुखदुःखमें? अनुकूलताप्रतिकूलतामें? हानिलाभमें मैं सदैव ज्योंकात्यों रहता हूँ। परिस्थितियोंके बदलनेपर भी मैं नहीं बदलता? सदा वही रहता हूँ। इस तरह अपनेआपमें स्थित रहे। अपनेआपमें स्थित रहनेसे सुखदुःख आदिमें समता हो जायगी। यह समता ही भगवान्की आराधना है -- समत्वमाराधनमच्युतस्य (विष्णुपुराण 1। 17। 90)। इसीलिये यहाँ भगवा��् बुद्धियोग अर्थात् समताका आश्रय लेनेके लिये कहते हैं।मच्चित्तः सततं भव -- जो अपनेको सर्वथा भगवान्के समर्पित कर देता है? उसका चित्त भी सर्वथा भगवान्के चरणोंमें समर्पित हो जाता है। फिर उसपर भगवान्का जो स्वतःस्वाभाविक अधिकार है? वह प्रकट हो जाता है और उसके चित्तमें स्वयं भगवान् आकर विराजमान हो जाते हैं। यही मच्चित्तः होना है।मच्चित्तः पदके साथ सततम् पद देनेका अर्थ है कि निरन्तर मेरेमें (भगवान्में) चित्तवाला हो जा। भगवान्का निरन्तर चिन्तन तभी होगा? जब मैं भगवान्का हूँ इस प्रकार अहंता भगवान्में लग जायगी। अहंता भगवान्में लग जानेपर चित्त स्वतःस्वाभाविक भगवान्में लग जाता है। जैसे? शिष्य बननेपर मैं गुरुका हूँ इस प्रकार अहंता गुरुमें लग जानेपर गुरुकी याद निरन्तर बनी रहती है। गुरुका सम्बन्ध अहंतामें बैठ जानेके कारण इस सम्बन्धकी याद आये तो भी याद है और याद न आये तो भी याद है क्योंकि स्वयं निरन्तर रहता है। इसमें भी देखा जाय तो गुरुके साथ उसने खुद सम्बन्ध जोड़ा है परन्तु भगवान्के साथ इस जीवका स्वतःसिद्ध नित्य सम्बन्ध है। केवल संसारके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही नित्य सम्बन्धकी विस्मृति हुई है। उस विस्मृतिको मिटानेके लिये भगवान् कहते हैं कि निरन्तर मेरेमें चित्तवाला हो जा।,साधक कोई भी सांसारिक कामधंधा करे? तो उसमें यह एक सावधानी रखे कि अपने चित्तको उस कामधंधेमें द्रवित न होने दे? चित्तको संसारके साथ घुलनेमिलने न दे अर्थात् तदाकार न होने दे? प्रत्युत उसमें अपने चित्तको कठोर रखे। परन्तु भगवन्नामका जप? कीर्तन? भगवत्कथा? भगवच्चिन्तन आदि भगवत्सम्बन्धी कार्योंमें चित्तको द्रवित करता रहे? तल्लीन करता रहे? उस रसमें चित्तको तरान्तर करता रहे (टिप्पणी प0 954.1)। इस प्रकार करते रहनेसे साधक बहुत जल्दी भगवान्में चित्तवाला हो जायगा।प्रेमसम्बन्धी विशेष बातचित्तसे सब कर्म भगवान्के अर्पण करनेसे संसारसे नित्यवियोग हो जाता है (टिप्पणी प0 954.2) और भगवान्के परायण होनेसे नित्ययोग (प्रेम) हो जाता है। नित्ययोगमें योग? नित्ययोगमें वियोग? वियोगमें नित्ययोग और वियोगमें वियोग -- ये चार अवस्थाएँ चित्तकी वृत्तियोंको लेकर होती हैं। इन चारों अवस्थाओंको इस प्रकार समझना चाहिये -- जैसे? श्रीराधा और श्रीकृष्णका परस्पर मिलन होता है? तो यह नित्ययोगमें योग है। मिलन होनेपर भी श्रीजीमें ऐसा भाव आ जाता है कि प्रियतम कहीं चले गये हैं और वे एकदम कह उठती हैं कि प्यारे तुम कहाँ चले गये तो यह नित्ययोगमें वियोग है। श्यामसुन्दर सामने नहीं हैं? पर मनसे उन्हींका गाढ़ चिन्तन हो रहा है और वे मनसे प्रत्यक्ष मिलते हुए दीख रहे हैं? तो यह वियोगमें नित्ययोग है। श्यामसुन्दर थोड़े समयके लिये सामने नहीं आये? पर मनमें ऐसा भाव है कि बहुत समय बीत गया? श्यामसुन्दर मिले नहीं? क्या करूँ कहाँ जाऊँ श्यामसुन्दर कैसे मिलें तो यह वियोगमें वियोग है। वास्तवमें इन चारों अवस्थाओंमें भगवान्के साथ नित्ययोग ज्योंकात्यों बना रहता है? वियोग कभी होता ही नहीं? हो सकता ही नहीं और होनेकी संभावना भी नहीं। इसी नित्ययोगको प्रेम कहते हैं क्योंकि प्रेममें प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों अभिन्न रहते हैं। वहाँ भिन्नता कभी हो ही नहीं सकती। प्रेमका आदानप्रदान,करनेके लिये ही भक्त और भगवान्में संयोगवियोगकी लीला हुआ करती है।यह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान किस प्रकार है जब प्रेमी और प्रेमास्पद परस्पर मिलते हैं? तब प्रियतम पहले चले गये थे? उनसे वियोग हो गया था अब कहीं ये फिर न चले जायँ (टिप्पणी प0 954.3) इस भावके कारण प्रेमास्पदके मिलनेमें तृप्ति नहीं होती? सन्तोष नहीं होता। वे चले जायँगे -- इस बातको लेकर मन ज्यादा खिंचता है। इसलिये इस प्रेमको प्रतिक्षण वर्धमान बताया है।प्रेम(भक्ति)में चार प्रकारका रस अथवा रति होती है -- दास्य? सख्य? वात्सल्य और माधुर्य। इन रसोंमें दास्यसे सख्य? सख्यसे वात्सल्य और वात्सल्यसे माधुर्यरस श्रेष्ठ है क्योंकि इनमें क्रमशः भगवान्के ऐश्वर्यकी विस्मृति ज्यादा होती चली जाती है। परन्तु जब इन चारोंमेंसे कोई एक भी रस पूर्णतामें पहुँच जाता है? तब उसमें दूसरे रसोंकी कमी नहीं रहती अर्थात् उसमें सभी रस आ जाते हैं। जैसे? दास्यरस पूर्णतामें पहुँच जाता है तो उसमें सख्य? वात्सल्य और माधुर्य -- तीनों रस आ जाते हैं। यही बात अन्य रसोंके विषयमें भी समझनी चाहिये। कारण यह है कि भगवान् पूर्ण हैं? उनका प्रेम भी पूर्ण है और परमात्माका अंश होनेसे जीव स्वयं भी पूर्ण है। अपूर्णता तो केवल संसारके सम्बन्धसे ही आती है। इसलिये भगवान्के साथ किसी भी रीतिसे रति हो जायगी तो वह पूर्ण हो जायगी? उसमें कोई कमी नहीं रहेगी।