Bhagavad Gita Chapter 16 Verse 2 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् | दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ||१६-२||

Transliteration

ahiṃsā satyamakrodhastyāgaḥ śāntirapaiśunam . dayā bhūteṣvaloluptvaṃ mārdavaṃ hrīracāpalam ||16-2||

Word-by-Word Meaning

अहिंसाharmlessness
सत्यम्truth
अक्रोधःabsence of anger
त्यागःrenunciation
शान्तिःpeacefulness
अपैशुनम्absence of crookedness
दयाcompassion
भूतेषुin beings
अलोलुप्त्वम्noncovetousness
मार्दवम्gentleness
ह्रीःmodesty
अचापलम्absence of fickleness.Commentary Ahimsa Noninjury in thought

📖 Translation

English

16.2 Harmlessness, truth, absence of anger, renunciation, peacefulness, absence of crookedness, compassion towards beings, non-covetousness, gentleness, modesty, absence of fickleness.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।16.2।। अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शान्ति, अपैशुनम् (किसी की निन्दा न करना), भूतमात्र के प्रति दया, अलोलुपता , मार्दव (कोमलता), लज्जा, अचंचलता।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Practice integrity and truthfulness in all professional dealings, ensuring ethical conduct and honest communication. Maintain composure and emotional stability under pressure, managing conflicts without anger or fickleness. Foster a collaborative and compassionate work environment by supporting colleagues and focusing on collective goals, rather than coveting others' successes.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate inner peace and emotional resilience by actively practicing absence of anger and non-covetousness, reducing the impact of external provocations and desires. Achieve serenity through truthful living and modesty, which reduces guilt and promotes mental clarity. Detach from the outcomes of actions and serve with compassion, shifting focus from self-preoccupation to alleviate anxiety.

❤️ In Relationships

Nurture trust and open communication through harmlessness in thought, word, and deed, and unwavering truthfulness. Foster harmonious interactions by mastering anger and ego, responding with gentleness and understanding. Build deep, lasting connections through genuine compassion, modesty, and absence of fickleness, ensuring reliability and selfless support for loved ones.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Cultivate divine virtues like harmlessness, truth, emotional mastery, and selfless compassion to forge a life of inner peace, unwavering integrity, and profound harmony.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

16.2 अहिंसा harmlessness? सत्यम् truth? अक्रोधः absence of anger? त्यागः renunciation? शान्तिः peacefulness? अपैशुनम् absence of crookedness? दया compassion? भूतेषु in beings? अलोलुप्त्वम् noncovetousness? मार्दवम् gentleness? ह्रीः modesty? अचापलम् absence of fickleness.Commentary Ahimsa Noninjury in thought? word and deed. By refraining from injuring living creatures the outgoing forces of Rajas are curbed. Ahimsa is divided into physical? verbal and mental.Satyam Truth Speaking of things as they are? without uttering unpleasant words or lies. This includes selfrestraint? absence of jealousy? forgiveness? patience? endurance and kindness.Akrodhah Absence of anger when insulted? ruked or beaten? i.e.? even under the gravest provocation.Tyagah Renunciation -- literally? giving up giving up of Vasanas? egoism and the fruits of action. Charity is also Tyaga. This has already been mentioned in the previous verse.Santih Serenity of the mind.Apaisunam Absence of narrowmindedness.Daya Compassion to those who are in distress. A man of compassion has a tender heart. He lives only for the benefit of the world. Compassion indicates realisation of unity or oneness with other creatures.Aloluptvam Noncovetousness. The senses are not affected or excited when they come in contact with their respective objects the senses are withdrawn from the objects of the senses? just as the limbs of the tortoise are withdrawn by it into its own shell.Hrih It is shame felt in the performance of actions contrary to the rules of the Vedas or of society.Achapalam Not to speak or move the hands and legs in vain avoidance of useless action.Straightforwardness? noninjury? absence of anger? etc.? are special alities of the Brahmanas. They are the Sattvic virtues which belong to them.Moreover --

Shri Purohit Swami

16.2 harmlessness, truth, absence of wrath, renunciation, contentment, straightforwardness, compassion towards all, uncovetousness, courtesy, modesty, constancy,

Dr. S. Sankaranarayan

16.2. Harmlessness, truth, absence of anger, renunciation, absence of attachment, absence of calumny, compassion to living beings, and absence of greed, gentleness, modesty, absence of thoughtlessness;

Swami Adidevananda

16.2 Non-injury, truth, freedom from anger, renunciation, tranillity, non-slandering others, compassion to all beings, freedom from desire, gentleness, the sense of shame, freedom from fickleness;

Swami Gambirananda

16.2 Non-injury, truthfulness, absence of anger, renunciation, control of the internal organ, absence of vilification, kindness to creatures, non-covetousness, gentleness, modesty, freedom from restlessness;

