Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 30 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये | बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ||१८-३०||
Transliteration
pravṛttiṃ ca nivṛttiṃ ca kāryākārye bhayābhaye . bandhaṃ mokṣaṃ ca yā vetti buddhiḥ sā pārtha sāttvikī ||18-30||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
18.30 The intellect which knows the path of work and renunciation, what ought to be done and what ought not to be done, fear and fearlessness, bondage and liberation that intellect is Sattvic (pure), O Arjuna.
।।18.30।। हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, कार्य और अकार्य, भय और अभय तथा बन्ध और मोक्ष को तत्त्वत जानती है, वह बुद्धि सात्विकी है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
A Sattvic intellect in the workplace means making decisions based on long-term value, ethical principles, and genuine contribution, rather than short-term gains or fear of failure. It helps discern when to actively pursue a project with full dedication (Pravritti) and when to delegate, step back, or even let go (Nivritti) for the greater good or personal well-being. It guides in understanding what tasks are truly beneficial ('Karya') and which are counterproductive or unethical ('Akarya').
🧘 For Stress & Anxiety
This verse empowers one to analyze the root causes of stress and anxiety by identifying genuine threats versus imagined fears ('Bhaya' vs. 'Abhaya'). A pure intellect fosters emotional resilience, enabling one to detach from unnecessary worries and cultivate inner freedom ('Moksha') from overwhelming thoughts, rather than being bound by them ('Bandha'). It promotes a calm, clear assessment of challenging situations.
❤️ In Relationships
In relationships, a Sattvic intellect facilitates clear communication, ethical conduct, and empathy. It helps discern healthy boundaries from unhealthy attachments ('Bandha') and fosters connections based on mutual respect and growth ('Moksha'). It guides one in understanding what actions are constructive ('Karya') for the relationship and what behaviors are detrimental ('Akarya'), enabling one to engage fully when appropriate and to create necessary space when required.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Cultivate a pure intellect to discern the path of right action, courage, and true liberation in all aspects of life, knowing what to embrace and what to renounce for ultimate well-being.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
18.30 प्रवृत्तिम् action? the path of work? च and? निवृत्तिम् the path of renunciation? च and? कार्याकार्ये what ought to be done and what ought not to be done? भयाभये fear and fearlessness? बन्धम् bondage? मोक्षम् liberation? च and? या which? वेत्ति knows? बुद्धिः intellect? सा that? पार्थ O Arjuna? सात्त्विकी Sattvic.Commentary The threefold nature of knowledge has been described already (verse 22 above). Now the threefold nature of the intellect is described. Knowledge is different from the intellect.Pravritti Action The cause of bondage the path of action. Nivritti Inaction The cause of liberation the path of renunciation the path of Sannyasa.Karyakarye The pure intellect knows what ought to be done and what ought not to be done at,particular places and times it knows the actions that produce visible or invisible results? that are enjoined or prohibited by the scriptures. It guides a man who relies on the scriptural ordinances for his daily conduct of life.Bhayabhaye Fear and fearlessness The cause of fear and fearlessness either visible or invisible.Bandham moksham Bondage and liberation together with their causes.Knowledge is a Vritti (function or state) of the intellect whereas intellect is what functions or undergoes the change of state. Even firmness is only a particular Vritti (modification or state) of the intellect. (Cf.XVIII.20)
Shri Purohit Swami
18.30 That intellect which understands the creation and dissolution of life, what actions should be done and what not, which discriminates between fear and fearlessness, bondage and deliverance, that is Pure.
Dr. S. Sankaranarayan
18.30. The intellect which knows the activity and the cessation from the activity, the proper and improper actions, the fear and non-fear, and the bondage and emancipation-that intellect is considered to be of the Sattva (Strand).
Swami Adidevananda
18.30 That Buddhi, O Arjuna, which knows activity and renunciation, what ought to be done and what ought not to be done, fear and fearlessness, bondage and release - that (Buddhi) is Sattvika.
