Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 15 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Universal Causality of Action

Sanskrit Shloka (Original)

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः | न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ||१८-१५||

Transliteration

śarīravāṅmanobhiryatkarma prārabhate naraḥ . nyāyyaṃ vā viparītaṃ vā pañcaite tasya hetavaḥ ||18-15||

Word-by-Word Meaning

शरीरवाङ्मनोभिःby (his) body
यत्whatever
कर्मaction
प्रारभतेperforms
नरःman
न्याय्यम्right
वाor
विपरीतम्the reverse
वाor
पञ्चfive
एतेthese
तस्यits

📖 Translation

English

18.15 Whatever action a man performs with his body, speech and mind whether right or the reverse these five are its causes.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.15।। मनुष्य अपने शरीर, वाणी और मन से जो कोई न्याय्य (उचित) या विपरीत (अनुचित) कर्म करता है, उसके ये पाँच कारण ही हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

When evaluating project successes or failures, systematically analyze the five causal factors (e.g., resources, team, effort, environment, intent/leadership) involved in the execution, rather than solely focusing on the outcome. This allows for precise adjustments, learning, and improved future planning, recognizing that both 'right' (successful) and 'reverse' (failed) actions share the same causal structure.

🧘 For Stress & Anxiety

To manage stress arising from actions or their consequences, recognize that your thoughts, words, and behaviors are products of underlying causes. Instead of self-blame or external blame, identify which of these five factors (internal/external, conscious/unconscious) are contributing to your current mental state, empowering you to address them systematically rather than feeling overwhelmed.

❤️ In Relationships

In interactions, whether harmonious or conflict-ridden, understand that both your and others' actions (words, gestures, intentions) arise from a combination of these five causes. This perspective fosters empathy and encourages introspection, allowing you to identify the root causes of misunderstandings or positive connections, moving beyond superficial judgments of 'right' or 'wrong' behavior to address underlying factors.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Every human action, expressed through body, speech, or mind, whether morally right or wrong, is fundamentally governed by a universal set of five causes.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

18.15 शरीरवाङ्मनोभिः by (his) body? speech and mind? यत् whatever? कर्म action? प्रारभते performs? नरः man? न्याय्यम् right? वा or? विपरीतम् the reverse? वा or? पञ्च five? एते these? तस्य its? हेतवः causes.Commentary Nyayyam Right Not opposed to Dharma conformable to the scriptures justifiable.Viparitam The opposite What is opposite to Dharma and opposed to the scriptures unjustifiable.Even those actions? -- acts like winking and the like which are necessary conditions of life? are indicated by the term the right and the reverse? as they are effects of past Dharma and Adharma.Tasya Hetavah Its Causes The causes of every action.An objector argues In the previous verse it is said that the body? actor? various organs? etc.? are the necessary factors of every action. Why do you then make a distinction in actions by saying whatever action a man does by the body? speech and mindOur answer is In the performance of every action? one of the three -- body? speech or mind -- has a more prominent share than the others while seeing? hearing and other activities which accompany or go along with life are subordinate to that one.Therefore all actions are classified under three groups and are spoken of as done by the body or speech or mind. The fruit of an actions also is enjoyed through the body? speech and mind and one of the three takes a more prominent share than the rest. Therefore? it is proper to say Whatever action a man performs with his body? speech and mind৷৷.

Shri Purohit Swami

18.15 Whatever action a man performs, whether by muscular effort or by speech or by thought, and whether it be right or wrong, these five are the essential causes.

Dr. S. Sankaranarayan

18.15. O Arjuna ! Whatever action is undertaken with the body, speech or the mind, whether it is lawful or otherwise, its factors are these five.

Swami Adidevananda

18.15 For whatever action a man undertakes by his body, speech and mind, whether right or wrong, i.e., enjoined or forbidden by the Sastras, the following five are its causes:

