Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 38 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Nature of Happiness (Rajasic)

Sanskrit Shloka (Original)

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् | परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ||१८-३८||

Transliteration

viṣayendriyasaṃyogādyattadagre.amṛtopamam . pariṇāme viṣamiva tatsukhaṃ rājasaṃ smṛtam ||18-38||

Word-by-Word Meaning

विषयेन्द्रियसंयोगात्from the contact of the senseorgans with the objects
यत्which
तत्that
अग्रेat first
अमृतोपमम्like nectar
परिणामेin the end
विषम्poison
इवlike
तत्that
सुखम्pleasure
राजसम्Rajasic
स्मृतम्is declared.Commentary Sensual pleasure is mixed with pain

📖 Translation

English

18.38 That happiness which arises from the contact of the sense-organs with the objects, which is at first like nectar, and in the end like poison that is declared to be Rajasic.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.38।। जो सुख विषयों और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है, वह प्रथम तो अमृत के समान, परन्तु परिणाम में विष तुल्य होता है, वह सुख राजस कहा गया है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Avoid career paths or work behaviors driven solely by immediate financial gain, superficial prestige, or quick wins, especially if they compromise ethics, long-term well-being, or genuine purpose. While initially appearing rewarding, such pursuits often lead to burnout, moral compromise, and a profound sense of emptiness, like 'nectar at first, poison in the end'.

🧘 For Stress & Anxiety

Be highly discerning of coping mechanisms for stress or mental health challenges. Instant gratification from unhealthy habits (e.g., excessive consumption, compulsive social media, escapism) may offer temporary relief but ultimately exacerbates underlying issues, leading to greater anxiety, guilt, and a dulled intellect. Prioritize sustainable well-being practices over quick fixes.

❤️ In Relationships

Approach relationships with a focus on deeper connection, shared values, and mutual growth, rather than solely on initial infatuation, physical attraction, or what the other person can immediately provide. Relationships based purely on superficial 'highs' are prone to disillusionment, pain, and emptiness when the initial 'nectar' of novelty or passion inevitably fades.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Beware of pleasures that promise immediate bliss but deliver eventual sorrow; true happiness lies beyond fleeting sense gratification.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

18.38 विषयेन्द्रियसंयोगात् from the contact of the senseorgans with the objects? यत् which? तत् that? अग्रे at first? अमृतोपमम् like nectar? परिणामे in the end? विषम् poison? इव like? तत् that? सुखम् pleasure? राजसम् Rajasic? स्मृतम् is declared.Commentary Sensual pleasure is mixed with pain? fear and sin. A small grain of sensual pleasure is mixed with a mountain of pain. He who indulges in sensual pleasures will have to experience pain also? side by side. He is afraid of losing the objects that give him pleasure. He is attached to them. Attachment is death. It brings him again and again to this world of death. Fear and attachment coexist with sensual pleasure. He has to exert a lot to get money. He can obtain the objects through money. During exertion he commits many sinful acts and he will have to suffer in hell. The next birth will be of a very low nature. He tells lies and cheats people to obtain money. The senses also lose their vigour through indulgence in sensual pleasure. He loses his strength? vigour? wealth and energy. His intellect becomes dull? weak? impure? turbid and perverted. He loses his money and proper understanding. (Cf.V.22)

Shri Purohit Swami

18.38 That which as first is like nectar, because the senses revel in their objects, but in the end acts like poison - that pleasure arises from Passion.

Dr. S. Sankaranarayan

18.38. [The happiness] which is like nectar at its time due to the contact between the senses and sense-objects; but which is like poison at the time of its result-that is considered to be of the Rajas (Strand).

Swami Adidevananda

18.38 That pleasure which arises from the contact of senses with their objects, which is like elixir at first but like poison in the end, is said to be Rajasika.