Swami Gambirananda
18.30 O Partha, that intellect is born of sattva which understands action and withdrawal, duty and what is not duty, the sources of fear and fearlessness, and bondage and freedom.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।18.30।। वह बुद्धि सर्वोच्च मानी जाती है? जो अपने कार्यक्षेत्र की वस्तुओं? व्यक्तियों एवं घटनाओं को यथार्थ रूप में तत्परता से समझ सकती है। बुद्धि के अनेक कार्य हैं? जैसे निरीक्षण? विश्लेषण? वर्गीकरण? संकल्पना? कामना? स्मरण करना इत्यादि तथापि इन सब में जिस क्षमता की आवश्यकता होती है? वह है विवेक की क्षमता। विवेक के बिना यथार्थ निरीक्षण? निर्णय आदि असंभव हैं। अत बुद्धि का मुख्य कार्य है? विवेक।प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दो शब्दों के परिभाषिक अर्थ क्रमश कर्ममार्ग और संन्यास मार्ग हैं। एक साधक को इन दोनों के वास्तविक स्वरूप को समझकर स्वयं की अभिरुचि एवं क्षमता के अनुसार किसी एक मार्ग का यथायोग्य अनुरक्षण करना चाहिये। अन्यथा कोई साधक कर्म में ही आसक्त होकर रह जायेगा? तो अन्य साधक संन्यास के नाम पर केवल पलायन ही करेगंे।कार्य और अकार्य सत्य और मिथ्या का विवेक करने वाली बुद्धि का प्रयोजन? कार्य और अकार्य अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक करना भी है। मनुष्य को यह जानना आवश्यक होता है कि कौन से कर्म कर्तव्य और उचित हैं तथा कौन से कर्म निषिद्ध और अनुचित हैं। इस विवेक के न होने पर मनुष्य कभीकभी क्रोधावेश या मिथ्या अभिमान के कारण अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे देता है? जिसका उसे कालान्तर में पश्चाताप होता है। अर्जुन ने भी मानसिक उन्माद की स्थिति में इस विवेक को खो दिया था? जिसका मुख्य कारण उसका मित्र? बन्धु? परिवार से अत्याधिक स्नेह ही था।भय और अभय मूढ़ लोग अत्याधिक विषयासक्ति के कारण अवैध? अनैतिक और अधार्मिक कार्य करने से भयभीत नहीं होते परन्तु शास्त्रों का अध्ययन और आत्मानुसंधान जैसे श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त होने में उन्हें भय प्रतीत होता है। संन्यास और वैराग्य जैसे शब्दों से भी उन्हें डर लगता है। अत वह बुद्धि सात्त्विक है? जो भय और अभय के कारणों का सम्यक् प्रकार से विवेक कर सकती है।बन्ध और मोक्ष अपने सच्चिदानन्दस्वरूप के अज्ञान से ही हम विषयों से सुख प्राप्ति की कामना करके कर्म में प्रवृत्त होते हैं। कर्मफल के उपभोग से वासनाएं उत्पन्न होती हैं? जो पुन हमें कर्म में प्रवृत्त करती रहती हैं। ये अज्ञानजनित वासनाएं ही हमारे बन्धन को दृढ़ करती हैं। अत आत्मज्ञान के द्वारा अज्ञान के नाश से ही हमें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। जो बुद्धि बन्धन के कारण और मोक्ष के साधन को तत्त्वत जानती है? वही सात्त्विक बुद्धि है।सारांशत? प्रवृत्ति और निवृत्ति? कार्याकार्य? भयाभय और बन्धमोक्ष के स्वरूप को यथावत् पहचानने वाली बुद्धि सात्त्विक है।सात्त्विक बुद्धि मरुस्थल में भी सुन्दर उपवन की रचना कर सकती है और विफलता की प्रत्येक आशंका से सफलता का सम्पादन कर सकती है। बुद्धि और धृति के बिना जीवन में प्राप्त होने वाले सुअवसर भी विपत्ति के कारण बन जाते हैं अथवा धूलि में मिल जाते हैं। सात्त्विक बुद्धि घोरतम त्रासदियों को श्रेष्ठतम सुख समृद्धियों में परिवर्तित कर सकती है।राजसी बुद्धि क्या है सुनो
Swami Ramsukhdas
