Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 26 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः | सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ||१८-२६||
Transliteration
muktasaṅgo.anahaṃvādī dhṛtyutsāhasamanvitaḥ . siddhyasiddhyornirvikāraḥ kartā sāttvika ucyate ||18-26||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
18.26 An agent who is free from attachment, non-egoistic, endowed with firmness and enthusiasm, and unaffected by success or failure, is called Sattvic (pure).
।।18.26।। जो कर्ता संगरहित, अहंमन्यता से रहित, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य की सिद्धि (सफलता) और असिद्धि (विफलता) में निर्विकार रहता है, वह कर्ता सात्त्विक कहा जाता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach tasks with full commitment, enthusiasm, and a focus on the quality and purpose of the work, rather than solely on personal recognition or external rewards. Maintain composure and learn from both successes and setbacks without letting ego inflate or deflate your sense of self-worth.
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivate inner calm by detaching from the intense pressure of outcomes. Focus on the effort, process, and noble intent behind your actions, maintaining enthusiasm and resolve through challenges. Understand that true mental peace comes from a balanced mind, unaffected by external results, rather than chasing constant success.
❤️ In Relationships
Engage with others with sincerity, firmness, and a genuine desire to contribute, free from expectations of validation or personal gain. Respond to relationship dynamics with understanding and steadiness, remaining unaffected by approval or disapproval, which fosters more authentic and resilient connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Act with selfless dedication and unwavering resolve, maintaining inner balance regardless of success or failure.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
18.26 मुक्तसङ्गः who is free from attachment? अनहंवादी nonegoistic? धृत्युत्साहसमन्वितः endowed with firmness and enthusiasm? सिद्ध्यसिद्ध्योः in success or failure? निर्विकारः unaffected? कर्ता an agent? सात्त्विकः Sattvic (pure)? उच्यते is called.Commentary A pure agent does his actions with his whole heart without feeling proud at the performance. He looks for the proper time and place and in accordance with the behests of the scriptures determines whether such actions are worth doing or not. He develops courage and a powerful will. He never seeks physical comforts. He is ite prepared to sacrifice his life for a noble cause. He is neither elated by success nor grieved by failure. He always keeps a balanced mind when he does any action. O Arjuna? that man is a pure agent who? while working? exhibits such alities.Siddhi Success attainment of the fruit of action performed.Nirvikarah Unaffected as having been urged to act merely by the authority of the scriptures? not by a desire for the sake of the reward.Now I will tell thee? O Arjuna? of the characteristics of a passionate agent.
Shri Purohit Swami
18.26 But when a man has no sentiment and no personal vanity, when he possesses courage and confidence, cares not whether he succeeds or fails, then his action arises from Purity.
Dr. S. Sankaranarayan
18.26. The agent who is free from attachment; who does not make any speech of egoism; who is full of contentment and enthusiasm; and who does not change [mentally] in success or in failure-that agent is said to be of the Sattva (Strand) nature.
Swami Adidevananda