Swami Gambirananda

18.38 That joy is referred to as born of rajas which, arising from the contact of the organs and (their) objects, is like nectar in the beginning, but like poison at the end.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।18.38।। इस श्लोक में दी गई परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है कि राजस सुख सात्त्विक सुख के ठीक विपरीत लक्षण वाला है।इन्द्रियों के विषयो के साथ प्रत्यक्ष संयोग होने पर ही राजस सुख की प्राप्ति हो सकती है। दुर्भाग्य से इन दोनों का यह संयोग नित्य वहीं बना रह सकता? क्योंकि विषय अनित्य और परिवर्तनशील होते हैं। इसी प्रकार? विषयों से सम्पर्क करने वाली इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि अनित्य ही हैं। अत भोग्य विषय और भोक्ता इन्द्रियादि दोनों के ही अनित्य होने पर उनके मध्य नित्य संयोग रहना असंभव है। उस स्थिति में? राजस सुख नित्य कैसे हो सकता है कोई भी मनुष्य इस क्षणिक वैषयिक सुख का भी पूर्णत और यथेष्ट भोग नहीं कर सकता? क्योंकि भोगकाल में भी उसे भय और चिन्ता लगी रहती है कि कहीं यह सुख शीघ्र ही समाप्त न हो जाय। केवल राजसी स्वभाव के लोग ही इस प्रकार के सुखों में रम सकते हैं? जो कि वास्तव में दुख के कारण ही होते हैं। विवेकी पुरुष इसमें नहीं रमते।