।।18.30।। व्याख्या -- प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च -- साधकमात्रकी प्रवृत्ति और निवृत्ति -- ये दो अवस्थाएँ होती हैं। कभी वह संसारका कामधंधा करता है? तो यह प्रवृत्तिअवस्था है और कभी संसारका कामधंधा छोड़कर एकान्तमें भजनध्यान करता है? तो यह निवृत्तिअवस्था है। परन्तु इन दोनोंमें सांसारिक कामनासहित प्रवृत्ति और वासनासहित निवृत्ति (टिप्पणी प0 912) -- ये दोनों ही अवस्थाएँ प्रवृत्ति हैं अर्थात् संसारमें लगानेवाली हैं? तथा सांसारिक कामनारहित प्रवृत्ति और वासनारहित निवृत्ति -- ये दोनों ही अवस्थाएँ निवृत्ति हैं अर्थात् परमात्माकी तरफ ले जानेवाली हैं। इसलिये साधक इनको ठीकठीक जानकर,कामनावासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्तिको ही ग्रहण करें।वास्तवमें गहरी दृष्टिसे देखा जाय तो कामनावासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्ति भी यदि अपने सुख? आराम आदिके लिये की जायँ तो वे दोनों ही प्रवृत्ति हैं क्योंकि वे दोनों ही बाँधनेवाली हैं अर्थात् उनसे अपना व्यक्तित्व नहीं मिटता। परन्तु यदि कामनावासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्ति -- दोनों केवल दूसरोंके सुख? आराम और हितके लिये ही की जायँ? तो वे दोनों ही निवृत्ति हैं क्योंकि उन दोनोंसे ही अपना व्यक्तित्व नहीं रहता। वह अव्यक्तित्व कब नहीं रहता जब प्रवृत्ति और निवृत्ति जिसके प्रकाशसे प्रकाशित होती हैं तथा जो प्रवृत्ति और निवृत्तिसे रहित है? उस प्रकाशक अर्थात् तत्त्वकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही प्रवृत्ति और निवृत्ति की जाय। प्रवृत्ति तो की जाय प्राणिमात्रकी सेवाके लिये और निवृत्ति की जाय परम विश्राम अर्थात् स्वरूपस्थितिके लिये।कार्याकार्ये -- शास्त्र? वर्ण? आश्रमकी मर्यादाके अनुसार जो काम किया जाता है? वह कार्य है और शास्त्र आदिकी मर्यादासे विरुद्ध जो काम किया जाता है वह अकार्य है।जिसको हम कर सकते हैं? जिसको जरूर करना चाहिये और जिसको करनेसे जीवका जरूर कल्याण होता है? वह कार्य अर्थात् कर्तव्य कहलाता है और जिसको हमें नहीं करना चाहिये तथा जिससे जीवका बन्धन होता है? वह अकार्य अर्थात् अकर्तव्य कहलाता है। जिसको हम नहीं कर सकते? वह अकर्तव्य नहीं कहलाता? वह तो अपनी असामर्थ्य है।भयाभये -- भय और अभयके कारणको देखना चाहिये। जिस कर्मसे अभी और परिणाममें अपना और दुनियाका अनिष्ट होनेकी सम्भावना है? वह कर्म भय अर्थात् भयदायक है और जिस कर्मसे अभी और परिणाममें अपना और दुनियाका हित होनेकी सम्भावनना है? वह कर्म अभय अर्थात् सबको अभय करनेवाला है।मनुष्य जब करनेलायक कार्यसे च्युत होकर अकार्यमें प्रवृत्त होता है? तब उसके मनमें अपनी मनबड़ाईकी हानि और निन्दाअपमान होनेकी आशङ्कासे भय पैदा होता है। परन्तु जो अपनी मर्यादासे कभी विचलित नहीं होता? अपने मनसे किसीका भी अनिष्ट नहीं चाहता और केवल परमात्मामें ही लगा रहता है? उसके मनमें सदा अभय बना रहता है। यह अभय ही मनुष्यको सर्वथा अभयपद -- परमात्माको प्राप्त करा देता है।बन्धं मोक्षं च या वेत्ति -- जो बाहरसे तो यज्ञ? दान? तीर्थ? व्रत आदि उत्तमसेउत्तम कार्य करता है परन्तु भीतरसे असत् जड? नाशवान् पदार्थोंको और स्वर्ग आदि लोकोंको चाहता है? उसके लिये वे सभी कर्म बन्ध अर्थात् बन्धनकारक ही हैं। केवल परमात्मासे ही सम्बन्ध रखना? परमात्माके सिवाय कभी किसी अवस्थामें असत् संसारके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध न रखना मोक्ष अर्थात् मोक्षदायक है।