Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 50 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे | समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ||१८-५०||

Transliteration

siddhiṃ prāpto yathā brahma tathāpnoti nibodha me . samāsenaiva kaunteya niṣṭhā jñānasya yā parā ||18-50||

Word-by-Word Meaning

सिद्धिम्perfection
प्राप्तःattained
यथाas
ब्रह्मBrahman (the Eternal)
तथाso
आप्नोतिobtains
निबोधlearn
मेof Me
समासेनin brief
एवeven
कौन्तेयO son of Kunti
निष्ठाstate
ज्ञानस्यof knowledge
याor
पराhighest.Commentary When a man has the good fortune to hear the words of wisdom from a teacher

📖 Translation

English

18.50 Learn from Me in brief, O Arjuna, how he who has attained perfection reaches Brahman (the Eternal), that supreme state of knowledge.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.50।। सिद्धि को प्राप्त पुरुष किस प्रकार ब्रह्म को प्राप्त होता है, तथा ज्ञान की परा निष्ठा को भी तुम मुझसे संक्षेप में जानो।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Focus on achieving mastery and deep understanding in your profession (Jnana Yoga), rather than solely chasing external rewards. Cultivate 'dispassion' (detachment from outcome) in your work, allowing you to perform duties with dedication while maintaining inner peace, leading to true fulfillment beyond just success or failure. Use 'discrimination' to make ethical, impactful decisions that align with a higher purpose.

🧘 For Stress & Anxiety

Develop self-awareness to identify and transcend ego-driven thoughts and 'dualism' that cause stress. Cultivate a mindset of 'total fulfilment' by connecting with a deeper purpose, rather than seeking happiness solely from external achievements. Practice 'devotion to knowledge' by seeking clarity and understanding to dispel mental 'darkness' (confusion, fear, anxiety), leading to lasting inner peace.

❤️ In Relationships

Overcome 'egoism' and 'dualism' in your interactions, fostering genuine empathy and unconditional connection. Apply 'discrimination' to understand others' perspectives and needs, transcending superficial differences. Seek harmonious 'union' by recognizing the interconnectedness of all beings, reducing conflict and fostering compassion.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The ultimate path to liberation and complete inner fulfillment lies in transcending ego and ignorance through the dedicated pursuit of true knowledge, leading to a unified state of being with the Divine.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

18.50 सिद्धिम् perfection? प्राप्तः attained? यथा as? ब्रह्म Brahman (the Eternal)? तथा so? आप्नोति obtains? निबोध learn? मे of Me? समासेन in brief? एव even? कौन्तेय O son of Kunti? निष्ठा state? ज्ञानस्य of knowledge? या or? परा highest.Commentary When a man has the good fortune to hear the words of wisdom from a teacher? dualism and egoism vanish and his mind rests in union with the Supreme Being. The need for action no longer exists for such a man. Nothing further remains for him to do. He has become a Kritakritya (a man of total fulfilment? or one who has done all that there is to be done).The aspirant obtains the grace of the Lord by worshipping Hims with his proper duty. The Lord gives him dispassion? discrimination? devotion to knowledge. The Lord removes his veil of ignorance. To these ever harmonious? worshipping in love? I give the Yoga of discrimination by which they come unto Me. Out of My mere compassion for them? I? dwelling within their Self? destroy the darkness born of ignorance by the luminous lamp of knowledge. (X.10and11)The perfection is JnanaNishtha or devotion to knowledge by which he attains Selfrealisation or becomes identical with the Supreme Being when the veil of ignorance is rent asunder. The way to the attainment of this devotion to knowledge will be described only in a succint manner. The process or method of Selfrealisation will be described only in brief in the following verses.The actual technie has to be learnt direct from a Guna.

Shri Purohit Swami

18.50 I will now state briefly how he, who has reached perfection, finds the Eternal Spirit, the state of Supreme Wisdom.

Dr. S. Sankaranarayan

18.50. Having attained the success, how he attains the Brahman, an attainment which is confirmed to be the final beatitude of true knowledge-that you must learn from Me briefly.