Swami Ramsukhdas

।।18.38।। व्याख्या --   विषयेन्द्रियसंयोगात् -- विषयों और इन्द्रियोंके संयोगसे होनेवाला जो सुख है? उसमें अभ्यास नहीं करना पड़ता। कारण कि यह प्राणी किसी भी योनिमें जाता है? वहाँ उसको विषयों और इन्द्रियोंके संयोगसे होनेवाला सुख मिलता ही है। शब्द? स्पर्श आदि पाँचों विषयोंका सुख पशुपक्षी? कीटपतङ्ग आदि सभी प्राणियोंको मिलता है। अतः उस सुखमें प्राणिमात्रका स्वाभाविक अभ्यास रहता है। मनुष्यजीवनमें भी बचपनसे देखा जाय तो अनुकूलतामें राजी होना और प्रतिकूलतामें नाराज होना स्वाभाविक ही होता आया है। इसलिये इस राजस सुखमें अभ्यासकी जरूरत नहीं है।यत्तदग्रेऽमृतोपमम् -- राजस सुखको आरम्भमें अमृतकी तरह कहनेका भाव यह है कि सांसारिक विषयोंकी प्राप्तिकी सम्भावनाके समय मनमें जितना सुख होता है? उतना सुख? मस्ती और राजीपन विषयोंके मिलनेपर नहीं रहता। मिलनेपर भी आरम्भमें (संयोग होते ही) जैसा सुख होता है? थोड़े समयेके बाद वैसा सुख नहीं रहता और उस विषयको भोगतेभोगते जब भोगनेकी शक्ति क्षीण हो जाती है? उस समय सुख नहीं होता? प्रत्युत विषयभोगसे अरुचि हो जाती है। भोग भोगनेकी शक्ति क्षीण होनेके बाद भी अगर विषयोंको भोगा जाय तो दुःख? जलन पैदा हो जाती है? चित्तमें सुख नहीं रहता? इसलिये यह राजस सुख आरम्भमें अमृतकी तरह दीखता है।अमृतकी तरह कहनेका दूसरा भाव यह है कि जब मन विषयोंमें खींचता है? तब मनको वे विषय बड़े प्यारे लगते हैं। विषयों और भोगोंकी बातें सुननेमें जितना रस आता है? उतना भोगोंमें नहीं आता। इसलिये गीतामें आया है -- यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः (2। 42) राजस पुरुष स्वर्गके भोगोंका सुख सुनते हैं तो उनको वह सुख बड़ा प्रिय लगता है और वे उसके लिये ललचा उठते हैं। तात्पर्य है कि वे स्वर्गके सुख दूरसे सुनकर ही बड़े प्रिय लगते हैं परन्तु स्वर्गमें जाकर सुख भोगनेसे उनको उतना सुख नहीं मिलता और वह उतना प्रिय भी नहीं लगता परिणामे विषमिव -- आरम्भमें विषय बड़े सुन्दर लगते हैं? उनमें बड़ा सुख मालूम देता है परन्तु उनको भोगतेभोगते जब परिणाममें वह सुख नीरसतामें परिणत हो जाता है? उस सुखमें बिलकुल अरुचि हो जाती है? तब वही सुख जहरकी तरह मालूम देता है।संसारमें जितने प्राणी कैदमें पड़े हैं? जितने चौरासी लाख योनियों और नरकोंमें पड़े हैं? उसका कारण देखा जाय तो उन्होंने विषयोंका भोग किया है? उनसे सुख लिया है? इसीसे वे कैद? नरक आदिमें दुःख पा रहे हैं क्योंकि राजस सुखका परिणाम दुःख होता ही है -- रजसस्तु फलं दुःखम् (गीता 14। 16)।आज भी जो लोग घबरा रहे हैं? दुःखी हो रहे हैं? वे सब पदार्थोंके रागके कारण ही दुःख पा रहे हैं। जो धनी होकर फिर निर्धन हो गया है? वह जितना दुःखी और संतप्त है? उतना दुःख और सन्ताप स्वाभाविक निर्धनको नहीं है क्योंकि उसके भीतर सुखके संस्कार अधिक नहीं पड़े हैं। परन्तु धनीने राजस सुख अधिक भोगा है? उसके भीतर सुखके संस्कार अधिक पड़े हैं? इसलिये उसको धनके अभावका दुःख ज्यादा है। जैसे? जो मनुष्य तरहतरहकी सामग्री भोजन करनेवाला है? उसके भोजनमें कभी थोड़ीसी भी कमी रह जाय तो उसको वह कमी बड़ी खटकती है कि आज भोजनमें चटनी नहीं है? खटाई नहीं है? मिठाई नहीं है? अमुकअमुक चीज नहीं है -- इस प्रकार नहींनहींका ही ताँता लगा रहता है। परन्तु साधारण आदमी बाजरेकी रूखीसूखी रोटी खाकर भी मौजसे रहता है? उसको भोजनमें किसी चीजकी कमी खटकती ही नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि पदार्थोंके संयोगसे जितना ज्यादा सुख लिया है? उतना ही उसके अभावका अनुभव होता है। अभावके अनुभवमें दुःख ही होता है। जिस पदार्थकी कामना होती है? उसकी प्राप्तिके लिये मनुष्य उद्योग करते हैं। उद्योग करनेपर भी वस्तु मिलेगी या नहीं मिलेगी? इसमें संदेह रहता है। वस्तु न मिले तो उसके अभावका दुःख होता है? और वस्तु मिल जाय तो उस वस्तुको और भी अधिक प्राप्त करनेकी इच्छा हो जाती है। इस प्रकार इच्छापूर्ति नयी इच्छाका कारण बन जाती है और इच्छापूर्ति तथा फिर इच्छाकी उत्पत्ति -- यह चक्कर चलता ही रहता है? इसका कभी अन्त नहीं आता। तात्पर्य यह है कि इच्छा कभी मिटती नहीं और इच्छाके रहते हुए अभाव खटकता रहता है। यह अभाव ही विषकी तरह है अर्थात् दुःखदायी है।