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।16.2।। अहिंसा प्राणियों को पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। स्वार्थ या द्वेषवशात् किसी को पीड़ित करना हिंसा है। अहिंसा का पालन शरीर? वाणी और मन इन तीनों स्तर पर होना चाहिए। कभीकभी बाह्यदृष्टि से कोई व्यक्ति शरीर को पीड़ा पहुँचाते हुए दिखाई देता है? जैसे एक शल्य चिकित्सक रोगी की चिकित्सा करते हुऐ? उसे पीड़ा देता है किन्तु वह हिंसा नहीं मानी जाती। वैसे भी शारीरिक स्तर पर सम्पूर्ण अहिंसा संभव नहीं हो सकती है? किन्तु मन में कदापि हिंसा का भाव नहीं होना चाहिए। चिकित्सक के मन में इस हिंसा का भाव न होने से उसके द्वारा की गई शल्य चिकित्सा को हिंसा नहीं कहा जाता।सत्यम् सत्य का कुछ भाव आर्जव शब्द की व्याख्या में प्रकट किया जा चुका है। प्रमाणों से सिद्ध अर्थ को उसी रूप में प्रकट करना सत्य कहलाता है।अक्रोध यहाँ इस शब्द का क्रोध का सर्वथा अभाव अर्थ अभिप्रेत नहीं है। साधना की स्थिति में कभीकभी किसी घटना अथवा किसी के दुर्व्यवहार से मन में क्रोध आ जाता है? परन्तु तत्काल ही उसे पहचान कर उसका उपशमन करने की क्षमता को यहाँ अक्रोध कहा गया है। साधक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह भी अपने क्रोध को क्रियारूप में व्यक्त न होने दे। इसी प्रकार की अन्य वृत्तियों का उपशमन करने की सार्मथ्य साधक को सम्पादित करनी चाहिए।त्याग यहाँ अहंकार और स्वार्थ का त्याग करने के लिए कहा गया है। पूर्व श्लोक के समान यहाँ उल्लिखित गुणों में भी परस्पर संबंध है। त्याग के अभाव में अक्रोध भी सिद्ध नहीं हो सकता? क्योंकि जब कोई हमारे अहंकार या स्वार्थ को चोट या हानि पहुंचाता है? तभी हमें क्रोध आता है।शान्ति उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न व्यक्ति के मन में विक्षेपों का कोई कारण नहीं रह जाता? इसलिए उसके मन की शान्ति बनी रहती है। बाह्य जगत् की अथवा उसके व्यक्तिगत जीवन की परिस्थितियां कितनी ही दुखदायक और आक्रामक क्यों न हों? उस व्यक्ति का मनसन्तुलन कभी विचलित नहीं होता है।अपैशुनम् किसी व्यक्ति के दोषों को अन्य लोगों के समक्ष प्रकट करने को पैशुन कहते हैं। पैशुन का अभाव ही अपैशुन है। वाणी की मधुरता या कर्कशता वक्ता के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। एक अयुक्त (अर्थात् अशुद्ध अन्तकरण वाले) पुरुष को अन्य लोगों की द्वेषयुक्त निन्दा करने में एक प्रकार का आसुरी आनन्द प्राप्त होता है। प्राय यह कोमल और मांसल जिह्वा ही किसी विनाशकारी अस्त्र से भी अधिक विध्वंसकारी सिद्ध होती है। आत्मविकास के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने की आकांक्षा रखने वाले उद्यमी साधक को ऐसा आन्तरिक सामञ्जस्य स्थापित करना चाहिए कि उसकी वाणी आत्मा की सुरभि का अनुकरण करे। स्वर की कोमलता? वचनों की स्पष्टता? निश्चय्ा की सत्यता? प्रच्छन्न अर्थ से रहित विचारों को श्रोता के मन में स्पष्ट करने की क्षमता? निष्कपटता? भक्ति और प्रेम इन सब से परिपूर्ण संभाषण वक्ता के व्यक्तित्व के आत्मचरित्र का एक विशिष्ट और श्रेष्ठ गुण ही बन जाता है। इस प्रकार के मधुर संभाषण के गुण का स्वयं में विकास करने से अपने व्यक्तित्व के अन्य आयामों का भी स्वत विकास हो जाता है? जो अन्तकरण को अनुशासित करने के लिए आवश्यक होता है।भूतमात्र के प्रति दया दुख और कष्ट से पीड़ित प्राणियों के प्रति कृपा का भाव दया कहलाता है। इसके अतिरिक्त? एक साधक को समाज में रहते हुए यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि समाज के सभी लोग उन्हीं आदर्शों या जीवन मूल्यों का अनुकरण करें? जिनके प्रति स्वयं उसकी श्रद्धा है। लोगों की दृष्टियों में भेद होता है और इसलिए उसे अपने आसपास के लोगों में अपूर्णता और दोष दिखाई दे सकते हैं। परन्तु? उनको इन समस्त दोषों के अन्तरंग में स्थित आत्मा के असीम सौन्दर्य को देखते रहना चाहिए। आत्मदर्शन की यह क्षमता ही सभी साधुओं और सन्तों के मन में स्थित प्राणिमात्र के प्रति दया का रहस्य है। सब के प्रति मन में प्रेम होने पर ही उनके प्रति असीम सहानुभूति और स्नेह का भाव हृदय में उठ सकता है। आत्मा की इस सुन्दरता को यदि अत्यन्त दुखी और दुश्चरित्र व्यक्ति में भी हम नहीं देख सके? तो उनके प्रति हमारे हृदय में स्नेह और दया उत्पन्न नहीं हो सकती।अलोलुपता प्रलोभित और आकर्षित करने वाले विषयों की उपस्थिति में भी मन में विकार उत्पन्न नहीं होना अलोलुपता है।मार्दव (मृदुता) और लज्जा यहाँ लज्जा का अर्थ है? निषिद्ध और निन्द्य प्रकार के कर्म करने में लज्जा का अनुभव करना। इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि निन्द्य कर्मों का त्याग करना तथा शुभ कर्मों में गर्व का न होना अर्थात् नम्रता? विनयशीलता का होना लज्जा शब्द का अभिप्रेत अर्थ है। वस्तुत जो व्यक्ति उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न होता है? उसमें स्वभाव की मृदुता और विनयशीलता स्वाभाविक रूप में आ जाती है? क्योंकि ये दोनों गुण मनुष्य की श्रेष्ठ संस्कृति के द्योतक हैं।अचापलम् मनुष्य के मन की चंचलता और स्वभाव की अस्थिरता उसकी शारीरिक चेष्टाओं में प्रकट होती है। सतत चंचलता? अकस्मात् कर्म का प्रारम्भ करना? अश्लील प्रकार की शारीरिक चेष्टाएं? व्यसनानन्द के अतिरेक से अंग प्रक्षेपण इत्यादि लक्षण केवल एक असंस्कृत व्यक्ति में देखे जाते हैं? जिसने न कभी स्वभाव की स्थिरता को और न कभी व्यक्तित्व को आदर्शपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया हो। ये लक्षण एक शिशु में देखे जाते हैं? और उस दशा में वे उसके सौन्दर्यवर्धक ही माने जाते हैं। परन्तु जैसेजैसे व्यक्ति का विकास होता जाता है? उसका आत्मसंयम ही उसका सौन्दर्य समझा जाता है? जो उसकी शारीरिक चेष्टाओं के द्वारा स्पष्ट होता है।श्री शंकराचार्य जी इसका अर्थ बताते हैं? प्रयोजन के अभाव में हाथ? पैर? वाणी आदि इन्द्रियों का व्यापार न होना अचापलम् कहलाता है। यह इस शब्द का व्यापक अर्थ है और इसका आशय यह भी है कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए उपयोगी कार्य में तत्परता और समस्त शारीरिक शक्तियों की मितव्ययिता होना चाहिए। अनावश्यक चेष्टाएं करना दुर्बल व्यक्तित्व का लक्षण है। ऐसे व्यक्ति कल्पनाओं में ही खोये रहते हैं और मानसिक तथा बौद्धिक स्तर पर अत्यन्त दुर्बल होते हैं। अत अचापलम् नामक गुण के सम्पादन से हम अपने व्यक्तित्व की अनेक प्रकार की सामान्य दुर्बलताओं का उपचार कर सकते हैं।और

