Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 13 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे | साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ||१८-१३||
Transliteration
pañcaitāni mahābāho kāraṇāni nibodha me . sāṅkhye kṛtānte proktāni siddhaye sarvakarmaṇām ||18-13||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
18.13 Learn from Me, O mighty-armed Arjuna, these five causes as declared in the Sankhya system for the accomplishment of all actions.
।।18.13।। हे महाबाहो ! समस्त कर्मों की सिद्धि के लिए ये पांच कारण सांख्य सिद्धांत में कहे गये हैं, जिनको तुम मुझसे भलीभांति जानो।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
By understanding the multi-faceted causes behind any project or task, one can systematically plan, execute, and troubleshoot more effectively. This analytical approach leads to greater efficiency, strategic decision-making, and improved outcomes, as you're not just focusing on one aspect but the entire ecosystem of action. It also fosters a sense of 'doing your part' while acknowledging collective contributions.
🧘 For Stress & Anxiety
Recognizing that actions are a result of multiple contributing factors (the five causes) rather than solely your individual effort can significantly reduce the burden of responsibility and anxiety over outcomes. This perspective helps in detaching from intense identification with success or failure, promoting a more balanced and resilient mindset. The ultimate goal of self-knowledge (Vedanta) provides a profound peace that transcends daily stressors.
❤️ In Relationships
Applying the understanding that interactions and their outcomes are influenced by numerous factors, not just individual wills, fosters empathy and reduces blame. It helps in analyzing conflicts or misunderstandings by looking at the broader 'causes' at play, allowing for more compassionate communication and problem-solving, rather than personalizing every setback or challenge.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“To master any action and ultimately transcend its binds, understand its true multi-causal nature and your role as an instrument, moving towards the ultimate knowledge that liberates.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
18.13 पञ्च five? एतानि these? महाबाहो O mightyarmed? कारणानि causes? निबोध learn? मे from Me? सांख्ये in the Sankhya? कृतान्ते which is the end of all actions? प्रोक्तानि as declared? सिद्धये for the accomplishment? सर्वकर्मणाम् of all actions.Commentary The Self has no connection whatevr with activity. Nature does everything. The Self is the silent witness. He remains indifferent. The whole superstructure of human activity is the result of the five welldefined causes which are enumerated in the following verse.Etani These Which are going to be mentioned.Sankhya Vedanta Knowledge of the Self as taught in the Vedanta (the Upanishads) puts an end to all actions. This is the reason why the term Kritante (the end of actions) is used here. When the knowledge of the Self arises? all actions terminate. This is taught in chapter II? verse 46 To the Brahman who has known the Self al the Vedas are of so much use as is a reservoir of water in a place where there is a flood everywhere. Again? in verse 33 of chapter IV? it is said All actions in their entirety? O Arjuna? culminate in knowledge. Vedanta? therefore? which imparts knowledge of the Self? is the end of action. A liberated sage who has attained the knowledge of the Self in accordance with the instructions laid down in the Vedanta becomes a Kritakritya (one who has done everything and has nothing more to do).
Shri Purohit Swami
18.13 I will tell thee now, O Mighty Man, the five causes which, according to the final decision of philosophy, must concur before an action can be accomplished.
Dr. S. Sankaranarayan
18.13. O mighty-armed one ! Learn from Me these following five causes that have been declared in the conclusion of deliberations [on proper knowledge], for the accomplishment of all actions.
Swami Adidevananda
18.13 Learn from Me, O Arjuna, these five causes for the accomplishment of all acts, as described in Sankhya-krtanta - the science of the exact understanding of things for the accomplishment of works.