Swami Adidevananda

18.50 Learn from me in brief, O Arjuna, how, one who has attained perfection, attains the brahman (or the self), who is the supreme consummation of knowledge.

Swami Gambirananda

18.50 Understand for certain from Me, in brief indeed, O son of Kunti, that process by which one who has achieved success attains Brahman, which is the supreme consummation of Knowledge.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।18.50।। पूर्व श्लोक में नैर्ष्कम्य सिद्धि के लक्ष्य को इंगित किया गया है। अब उस साधना के विवेचन का प्रकरण प्रारम्भ होता है? जिसके अभ्यास से परमात्मस्वरूप में दृढ़निष्ठा प्राप्त हो सकती है। इस श्लोक में आगे के कथनीय विषय की प्रस्तावना की गयी है। सिद्धि को प्राप्त पुरुष से तात्पर्य उस साधक से है? जिसने स्वधर्माचरण से अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त कर ली है। ऐसा ही साधक ब्रह्मप्राप्ति का अधिकारी होता है। आगे के कुछ श्लोक हमें स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षणों का स्मरण कराते हैं? जिनका वर्णन गीता के द्वितीय अध्याय में किया गया था।ध्यानाभ्यास का विस्तृत विवेचन षष्ठाध्याय में किया जा चुका है। अत यहाँ केवल संक्षेप में ही वर्णन किया जायेगा।भगवान् श्रीकृष्ण आगे कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।18.50।। व्याख्या --   सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे -- यहाँ सिद्धि नाम अन्तःकरणकी शुद्धिका है? जिसका वर्णन पूर्वश्लोकमें आये असक्तबुद्धिः? जितात्मा और विगतस्पृहः पदोंसे हुआ है। जिसका अन्तःकरण इतना शुद्ध हो गया है कि उसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकारकी कामना? ममता और आसक्ति नहीं रही? उसके लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति आदिकी जरूरत नहीं पड़ती अर्थात् उसके लिये कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता। इसलिये इसको सिद्धि कहा है।लोकमें तो ऐसा कहा जाता है कि मनचाही चीज मिल गयी तो सिद्धि हो गयी? अणिमादि सिद्धियाँ मिल गयीं तो सिद्धि हो गयी। पर वास्तवमें यह सिद्धि नहीं है क्योंकि इसमें पराधीनता होती है? किसी बातकी कमी रहती है? और किसी वस्तु? परिस्थिति आदिकी जरूरत पड़ती है। अतः जिस सिद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी कामना पैदा न हो? वही वास्तवमें सिद्धि है। जिस सिद्धिके मिलनेपर कामना बढ़ती रहे? वह सिद्धि वास्तवमें सिद्धि नहीं है? प्रत्युत एक बन्धन ही है।अन्तःकरणकी शुद्धिरूप सिद्धिको प्राप्त हुआ साधक ही ब्रह्मको प्राप्त होता है। वह जिस क्रमसे ब्रह्मको प्राप्त होता है? उसको मुझसे समझ -- निबोध मे। कारण कि सांख्ययोगकी जो सारसार बातें हैं? वे सांख्ययोगीके लिये अत्यन्त आवश्यक हैं और उन बातोंको समझनेकी बहुत जरूरत है।निबोध पदका तात्पर्य है कि सांख्ययोगमें क्रिया और सामग्रीकी प्रधानता नहीं है। किन्तु उस तत्त्वको समझनेकी प्रधानता है। इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भी सांख्ययोगीके विषयमें निबोध पद आया है।समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा -- सांख्ययोगीकी जो आखिरी स्थिति है? जिससे बढ़कर साधककी कोई स्थिति नहीं हो सकती? वही ज्ञानकी परा निष्ठा कही जाती है। उस परा निष्ठाको अर्थात् ब्रह्मको सांख्ययोगका साधक जिस प्रकारसे प्राप्त होता है? उसको मैं संक्षेपसे कहूँगा अर्थात् उसकी सारसार बातें,कहूँगा। सम्बन्ध --   ज्ञानकी परा निष्ठा प्राप्त करनेके लिये साधनसामग्रीकी आवश्यकता है? उसको आगेके तीन श्लोकोंमें बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।18.50।। सिद्धि को प्राप्त पुरुष किस प्रकार ब्रह्म को प्राप्त होता है, तथा ज्ञान की परा निष्ठा को भी तुम मुझसे संक्षेप में जानो।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।18.50।।यथा येनोपायेन सिद्धिं प्राप्तो ब्रह्माप्नोति तथा निबोध। या सिद्धिर्ज्ञानस्य परा निष्ठा।