18.26 That agent is said to be Sattvika who is free from attachment, who does not make much of himself, who is endued with steadiness and zeal and is untouched by success and failure.
Swami Gambirananda
18.26 [Ast. introduces this verse with 'Idanim kartrbhedah ucyate, Now is being stated the distinctions among the agents.'-Tr.] The agent who is free from attachment [Attachment to results or the idea of agentship.], not egotistic, endowed with fortitude and diligence, and unperturbed by success and failure is said to be possessed of sattva.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।18.26।। अब तक भगवान् श्रीकृष्ण ने त्रिविध ज्ञान और कर्म का वर्णन किया था। कर्म का तीसरा अंग है? कर्ता जीव? जो कामना से प्रेरित होकर कर्म में प्रवृत्त होता है। प्रकृति के तीन गुण हम सबके मानसिक जीवन एवं बौद्धिक क्षमताओं को प्रभावित करते हैं। स्वाभाविक ही है? कि किसी एक गुण के आधिक्य या प्राधान्य से हमारे कर्तृत्व में भी समयसमय पर परिवर्तन होता रहता है। अत यहाँ कर्ता का भी तीन भागों में वर्गीकरण किया गया है। सर्वप्रथम? भगवान् श्रीकृष्ण सात्त्विक कर्ता का वर्णन करते हैं।मुक्तसंग और अनहंवादी ये दो विशेषण सात्त्विक कर्ता के हैं। जो पुरुष कर्म के फल? जगत् की वस्तुओं तथा व्यक्तियों से आसक्ति रहित है? वह सात्त्विक कर्ता है। वह जानता है कि स्वयं से भिन्न किसी भी वस्तु में वह सुख नहीं है? जो उसके जीवन को पूर्ण और कृतार्थ कर सके। इसलिए वह किसी में आसक्ति नहीं रखता। अहंवादी का अर्थ है वह पुरुष? जो अपनी उपलब्धियों और सफलताओं का कर्ता स्वयं को ही मानकर सदैव गर्वयुक्त भाषण करता है? परन्तु सात्त्विक पुरुष में यह अहंमन्यता नहीं होती? क्योंकि उसका यह दृढ़ एवं निश्चयात्मक ज्ञान होता है कि कोई भी उपलब्धि एक अकेले पुरुष की कभी नहीं हो सकती।ईश्वर प्रदत्त क्षमताएं? प्राकृतिक नियम तथा अन्य जनों के सहयोग से ही सफलता सम्पादित की जा सकती है। इस ज्ञान के कारण उसे कभी यह गर्व नहीं होता कि उसने कोई अभूतपूर्व कार्य किया है। वह अपने अहंकार को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देता है।ऐसे मुक्तसंग और अनहंवादी पुरुष में असीम धैर्य और कार्य के प्रति उत्साह होता है। धृति मनुष्य की वह क्षमता है? जिसके कारण कार्य करने में कितने ही विघ्न और कठिनाइयाँ आने पर भी? मनुष्य साहस के साथ उनका सामना करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचता है। वह प्रयत्नशील पुरुष सदा सफलता के मार्ग पर उत्साह के साथ आगे बढ़ता जाता है।सात्त्विक कर्ता का विशेष गुण है? कार्य की सिद्धिअसिद्धि में हर्ष शोकादि विकारों से मुक्त रहना। इस सन्दर्भ में? मुझे जिस उदाहरण का स्मरण होता है? वह चिकित्सालय में कार्य करती हुई लगनशील परिचारिका का है। उसे सामान्यत किसी रोगी से आसक्ति नहीं होती उसे यह अभिमान नहीं होता कि वह स्वयं रोगी का उपचार कर रही है? क्योंकि वस्तुत वह कार्य चिकित्सक का होता है। धैर्य और उत्साह के बिना वह अपने सेवा कार्य को सतत नहीं कर सकती। और उसी प्रकार? उसे उपचार की सफलता या विफलता के विषय में अनावश्यक चिन्ता नहीं होती। रोगी के स्वस्थ हो जाने अथवा उसकी मृत्यु हो जाने से वह परिचारिका अति हर्षित या अति दुखी नहीं हो जाती। वह जानती है कि चिकित्सालय तो सफलता और विफलता तथा जन्म और मृत्यु का क्षेत्र है। वह तटस्थ भाव से अपने सेवा कार्य में रत रहती है।उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न पुरुष सात्त्विक कर्ता कहा जाता है। ऐसा पुरुष अपने कार्य क्षेत्र में अपनी समस्त क्षमताओं का सम्पूर्ण सदुपयोग करता है? क्योंकि आसक्ति आदि भावांे में उसकी शक्तियों का वृथा अपव्यय नहीं होता। स्वाभाविक ही है कि ऐसे सात्त्विक कर्ता को चिरस्थायी सफलता प्राप्त होती है और उसके कार्यों से जगत् का भी कल्याण होता है।सात्त्विक कर्ता को यह विवेक होता है कि शरीर? मन और बुद्धि उपाधियाँ चैतन्यस्वरूप आत्मा के सम्बन्ध से ही अपना कार्य करने में सक्षम होकर जगत् की सेवा कर सकती हैं। चैतन्य के बिना वे घर के एक कोने में रखी छड़ी की तरह असहाय रहती हैं।परमात्मा के पावन संकल्प की अभिव्यक्ति के लिए बुद्धि की क्षमता? हृदय का सौन्दर्य और शरीर की सार्मथ्य आदि सभी माध्यम हैं। अत? यदि इन उपाधियों में सामञ्जस्य न हो? तो आत्मा की अभिव्यक्ति अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं हो सकती। सात्त्विक कर्ता को अपने आत्मस्वरूप का सदैव भान बना रहता है।