Swami Ramsukhdas

।।16.2।। व्याख्या --   अहिंसा -- शरीर? मन? वाणी? भाव आदिके द्वारा किसीका भी किसी प्रकारसे अनिष्ट न करनेको तथा अनिष्ट न चाहनेको अहिंसा कहते हैं। वास्तवमें सर्वथा अहिंसा तब होती है? जब मनष्य संसारकी तरफसे विमुख होकर परमात्माकी तरफ ही चलता है। उसके द्वारा अहिंसा का पालन स्वतः होता है। परन्तु जो रागपूर्वक? भोगबुद्धिसे भोगोंका सेवन करता है वह कभी सर्वथा अहिंसक नहीं हो सकता। वह अपना पतन तो करता ही है? जिन पदार्थों आदिको वह भोगता है? उनका भी नाश करता है।जो संसारके सीमित पदार्थोंको व्यक्तिगत (अपने) न होनेपर भी व्यक्तिगत मानकर सुखबुद्धिसे भोगता है? वह हिंसा ही करता है। कारण कि समष्टि संसारसे सेवाके लिये मिले हुए पदार्थ? वस्तु? व्यक्ति? आदिमेंसे किसीको भी अपने भोगके लिये व्यक्तिगत मानना हिंसा ही है। यदि मनुष्य समष्टि संसारसे मिली हुई वस्तु? पदार्थ? व्यक्ति आदिको संसारकी ही मानकर निर्ममतापूर्वक संसारकी सेवामें लगा दे? तो वह हिंसासे बच सकता है और वही अहिंसक हो सकता है।जो सुख और भोगबुद्धिसे भोगोंका सेवन करता है? उसको देखकर? जिनको वे भोगपदार्थ नहीं मिलते -- ऐसे अभावग्रस्तोंको दुःखसंताप होता है। यह उनकी हिंसा ही है क्योंकि भोगी व्यक्तिमें अपना स्वार्थ और सुखबुद्धि रहती है तथा दूसरोंके दुःखकी लापरवाही रहती है। परन्तु जो संतमहापुरुष केवल दूसरोंका हित करनेके लिये ही जीवननिर्वाह करते हैं? उनको देखकर किसीको दुःख हो भी जायगा? तो भी उनको हिंसा नहीं लगेगी क्योंकि वे भोगबुद्धिसे जीवननिर्वाह करते ही नहीं -- शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् (गीता 4। 21)।केवल परमात्माकी ओर चलनेवालेके द्वारा हिंसा नहीं होती क्योंकि वह भोगबुद्धिसे पदार्थ आदिका सेवन नहीं करता। परमत्माकी ओर चलनेवाला साधक शरीर? मन? वाणीके द्वारा कभी किसीको दुःख नहीं पहुँचाता। यदि उसकी बाह्य क्रियाओँसे किसीको दुःख होता है? तो यह दुःख उसके खुदके स्वभावसे ही होता है। साधककी तो भीतरसे कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख देनेकी भावना नहीं होनी चाहिये। उसका भाव निरन्तर सबका हित करनेका होना चाहिये -- सर्वभूतहिते रताः।साधककी साधानमें कोई बाधा डाल दे? तो उसे उसपर क्रोध नहीं आता और न उसके मनमें उसके अहितकी भावना (हिंसा) ही पैदा होती है। हाँ? परमात्माकी ओर चलनेमें बाधा पड़नेसे उसको दुःख हो सकता है? पर वह दुःख भी सांसारिक दुःखकी तरह नहीं होता। साधकको बाधा लगती है? तो वह भगवान्को पुकारता है कि हे नाथ मेरी कहाँ भूल हुई? जिससे बाधा लग रही है ऐसा विचार करके उसे रोना आ सकता है पर बाधा डालनेवालेके प्रति क्रोध? द्वेष नहीं हो सकता। बाधा लगनेपर साधकमें तत्परता और सावधानी आती है। यदि उसमें बाधा डालनेवालेके प्रति द्वेष होता है? तो जितने अंशमें द्वेषवृत्ति रहती है? उतने अंशमें तत्परताकी कमी है? अपने साधनका आग्रह है।साधककमें एक तत्परता होती है और एक आग्रह होता है। तत्परता होनेसे साधनमें रुचि रहती है और आग्रह होनेसे साधनमें राग होता है। रुचि होनेसे अपने साधनमें कहाँकहाँ कमी है? उसका ज्ञान होता है और उसे दूर करनेकी शक्ति आती है? तथा उसे दूर करनेकी चेष्टा भी होती है। परन्तु राग होनेसे साधनमें विघ्न डालनेवालेके साथ द्वेष होनेकी सम्भावना रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो साधनमें हमारी रुचि कम होनेसे ही दूसरा हमारे साधनमें बाधा डालता है। अगर साधनमें हमारी रुचि कम न हो तो दूसरा हमारे साधनमें बाधा नहीं डालेगा? प्रत्युत यह सोचकर उपेक्षा कर देगा कि यह जिद्दी है? मानेगा नहीं अतः जैसा चाहे? वैसा करने दो।