जब राजस सुख परिणाममें विषकी तरह है? तो फिर र��जस सुख लेनेवाले जितने लोग हैं? उन सबको सुखभोगके अन्तमें मर जाना चाहिये परन्तु राजस सुख विषकी तरह मारता नहीं? प्रत्युत विषकी तरह अरुचिकारक हो जाता है। उसमें पहले जैसी रुचि होती है? वैसी रुचि अन्तमें नहीं रहती अर्थात् वह सुख विषकी तरह हो जाता है? साक्षात् विष नहीं होता।राजस सुख विषकी तरह क्यों होता है कारण कि विष तो एक जन्ममें ही मारता है? पर राजस सुख कई जन्मोंतक मारता है। राजस सुख लेनेवाला रागी पुरुष शुभ कर्म करके यदि स्वर्गमें भी चला जाता है? तो वहाँ भी उसको सुख? शान्ति नहीं मिलती। स्वर्गमें भी अपनेसे ऊँची श्रेणीवालोंको देखकर ईर्ष्या होती है कि ये हमारेसे ऊँचे क्यों हो गये समान पदवालोंको देखकर दुःख होता है कि ये हमारे समान पदपर आकर क्यों बैठ गये और नीची श्रेणीवालोंको देखकर अभिमान आता है कि हम इनसे ऊँचे हैं इस प्रकार उसके मनमें ईर्ष्या? दुःख और अभिमान होते ही रहते हैं? फिर उसके मनमें सुख कहाँ और शान्ति कहाँ इतना ही नहीं? पुण्योंके क्षीण हो जानेपर उसको पुनः मृत्युलोकमें आना पड़ता है -- क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (गीता 9। 21)। यहाँ आकर फिर शुभ कर्म करता है और फिर स्वर्गमें जाता है। इस प्रकार जन्ममरणके चक्करमें चढ़ा ही रहता है -- गतागतं कामकामा लभन्ते (9। 21)। यदि वह रागके कारण पापकर्मोंमें लग जाता है तो परिणाममें चौरासी लाख योनियों और नरकोंमें पड़ता हुआ न जाने कितने जन्मोंतक जन्मतामरता रहता है? जिसका कोई अन्त नहीं आता। इसलिये इस सुखको विषकी तरह कहा गया है।तत्सुखं राजसं स्मृतम् -- सात्त्विक सुखके लिये तो (सैंतीसवें श्लोकमें) प्रोक्तम् पद कहा है? पर राजस सुखके लिये यहाँ स्मृतम् पद कहनेका तात्पर्य है कि पहले भी मनुष्यने राजस सुखका फल दुःख पाया है परन्तु रागके कारण वह संयोगकी तरफ पुनः ललचा उठता है। कारण कि संयोगका प्रभाव उसपर पड़ा हुआ है और परिणामके प्रभावको वह स्वीकार नहीं करता। अगर वह परिणामके प्रभावको स्वीकार कर ले? तो फिर वह राजस सुखमें फँसेगा नहीं। स्मृति? शास्त्र? पुराण आदिमें ऐसे बहुतसे इतिहास आते हैं? जिनमें मनुष्योंके द्वारा राजस सुखके कारण बहुत दुःख पानेकी बात आयी है। इसी बातको स्मरण करानेके लिये यहाँ स्मृतम् पद आया है।जिसकी वृत्ति जितनी सात्त्विक होती है? वह उतना ही हरेक विषयके परिणामकी तरफ देखता है। अभीके तात्कालिक सुखकी तरफ वह ध्यान नहीं देता। परंतु राजसी वृत्तिवाला परिणामकी तरफ देखता ही नहीं? उसकी वृत्ति तात्कालिक सुखकी तरफ ही जाती है। इसलिये वह संसारमें फँसा रहता है। राजस पुरुषको संसारका सम्बन्ध वर्तमानमें तो अच्छा मालूम देता है परन्तु परिणाममें यह हानिकारक है -- ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते (गीता 5। 22)। इसलिये साधकको संसारसे विरक्त हो जाना चाहिये राजस सुखमें नहीं फँसना चाहिये।, सम्बन्ध --   अब तामस सुखका वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।18.38।। जो सुख विषयों और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है, वह प्रथम तो अमृत के समान, परन्तु परिणाम में विष तुल्य होता है, वह सुख राजस कहा गया है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।18.38।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।18.38।।राजसं सुखं हेयत्वाय कथयति -- विषयेति। बलं सङ्घातसामर्थ्यं? वीर्यं पराक्रमकृतं यशः? रूपं शरीरसौन्दर्यं? प्रज्ञा श्रुतार्थग्रहणसामर्थ्यं? मेधा गृहीतार्थस्याविस्मरणेन धारणशक्तिः? धनं गोहिरण्यादि? उत्साहस्तु कार्यं प्रत्युपक्रमादिः? एतेषां नाशकत्वाद्वैषयिकं सुखं विषसममित्यर्थः। तत्रैव हेत्वन्तरमाह -- अधर्मेति।

Sri Vallabhacharya

।।18.38।।विषयेति। स्पष्टमेवोपलभ्यते विषयस्य रूपादेः इन्द्रियैः संयोगाद्यत्तत्सुखममृतोपममग्रे प्रथमं परिणामे विपाके विषमिव दुःखरूपम्।

Sridhara Swami

।।18.38।।राजसं सुखमाह -- विषयेन्द्रियेति। विषयाणामिन्द्रियाणां च संयोगाद्यत्तत्प्रसिद्धं स्त्रीसङ्गादि सुखममृतमुपमा यस्य तादृशं भवत्यग्रे प्रथमम्। परिणामे तु विषतुल्यमिहामुत्र च दुःखहेतुत्वात्तत्सुखं राजसं स्मृतम्।

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