Swami Gambirananda

18.15 Whatever action a man performs with the body, speech and mind, be it just or its reverse, of it these five are the cuases.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।18.15।। न्याय्य और विपरीत कर्मों से तात्पर्य क्रमश धर्म के अनुकूल और प्रतिकूल कर्मों से है। निरपवाद रूप से सब प्रकार कर्मों की सिद्धि के लिए शरीरादि पाँच कारणों की आवश्यकता होती है।यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि कर्मों के पञ्चविध कारणों का वर्णन केवल बोनट के नीचे स्थित इंजन का ही है? पेट्रोल का नहीं। पेट्रोल के बिना इंजन कार्य नहीं कर सकता और न ही केवल पेट्रोल के द्वारा यात्रा सफल और सुखद हो सकती है। इंजन और पेट्रोल के सम्बन्ध से वाहन में गति आती है और तब स्वामी की इच्छा के अनुसार चालक उसे गन्तव्य तक पहुँचा सकता है। इस उदाहरण को समझ लेने पर भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का अभिप्राय स्पष्ट हो जायेगा।अकर्म चैतन्य स्वरूप आत्मा देहादि उपाधियों से तादात्म्य करके जीव के रूप में अनेक प्रकार की इच्छाओं से प्रेरित होकर उचितअनुचित कर्म करता है। इन समस्त कर्मों के लिए पूर्वोक्त पाँच कारणों की आवश्यकता होती है।पूर्व के दो श्लोकों का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य का कर्तृत्वाभिमान मिथ्या है। भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।18.15।। व्याख्या --   शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म ৷৷. पञ्चैते तस्य हेतवः -- पीछेके (चौदहवें) श्लोकमें कर्मोंके होनेमें जो अधिष्ठान आदि पाँच हेतु बताये गये हैं? वे पाँचों हेतु इन पदोंमें आ जाते हैं जैसे -- शरीर पदमें अधिष्ठान आ गया? वाक् पदमें बहिःकरण और मन पदमें अन्तःकरण आ गया? नरः पदमें कर्ता आ गया? और प्रारभते पदमें सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी चेष्टा आ गयी। अब रही दैव की बात। यह दैव अर्थात् संस्कार अन्तःकरणमें ही रहता है परन्तु उसका स्पष्ट रीतिसे पता नहीं लगता। उसका पता तो उससे उत्पन्न हुई वृत्तियोंसे और उसके अनुसार किये हुए कर्मोंसे ही लगता है।मनुष्य शरीर? वाणी और मनसे जो कर्म आरम्भ करता है अर्थात् कहीं शरीरकी प्रधानतासे? कहीं वाणीकी प्रधानतासे और कहीं मनकी प्रधानतासे जो कर्म करता है? वह चाहे न्याय्य -- शास्त्रविहित हो? चाहे विपरीत, -- शास्त्रविरुद्ध हो? उसमें ये (पूर्वश्लोकमें आये) पाँच हेतु होते हैं।शरीर? वाणी और मन -- इन तीनोंके द्वारा ही सम्पूर्ण कर्म होते हैं। इनके द्वारा किये गये कर्मोंको ही कायिक? वाचिक और मानसिक कर्मकी संज्ञा दी जाती है। इन तीनोंमें अशुद्धि आनेसे ही बन्धन होता है। इसीलिये इन तीनों(शरीर? वाणी और मन) की शुद्धिके लिये सत्रहवें अध्यायके चौदहवें? पन्द्रहवें और सोलहवें श्लोकमें क्रमशः कायिक? वाचिक और मानसिक तपका वर्णन किया गया है। तात्पर्य यह है कि शरीर? वाणी और मनसे कोई भी शास्त्रनिषिद्ध कर्म न किया जाय? केवल शास्त्रविहित कर्म ही किये जायँ? तो वह तप हो जाता है। सत्रहवें अध्यायके ही सत्रहवें श्लोकमें अफलाकाङ्क्षिभिः पद देकर यह बताया है कि निष्कामभावसे किया हुआ तप सात्त्विक होता है। सात्त्विक तप बाँधनेवाला नहीं होता? प्रत्युत मुक्ति देनेवाला होता है। परन्तु राजसतामस तप बाँधनेवाले होते हैं।इन शरीर? वाणी आदिको अपना समझकर अपने लिये कर्म करनेसे ही इनमें अशुद्धि आती है? इसलिये इनको शुद्ध किये बिना केवल विचारसे बुद्धिके द्वारा सांख्यसिद्धान्तकी बातें तो समझमें आ सकती हैं परन्तु कर्मोंके साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है -- ऐसा स्पष्ट बोध नहीं हो सकता। ऐसी हालतमें साधक शरीर आदिको अपना न समझे और अपने लिये कोई कर्म न करे तो वे शरीरादि बहुत जल्दी शुद्ध हो जायँगे अतः चाहे कर्मयोगकी दृष्टिसे इनको शुद्ध करके इनसे सम्बन्ध तोड़ ले? चाहे सांख्ययोगकी दृष्टिसे प्रबल विवेकके द्वारा इनसे सम्बन्ध तोड़ ले। दोनों ही साधनोंसे प्रकृति और प्रकृतिके कार्यके साथ अपने माने हुए सम्बन्धका विच्छेद हो जाता है और वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जाता है।जिस समष्टिशक्तिसे संसारमात्रकी क्रियाएँ होती हैं? उसी समष्टिशक्तिसे व्यष्टि शरीरकी क्रियाएँ भी स्वाभाविक होती हैं। विवेकको महत्त्व न देनेके कारण स्वयं उन क्रियाओंमेंसे खानापीना? उठनाबैठना? सोनाजगना आदि जिन क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है? वहाँ कर्मसंग्रह होता है अर्थात् वे क्रियाएँ बाँधनेवाली हो जात�� हैं। परन्तु जहाँ स्वयं अपनेको कर्ता नहीं मानता? वहाँ कर्मसंग्रह नहीं होता। वहाँ तो केवल क्रियामात्र होती है। इसलिये वे क्रियाएँ फलोत्पादक अर्थात् बाँधनेवाली नहीं होतीं। जैसे? बचपनसे जवान होना? श्वासका आनाजाना? भोजनका पाचन होना तथा रस आदि बन जाना आदि क्रियाएँ बिना कर्तृत्वाभिमानके प्रकृतिके द्वारा स्वतःस्वाभाविक होती हैं और उनका कोई कर्मसंग्रह अर्थात् पापपुण्य नहीं होता। ऐसे ही कर्तृत्वाभिमान न रहनेपर सभी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं -- ऐसा स्पष्ट अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध --   भगवान्ने सांख्यसिद्धान्त बतानेके लिये जो उपक्रम किया है? उनमें कर्मोंके होनेमें पाँच हेतु बतानेका क्या आशय है -- इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।18.15।। मनुष्य अपने शरीर, वाणी और मन से जो कोई न्याय्य (उचित) या विपरीत (अनुचित) कर्म करता है, उसके ये पाँच कारण ही हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।18.14 -- 18.15।।अधिष्ठानं देहादिः। कर्ता विष्णुः स हि सर्वकर्तेत्युक्तम् जीवस्य चाकर्तृत्वे प्रमाणमुक्तम्। करणमिन्द्रियादि च। चेष्टाः क्रियाः हस्तादिक्रियाभिर्होमादिकर्माणि जायन्ते। ध्यानादेरपि मानसी चेष्टा कारणम्। पूर्वतनी चेष्टाऽपि संस्कारकारणत्वेन भवति। दैवमदृष्टम्। तथा चायास्यश्रुतिः -- देहो ब्रह्मार्थेन्द्रियाद्याः क्रियाश्च तथाऽदृष्टं पञ्चमं कर्महेतुः इति।

