Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 11 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः | यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ||१८-११||
Transliteration
na hi dehabhṛtā śakyaṃ tyaktuṃ karmāṇyaśeṣataḥ . yastu karmaphalatyāgī sa tyāgītyabhidhīyate ||18-11||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
18.11 Verily, it is not possible for an embodied being to abandon actions entirely; but he who relinishes the rewards of actions is verily called a man of renunciation.
।।18.11।। क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा अशेष कर्मों का त्याग संभव नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही पुरुष त्यागी कहा जाता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, you cannot avoid action; tasks, projects, and responsibilities are inherent. This verse advises you to perform your duties diligently, with full effort and skill, but to detach from the specific outcome (e.g., promotion, bonus, specific recognition). Focus on the quality of your work and contribution, rather than being solely driven or disheartened by external results that may not always be within your control. This fosters a resilient and dedicated approach.
🧘 For Stress & Anxiety
Much stress and anxiety stem from attachment to specific outcomes and the fear of failure or disappointment. This verse offers a powerful antidote: acknowledge that action is necessary, but release the mental burden of *demanding* or *controlling* the exact results. By focusing on the sincerity of your effort and the performance of your duty without clinging to the fruits, you can significantly reduce performance anxiety, disappointment, and the mental load associated with unpredictable futures.
❤️ In Relationships
Relationships require continuous action – communication, support, affection, compromise. It's impossible to be in a relationship without 'acting.' The wisdom here suggests engaging in these actions with love and sincerity, but without strict attachment to a specific reciprocal outcome or expectation from the other person (e.g., 'If I do X, they *must* do Y'). Give your best to the relationship without demanding specific returns, fostering healthier, less conditional interactions and reducing frustration when expectations aren't met.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“As an embodied being, you cannot cease action; true renunciation lies not in abandoning your duties, but in performing them diligently while releasing all attachment to their specific results.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
18.11 न not? हि verily? देहभृता by an embodied being? शक्यम् possible? त्यक्तुम् to abandon? कर्माणि actions? अशेषतः entirely? यः who? तु but? कर्मफलत्यागी relinisher of the fruits of actions? सः he? त्यागी relinisher? इति thus? अभिधीयते is called.Commentary He who has assumed a human body and yet grumbles at having to perform actions is verily a fool. Can fire that is endowed with heat as its natural property ever think of getting rid of it So long as you are living in this body you cannot entirely relinish action. Lord Krishna says to Arjuna Nor can anyone? even for an instant remain actionless for helplessly is everyone driven to action by the alities born of Nature (Cf.III.5). Nature (and your own nature? too) will urge you to do actions. You will have to abandon the idea of agency and the fruits of actions. Then you are ite safe. No action will bind you.The ignorant man who identifies himself with the body and who thinks that he is himself the doer of all actions should not abandon actions. It is impossible for him to relinish actions. He will have to perform all the prescribed duties while relinishing their fruits.Dehabhrita A wearer of the body An embodied being? i.e.? he who identifies himself with the body. A man who has discrimination between the Real and the unreal? the Eternal and the transient? cannot be called a bodywearer? because he does not think that he is the doer of actions -- vide chapter II.21 (He who knows Him Who is indestructible? eternal? unborn? undiminishing -- how can that man slay? O Arjuna? or cause to be slain).When the ignorant man who is alified for action does the prescribed duties? relinishing the desire for the fruits of his actions? he is called a Tyagi? although he is active. This title Tyagi is given to him for the sake of courtesy.The relinishment of all actions is possible only for him who has attained Selfrealisation and who is? therefore? not a wearer of the body? i.e.? does not hink that the body is the Self. (Cf.III.5)
Shri Purohit Swami
18.11 But since those still in the body cannot entirely avoid action, in their case abandonment of the fruit of action is considered as complete renunciation.
Dr. S. Sankaranarayan
18.11. Indeed, to relinish actions entirely is not possible for a body-bearing one; but whosoever relinishes the fruits of actions, he is said to be a man of [true] relinishment.
Swami Adidevananda
18.11 For, it is impossible for one who bears a body to abandon actions entirely. But he who gives up the fruits of works, is called the abandoner.