जैसे पुष्पसे सुगन्ध स्वतः फैलती है? ऐसे ही साधकसे स्वतः पारमार्थिक परमाणु फैलते हैं और वायुमण्डल शुद्ध होता है। इससे उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक प्राणिमात्रका बड़ा भारी उपकार एवं हित होता रहता है। परन्तु जो अपने दुर्गुणदुराचारोंके द्वारा वायुमण्डलको अशुद्ध करता रहता है? वह प्राणिमात्रकी हिंसा करनेका अपराधी होता है।सत्यम् -- अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके केवल दूसरोंके हितकी दृष्टिसे जैसा सुना? देखा? पढ़ा? समझा और निश्चय किया है? उससे न अधिक और न कम -- वैसाकावैसा प्रिय शब्दोंमें कह देना,सत्य है।सत्यस्वरूप परमात्माको पाने और जाननेका एकमात्र उद्देश्य हो जानेपर साधकके द्वारा मन? वाणी और क्रियासे असत्यव्यवहार नहीं हो सकता। उसके द्वारा सत्यव्यवहार? सबके हितका व्यवहार ही होता है। जो सत्यको जानना चाहता है? वह सत्यके ही सम्मुख रहता है। इसलिये उसके मनवाणीशरीरसे जो क्रियाएँ होती हैं? वे सभी उत्साहपूर्वक सत्यकी ओर चलनेके लिये ही होती हैं।अक्रोधः -- दूसरोंका अनिष्ट करनेके लिये अन्तःकरणमें जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है? वह क्रोध है। पर जबतक अन्तःकरणमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी भावना पैदा नहीं होती? तबतक वह क्षोभ है? क्रोध नहीं।परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे साधन करनेवाला मनुष्य अपना अपकार करनेवालेका भी अनिष्ट नहीं करना चाहता। वह इस बातको समझता है कि अनिष्ट करनेवाला व्यक्ति वास्तवमें हमारा अनिष्ट कभी कर ही नहीं सकता। यह जो हमे दुःख देनेके लिये आया है? यह हमने पहले कोई गलती की है? उसीका फल है। अतः यह हमें शुद्ध कर रहा है? निर्मल कर रहा है। जैसे? डॉक्टर किसी रुग्ण अङ्ग को काटता है? तो उसपर रोगी क्रोध नहीं करता? प्रत्युत उसे अच्छा मानता है? ठीक मानता है। उसके रुग्ण अङ्गको काटना तो उसे ठीक करनेके लिये ही है। ऐसे ही साधकको कोई अहितकी भावनासे किसी तरहसे दुःख देता है? तो उसमें यह भाव पैदा होता है कि वह मेरेको शुद्ध? निर्मल बनानेमें निमित्त बन रहा है अतः उसपर क्रोध कैसे वह तो मेरा उपकार कर रहा है और भविष्यके लिये सावधान कर रहा है कि जो गलती पहले की है? आगे वैसी गलती न करूँ।जो लोग साधकका हित करनेवाले हैं? उसकी सेवा करनेवाले हैं? वे तो साधकको सुख पहुँचाकर उसके पुण्योंका नाश करते हैं। पर साधकको उनपर (उसके पुण्योंका नाश करनेके कारण) क्रोध नहीं आता। उनपर साधकको यह विचार आता है कि वे जो मेरी सेवा करते हैं? मेरे अनुकूल आचरण करते हैं? यह तो उनकी सज्जनता है? उनका श्रेष्ठ भाव है। परन्तु पुण्योंका नाश तो तब होता है? जब मैं उनकी सेवासे सुख भोगता हूँ। इस प्रकार साधककी दृष्टि सेवा करनेवालोंकी अच्छाई? शुद्ध नीयतपर ही जाती है। अतः साधकको न तो दुःख देनेवालोंपर क्रोध होता है और न सुख देनेवालोंपर।त्यागः -- संसारसे विमुख हो जाना ही असली त्याग है। साधकको जीवनमें बाहरका और भीतरका -- दोनोंका ही त्याग होना चाहिये। जैसे? बाहरसे पाप? अन्याय? अत्याचार? दुराचार आदिका और बाहरी सुखआराम आदिका त्याग भी करना चाहिये? और भीतरसे सांसारिक नाशवान् वस्तुओंकी कामनाका त्याग भी करना चाहिये। इससे भी बाहरके त्यागकी अपेक्षा भीतरकी कामनाका त्याग श्रेष्ठ है। कामनाका सर्वथा त्याग होनेपर तत्काल शान्तिकी प्राप्ति होती है -- त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीता 12। 12)।