Sri Anandgiri

।।18.15।।पञ्चानामधिष्ठानादीनामुक्तानां सर्वकर्मसिद्ध्यर्थत्वं स्फुटयति -- शरीरेति। ननु जीवनकृतं निमेषोन्मेषादिकर्मान्तरं साधारणमस्ति तत्कथं राशिद्वयकरणमिति तत्राह -- यच्चेति। अधिष्ठानादीनां कर्ममात्रहेतुत्वं प्रतिज्ञाय शारीरादित्रिविधकर्महेतुत्वोक्तिरयुक्तेति शङ्कते -- नन्विति। पूर्वापरविरोधं परिहरति -- नैष दोष इति। ननु जीवनकृतानि स्वाभाविकानि कर्माणि दर्शनादीनि विधिनिषेधबाह्यत्वान्न देहादिनिर्वर्त्यानीत्याशङ्क्याह -- तदङ्गतयेति। तस्य देहादित्रयस्य प्रधानस्याङ्गं चक्षुरादि तन्निष्पाद्यत्वेन,जीवनकृतं दर्शनादि प्रधानकर्मण्यन्तर्भूतमिति त्रैविध्यमविरुद्धमित्यर्थः। देहाद्यारम्भे त्रिविधे कर्मणि सर्वकर्मान्तर्भावेऽपि कथं पञ्चानामेवाधिष्ठानादीनां तत्र हेतुत्वं फलोपभोगकाले कारणान्तरापेक्षासंभवादित्याशङ्क्य जन्मकालभाविनो भोगकालभाविनश्च सर्वस्य कारणस्य तेष्वेवान्तर्भावान्मैवमित्याह -- फलेति।

