Bhagavad Gita Chapter 15 Verse 5 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः | द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्- गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ||१५-५||
Transliteration
nirmānamohā jitasaṅgadoṣā adhyātmanityā vinivṛttakāmāḥ . dvandvairvimuktāḥ sukhaduḥkhasaṃjñaira- gacchantyamūḍhāḥ padamavyayaṃ tat ||15-5||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
15.5 Free from pride and delusion, victorious over the evil of attachment, dwelling constantly in the Self, their desires having completely turned away, freed from the pairs of opposites known as pleasure and pain, the undeluded reach the eternal goal.
।।15.5।। जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In a professional setting, avoid excessive attachment to specific outcomes, roles, or recognition. Maintain equanimity through successes and setbacks, focusing on the quality of your work and purpose rather than ego gratification. Develop self-awareness to prevent pride and delusion from clouding judgment, fostering adaptability, open-mindedness, and continuous learning.
🧘 For Stress & Anxiety
Reduce stress by cultivating detachment from desires, external validations, and the ever-changing circumstances of life, fostering a deeper sense of inner peace. Practice equanimity to navigate life's inevitable ups and downs without extreme emotional swings. Freeing oneself from pride and delusion helps prevent self-judgment and anxiety caused by unrealistic expectations or reliance on external approval.
❤️ In Relationships
Cultivate healthier relationships by letting go of possessiveness, unrealistic expectations, and the need for others to fulfill your desires. Practice humility to resolve conflicts without ego, and develop equanimity to handle the joys, challenges, and evolving nature of human connection with grace. This fosters genuine connection based on mutual respect rather than attachment or delusion.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Conquer ego, attachment, and the dualities of pleasure and pain to dwell in the Self, achieving unshakable inner freedom and the ultimate, eternal goal.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
15.5 निर्मानमोहाः free from pride and delusion? जितसङ्गदोषाः victorious over the evil of attachment? अध्यात्मनित्याः dwelling constantly in the Self? विनिवृत्तकामाः (their) desires having completely turned away? द्वन्द्वैः from the pairs of opposites? विमुक्ताः freed? सुखदुःखसंज्ञैः known as pleasure and pain? गच्छन्ति reach? अमूढाः the undeluded? पदम् goal? अव्ययम् eternal? तत् That.Commentary Wherever there is pride there is stiff egoism. Absence of discrimination between the Real and the unreal is Moha. Perversion is Moha. Infatuation is Moha. Those who are free from likes and dislikes even when they attain pleasant or unpleasant objects have triumphed over the,evil of attachment. Kartritva Abhimana or the idea I am the doer is Sanga. Likes and dislikes are the Doshas or the evils. Heat and cold? pleasure and pain? honour and dishonour? censure and praise? etc.? are the pairs of opposites. Only those who have destroyed ignorance and who have attained the knowledge of the Self reach the eternal goal.Adhyatmanityah Ever engaged in the contemplation of the nature of Brahman or the Supreme Being.Vinivrittakamah All the desires vanish in toto without leaving any trace or taint behind. They who have reached this stage become Yatis or Sannyasins. In the fire of wisdom all desires are burnt. As the birds fly away from a tree which has caught fire? so do desires go away from him.Tat That (the goal) described above.
Shri Purohit Swami
15.5 The wise attain Eternity when, freed from pride and delusion, they have conquered their love for the things of sense; when, renouncing desire and fixing their gaze on the Self, they have ceased to be tossed to and fro by the opposing sensations, like pleasure and pain.
Dr. S. Sankaranarayan
15.5. Those who are rid of pride and delusion; have put down the evils of attachment; remain constantly in their own nature of the Self; have their desires completely departed; and are fully liberated from the pairs known as pleasures and pains-these undeluded men go to that changeless Abode.
Swami Adidevananda
15.5 Without the delusion of perverse notions (concerning the self), victorious over the evil of attachment, ever devoted to the self, turned away from desires and liberated from dualities called pleasure and pain, the undeluded go to that imperishable status.