साधकके लिये उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुओंकी कामना ही वास्तवमें सबसे ज्यादा बाधक होती है। अतः,कामनाका सर्वथा त्याग करना चाहिये। त्याग कब होता है जब साधकका उद्देश्य एकमात्र परमात्मप्राप्तिका ही हो जाता है? तब उसकी कामनाएँ दूर होती चली जाती हैं। कारण कि सांसारिक भोग और संग्रह साधकका लक्ष्य नहीं होता। अतः वह सांसारिक भोग और संग्रहकी कामनाका त्याग करते हुए अपने साधनमें आगे बढ़ता रहता है।शान्तिः -- अन्तःकरणमें रागद्वेषजनित हलचलका न होना शान्ति है क्योंकि संसारके साथ रागद्वेष करनेसे ही अन्तःकरणमें अशान्ति आती है और उनके न होनेसे अन्तःकरण स्वाभाविक ही शान्त? प्रसन्न रहता है।अनुकूलतासे पुराने पुण्योंका नाश होता है और उसमें अपना स्वभाव सुधरनेकी अपेक्षा बिगड़नेकी सम्भावना अधिक रहती है। परन्तु प्रतिकूलता आनेपर पापोंका नाश होता है और स्वभावमें भी सुधार होता है। इस बातको समझनेपर प्रतिकूलतामें भी स्वतः शान्ति बनी रहती है।किसी परिस्थिति आदिको लेकर साधकमें कभी रागद्वेषका भाव हो भी जाता है तो उसके मनमें अशान्ति पैदा हो जाती है और अशान्ति होते ही वह तुरंत सावधान हो जाता है कि रागद्वेषपूर्वक कर्म करना मेरा उद्देश्य नहीं है। इस विचारसे फिर शान्ति आ जाती है और समय पाकर स्थिर हो जाती है।अपैशुनम् -- किसीके दोषको दूसरेके आगे प्रकट करके दूसरोंमें उसके प्रति दुर्भाव पैदा करना पिशुनता है और इसका सर्वथा अभाव ही अपैशुन है। परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य होनेसे साधक कभी किसीकी चुगली नहीं करता। ज्योंज्यों उसका साधन आगे बढ़ता चला जाता है? त्योंहीत्यों उसकी दोषदृष्टि और द्वेषवृत्ति मिटकर दूसरोंके प्रति उसका स्वतः ही अच्छा भाव होता चला जाता है। उसके मनमें यह विचार भी नहीं आता कि मैं साधन करनेवाला हूँ और ये दूसरे (साधन न करनेवाले) साधारण मनुष्य हैं? प्रत्युत तत्परतासे साधन होनेपर उसे जैसी अपनी स्थिति (जडतासे सम्बन्ध न होना) दिखायी देती है? वैसी ही दूसरोंकी स्थिति भी दिखायी देती है कि वास्तवमें उनका भी जडतासे सम्बन्ध नहीं है? केवल सम्बन्ध माना हुआ है। इस तरह जब उसकी दृष्टिमें किसीका भी जडतासे सम्बन्ध है ही नहीं? तो वह किसीका दोष किसीके प्रति क्यों प्रकट करेगाभक्तिमार्गवाला सर्वत्र अपने प्रभुको देखता है? ज्ञानमार्गवाला केवल अपने स्वरूपको ही देखता है और कर्मयोगमार्गवाला अपने सेव्यको देखता है। इसलिये साधक किसीकी बुराई? निन्दा? चुगली आदि कर ही कैसे सकता हैदया भूतेषु -- दूसरोंको दुःखी देखकर उनका दुःख दूर करनेकी भावनाको दया कहते हैं। भगवान्की? संतमहात्माओंकी? साधकोंकी और साधारण मनुष्योंकी दया अलगअलग होती है --(1) भगवान्की दया -- भगवान्की दया सभीको शुद्ध करनेके लिये होती है। भक्तलोग इस दयाके दो भेद मानते हैं -- कृपा और दया। मात्र मनुष्योंको पापोंसे शुद्ध करनेके लिये उनके मनके विरुद्ध (प्रतिकूल) परिस्थितिको भेजना कृपा है और अनुकूल परिस्थितिको भेजना दया है।(2) संतमहात्माओंकी दया -- संतमहात्मालोग दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दूसरोंके सुखसे सुखी होते हैं -- पर दुख दुख सुख सुख देखे पर (मानस 7। 38। 1)। पर वास्तवमें उनके भीतर न दूसरोंके दुःखसे दुःख होता है और न अपने दुःखसे ही दुःख होता है। अपनेपर प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर वे उसमें भगवान्की कृपाको देखते हैं? पर दूसरोंपर दुःख आनेपर उन्हें सुखी करनेके लिये वे उनके दुःखको स्वयं अपनेपर ले लेते हैं। जैसे? इन्द्रने क्रोधपूर्वक बिना अपराधके दधीचि ऋषिका सिर काट दिया था? पर जब इन्द्रने अपनी रक्षाके लिये उनकी ह़ड्डियाँ माँगी? तब दधीचिने सहर्ष प्राण छोड़कर उन्हें अपनी हड्डियाँ दे दीं। इस प्रकार संतमहापुरुष दूसरेके दुःखको सह नहीं सकते? प्रत्युत उन्हें सुख पहुँचानेके लिये अपनी सुखसामग्री और प्राणतक दे देते हैं? चाहे दूसरा उनका अहित करनेवाला ही क्यों न हो (टिप्पणी प0 796) इसलिये संतमहात्माओंकी दया विशेष शुद्ध? निर्मल होती है।