Sri Vallabhacharya

।।18.14 -- 18.15।।तथाहि अधिष्ठानमिति। शरीरवाङ्मनोभिरिति न्याय्यं शास्त्रीयं? विपरीतं निषिद्धं वा? अन्यत्सर्वं कर्म शारीरं वाचिकं मानसं च तस्य पञ्चते हेतवो भवन्ति। तान्याह -- अधिष्ठानं प्रथमं शरीरं कारणं? कर्ता जीवात्मा सांहकारो ज्ञाता संज्ञात एवकर्ता शास्त्रार्यवत्त्वात् [ब्र.सू.2।3।33] इति सूत्रात् करणं च समनस्कं चक्षुश्श्रोत्रादिज्ञानकर्मभेदात् पृथग्विधं गृहीतं कार्यस्वरूपतो विविधःश्चेष्टः प्राणादीनां वृत्तयोऽत्र कर्मणि हेतवः। दैवं च पञ्चमं अदृष्टमिति केचित् (माध्वाः)। वस्तुतस्तु पञ्चसङ्ख्यापूरणमुत्तममन्तर्यामिरूपं,कर्ममात्रनिष्पत्तौ प्रधानं? हेतुरित्यर्थः। उक्तं हि पाक् भगवता पुरुषोत्तमेन स्वान्तरे स्वरूपमाहात्म्यंहृदि सर्वस्य धिष्ठितं [13।18] इति। श्रीमदाचार्यैरप्युक्तं -- कृष्णात्परं नास्ति दैवं वस्तुतो दोषवर्जितम् इति। तथा च सूत्रेष्वपि तदन्तरात्मायत्तजीवात्मदेहेन्द्रियादेः कर्त्तृत्वंपरानुवृत्तेः इत्युपपादितंयथा च तक्षोभयथा [ब्र.सू.2।3।40] इति।अत्र भाष्यकारः -- ननु कर्मकारिणां कर्त्तृत्वभोक्तृत्वभेदो दृश्यते तथा च कर्तृत्वभोक्तृत्वयोर्भेदो भविष्यतीति चेत्? न यथा तक्षा रथं निर्माय तत्रारूढो विहरति पीठं वा स्वतो न व्याप्रियते वास्यादिद्वारेण वा? चकारादन्ये स्वार्थकर्त्तारः। अन्यार्थमपि करोतीति चेत्प्रकृतेऽपि सर्वहितार्थं प्रयतमानत्वात्। न च कर्तृत्वमात्रं दुःखरूपं पयःपानादेः सुखरूपत्वात्। तथा च स्वार्थं परार्थं कर्त्तृत्त्वं कारयितृत्वं च सिद्धम्। अन्यच्च -- परात्तु तच्छ्रुतेः [ब्र.सू.2।3।41] इति। कर्तृत्वं ब्रह्मगतमेव तत्सम्बन्धादेव जीवं कर्तृत्वं? तदंशत्वात् ऐश्वर्यादिवत् न तु जडैकगतं इति। अतः नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा [बृ.उ.3।7।23] इति सर्वकर्त्तृत्वं घटते। कुत एतत् श्रुतेः तस्यैव कर्तृकारयितृत्वश्रवणात् यमुन्निनीषति तं साधु कर्म कारयति यमधोनिनीषति तमसाधु कारयति इतिसर्वकर्ता? सर्वभोक्ता? सर्वनियन्ता इति सर्वरूपत्वान्न भगवति दोषः। तथाच सूत्रं -- कृतप्रयत्नापेक्षस्तु विहितप्रतिषिद्धावैयर्थ्यादिभ्यः [ब्र.सू.2।3।42] ननु वैषम्यनैर्घृण्ययोर्न परिहारः? अनादित्वेन स्वस्यैव कारयितृत्वादिति पक्षं तुशब्दो निवारयति प्रयत्नपर्यन्तं जीवकृत्यं अग्रे तस्याऽशक्यत्वात् स्वयमेव कारयति। यथा पुत्रं यतमानं बालं वा पदार्थगुणदोषौ वर्णयन्नपि तत्प्रयत्नाभिनिवेशं दृष्ट्वा तथैव कारयति सर्वत्र तत्कारणत्वाय तदानीं फलदातृत्वे या इच्छा तामेवानुवदतिउन्निनीषति अधोनिनीषति इति। अन्यथा विहितप्रतिषिद्धयोर्वैयर्थ्यापत्तिः? अप्रामाणिकत्वं च। फलदाने कर्मापेक्षः कर्मकारणे प्रयत्नापेक्षः कामे प्रवाहापेक्ष इति मर्यादारक्षार्थं वेदांश्चकार? ततो न ब्रह्मणि दोषगन्धोऽपि? न चानीश्वरत्वं मर्यादामार्गस्य तथैव निर्णयात् यत्रान्यथा स पुष्टिमध्ये इति।

Sridhara Swami

।।18.15।।एतेषामेव सर्वकर्महेतुत्वमाह -- शरीरेति। यथोक्तैः पञ्चभिः प्रारभ्यमाणं कर्म त्रिष्वेवान्तर्भाव्यशरीरवाङ्मनोभिरित्युक्तं शारीरं वाचिकं मानसं च त्रिविधं कर्मेति प्रसिद्धेः। शरीरादिभिर्यद्यत्कर्म धर्म्य वाऽधर्म्यं वा करोति नरस्तस्य सर्वस्य कर्मण एते पञ्च हेतवः।

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