Sri Anandgiri

।।18.50।।ज्ञानप्राप्तियोग्यतावतो जातसम्यग्धियस्तत्फलप्राप्तौ मुक्तावुक्तायां वक्तव्यशेषो नास्तीत्याशङ्क्याह -- पूर्वोक्तेनेति। क्रमाख्यं वस्तु तदित्युच्यते। सिद्धिं प्राप्त इत्युक्तमेव कस्मादनूद्यते तत्राह -- तदनुवाद इति। उत्तरमेव प्रश्नपूर्वकं स्फोरयति -- किं तदित्यादिना। ज्ञाननिष्ठाप्राप्तिक्रमस्य विस्तरेणोक्तौ दुर्बोधत्वमाशङ्क्य परिहरति -- किमिति। चतुर्थपादस्य पूर्वेणासङ्गतिमाशङ्क्याह -- यथेति। निष्ठायाः सापेक्षत्वात्प्रतिसंबन्धि प्रतिनिर्देष्टव्यमित्याह -- कस्येति। या ब्रह्मज्ञानस्य परा निष्ठा सा प्रकृतस्य ज्ञानस्य निष्ठेत्याह -- ब्रह्मेति। तस्य परा निष्ठा न प्रसिद्धेति कृत्वा साधनानुष्ठानाधीनतया साध्येति मत्वा पृच्छति -- कीदृशीति। प्रसिद्धमात्मज्ञानमनुरुध्य ब्रह्मज्ञाननिष्ठा सुज्ञानेत्याह -- यादृशमिति। तत्रापि प्रसिद्धिरसिद्धेति शङ्कते -- कीदृगिति। अर्थेनैव विशेषो हीति न्यायेनोत्तरमाह -- यादृश इति। तस्मिन्नपि विप्रतिपत्तेरप्रसिद्धिमभिसंधाय पृच्छति -- कीदृश इति। भगवद्वाक्यान्युपनिषद्वाक्यानि चाश्रित्य परिहरति -- यादृश इति। न जायते म्रियते वेत्यादीनि वाक्यानि। कूटस्थत्वमसङ्गत्वमित्यादिन्यायः। ज्ञानस्य,विषयाकारत्वादात्मनश्चाविषयत्वादनाकारत्वाच्च तदाकारज्ञानायोगादात्मप्रसिद्धावपि नात्मज्ञानप्रसिद्धिरिति शङ्कते -- नन्विति। आकारवत्त्वमात्मनः श्रुतिसिद्धमिति सिद्धान्ती शङ्कते -- नन्वादित्येति। उक्तवाक्यानामन्यार्थत्वदर्शनेन पूर्ववादी परिहरति -- नेत्यादिना। संग्रहवाक्यं प्रपञ्चयति -- द्रव्येति। इतश्चाकारवत्त्वमात्मनो नास्तीत्याह -- अरूपमिति। यदात्मनो विषयत्वाभावात्तद्विषयं ज्ञानं न संभवतीत्युक्तं तदुपपादयति -- अविषयत्वाच्चेति। आत्मनोऽविषयत्वे श्रुतिमुदाहरति -- नेत्यादिना। संदृशे सम्यग्दर्शनविषयत्वायास्यात्मनो रूपं न तिष्ठतीत्यर्थः। तदेव करणागोचरत्वेनोपपादयति -- नेति। शब्दादिशून्यत्वाच्चात्मा विषयो न भवतीत्याह -- अशब्दमिति। आत्मनो विषयत्वाकारवत्त्वयोरभावे फलितमाह -- तस्मादिति। ज्ञानस्यात्माकारत्वाभावे सत्यात्मज्ञानमिति व्यपदेशासिद्धिरित्येकदेशी शङ्कते -- कथं तर्हीति। कात्रानुपपत्तिरित्याशङ्क्याह -- सर्वं हीति। आत्मनोऽपि तर्हि विषयत्वेन ज्ञानस्य तदाकारत्वं स्यादित्याशङ्क्याह -- निराकारश्चेति। आत्मनो विषयत्वराहित्यं चकारार्थः। आत्मवत्तज्ज्ञानस्यापि तर्हि निराकारत्वं भविष्यतीत्यत्राह -- ज्ञानेति। तच्छब्देनात्मज्ञानं गृह्यते। तस्य भावना पौनःपुन्येनानुसन्धानं तस्यानिष्ठा समाप्तिरात्मसाक्षात्कारदार्ढ्यं नचैतत्सर्वमात्मनो ज्ञानस्य वा निराकारत्वे सिध्यतीत्यर्थः। ज्ञानात्मनोः साम्योपन्यासेन सिद्धान्ती समाधत्तेनेत्यादिना। यथोक्तसाम्यानुसारादात्मचैतन्याभासव्याप्ता ज्ञानपरिणामवती बुद्धिः साभासबुद्धिव्याप्तं मनः साभासमनोव्याप्तानीन्द्रियाणि साभासेन्द्रियव्याप्तः स्थूलो देहः। तत्र लौकिकभ्रान्तिं प्रमाणयति -- अत इति। आत्मदृष्टेर्देहमात्रे दृष्टत्वात्तत्र चैतन्याभासव्याप्तिरिन्द्रियद्वारा कल्प्यत इन्द्रियेषु च तद्दृष्टिदर्शनाच्चैतन्याभासवत्त्वं मनोद्वारा सिध्यति मनसि चात्मदृष्टेश्चैतन्याभासवत्त्वं बुद्धिद्वारा लभ्यते बुद्धौ चात्मदृष्टेरज्ञानद्वारा चैतन्याभाससिद्धिरित्यर्थः। देहे लौकिकमात्मत्वदर्शनं न्यायाभावादुपेक्षितमित्याशङ्क्याह -- देहेति। तथापि कथमिन्द्रियाणां न्यायहीनमात्मत्वमिष्टमित्याशङ्क्याह -- तथेति। तथापि मनसो यदात्मत्वं तन्न्यायशून्यमित्याशङ्क्याह -- अन्य इति। बुद्धेरात्मत्वमपि न्यायोपेतमिति सूचयति -- अन्ये बुद्धीति। देहादौ बुध्यन्ते परमात्मत्वबुद्धिर्नान्यत्रेति नियमं वारयति -- ततोऽपीति। तत्र हि साभासेऽन्तर्यामिणि कारणोपासकानामात्मत्वधीरस्तीत्यर्थः। बुद्ध्यादौ देहान्ते लौकिकपरीक्षकाणामात्मत्वभ्रान्तौ साघारणं कारणमाह -- सर्वत्रेति। आत्मज्ञानस्य लौकिकपरीक्षकप्रसिद्धत्वादेव विधिविषयत्वमपि परेष्टं परास्तमित्याह -- इत्यत इति। ज्ञानस्य विधेयत्वाभावे किं कर्तव्यं द्रष्टव्यादिवाक्यैरित्याशङ्क्याह -- किंतर्हीति। आत्मज्ञानस्याविधेयत्वे प्रागुक्तमतःशब्दितं हेतुं विवृणोति -- अविद्येति। देहेन्द्रियमनोबुद्ध्यव्यक्तैरुपलभ्यमानैः सहोपलभ्यते चैतन्यं नान्यथा तेषामुपलम्भो जडत्वादित्यत्र विज्ञानवादिभ्रान्तिं प्रमाणयति -- अतएवेति। सर्वं ज्ञेयं ज्ञानव्याप्तमेव ज्ञायते तेन ज्ञानातिरिक्तं नास्त्येव वस्तु? संमतं हि स्वप्नदृष्टं वस्तु ज्ञानातिरिक्तं नास्तीति ते भ्राम्यन्तीत्यर्थः। ज्ञानस्यापि ज्ञेयत्वाज्ज्ञातृ वस्��्वन्तरमेष्टव्यमित्याशङ्क्याह -- प्रमाणान्तरेति। ज्ञानस्य स्वेनैव