(3) साधकोंकी दया -- साधक अपने मनमें दूसरोंका दुःख दूर करनेकी भावना रखता है और उसके अनुसार उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा भी करता है। दूसरोंको दुःखी देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है क्योंकि वह अपनी ही तरह दूसरोंके दुःखको भी समझता है। इसलिये उसका यह भाव रहता है कि सब सुखी कैसे हों सबका भला कैसे हो सबका उद्धार कैसे हो सबका हित कैसे हो अपनी ओरसे वह ऐसी ही चेष्टा करता है परन्तु मैं सबका हित करता हूँ? सबके हितकी चेष्टा करता हूँ -- इन बातोंको लेकर उसके मनमें अभिमान नहीं होता। कारण कि दूसरोंका दुःख दूर करनेका सहज स्वभाव बन जानेसे उसे अपने इस आचरणमें कोई विशेषता नहीं दीखती। इसलिये उसको अभिमान नहीं होता।जो प्राणी भगवान्की ओर नहीं चलते? दुर्गुणदुराचारोंमें रत रहते हैं? दूसरोंका अपराध करते हैं और अपना पतन करते हैं -- ऐसे मनुष्योंपर साधकको क्रोध न आकर दया आती है। इसलिये वह हरदम ऐसी चेष्टा करता रहता है कि ये लोग दुर्गुणदुराचारोंसे ऊपर कैसे उठें इनका भला कैसे हो कभीकभी वह उनके दोषोंको दूर करनेमें अपनेको निर्बल मानकर भगवान्से प्रार्थना करता है कि हे नाथ ये लोग इन दोषोंसे छूट जायँ और आपके भक्त बन जायँ।,(4) साधारण मनुष्योंकी दया -- साधारण मनुष्यकी दयामें थोड़ी मलिनता रहती है। वह किसी जीवके हितकी चेष्टा करता है? तो यह सोचता है कि मैं कितना दयालु हूँ मैंने इस जीवको सुख पहुँचाया? तो मैं कितना अच्छा हूँ हरके आदमी मेरेजैसा दयालु नहीं है? कोईकोई ही होता है? इत्यादि। इस प्रकार लोग मुझे अच्छा समझेंगे? मेरा आदर करेंगे आदि बातोंको लेकर? अपनेमें महत्त्वबुद्धि रखकर जो दया की जाती है? उसमें दयाका अंश तो अच्छा है? पर साथमें उपर्युक्त मलिनताएँ रहनेसे उस दयामें अशुद्धि आ जाती है।इनसे भी साधारण दर्जेके मनुष्य दया तो करते हैं? पर उनकी दया ममतावाले व्यक्तियोंपर ही होती है। जैसे? ये हमारे परिवारके हैं? हमारे मत और सिद्धान्तको माननेवाले हैं? तो उनका दुःख दूर करनेकी इच्छासे उन्हें सुखआराम देनेका प्रयत्न करते हैं। यह दया ममता और पक्षपातयुक्त होनेसे अधिक अशुद्ध है।इनसे भी घटिया दर्जेके वे मनुष्य हैं? जो केवल अपने सुख और स्वार्थकी पूर्तिके लिये ही दूसरोंके प्रति दयाका बर्ताव करते हैं।अलोलुप्त्वम् -- इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध होनेसे अथवा दूसरोंको भोग भोगते हुए देखनेसे मनका (भोग भोगनेके लिये) ललचा उठनेका नाम लोलुपता है और उसके सर्वथा अभावका नाम अलोलुप्त्व है।अलोलुपताके उपाय -- (1) साधकके लिये विशेष सावधानीकी बात है कि वह अपनी इन्द्रियोंसे भोगोंका सम्बन्ध न रखे और मनमें कभी भी ऐसा भाव? ऐसा अभिमान न आने दे कि मेरा इन्द्रियोंपर अधिकार है अर्थात् इन्द्रियाँ मेरे वशमें हैं अतः मेरा क्या बिगड़ सकता है(2) मैं हृदयसे परमात्माकी प्राप्ति चाहता हूँ? अगर कभी हृदयमें विषयलोलुपता हो गयी? तो मेरा पतन हो जायगा और मैं परमात्मासे विमुख हो जाऊँगा -- इस प्रकार साधक खूब सावधान रहे और कहीं अचानक विचलित होनेका अवसर आ जाय? तो हे नाथ बचाओ हे नाथ बचाओ ऐसे सच्चे हृदयसे भगवान्को पुकारे।