Swami Gambirananda
18.13 O mighty-armed one, learned from Me these [Another reading is etani.-Tr.] five factors for the accomplishment of all actions, which have been spoken of in the Vedanta in which actions terminate.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।18.13।। त्रिविध त्याग के सन्दर्भ में भगवान् श्रीकृष्ण ने निरहंकार और निसंग भाव से कर्म करने वाले पुरुष को सात्विक त्यागी कहा था। अत स्वाभाविक ही है कि अर्जुन के मन में कर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण प्रस्तुत खण्ड में? कर्म के स्थूल रूप तथा प्रेरणा? उद्देश्य आदि सूक्ष्म स्वरूप का भी वर्णन करते हैं।किसी भी लौकिक अथवा आध्यात्मिक कर्म को सम्पादित करने के लिए पाँच कारणों की अपेक्षा होती है। ये मानों कर्म के अंग हैं? जिनके बिना कर्म की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि मनुष्य अपने कर्मों को अनुशासित और सुनियोजित कर आन्तरिक सांस्कृतिक विकास को सम्पादित करना चाहता हो? तो उसे अत्याधिक साहस? प्रयोजन का सातत्य? आत्मविश्वास तथा बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता होती है। इसलिए भगवान् यहाँ अर्जुन को महाबाहो के नाम से सम्बोधित कर उसकी शूरवीरता का आह्वान करते हैं।कर्मसम्पादन के लिए आवश्यक पाँच कारणों का वर्णन सांख्य दर्शन में किया गया है। यहाँ सांख्य शब्द से तात्पर्य वेदान्त से है कपिल मुनि जी के सांख्य दर्शन से नहीं? क्योंकि उसमें इनका वर्णन नहीं किया गया है। इस श्लोक में प्रयुक्त कृतान्त शब्द सांख्य का विशेषण है। कृतान्त का अर्थ है कर्मों का अन्त। वेदान्त में उपदिष्ट आत्म ज्ञान के होने पर अहंकार का अन्त हो जाता है और उसी के साथ उसके कर्मों की समाप्ति हो जाती है।इसलिए? वेदान्त का विशेषण कृतान्त कहा गया हैं। अगले श्लोक में उन पाँच कारणों को बताते हैं
Swami Ramsukhdas
।।18.13।। व्याख्या -- पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि -- हे महाबाहो जिसमें सम्पूर्ण कर्मोंका अन्त हो जाता है? ऐसे सांख्यसिद्धान्तमें सम्पूर्ण विहित और निषिद्ध कर्मोंके होनेमें पाँच हेतु बताये गये हैं। स्वयं (स्वरूप) उन कर्मोंमें हेतु नहीं है।निबोध मे -- इस अध्यायमें भगवान्ने जहाँ सांख्यसिद्धान्तका वर्णन आरम्भ किया है? वहाँ निबोध क्रियाका प्रयोग किया है (18। 13? 50)? जब कि दूसरी जगह श्रृणु क्रियाका प्रयोग किया है (18। 4? 19? 29? 36? 45? 64)। तात्पर्य यह है कि सांख्यसिद्धान्तमें तो निबोध पदसे अच्छी तरह समझनेकी बात कही है और दूसरी जगह श्रृणु पदसे सुननेकी बात कही है। अतः सांख्यसिद्धान्तको गहरी रीतिसे समझना चाहिये। अगर उसे अपनेआप (स्वयं) से गहरी रीतिसे समझा जाय? तो तत्काल तत्त्वका अनुभव हो जाता है।सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् -- कर्म चाहे शास्त्रविहित हों? चाहे शास्त्रनिषिद्ध हों? चाहे शारीरिक हों? चाहे मानसिक हों? चाहे वाचिक हों? चाहे स्थूल हों और चाहे सूक्ष्म हों -- इन सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिके लिये पाँच हेतु कहे गये हैं। जब पुरुषका इन कर्मोंमें कर्तृत्व रहता है? तब कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह दोनों होते हैं? और जब पुरुषका इन कर्मोंके होनेमें कर्तृत्व नहीं रहता? तब कर्मसिद्धि तो होती है? पर