Swami Gambirananda
18.11 Since it is not possible for one who holds on to a body to give up actions entirely, therefore he, on the other hand, who renounces results on actions is called a man of renunciation.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।18.11।। कोई भी देहधारी जीवित प्राणी चाहे वह एक कोषीय जीव ही क्यों न हो समस्त कर्मों का त्याग नहीं कर सकता। कर्म तो जीवन का प्रतीक या लक्षण है। कर्म ही जीवनरूपी पुष्प की सुगन्ध है जहाँ कर्म नहीं है? वहाँ जीवन समाप्त समझा जाता है। कुछ कर्म किये बिना रहना भी अपने आप में एक कर्म ही है। शारीरिक और मानसिक क्रियाएं मरण पर्यन्त होती ही रहती हैं।अत हम देहधारियों को कर्म करने चाहिए या नहीं? ऐसा विकल्प ही संभव नहीं होता। परन्तु हमको कौन से कर्म और किस प्रकार उन्हें करना चाहिए? इस विषय में अवश्य ही विकल्प संभव है। गीता के उपदेशानुसार हमको अपने कर्तव्य कर्म ईश्वरार्पण की भावना से करने चाहिए।अज्ञानी जन देहादि अनात्म उपाधियों को ही अपना स्वरूप समझकर उसमें आसक्त होते हैं तथा उनके कर्मों का कर्ता भी स्वयं को ही मानते हैं। अत ऐसे लोग सात्त्विक त्याग नहीं कर पाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण का ऐसे लोगों को यह उपदेश है कि उनको कमसेकम कर्मफलों की आसक्ति त्याग कर कर्मों का आचरण परिश्रम? उत्साह एवं कुशलता के साथ करना चाहिए। कर्मफलत्यागी पुरुष ही वास्तव में त्यागी है? न कि कर्मों को त्यागने वाला व्यक्ति।इस त्याग का क्या प्रयोजन है सुनो
Swami Ramsukhdas
।।18.11।। व्याख्या -- न हि देहभृता (टिप्पणी प0 879.1) शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः -- देहधारी अर्थात् देहके साथ तादात्म्य रखनेवाले मनुष्योंके द्वारा कर्मोंका सर्वथा त्याग होना सम्भव नहीं है क्योंकि शरीर प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति स्वतः क्रियाशील है। अतः शरीरके साथ तादात्म्य (एकता) रखनेवाला क्रियासे रहित कैसे हो सकता है हाँ? यह हो सकता है कि मनुष्य यज्ञ? दान? तप? तीर्थ आदि कर्मोंको छोड़ दे परन्तु वह खानापीना? चलनाफिरना? आनाजाना? उठनाबैठना? सोनाजागना आदि आवश्यक शारीरिक क्रियाओंको कैसे छोड़ सकता हैदूसरी बात? भीतरसे कर्मोंका सम्बन्ध छोड़ना ही वास्तवमें छोड़ना है। बाहरसे सम्बन्ध नहीं छोड़ा जा सकता। यदि बाहरसे सम्बन्ध छोड़ भी दिया जाय तो वह कबतक छूटा रहेगा जैसे कोई समाधि लगा ले तो उस समय बाहरकी क्रियाओंका सम्बन्ध छूट जाता है। परन्तु समाधि भी एक क्रिया है? एक कर्म है क्योंकि इसमें प्रकृतिजन्य कारणशरीरका सम्बन्ध रहता है। इसलिये समाधिसे भी व्युत्थान होता है।कोई भी देहधारी मनुष्य कर्मोंका स्वरूपसे सम्बन्धविच्छेद नहीं कर सकता (गीता 3। 5)। कर्मोंका आरम्भ किये बिना? निष्कर्मता (योगनिष्ठा) प्राप्त नहीं होती और कर्मोंका त्याग करनेमात्रसे सिद्धि (सांख्यनिष्ठा) भी प्राप्त नहीं होती (गीता 3। 4)।मार्मिक बातपुरुष (चेतन) सदा निर्विकार और एकरस रहनेवाला है परन्तु प्रकृति विकारी और सदा परिवर्तनशील है। जिसमें अच्छी रीतिसे क्रियाशीलता हो? उसको प्रकृति कहते हैं -- प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः।उस प्रकृतिके कार्य शरीरके साथ जबतक पुरुष अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मानता रहेगा? तबतक वह कर्मोंका सर्वथा त्याग कर ही नहीं सकता। कारण कि शरीरमें अहंताममता होनेके कारण मनुष्य शरीरसे होनेवाली प्रत्येक क्रियाको अपनी क्रिया मानता है? इसलिये वह कभी किसी अवस्थामें भी क्रियारहित नहीं हो सकता।दूसरी बात? केवल पुरुषने ही प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ा है। प्रकृतिने पुरुषके साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। जहाँ विवेक रहता है? वहाँ पुरुषने विवेककी उपेक्षा करके प्रकृतिसे सम्बन्धकी सद्भावना कर ली अर्थात् सम्बन्धको सत्य मान लिया। सम्बन्धको सत्य माननेसे ही बन्धन हुआ है। वह सम्बन्ध दो तरहका होता है -- अपनेको शरीर मानना और शरीरको अपना मानना। अपनेको शरीर माननेसे अहंता और शरीरको अपना माननेसे ममता होती है। इस अहंताममतारूप सम्बन्धका घनिष्ठ होना ही देहधारीका स्वरूप है। ऐसा देहधारी मनुष्य कर्मोंको सर्वथा नहीं छोड़ सकता।यस्तु (टिप्पणी प0 879.2) कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते -- जो किसी भी कर्म और फलके साथ अपना सम्बन्ध नहीं रखता? वही त्यागी है। जबतक मनुष्य कुशलअकुशलके साथ? अच्छेमन्देके साथ अपना सम्बन्ध रखता है? तबतक वह त्यागी नहीं है।यह पुरुष जिस प्राकृत क्रिया और पदार्थको अपना मानता है? उसमें उसकी प्रियता हो जाती है। उसी,प्रियताका नाम है -- आसक्ति। यह आसक्ति ही वर्तमानके कर्मोंको लेकर कर्मासक्ति और भविष्यमें मिलनेवाले फलकी इच्छाको लेकर फलासक्ति कहलाती है। जब मनुष्य फलत्यागका उद्देश्य बना लेता है? तब उसके सब कर्म संसारके हितके लिये होने लगते हैं? अपने लिये नहीं। कारण कि उसको यह बात अच्छी तरहसे समझमें आ जाती है कि कर्म करनेकी सबकीसब सामग्री संसारसे मिली है और संसारकी ही है? अपनी नहीं। इन कर्मोंका भी आदि और अन्त होता है तथा उनका फल भी उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होता है परन्तु स्वयं सदा निर्विकार रहता है न उत्पन्न होता है? न नष्ट होता है और न कभी विकृत ही होता है। ऐसा विवेक होनेपर फलेच्छाका त्याग सुगमतासे हो जाता है। फलका त्याग करनेमें उस विवेककी मनुष्यमें कभी अभिमान भी नहीं आता क्योंकि कर्म और उसका फल -- दोनों ही अपनेसे प्रतिक्षण वियुक्त हो रहे हैं अतः उनके साथ हमारा सम्बन्ध वास्तवमें है ही कहाँ इसीलिये भगवान् कहते हैं कि जो कर्मफलका त्यागी है? वही त्यागी कहा जाता है।निर्विकारका विकारी कर्मफलके साथ सम्बन्ध कभी था नहीं? है नहीं? हो सकता नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं है। केवल अविवेकके कारण सम्बन्ध माना हुआ था। उस अविवेकके मिटनेसे मनुष्यकी अभिधा अर्थात् उसका नाम त्यागी हो जाता है -- स त्यागीत्यभिधीयते। माने हुए सम्बन्धके विषयमें दृष्टान्तरूपसे एक बात कही जाती है। एक व्यक्ति घरपरिवारको छोड़कर सच्चे हृदयसे साधुसंन्यासी हो जाता है तो उसके बाद घरवालोंकी कितनी ही उन्नति अथवा अवनति हो जाय अथवा सबकेसब मर जायँ? उनका नामोनिशान भी न रहे? तो भी उसपर कोई असर नहीं पड़ता। इसमें विचार करें कि उस व्यक्तिका परिवारके साथ जो सम्बन्ध था? वह दोनों तरफसे माना हुआ था अर्थात् वह परिवारको अपना मानता था और परिवार उसको अपना मानता था। परन्तु पुरुष और प्रकृतिका सम्बन्ध केवल पुरुषकी तरफसे माना हुआ है? प्रकृतिकी