Bhagavad Gita Chapter 16 Verse 23 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Ethical Living

Sanskrit Shloka (Original)

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः | न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ||१६-२३||

Transliteration

yaḥ śāstravidhimutsṛjya vartate kāmakārataḥ . na sa siddhimavāpnoti na sukhaṃ na parāṃ gatim ||16-23||

Word-by-Word Meaning

यःwho
शास्त्रविधिम्the ordinance of the scriptures
उत्सृज्यhaving cast aside
वर्ततेacts
कामकारतःunder the impulse of desire
not
सःhe
सिद्धिम्perfection
अवाप्नोतिattains
not
सुखम्happiness
not
पराम्Supreme
गतिम्Goal.Commentary He who does not care for the Self

📖 Translation

English

16.23 He who, having cast aside the ordinances of the scriptures, acts under the impulse of desire, attains not perfection, nor happiness nor the Supreme Goal.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।16.23।। जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी कामना से प्रेरित होकर ही कार्य करता है, वह न पूर्णत्व की सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न परा गति।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In professional life, prioritize ethical guidelines, company policies, and best practices over short-term gains driven by personal ambition or impulsive desires. Acting with integrity and discipline, rather than cutting corners or compromising values for immediate gratification, leads to sustained success, a good reputation, and genuine professional satisfaction.

🧘 For Stress & Anxiety

Avoid succumbing to impulses that offer temporary relief but worsen long-term stress, such as procrastination, unhealthy coping mechanisms, or reactive decision-making. Instead, adhere to a disciplined routine, mindfulness practices, and ethical choices (your 'personal scriptures') to cultivate inner peace, mental clarity, and resilience against stress and anxiety.

❤️ In Relationships

Foster healthy relationships by valuing mutual respect, empathy, and established boundaries (the 'ordinances'). Resist the urge to act on selfish desires, manipulate, or disregard the feelings of others. Prioritizing the well-being and trust within the relationship over immediate personal gratification builds deeper connections and lasting happiness.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True fulfillment, lasting happiness, and ultimate purpose are attained through disciplined, ethical conduct, not by succumbing to fleeting, impulsive desires.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

16.23 यः who? शास्त्रविधिम् the ordinance of the scriptures? उत्सृज्य having cast aside? वर्तते acts? कामकारतः under the impulse of desire? न not? सः he? सिद्धिम् perfection? अवाप्नोति attains? न not? सुखम् happiness? न not? पराम् Supreme? गतिम् Goal.Commentary He who does not care for the Self? who gives free rein to these three sins? is a traitor to the Self. He who has renounced the authority of the Vedas which? like a mother? is eally disposed and kind to all? and which? like a beaconlight? points out what is good and what is evil? does not attain perfection nor happiness nor the Supreme Goal. He who pays no attention to prescribed actions and follows the promptings of desire awakened by the senses? does not obtain God.

Shri Purohit Swami

16.23 But he who neglects the commands of the scriptures, and follows the promptings of passion, he does not attain perfection, happiness or the final goal.

Dr. S. Sankaranarayan

16.23. He, who neglects the injunction of the scriptures, and acts according to his own will-he attains neither the success, nor happiness nor the highest goal (emancipation).

Swami Adidevananda

16.23 He who, abandoning the injunctions of the Sastras, acts under the influence of desire, attains neither perfection nor pleasure, nor the supreme state.