Swami Ramsukhdas
।।18.26।। व्याख्या -- मुक्तसङ्गः -- जैसे सांख्ययोगीका कर्मोंके साथ राग नहीं होता? ऐसे सात्त्विक कर्ता भी रागरहित होता है।कामना? वासना? आसक्ति? स्पृहा? ममता आदिसे अपना सम्बन्ध जोड़नेके कारण ही वस्तु? व्यक्ति? पदार्थ? परिस्थिति? घटना आदिमें आसक्ति लिप्तता होती है। सात्त्विक कर्ता इस लिप्ततासे सर्वथा रहित होता है।अनहंवादी -- पदार्थ? वस्तु? परिस्थिति आदिको लेकर अपनेमें जो एक विशेषताका अनुभव करना है -- यह अहंवदनशीलता है। यह अहंवदनशीलता आसुरीसम्पत्ति होनेसे अत्यन्त निकृष्ट है। सात्त्विक कर्तामें यह अहंवदनशीलता? अभिमान तो रहता ही नहीं? प्रत्युत मैं इन चीजोंका त्यागी हूँ? मेरेमें यह अभिमान नहीं है? मैं निर्विकार हूँ? मैं सम हूँ? मैं सर्वथा निष्काम हूँ? मैं संसारके सम्बन्धसे रहित हूँ -- इस तरहके अहंभावका भी उसमें अभाव रहता है।धृत्युत्साहसमन्वितः -- कर्तव्यकर्म करते हुए विघ्नबाधाएँ आ जायँ? उस कर्मका परिणाम ठीक न निकले? लोगोंमें निन्दा हो जाय? तो भी विघ्नबाधा आदि न आनेपर जैसा धैर्य रहता है? वैसा ही धैर्य विघ्नबाधा आनेपर भी नित्यनिरन्तर बना रहे -- इसका नाम धृति है और सफलताहीसफलता मिलती चली जाय? उन्नति होती चली जाय? लोगोंमें मान? आदर? महिमा आदि बढ़ते चले ���ायँ -- ऐसी स्थितिमें मनुष्यके मनमें जैसी उम्मेदवारी? सफलताके प्रति उत्साह रहता है? वैसी ही उम्मेदवारी इससे विपरीत अर्थात् असफलता? अवनति? निन्दा आदि हो जानेपर भी बनी रहे -- इसका नाम उत्साह है। सात्त्विक कर्ता इस प्रकारकी धृति और उत्साहसे युक्त रहता है।सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः -- सिद्धि और असिद्धिमें अपनेमें कुछ भी विकार न आये? अपनेपर कुछ भी असर न पड़े अर्थात् कार्य ठीक तरहसे साङ्गोपाङ्ग पूर्ण हो जाय अथवा पूरा उद्योग करते हुए अपनी शक्ति? समझ? समय? सामर्थ्य आदिको पूरा लगाते हुए भी कार्य पूरा न हो फल प्राप्त हो अथवा न हो? तो भी अपने अन्तःकरणमें प्रसन्नता और खिन्नता? हर्ष और शोकका न होना ही सिद्धिअसिद्धिमें निर्विकार रहना है।कर्ता सात्त्विक उच्यते -- ऐसा आसक्ति तथा अहंकारसे रहित? धैर्य तथा उत्साहसे युक्त और सिद्धिअसिद्धिमें निर्विकार कर्ता सात्त्विक कहा जाता है।इस श्लोकमें छः बातें बतायी गयी हैं -- सङ्ग? अहंवदनशीलता? धृति? उत्साह? सिद्धि और असिद्धि। इनमेंसे पहली दो बातोंसे रहित? बीचकी दो बातोंसे युक्त और अन्तकी दो बातोंमें निर्विकार रहनेके लिये कहा गया है। सम्बन्ध -- अब राजस कर्ताके लक्षण बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।18.26।। जो कर्ता संगरहित, अहंमन्यता से रहित, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य की सिद्धि (सफलता) और असिद्धि (विफलता) में निर्विकार रहता है, वह कर्ता सात्त्विक कहा जाता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।18.26।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Anandgiri
।।18.26।।इदानीं कर्तृत्रैविध्यं ब्रुवन्नादौ सात्त्विकं कर्तारं दर्शयति -- मुक्तेति। सङ्गो नाम फलाभिसन्धिर्बा कर्तृत्वाभिमानो वा? नाहंवदनशीलः कर्ताहमिति वदनशीलो न भवतीत्यर्थः। धारणं धैर्यम्। क्रियमाणस्य कर्मणो यदि फलानभिसन्धिस्तर्हि नानुष्ठानविश्रम्भः संभवेदित्याशङ्क्याह -- केवलमिति। फलरागादिनेत्यादिशब्देन कर्मरागो गृह्यते। अयुक्त इति च्छेदः।
Sri Vallabhacharya
।।18.26।।कर्तुस्त्रैविध्यमाह -- मुक्तसङ्ग इति। मुक्तः सङ्गः फलादिविषयको येन अनहंवादी कर्तृत्वाभिमानरहितः कर्मसिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः सात्त्विक उच्यते कर्तेति। साङ्ख्ययोगसारमुपदिशन्वक्ति भगवान् त्वमपि तथा भवेत्यभिप्रायेण।
Sridhara Swami
।।18.26।।कर्तारं त्रिविधमाह -- मुक्तसङ्ग इति त्रिभिः। मुक्तसङ्गस्त्यक्ताभिनिवेशः? अनहंवादी गर्वोक्तिरहितः? धृतिर्धैर्यम्? उत्साह उद्यमः? ताभ्यां समन्वितः संयुक्तः? आरब्धस्य कर्मणः सिद्धावसिद्धौ च निर्विकारो हर्षविषादशून्यः एवंभूतः कर्ता सात्त्विक उच्यते।