तरफसे माना हुआ नहीं जब दोनों तरफसे माना हुआ (व्यक्ति और परिवारका) सम्बन्ध भी एक तरफसे छोड़नेपर छूट जाता है? तब केवल एक तरफसे माना हुआ (पुरुष और प्रकृतिका) सम्बन्ध छोड़नेपर छूट जाय? इसमें कहना ही क्या है सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें कहा गया कि कर्मफलका त्याग करनेवाला ही वास्तवमें त्यागी है। अगर मनुष्य कर्मफलका त्याग न करे तो क्या होता है -- इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।18.11।। क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा अशेष कर्मों का त्याग संभव नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही पुरुष त्यागी कहा जाता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।18.11।।अन्यस्त्यागार्थो न युक्त इत्याह -- न हीति।
Sri Anandgiri
।।18.11।।आत्मज्ञानवतः सर्वकर्मत्यागसंभावनामुक्त्वा तद्धीनस्य तदसंभवे हेतुवचनत्वेनानन्तरश्लोकमवतारयति -- यः पुनरिति। न बाधितमात्मनि कर्तृत्वविज्ञानमस्येत्यज्ञस्तथा तस्य भावस्तत्ता तयेति यावत्? एतमर्थं दर्शयितुमज्ञस्य सर्वकर्मसंन्यासासंभवे हेतुमाहेति योजना। यस्मादित्यस्य तस्मादित्युत्तरेण संबन्धः। विवेकिनोऽपि देहधारितया देहभृत्त्वाविशेषे कर्माधिकारः स्यादित्याशङ्क्याह -- नहीति। कर्तृत्वाधिकारस्तत्पूर्वकं कर्मानुष्ठानं तस्मादिति यावत्। ज्ञानवतो देहधारणेऽपि तदभिमानित्वाभावोऽतःशब्दार्थः। अज्ञस्य सर्वकर्मत्यागायोगमुक्तं हेतूकृत्य फलितमाह -- तस्मादिति। कर्मानुष्ठायिनस्त्यागित्वोक्तिरयुक्तेत्याशङ्क्याह -- कर्म्यपीति। कर्मिणापि फलत्यागेन त्यागित्ववचनं फलत्यागस्तुत्यर्थमित्यर्थः। कस्य तर्हि सर्वकर्मत्यागः संभवतीत्याशङ्क्य विवेकवैराग्यादिमतो देहाभिमानहीनस्येत्युक्तं निगमयति -- तस्मादिति।
Sri Vallabhacharya
।।18.10 -- 18.11।।एवम्भूतस्य लक्षणमाह -- न द्वेष्टीति। सत्त्वसमाविष्टस्त्यागी बुद्धिमान् अकुशलं कर्मानिष्टफलकं? कुशले चेष्टस्वर्गादिफलके कर्मणि नानुषज्जते? त्यक्तात्मसुखातिरिक्तफलत्वात्? त्यक्तकर्तृत्वाच्च। अत्राकुशलं कर्म प्रमादिनमभिप्रेत्योक्तम् नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः। नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् [कठो.2।24ना.प.9।19महो.4।69] इति दुश्चरिताविरतस्य प्रमादिनो ज्ञानतोऽप्यात्मसुखानवाप्तिश्रवणात्। अतः कर्मणि कर्तृत्वसङ्गफलानां त्यागः शास्त्रीयः? न तु स्वरूपतस्त्याग इति। तदाह -- नहीति। नहि ध्रियमाणदेहेन कर्माण्यशेषतस्त्यक्तुं शक्यन्त इत्यर्थे शक्यमव्ययम्। देहधारणार्थानां अशनपानादीनां तदनुबन्धानां च कर्मणावर्जनीयत्वात्? तदर्थं च महायज्ञादिकर्माप्यवर्जनीयमेव। तत्र यः तेषु यज्ञादिकर्मसु फलत्यागी -- फलेत्युपलक्षणं कर्तृत्वममतयोरपि -- स एष त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुः [महाना.8।14कैव.2] इत्यादौ त्यागीत्यभिधीयते।
Sridhara Swami
।।18.11।।नन्वेवंभूतात्कर्मफलत्यागाद्वरं सर्वकर्मत्यागस्तथा सति कर्मविक्षेपाभावेन ज्ञाननिष्ठा सुखं संपद्यते तत्राह -- नेति। देहभृता देहात्माभिमानवता निःशेषेण सर्वाणि कर्माणि त्यक्तुं नहि शक्यम्। तदुक्तम् -- न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत इत्यादिना। तस्माद्यस्तु कर्माणि कुर्वन्नेव कर्मफलत्यागी स एव मुख्यत्यागीत्यभिधीयते।