Swami Gambirananda

16.23 Ignoring the precept of the scriptures, he who acts under the impulsion of passion,-he does not attain perfection, nor happiness, nor the supreme Goal.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।16.23।। गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश यह है कि कामक्रोधादि आत्मघातक अवगुणों के त्याग से आन्तरिक शक्तियों का जो संचय किया जाता है? उसका आत्मोन्नति के लिए सदुपयोग करना चाहिए। ऐसा न करने पर मनुष्य का जो पतन होता है? उससे पुन ऊपर उठना अति कठिन हो जाता है। रावणादि के समान असुरों का चरित्र इस तथ्य का विशिष्ट प्रमाण है। ये असुर तपश्चर्या के द्वारा असीम शक्तियां प्राप्त करते थे? परन्तु उसके दुरुपयोग करके वे आत्मनाश ही करते थे उनकी शक्तियां ऐसी अद्भुत और भयंकर थीं कि उन्होंने अपनी पीढ़ी को हिला दिया था और उसे चूरचूर कर पृथ्वी की धूल चटा दी थी। स्वयं को तथा इस जगत् को अनर्थ से सुरक्षित रख्ाने के लिए लोगों को गम्भीर चेतावनी की आवश्यकता है। इन अन्तिम दो श्लोकों में यही चेतावनी दी गयी है।जो पुरुष शास्त्रविधि की उपेक्षा करके अपनी स्वच्छन्द प्रकृति के अनुसार ही काम करता है? उसे वस्तुत किसी प्रकार का भी लाभ नहीं होता। यहाँ शास्त्र शब्द से कठिन और विस्तृत कर्मकाण्ड को ही समझना आवश्यक नहीं है? जिसका अनुष्ठान और उपदेश रूढ़िवादी लोग विशेष बल देकर करते हैं। ब्रह्यविद्या का तथा तत्प्राप्ति के साधनों का उपदेश जिन ग्रन्थों में दिया गया है उन्हें यहाँ शास्त्र कहा गया है। ऐसे ग्रन्थ मुख्यत उपनिषद् हैं। वेदान्त के प्रतिपाद्य विषय तथा परिभाषिक शब्दावली का वर्णन करने वाले ग्रन्थों को प्रकरण ग्रन्थ कहा जाता हैं। गीता में ब्रह्मविद्या तथा तत्प्राप्ति के साधन उपदिष्ट है? इसलिए गीता भी शास्त्र ही है।कामकारत प्रस्तुत खण्ड में काम? क्रोध और लोभ के त्याग का उपदेश दिया गया है। हमने यह देखा कि क्रोध और लोभ का मूल कारण काम ही है। इसलिए? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ केवल काम का ही उल्लेख करते हुए कहते हैं कि काम से प्रेरित मनुष्य को परम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती।वह न सिद्धि प्राप्त करता है न सुख और न परा गति। गीता के उपदेश का पालन न करने से क्या हानि होगी इसका उत्तर यह है कि कामना से प्रेरित? लोभ से प्रोत्साहित और क्रोध से विक्षिप्त पुरुष सदैव अशान्ति और क्रूर मनाद्वेगों से पूर्ण जीवन को ही प्राप्त करता है। ऐसा पुरुष न सुख प्राप्त करता है और न आत्मविकास।अत? निष्कर्ष यह निकलता है कि