कर्मसंग्रह नहीं होता? प्रत्युत क्रियामात्र होती है। जैसे? संसारमात्रमें परिवर्तन होता है अर्थात् नदियाँ बहती हैं? वायु चलती है? वृक्ष बढ़ते हैं? आदिआदि क्रियाएँ होती रहती है? परन्तु इन क्रियाओँसे कर्मसंग्रह नहीं होता अर्थात् ये क्रियाएँ पापपुण्यजनक अथवा बन्धनकारक नहीं होतीं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्तृत्वाभिमानसे ही कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह होता है। कर्तृत्वाभिमान मिटनेपर क्रियामात्रमें अधिष्ठान? करण? चेष्टा और दैव -- ये चार हेतु ही होते हैं (गीता 18। 14)।यहाँ सांख्यसिद्धान्तका वर्णन हो रहा है। सांख्यसिद्धान्तमें विवेकविचारकी प्रधानता होती है? फ���र भगवान्ने सर्वकर्मणां सिद्धये वाली कर्मोंकी बात यहाँ क्यों छेड़ी कारण कि अर्जुनके सामने युद्धका प्रसङ्ग है। क्षत्रिय होनेके नाते युद्ध उनका कर्तव्यकर्म है। इसलिये कर्मयोगसे अथवा सांख्ययोगसे ऐसे कर्म करने चाहिये? जिससे कर्म करते हुए भी कर्मोंसे सर्वथा निर्लिप्त रहे -- यह बात भगवान्को कहनी है। अर्जुनने सांख्यका तत्त्व पूछा है? इसलिये भगवान् सांख्यसिद्धान्तसे कर्म करनेकी बात कहना आरम्भ करते हैं।अर्जुन स्वरूपसे कर्मोंका त्याग करना चाहते थे अतः उनको यह समझाना था कि कर्मोंका ग्रहण और त्याग -- दोनों ही कल्याणमें हेतु नहीं हैं। कल्याणमें हेतु तो परिवर्तनशील नाशवान् प्रकृतिसे अपरिवर्तनशील अविनाशी अपने स्वरूपका सम्बन्धविच्छेद ही है। उस सम्बन्धविच्छेदकी दो प्रक्रियाएँ हैं -- कर्मयोग और सांख्ययोग। कर्मयोगमें तो फलका अर्थात् ममताका त्याग मुख्य है और सांख्ययोगमें अहंताका त्याग मुख्य है। परन्तु ममताके त्यागसे अहंताका और अहंताके त्यागसे ममताका त्याग स्वतः हो जाता है। कारण कि अहंतामें भी ममता होती है जैसे -- मेरी बात रहे? मेरी बात कट न जाय -- यह मैंपनके साथ भी मेरापन है। इसलिये ममता(मेरापन)को छोड़नेसे अहंता(मैंपन) छूट जाती है (टिप्पणी प0 895)। ऐसे ही पहले अहंता होती है? तब ममता होती है अर्थात् पहले मैं होता है? तब मेरापन होता है। परन्तु जहाँ अहंता(मैंपन)का ही त्याग कर दिया जायगा? वहाँ ममता (मेरापन) कैसे रहेगी वह भी छूट ही जायगी। सम्बन्ध -- सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिमें पाँच हेतु कौनसे हैं अब यह बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।18.13।। हे महाबाहो ! समस्त कर्मों की सिद्धि के लिए ये पांच कारण सांख्य सिद्धांत में कहे गये हैं, जिनको तुम मुझसे भलीभांति जानो।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।18.13।।पुनः सन्न्यासं प्रपञ्चयितुं कर्मकारणान्याह -- पञ्चेत्यादिना। साङ्क्ष्ये कृतान्ते ज्ञानसिद्धान्ते।
Sri Anandgiri
।।18.13।।नन्वपरमार्थसंन्यासवदविशेषादज्ञानां परमार्थसंन्यासोऽपि किं न स्यात्त्यागस्य सुकरत्वात्तत्राह -- अतः परमार्थेति। तस्य सम्यग्दर्शनादविद्यानिवृत्तौ तदारोपितक्रियाकारकादिनिवृत्तेरिति हेत्वर्थः। विद्यावतः सर्वकर्मसंन्यासित्वसंभावनामुक्त्वैवकारव्यावर्त्यं दर्शयति -- नत्विति। अविदुषोऽशेषकर्मणां तद्धेतूनां च रागादीनां त्यागायोगे कारकेष्वधिष्ठानादिष्वात्मत्वदर्शनं हेतुमाह -- क्रियेति। कथमधिष्ठानादीनां क्रियाकर्तृत्वं कथं वा विदुषस्तेष्वात्मत्वधीरित्याशङ्क्यानन्तरश्लोकचतुष्टयस्य तात्पर्यमाह -- तदेतदिति। कर्मार्थानामधिष्ठानादीनामप्रामाणिकत्वाशङ्कामादावुद्धरति -- पञ्चेति। उत्तरत्रेत्यधिष्ठानादिषु वक्ष्यमाणेष्वित्यर्थः। वस्तूनां तेषामेव वैषम्यं दिदर्शयिषितं नहि चेतःसमाधानादृते ज्ञातुं शक्यते। सांख्यशब्दं व्युत्पादयति -- ज्ञातव्या इति। आत्मा त्वंपदार्थस्तत्पदार्थो ब्रह्म तयोरैक्यधीस्तदुपयोगिनश्च श्रवणादयः पदार्थास्ते संख्यायन्ते व्युत्पाद्यन्ते। कृतान्तशब्दस्य वेदान्तविषयत्वं विभजते -- कृतमित्यादिना। वेदान्तस्य तत्त्वधीद्वारा कर्मावसानभूमित्वे वाक्योपक्रमानुकूल्यं दर्शयति -- यावानिति। उदपाने कूपादौ यावानर्थः स्नानादिस्तावानर्थः समुद्रे संपद्यतेऽतो यथा कूपादिकृतं कार्यं सर्वं समुद्रेऽन्तर्भवति तथा सर्वेषु वेदेषु कर्मार्थेषु यावत्फलं तावज्ज्ञानवतो ब्राह्मणस्य ज्ञानेऽन्तर्भवति? ज्ञानं प्राप्तस्य कर्तव्यानवशेषादित्यर्थः। तत्रैव वाक्यान्तरमनुक्रामति -- सर्वमिति। उदाहृतवाक्ययोस्तात्पर्यमाह -- आत्मेति। आत्मज्ञाने सति सर्वकर्मनिवृत्तावपि कथं वेदान्तस्य कृतान्तत्वमित्याशङ्क्याह -- अत इति। तानि मद्वचनतो निबोधेति पूर्वेण संबन्धः।
Sri Vallabhacharya
।।18.13।।इदानीं भगवत्कर्तृत्वानुसन्धानपूर्वकम्। स्वकर्तृत्वानुसन्धानपरिहार उदीर्यते।।1।।कर्तृत्वं स्वस्य मनुते सत्सु कर्तृषु पञ्चसु। स यथा निन्द्यते लोके तथा कृष्णेन शास्त्रतः।।2।।पश्येद्गुणानां हेतुत्वं यदा,दैवस्य वा हरेः। तत एवेह ममतात्यागः स्यात्फलकर्मणोः।।3।।तत्रान्तर्यामिपुरुषे (षः स्वकीयैः करणादिभिः) कर्तृत्वं मुख्यतः स्थितम्। (जीवात्मना स्वलीलार्थं कर्माण्यारभते ततः)। स्वातन्त्र्यात्परतन्त्रे तु गौणमेवाभ्युपेयते।।4।।अतो ब्रह्मगतं कर्तृत्वादि जीवे तदंशतः। सर्वं कर्मफलं (चापि पुरुषस्य परस्य तत्) चौर्प्यं पुरुषेण परत्र तत्। इति तत्त्वं भगवता भाष्यमाभाष्यतेऽन्ततः।।5।।पञ्चेति। कृतान्ते सिद्धान्ते कृतनिर्णये वा साङ्ख्ये प्रोक्तानि सिद्धान्तीकृत्योक्तानि सर्वकर्मणां सिद्धये पञ्चैतानि कारणानि निबोध मे मम सकाशादवधेहि। साङ्ख्ये हि वेदानुरोधेन सूत्रनिबन्धो दृश्यते? तदनुरोधे शरीरेन्द्रियप्राणजीवात्मोपकरणं परमात्मानमन्तर्यामिणमुत्तमं कर्त्तारं प्रत्याययति य आत्मनि तिष्ठन्नात्मानमन्तरो यमयति? यमात्मा न वेद? यस्यात्मा शरीरं स त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः [श.प.14।5।30] अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा [तै.उ.3।11चित्त्यु.11।1] इत्यादौ स्वातन्त्र्येण नियमनादिकर्तृत्वं केवलस्य परमात्मनो बोध्यते इति। तदेककर्तृत्वं तदंशभूते जीवात्मनि सततं शुद्धं? अन्यत्तु प्राकृतं निषिध्यते तदेतदग्रे स्फुटीभविष्यति।
Sridhara Swami
।।18.13।।ननु कर्म कुर्वतः कर्मफलं कथं न भवेदित्याशङ्क्य सङ्गत्यागिनो निरहंकारस्य सतः कर्मफलेन लेपो नास्तीत्युपपादयितुमाह -- पञ्चैतानीति पञ्चभिः। सर्वकर्मणां सिद्धये निष्पत्तये इमानि वक्ष्यमाणानि पञ्च कारणानि मे वचनान्निबोध जानीहि। आत्मनः कर्तृत्वाभिमाननिवृत्यर्थमवश्यमेतानि ज्ञातव्यानीत्येवं तेषां स्तुत्यर्थमाह -- सांख्य इति। सम्यक् ख्यायते ज्ञायते परमात्माऽनेनेति सांख्यं तत्त्वज्ञानं तस्मिन्कृतं कर्म तस्यान्तः समाप्तिरस्मिन्निति कृतान्तस्तस्मिन्वेदान्तसिद्धान्त इत्यर्थः। यद्वा संख्यायन्ते गण्यन्ते तत्त्वानि यस्मिन्निति सांख्यं? कृतः अन्तो निर्णयो यस्मिन्निति कृतान्तं सांख्यशास्त्रमेव तस्मिन्प्रोक्तानि अतः सम्यङ्निबोधेत्यर्थः।