(3) स्त्रीपुरुषोंकी तथा जन्तुओँकी कामविषयक चेष्ट न देखे। यदि दीख जाय? तो ऐसा विचार करे कि,यह तो बिलकुल चौरासी लाख योनियोंका रास्ता है। यह चीज तो मनुष्य? पुशपक्षी? कीटपतङ्ग? राक्षसअसुर? भूतप्रेत आदि मात्र जीवोंमें भी है। पर मैं तो चौरासी लाख योनियों अर्थात् जन्ममरणसे ऊँचा उठना चाहता हूँ। मैं जन्ममरणके मार्गका पथिक नहीं हूँ। मेरेको तो जन्ममरणादि दुःखोंका अत्यन्त अभाव करके परमात्माकी प्राप्ति करना है। इस भावको बड़ी सावधानीके साथ जाग्रत् रखे और जहाँतक बने? ऐसी कामचेष्टा न देखे।मार्दवम् -- बिना कारण दुःख देनेवालों और वैर रखनेवालोंके प्रति भी अन्तःकरणमें कठोरताका भाव न होना तथा स्वाभाविक कोमलताका रहना मार्दव है (टिप्पणी प0 797)।साधकके हृदयमें सबके प्रति कोमलताका भाव रहता है। उसके प्रति कोई कठोरता एवं अहितका बर्ताव भी करता है? तो भी उसकी कोमलतामें अन्तर नहीं आता। यदि साधक कभी किसी बातको लेकर किसीको कठोर जवाब भी दे दे? तो वह कठोर जवाब भी उसके हितकी दृष्टिसे ही देता है। पर पीछे उसके मनमें यह विचार आता है कि मैंने उसके प्रति कठोरताका व्यवहार क्यों किया मैं प्रेमसे या अन्य किसी उपायसे भी समझा सकता था -- इस प्रकारके भाव आनेसे कठोरता मिटती रहती है और कोमलता बढ़ती रहती है।यद्यपि साधकोंके भावोंमें और वाणीमें कोमलता रहती है? तथापि उनकी भिन्नभिन्न प्रकृति होनेसे सबकी वाणीमें एक समान कोमलता नहीं होती। परन्तु हृदयमें साधकोंका सबके प्रति कोमल भाव रहता है। ऐसे ही कर्मयोग? ज्ञानयोग और भक्तियोग आदिका साधन करनेवालोंके स्वभावमें विभिन्नता होनेसे उनके बर्ताव सबके प्रति भिन्नभिन्न होते हैं अतः उनके आचरणोंमें एकजैसी कोमलता नहीं दीखती? पर भीतरमें बड़ी भारी कोमलता रहती है।ह्रीः -- शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध काम करनेमें जो एक संकोच होता है? उसका नाम ह्रीः (लज्जा) है। साधकको साधनविरुद्ध क्रिया करनेमें लज्जा आती है। वह लज्जा केवल लोगोंके देखनेसे ही नहीं आती? प्रत्युत उसके मनमें अपनेआप ही यह विचार आता है कि रामराम? मैं ऐसी क्रिया कैसे कर सकता हूँ क्योंकि मैं तो परमात्माकी तरफ चलनेवाला (साधक) हूँ। लोग भी मुझे परमात्माकी तरफ चलनेवाला समझते हैं। अतः ऐसी साधनविरुद्ध क्रियाओँको मैं एकान्तमें अथवा लोगोंके सामने कैसे कर सकता हूँ -- इस लज्जाके कारण साधक बुरे कर्मोंसे बच जाता है एवं उसके आचरण ठीक होते चले जाते हैं। जब साधक अपनी अहंता बदल देता है कि मैं सेवक हूँ? मैं जिज्ञासु हूँ? मैं भक्त हूँ? तब उसे अपनी अहंताके विरुद्ध क्रिया करनेमें स्वाभाविक ही लज्जा आती है। इसलिये पारमार्थिक उद्देश्य रखनेवाले प्रत्येक साधकको अपनी अहंता मैं साधक हूँ? मैं सेवक हूँ? मैं जिज्ञासु हूँ? मैं भगवद्भक्त हूँ -- इस प्रकारसे यथारुचि बदल लेनी चाहिये? जिससे वह साधनविरोधी कर्मोंसे बचकर अपने उद्देश्यको जल्दी प्राप्त कर सकता है।अचापलम् -- कोई भी कार्य करनेमें चपलताका अर्थात् उतावलापनका न होना अचापल है। चपलता (चञ्चलता) होनेसे काम जल्दी होता है? ऐसी बात नहीं है। सात्त्विक मनुष्य सब काम धैर्यपूर्वक करता है अतः उसका काम सुचारुरूपसे और ठीक समयपर हो जाता है। जब कार्य ठीक हो जाता है? तब उसके अन्तःकरणमें हलचल? चिन्ता नहीं होती। चपलता न होनेसे कार्यमें दीर्घसूत्रताका दोष भी नहीं आता? प्रत्युत कार्यमें तत्परता आती है? जिससे सब काम सुचारुरूपसे होते हैं। अपने कर्तव्यकर्मोंको करनेके अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा न होनेसे उसका चित्त विक्षिप्त और चञ्चल नहीं होता (गीता 18। 26)।