Swami Ramsukhdas

।।16.23।। व्याख्या --   यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते -- जो लोग शास्त्रविधिकी अवहेलना करके शास्त्रविहित यज्ञ करते हैं? दान करते हैं? परोपकार करते हैं? दुनियाके लाभके लिये तरहतरहके कई अच्छेअच्छे काम करते हैं परन्तु वह सब करते हैं -- कामकारतः (टिप्पणी प0 830) अर्थात् शास्त्रविधिकी तरफ ध्यान न देकर अपने मनमाने ढङ्गसे करते हैं। मनमाने ढङ्गसे करनेमें कारण यह है कि उनके भीतर जो काम? क्रोध आदि पड़े रहते हैं? उनकी परवाह न करके वे बाहरी आचरणोंसे ही अपनेको बड़ा मानते हैं। तात्पर्य है कि वे बाहरके आचरणोंको ही श्रेष्ठ समझते हैं। दूसरे लोग भी बाहरके आचरणोंको ही विशेषतासे देखते हैं। भीतरके भावोंको? सिद्धान्तोंको जाननेवाले लोग बहुत कम होते हैं। परन्तु वास्तवमें भीतरके भावोंका ही विशेष महत्त्व है।अगर भीतरमें दुर्गुणदुर्भाव रहते हैं और बाहरसे बड़े भारी त्यागीतपस्वी बन जाते हैं? तो अभिमानमें आकर दूसरोंकी ताड़ना कर देते हैं। इस प्रकार भीतरमें ब़ढ़े हुए देहाभिमानके कारण उनके गुण भी दोषमें परिणत हो जाते हैं? उनकी महिमा निन्दामें परिणत हो जाती है? उनका त्याग रागमें? आसक्तिमें? भोगोंमें परिणत हो जाता है और आगे चलकर वे पतनमें चले जाते हैं। इसलिये भीतरमें दोषोंके रहनेसे ही वे शास्त्रविधिका त्याग करके मनमाने ढङ्गसे आचरण करते हैं।जैसे रोगी अपनी दृष्टिसे तो कुपथ्यका त्याग और पथ्यका सेवन करता है? पर वह आसक्तिवश कुपथ्य ले लेता है? जिससे उसका स्वास्थ्य और अधिक खराब हो जाता है। ऐसे ही वे लोग अपनी दृष्टिसे अच्छेअच्छे काम करते हैं? पर भीतरमें काम? क्रोध और लोभका आवेश रहनेसे वे शास्त्रविधिकी अवहेलना करके मनमाने ढङ्गसे काम करने लग जाते हैं? जिससे वे अधोगतिमें चले जाते हैं।न स सिद्धिमवाप्नोति -- आसुरीसम्पदावाले जो लोग शास्त्रविधिका त्याग करके यज्ञ आदि शुभ कर्म करते हैं? उनको धन? मान? आदर आदिके रूपमें कुछ प्रसिद्धिरूप सिद्धि मिल सकती है? पर वास्तवमें अन्तःकरणकी शुद्धिरूप जो सिद्धि है? वह उनको नहीं मिलती।न सुखम् -- उनको सुख भी नहीं मिलता क्योंकि उनके भीतरमें कामक्रोधादिकी जलन बनी रहती है। पदार्थोंके संयोगसे होनेवाला सुख उन्हें मिल सकता है? पर वह सुखदुःखोंका कारण ही है अर्थात् उससे दुःखहीदुःख पैदा होते हैं (गीता 5। 22)। तात्पर्य यह है कि पारमार्थिक मार्गमें मिलनेवला सात्त्विक सुख उनको नहीं मिलता।न परां गतिम् -- उनको परमगति भी नहीं मिलती। परमगति मिले ही कैसे पहले तो वे परमगतिको मानते ही नहीं और यदि मानते भी हैं? तो भी वह उनको मिल नहीं सकती क्योंकि काम? क्रोध और लोभके कारण उनके कर्म ही ऐसे होते हैं।सिद्धि? सुख और परमगतिके न मिलनेका तात्पर्य यह है कि वे आचरण तो श्रेष्ठ करते हैं? जिससे उन्हें सिद्धि? सुख और परमगतिकी प्राप्ति हो सके परन्तु भीतरमें काम? क्रोध? लोभ? अभिमान आदि रहनेसे उनके अच्छे आचरण भी बुराईमें ही चले जाते हैं। इससे उनको उपर्युक्त चीजें नहीं मिलतीं। यदि ऐसा मान लिया जाय कि उनके आचर�� ही बुरे होते हैं? तो भगवान्का न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् -- ऐसा कहना बनेगा ही नहीं क्योंकि प्राप्ति होनेपर ही निषेध होता है -- प्राप्तौ सत्यां निषेधः। सम्बन्ध --   शास्त्रविधिका त्याग करनेसे मनुष्यको सिद्धि आदिकी प्राप्ति नहीं होती? इसलिये मनुष्यको क्या करना चाहिये -- इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।16.23।। जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी कामना से प्रेरित होकर ही कार्य करता है, वह न पूर्णत्व की सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न परा गति।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।16.23।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।16.23।।आसुर्याः संपदो वर्जने श्रेयसश्च करणे किं कारणं तदाह -- सर्वस्येति। तस्य कारणत्वं साधयति -- शास्त्रेति। उक्तमुपजीव्यानन्तरश्लोकं प्रवर्तयति -- अत इति। शिष्यतेऽनुशिष्यते बोध्यतेऽनेनापूर्वोऽर्थ इति शास्त्रं तच्च विधिनिषेधात्मकमित्युपेत्य व्याचष्टे -- कर्तव्येति। कामस्य करणं कामकारस्तस्माद्धेतोरित्युपेत्य कामाधीना शास्त्रविमुखस्य प्रवृत्तिरित्याह -- कामेति। कामाधीनप्रवृत्तेः सदा पुमर्थायोग्यस्य सर्वपुरुषार्थासिद्धिरित्याह -- नापीति।

Sri Vallabhacharya

।।16.23।।कामादित्यागश्च शास्त्रोक्तस्वधर्माचरणां विना न भवतीत्याह -- य इति। सर्वःब्रह्मादयस्त्ववयवाः पुरुषोत्तमस्य इत्याज्ञाय देवयजनं हरिणा सदोक्तं इति शास्त्रविधिमुत्सृज्य कामकारतः अशास्त्रीयस्वच्छन्दश्रद्धातो वर्त्तते? न च सिद्धिं कामपि तत्त्वज्ञानाप्तिरूपामामुष्मिकीं वा समवाप्नोति सुखमैहिकमपि नाप्नोति? न च परां गतिमपि।

Sridhara Swami

।।16.23।।कामादित्यागश्च स्वधर्माचरणं विना न भवतीत्याह -- य इति। शास्त्रविधिं वेदविहितं धर्ममुत्सृज्य यः कामकारतो यथेच्छं वर्तते स सिद्धिं तत्त्वज्ञानं न प्राप्नोति। नच सुखमुपशमं नच परां गतिं मुक्तिं प्राप्नोति।

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