ज्ञेयत्वोपगमनेनातिरिक्तप्रमाणनिरपेक्षतां च प्रतिपन्ना इति संबन्धः। ब्रह्मात्मनि ज्ञानस्य सिद्धत्वेनाविधेयत्वे फलितमाह -- तस्मादिति। यत्नोऽत्र भावना। ब्रह्मणस्तज्ज्ञानस्य चात्यन्तप्रसिद्धत्वे कथं ब्रह्मण्यन्यथा प्रथा लौकिकानामित्यत्राह -- अविद्येति। यथाप्रतिभासं दुर्विज्ञेयत्वादिरूपमेव ब्रह्म किं न स्यात्तत्राह -- बाह्येति। गुरुप्रसादः शुश्रूषया तोषितबुद्धेराचार्यस्य करुणातिरेकादेव तत्त्वं बुध्यतामिति निरवग्रहोऽनुग्रहः? आत्मप्रसादस्त्वधिगतपदशक्तिवाक्यतात्पर्यस्य श्रौतयुक्त्यनुसंधानादात्मनो मनसो विषयव्यावृत्तस्य प्रत्यगेकाग्रतया तत्प्रावण्यमिति विवेकः। आत्मज्ञानस्यात्मद्वारा प्रसिद्धत्वे वाक्योपक्रमं प्रमाणयति -- तथाचेति। आत्मनो निराकारत्वात्तस्मिन्बुद्धेरप्रवृत्तेः सम्यग्ज्ञाननिष्ठा न सुसंपाद्येति मतमुत्थापयति -- केचित्त्विति। बहिर्मुखानामन्तर्मुखानां वा ब्रह्मणि सम्यग्ज्ञाननिष्ठा दुःसाध्येति विकल्प्याद्यमनूद्याङ्गीकरोति -- सत्यमिति। पूर्वपूर्वविशेषणमुत्तरोत्तरविशेषणे हेतुत्वेन योजनीयम्। द्वितीयं दूषयति -- तद्विपरीतानामिति। अद्वैतनिष्ठानां द्वैतविषये सम्यग्बुद्धेरतिशयेन दुःसंपाद्यत्वे हेतुमाह -- आत्मेति। तद्व्यतिरेकेण वस्त्वन्तरस्यासत्त्वं कथमित्याशङ्क्याह -- तथाचेति। अद्वैतमेव वस्तु द्वैतं त्वाविद्यकं नान्यथा तात्त्विकमित्येतदेवमेव यथा स्यात्तथोक्तवन्तो वयं तत्र तत्राध्यायेष्विति योजना। अन्तर्निष्ठानामद्वैतदर्शिनां द्वैते नास्ति सद्बुद्धिरित्यत्र भगवतोऽपि संमतिमाह -- उक्तंचेति। परमतं निराकृत्य प्रकृतमुपसंहरन्नात्मनो निराकारत्वे ज्ञानस्य तदालम्बनत्वे किं कारणमित्याशङ्क्याह -- तस्मादिति। नन्वात्मा कथंचित्सम्यग्ज्ञानक्रियासाध्यश्चेत्तस्य हेयोपादेयान्यतरकोटिनिवेशात्प्राप्तं स्वर्गादिवत्िक्रयासाध्यत्वेनाप्रसिद्धत्वं नेत्याह -- नहीति। आत्मत्वादेव प्रसिद्धत्वेन प्राप्तत्वादनात्मवत्तस्य हेयोपादेयत्वयोरयोगान्न क्रियासाध्यतेत्यर्थः। आत्मनश्चेदृते क्रियामसिद्धत्वं,तदा सर्वप्रवृत्तीनामभ्युदयनिःश्रेयसार्थानामात्मार्थत्वायोगादर्थिनोऽभावे स्वार्थत्वमप्रामाणिकं स्यादित्याह -- अप्रसिद्धे हीति। ननु प्रवृत्तीनां स्वार्थत्वं देहादीनामन्यतमस्यार्थित्वेन तादर्थ्यादित्याशङ्क्य घटादिवदचेतनस्यार्थित्वायोगान्नैवमित्याह -- न चेति। ननु प्रवृत्तीनां फलावसायितया सुखदुःखयोरन्यतरार्थत्वान्न स्वार्थत्वं तत्राह -- न चेति। प्रवृत्तीनां सुखदुःखार्थत्त्वेऽपि तयोः स्वार्थत्वासिद्धेरर्थित्वेनात्मा सिध्यतीत्यर्थः। किञ्च सर्वापेक्षान्यायादात्मावगत्यवसानः सर्वो व्यवहारः? नचात्मन्यप्रसिद्धे यज्ञादिव्यवहारस्य तज्ज्ञानार्थत्वं तेनात्मप्रसिद्धिरेष्टव्येत्याह -- आत्मेति। नन्वात्माप्रसिद्धोऽपि प्रमाणद्वारा प्रसिध्यति यत्सिध्यति तत्प्रमाणादेवेति न्यायात्तत्राह -- तस्मादिति। मानमेयादिसर्वव्यवहारस्यात्मावगत्यन्तत्वोपगमात्प्रागेव प्रमाणप्रवृत्तेरात्मप्रसिद्धेरेष्टव्यत्वादित्यर्थः। आत्मावगतेरेवं स्वाभाविकत्वे विवेकवतामारोपनिवृत्त्या ज्ञाननिष्ठा सुप्रसिद्धेत्युपसंहरति -- इत्यात्मेति। नन्वनाकारामेवानुमिमीमहे बुद्धिमिति वदतामनाकारमप्रत्यक्षमिच्छतां प्रागर्थावगतेरप्रसिद्धमेव ज्ञानं नेत्याह -- येषामिति। सुखादिवन्नित्यानुभवगम्यं ज्ञानं नानुमेयं विषयावगत्या तदनुमितावितरेतराश्रयादिति भावः। इतश्च ज्ञानं प्रसिद्धमन्यथा तत्र जिज्ञासाप्रसङ्गान्नच ज्ञाने जिज्ञासा प्रसिद्धा प्रसिद्धे च तदयोगादित्याह -- जिज्ञासेति। तदेव प्रपञ्चयति -- अप्रसिद्धं चेदिति। दृष्टान्तमेव व्याचष्टे -- यथेति। दार्ष्टान्तिकं विवृणोति -- तथेति। इष्टापत्तिं निराचष्टे -- नचेति। ज्ञानस्य ज्ञानान्तरेण ज्ञेयत्वमेतच्छब्दार्थः। अनवस्थापत्तेरित्यर्थः। ज्ञाने जिज्ञासानुपपत्तौ फलितमाह -- अत इति। प्रसिद्धेऽपि ज्ञाने ज्ञातर्यात्मनि किमायातं तदाह -- ज्ञातापीति। ज्ञानस्य विना ज्ञातारमपर्यवसानादित्यर्थः। ज्ञानस्य प्रसिद्धत्वे तत्र भावनापर्यायो विधिर्नास्तीत्याह -- तस्मादिति। कुत्र तर्हि प्रयत्नाख्या भावनेत्याशङ्क्याह -- किंत्विति। अविषये निराकारे चात्मनि ज्ञाननिष्ठाया दुःसंपाद्यत्वाभावे फलितं निगमयति -- तस्मादिति।

Sri Vallabhacharya

।।18.50।।ज्ञानस्य या परा निष्ठा तां सिद्धिं प्राप्तोऽपि जीवन्नेवेह यथाऽऽत्मनाऽक्षरब्रह्मप्राप्तो भवति तथा मत्तो निबोध।

Sridhara Swami

।।18.50।।एवंभूतस्य परमहंसस्य ज्ञाननिष्ठया ब्रह्मभावप्रकारमाह -- सिद्धिं प्राप्त इति षड्भिः। नैष्कर्म्यसिद्धिं प्राप्तः सन् यथा येन प्रकारेण ब्रह्म प्राप्नोति तथा तं प्रकारं संक्षेपेणैव मे वचनान्निबोध।

Explore More