दास्य रतिमें भक्तका भगवान्के प्रति यह भाव रहता है कि भगवान् मेरे स्वामी हैं और मैं उनका सेवक हूँ। मेरेपर उनका पूरा अधिकार है। वे चाहे जो करें? चाहे जैसी परिस्थितिमें रखें और मेरेसे चाहे जैसा काम लें। मेरेपर अत्यधिक अपनापन होनेसे ही वे बिना मेरी सम्मति लिये ही मेरे लिये सब विधान करते हैं।सख्य रतिमें भक्तका भगवान्के प्रति यह भाव रहता है कि भगवान् मेरे सखा हैं और मैं उनका सखा हूँ। वे मेरे प्यारे हैं और मैं उनका प्यारा हूँ। उनका मेरेपर पूरा अधिकार है और मेरा उनपर पूरा अधिकार है। इसलिये मैं उनकी बात मानता हूँ? तो मेरी भी बात उनको माननी पड़ेगी।वात्सल्य रतिमें भक्तका अपनेमें स्वामिभाव रहता है कि मैं भगवान्की माता हूँ या उनका पिता हूँ अथवा उनका गुरु हूँ और वह तो हमारा बच्चा है अथवा शिष्य है इसलिये उसका पालनपोषण करना है। उसकी निगरानी भी रखनी है कि कहीं वह अपना नुकसान न कर ले जैसे -- नन्दबाबा और यशोदा मैया कन्हैयाका खयाल रखते हैं और कन्हैया वनमें जाता है तो उसकी निगरानी रखनेके लिये दाऊजीको साथमें भेजते हैंमाधुर्य (टिप्पणी प0 955) रतिमें भक्तको भगवान्के ऐश्वर्यकी विशेष विस्मृति रहती है अतः इस रतिमें भक्त भगवान्के साथ अपनी अभिन्नता (घनिष्ठ अपनापन) मानता है। अभिन्नता माननेसे उनके लिये सुखदायी सामग्री जुटानी है? उन्हें सुखआराम पहुँचाना है? उनको किसी तरहकी कोई तकलीफ न हो -- ऐसा भाव बना रहता है।प्रेमरस अलौकिक है? चिन्मय है। इसका आस्वादन करनेवाले केवल भगवान् ही हैं। प्रेममें प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों ही चिन्मयतत्त्व होते हैं। कभी प्रेमी प्रेमास्पद बन जाता है और कभी प्रेमास्पद प्रेमी हो जाता है। अतः एक चिन्मयतत्त्व ही प्रेमका आस्वादन करनेके लिये दो रूपोंमें हो जाता है।प्रेमके तत्त्वको न समझनेके कारण कुछ लोग सांसारिक कामको ही प्रेम कह देते हैं। उनका यह कहना बिलकुल गलत है क्योंकि काम तो चौरासी लाख योनियोंके सम्पूर्ण जीवोंमें रहता है और उन जीवोंमें भी जो भूत? प्रेत? पिशाच होते हैं? उनमें काम (सुखभोगकी इच्छा) अत्यधिक होता है। परन्तु प्रेमके अधिकारी जीवन्मुक्त महापुरुष ही होते हैं।काममें लेनेहीलेनेकी भावना होती है और प्रेममें देनेहीदेनेकी भावना होती है। काममें अपनी इन्द्रियोंको तृप्त करने -- उनसे सुख भोगनेका भाव रहता है और प्रेममें अपने प्रेमास्पदको सुख पहुँचाने तथा सेवापरायण रहनेका भाव रहता है। काम केवल शरीरको लेकर ही होता है और प्रेम स्थूलदृष्टिसे शरीरमें दीखते हुए भी वास्तवमें चिन्मयतत्त्वसे ही होता है। काममें मोह (मूढ़भाव) रहता है और प्रेममें मोहकी गन्ध भी नहीं रहती। काममें संसार तथा संसारका दुःख भरा रहता है और प्रेममें मुक्ति तथा मुक्तिसे भी विलक्षण आनन्द रहता है। काममें जडता(शरीर? इन्द्रियाँ? आदि) की मुख्यता रहती है और प्रेममें चिन्मयता(चेतन स्वरूप) की मुख्यता रहती है। काममें ��ाग होता है और प्रेममें त्याग होता है। काममें परतन्त्रता होती है और प्रेममें परतन्त्रताका लेश भी नहीं होता अर्थात् सर्वथा स्वतन्त्रता होती है। काममें वह मेरे काममें आ जाय ऐसा भाव रहता है और प्रेममें मैं उसके काममें आ जाऊँ ऐसा भाव रहता है। काममें कामी भोग्य वस्तुका गुलाम बन जाता है और प्रेममें स्वयं भगवान् प्रेमीके गुलाम बन जाते हैं। कामका रस नीरसतामें बदलता है और प्रेमका रस आनन्दरूपसे प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है। काम खिन्नतासे पैदा होता है और प्रेम प्रेमास्पदकी प्रसन्तासे प्रकट होता है। काममें अपनी प्रसन्नताका ही उद्देश्य रहता है। और प्रेममें प्रेमास्पदकी प्रसन्नताका ही उद्देश्य रहता है। काममार्ग नरकोंकी तरफ ले जाता है और प्रेममार्ग भगवान्की तरफ ले जाता है। काममें दो होकर दो ही रहते हैं अर्थात् द्वैधीभाव (भिन्नता या भेद) कभी मिटता नहीं और प्रेममें एक होकर दो होते हैं अर्थात् अभिन्नता कभी मिटती नहीं (टिप्पणी प0 956)। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें दी हुई आज्ञाको अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें क्रमशः अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।18.57।। मन से समस्त कर्मों का संन्यास मुझमें करके मत्परायण होकर बुद्धियोग का आश्रय लेकर तुम सतत मच्चित्त बनो।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।18.57।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।18.57।।परमेश्वरप्रसादस्यैवं माहात्म्यं यतः सिद्धं तस्मात्तत्प्रसादार्थं भवता प्रयतितव्यमित्याह -- यस्मादिति। भगवत्प्रसादादासादितसम्यग्ज्ञानादेव मुक्तिर्न कर्ममात्रादिति ज्ञानं विवेकबुद्धिः। आश्रयशब्दार्थमाह -- अनन्येति।