Swami Tejomayananda

।।16.2।। अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शान्ति, अपैशुनम् (किसी की निन्दा न करना), भूतमात्र के प्रति दया, अलोलुपता , मार्दव (कोमलता), लज्जा, अचंचलता।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।16.2।।पैशुनं परोपद्रवनिमित्तदोषाणां राजादेः कथनम्।परोपद्रवहेतूनां दोषाणां पेशुनं वचः। राजादेस्तु मदाद्भीतेरदृष्टिर्दर्प उच्यते इत्यभिधानात्। लौल्यं रागःरागो लौल्यं तथा रक्तिः इत्यभिधानात्। अचापलं स्थैर्यम्।चपलश्चञ्चलोऽस्थिरः इत्यभिधानात्।

Sri Anandgiri

।।16.2।।दैवीं संपदमभिजातस्य विशेषणान्तराणि दर्शयति -- किञ्चेति। त्यागशब्देन दानं कस्मान्नोच्यते तत्राह -- पूर्वमिति। लज्जाऽकार्यनिवृत्तिहेतुगर्हानिमित्ता मनोवृत्तिः।

Sri Vallabhacharya

।।16.1 -- 16.3।।पूर्वाध्यायेयो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् [15।19] इत्युक्तं? तत्रबुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः इत्युक्तत्वादसम्मूढस्य दैवत्वं? तदितरस्य चासुरत्वमिति विभजन् पूर्वं दैवीं सम्पदमाह त्रिभिः श्रीभगवान् -- अभयमिति। एते षड्विंशतिगुणाः दैवीं सम्पदमभिजातस्य भवन्ति? देवसम्बन्धिनी दैवी। देवा भगवद्वचनानुवर्त्तिर्धमशीलास्तेषां सम्पत्साधनरूपा सामग्री सृष्टिर्वा? सा च भगवन्निगमधर्मानुवर्त्तिकैव? तामभिजातस्य दैवजीवस्य भवन्तीत्यर्थः।

Sridhara Swami

।।16.2।। किंच -- अहिंसेति। अहिंसा परपीडावर्जनम्? सत्यं यथार्थभाषणम्? अक्रोधस्ताडितस्यापि चित्ते क्षोभानुत्पत्तिः? त्याग औदार्यम्? शान्तिश्चित्तोपरतिः? पैशुनं परोक्षे परदोषप्रकाशनम्? तद्वर्जनमपैशुनम्? भूतेषु दीनेषु दया? अलोलुप्त्वं लोभाभावः? अवर्णलोप आर्षः। मार्दवं मृदुत्वमक्रूरता? ह्रीः अकार्यप्रवृत्तौ लोकलज्जा? अचापलं व्यर्थक्रियाराहित्यम्।

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