अपनेको जो वस्तुएँ नहीं मिली हैं? उनकी कामना होनेसे मनुष्य उनके अभावका अनुभव करता है। वह अपनेको उन वस्तुओंके परतन्त्र मानता है और वस्तुओंके मिलनेपर अपनेको स्वतन्त्र मानता है। वह समझता तो यह है कि मेरे पास वस्तुएँ होनेसे मैं स्वतन्त्र हो गया हूँ? पर हो जाता है उन वस्तुओंके परतन्त्र वस्तुओंके अभाव और वस्तुओंके भाव -- इन दोनोंकी परतन्त्रतामें इतना ही फरक पड़ता है कि वस्तुओंके अभावमें परतन्त्रता दीखती है? खटकती है और वस्तुओंके होनेपर वस्तुओंकी परतन्त्रता परतन्त्रताके रूपमें दीखती ही नहीं क्योंकि उस समय मनुष्य अन्धा हो जाता है। परन्तु हैं ये दोनों ही परतन्त्रता? और परतन्त्रता ही बन्धन है। अभावकी परतन्त्रता प्रकट विष है और भावकी परतन्त्रता छिपा हुआ मीठा विष है? पर हैं दोनों ही विष। विष तो मारनेवाला ही होता है।निष्कर्ष यह निकला कि सांसारिक वस्तुओंकी कामनासे ही बन्धन होता है और परमात्माके सिवाय किसी वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति? देश? काल आदिकी कामना न होनेसे मुक्ति होती है (टिप्पणी प0 913)। यदि मनमें कामना है तो वस्तु पासमें हो तो बन्धन और पासमें न हो तो बन्धन यदि मनमें कामना नहीं है तो वस्तु पासमें हो तो मुक्त और पासमें न हो तो मुक्तिबुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी -- इस प्रकार जो प्रवृत्तिनिवृत्ति? कार्यअकार्य? भयअभय और बन्धमोक्षके वास्तविक तत्त्वको जानती है? वह बुद्धि सात्त्विकी है।इनके वास्तविक तत्त्वको जानना क्या है प्रवृत्तिनिवृत्ति? कार्यअकार्य? भयअभय और बन्धमोक्ष -- इनको गहरी रीतिसे समझकर? जिसके साथ वास्तवमें हमारा सम्बन्ध नहीं है? उस संसारके साथ सम्बन्ध न मानना और जिसके साथ हमारा स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है? ऐसे (प्रवृत्तिनिवृत्ति आदिके आश्रय तथा प्रकाशक) परमात्माको तत्त्वसे ठीकठीक जानना -- यही सात्त्विकी बुद्धिके द्वारा वास्तविक तत्त्वको ठीकठीक जानना है। सम्बन्ध -- अब राजसी बुद्धिके लक्षण बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।18.30।। हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, कार्य और अकार्य, भय और अभय तथा बन्ध और मोक्ष को तत्त्वत जानती है, वह बुद्धि सात्विकी है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।18.30।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।18.30।।तत्रादौ सात्त्विकीं बुद्धिं निर्दिशति -- प्रवृत्तिं चेति। प्रवृत्तिराचरणमात्रम्? अनाचरणमात्रं च निवृत्तिरिति किं नेष्यते तत्राह -- बन्धेति। यस्मिन्वाक्ये बन्धमोक्षावुच्येते तस्मिन्नेव प्रवृत्तिनिवृत्त्योरुक्तत्वात् कर्ममार्गस्य बन्धहेतुत्वान्मोक्षहेतुत्वाच्च संन्यासमार्गस्य तावेवात्र ग्राह्यावित्यर्थः।,करणाकरणयोर्निर्विषयत्वायोगाद्विषयापेक्षामवतार्य योग्यं विषयं निर्दिशति -- कस्येति। अनिष्टसाधनं भयमिष्टसाधनमभयमिति विभजते -- भयेति। बन्धादिमात्रज्ञानस्य बुद्ध्यन्तरेऽपि संभवाद्विशेषणम्। ननु बुद्धिशब्दितस्य ज्ञानस्य प्रागेव त्रैविध्यप्रतिपादनात्किमिति बुद्धेरिदानीं त्रैविध्यं प्रतिज्ञाय व्युत्पाद्यते तत्राह -- ज्ञानमिति। तर्हि ज्ञानेन गतत्वान्न पुनर्धृतिर्व्युत्पादनीयेत्याशङ्क्याह -- धृतिरपीति। विशेषशब्देन ज्ञानाद्व्यावृत्तिरिष्टा।
Sri Vallabhacharya
।।18.30।।तथा हि प्रवृत्तिं चेति त्रिभिः। प्रवृत्तिरभ्युदयसाधनभूतो धर्मः? निवृत्तिर्मोक्षसाधनभूतो धर्मः? ताबुभौ यथास्थितौ बुद्धिर्वेत्ति या सा सात्विको। अत्रमनसस्तु परा बुद्धिः [3।42] इत्युक्त्या बुद्धेः परत्वाभिप्रायेण रथो गच्छतीतिवद्वा वेत्तृत्वमुच्यते।
Sridhara Swami
।।18.30।।तत्र बुद्धेस्त्रैविध्यमाह -- प्रवृत्तिं चेति त्रिभिः। प्रवृत्तिं च धर्मे निवृत्तिं चाधमें। यस्मिन् देशे काले च यत्कार्यमकार्यं च भयाभये कार्याकार्यनिमित्तावर्थानर्थौ कथं बन्धः कथं वा मोक्ष इति या बुद्धिरन्तःकरणं वेत्ति सा सात्त्विकी। यया पुमान् वेत्तीति वक्तव्ये करणे कर्तृत्वोपचारः काष्ठानि पचन्तीतिवत्।