Sri Vallabhacharya

।।18.57।।अतस्त्वमपि चेतसा योगभक्तिवासितेन मयि साक्षात्कर्त्तरि परदेवतायां सन्न्यस्यानुसन्धाय त्यागार्थकत्वेऽपिदण्डिपुरुषं त्यज इतिवद्विशेषणपरित्यागविषयक एव? न तु विशेष्यपरित्यागविषयक इति कर्तृत्वादित्यागपूर्वं मत्परःनाहं कर्ता? मदन्तर्यामी मुख्यकर्ता सर्वं करोति? अहं तु तदधीनः? स यथा प्रेरयति तथा करोमि इति भावेन मदुक्तकारितया वा मत्परः? उक्तसाङ्ख्ययोगाश्रयं बुद्धियोगमुपाश्रित्य सततं मच्चित्तो भव।

Sridhara Swami

।।18.57।।यस्मादेवं तस्मात् -- चेतसेति। सर्वकर्माणि चेतसा मयि संन्यस्य समर्प्य मत्परः अहमेव परः प्राप्यः पुरुषार्थो यस्य सः व्यवसायात्मिकया बुद्ध्या योगमाश्रित्य सततं कर्मानुष्ठानकालेऽपिब्रह्मार्पणं ब्रह्महविः इति न्यायेन मय्येव चित्तं यस्य तथाभूतो भव।

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