Swami Gambirananda
15.5 The wise ones who are free from pride and non-discrimination, who have conered the evil of association, [Hatred and love arising from association with foes and friends.] who are ever devoted to spirituality, completely free from desires, free from the dualities called happiness and sorrow, reach that undecaying State.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।15.5।। भारत में दर्शनशास्त्र आचार के लिये है? प्रचारमात्र के लिए नहीं। इस ज्ञान की पूर्णता साक्षात् अनुभव करने में है। यही कारण है कि हमारे धर्मशास्त्रों तथा अध्यात्म के प्रकरण ग्रन्थों में जीवन के लक्ष्य का तथा उसकी प्राप्ति के उपायों का अत्यन्त विस्तृत विवेचन मिलता है। किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए कुछ आवश्यक योग्यताएं होती हैं? जिनके बिना मनुष्य उस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है। अत आत्मज्ञान भी कुछ विशिष्ट गुणों के से सम्पन्न अधिकारी को ही पूर्णत प्राप्त हो सकता है। उन गुणों का निर्देश इस श्लोक में किया गया है। उत्साही और साहसी साधकों को इन गुणों का सम्पादन करना चाहिये। भगवान् श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि साधन सम्पन्न साधकों को अव्यय पद की प्राप्ति अवश्य होगी। वही कृत्कृत्यता और वही परम पुरुषार्थ है।जो मान और मोह से रहित है मान का अर्थ है स्वयं को पूजनीय व्यक्ति मानना। अपने महत्व का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन मान अथवा गर्व कहलाता है। ऐसा मानी व्यक्ति अपने ऊपर मान को बनाये रखने का अनावश्यक भार या उत्तरदायित्व ले लेता है। तत्पश्चात् उसके पास कभी समय ही नहीं होता कि वह वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सके और अपने अवगुणों का त्याग कर सुसंस्कृत बन सके। इसी प्रकार मोह का अर्थ है अविवेक। बाह्य जगत् की वस्तुओं? व्यक्तियों? घटनाओं आदि को यथार्थत न समझ पाना मोह है। इसके कारण हम वास्तविक जीवन की तात्कालिक समस्याओं का सामना करने के स्थान पर अपने ही काल्पनिक जगत् में विचरण करते रहते हैं। अत आत्म्ाज्ञान के जिज्ञासुओं को इन अवगुणों का सर्वथा त्याग करना चाहिये।जिन्होंने संग दोष को जीत लिया है देह के साथ तादात्म्य कर केवल इन्द्रियों के विषयोपभोग में रमने का अर्थ? स्वयं को जीवन की श्रेष्ठतर संभावनाओं से वंचित रखकर अपनी ही प्रवंचना करना है। ऐसा मूढ़ व्यक्ति अत्यन्त विषयासक्त होता है। यह आसक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही अधिक उसकी अनियंत्रित विषयाभिमुख प्रवृत्ति भी होगी। वह विषयों का दास बनकर उनके परिवर्तनों और विनाश की लय पर नृत्य करता हुआ अपनी शक्तियों का अपव्यय करता रहता है।? फिर उसे आत्मानुभव की प्राप्ति कैसे हो सकती है इसलिये जिन्होंने इस संग नामक दोष को जीत लिया है? वे ही पुरुष मोक्ष के अधिकारी होते हैं।अध्यात्मनित्या मन का स्वभाव है किसी न किसी वस्तु में आसक्त रहना। अत मन को बाह्य जगत् से विरत करने के लिये उसे श्रेष्ठ और दिव्य आत्मस्वरूप में स्थित करने का प्रयत्न करना चाहिये। मनुष्य का मन विधेयात्मक उपदेश का पालन कर सकता है? परन्तु शून्य में नहीं रह सकता। सरल शब्दों में? तात्पर्य यह है कि उसे कुछ करने को कहा जा सकता है? परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि कुछ मत करो। उदाहरणार्थ? यदि किसी व्यक्ति से कहा जाये कि प्रातकाल जागने के साथ उसे अण्डे का स्मरण नहीं करना चाहिये तो दूसरे दिन सर्वप्रथम उसे अण्डे का स्मरण होगा। परन्तु? इसके स्थान पर उसे भगवान् नारायण का स्मरण करने को कहा जाये? तो अण्डे का स्मरण होने का अवसर ही नहीं रह जाता। इसी प्रकार विषयासक्ति को जीतने के लिये सतत आत्मानुसंधान करते रहना चाहिये।जिनकी कामनाएं पूर्णत निवृत्त हो चुकी हैं जब तक बाह्य जगत् के सम्बन्ध में यह धारणा बनी रहेगी कि वह सत्य है और उसमें सुख है? तब तक कामनाओं का त्याग होना संभव ही नहीं है। अत हमें विचारपूर्वक जगत् के मिथ्यात्व का निश्चय करना चाहिये और यह भी जानना चाहिये कि सुख तो आत्मा का स्वरूप है? विषयों का धर्म नहीं। ऐसे दृढ़ निश्चय से कामनायें निवृत्त हो सकती हैं। इच्छाओं के अभाव में मन स्वत शान्त हो जाता है।जो पुरुष सुखदुख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं मनुष्य कभी भी जगत् का वस्तुनिष्ठ दर्शन नहीं करता है। वह जगत् की वस्तुओं को प्रिय और अप्रिय दो भागों में विभाजित कर देता है। इस द्वन्द्व से उत्पन्न होती है प्रिय की ओर प्रवृत्ति और अप्रिय से निवृत्ति। तत्पश्चात्? यदि प्रिय की प्राप्ति हो तो सुख? अन्यथा दुख होता है। दुर्भाग्य से मनुष्य के राग और द्वेष भी सदैव परिवर्तित होते रहते हैं। इस कारण कल जिस वस्तु को वह सुख का साधन समझता था? आज उसी वस्तु को वह दुखदायी समझता है। इस प्रकार? मन की तरंगों में जो व्यक्ति फँसा रहता है? वह इन द्वन्द्वों से कभी मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये साधक को अपने व्यक्तिगत राग और द्वेष को सर्वथा समाप्त कर देना चाहिये।इस श्लोक के अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण की यह निश्चयात्मक और आशावादी घोषणा है कि ऐसे सम्मोहरहित योग्य अधिकारी साधक अव्यय पद को प्राप्त होते हैं। इस घोषणा की शैली में एक आदेश की दृढ़ता है। उपाधियों से अवच्छिन्न आत्मा यह संसारी दुर्भाग्यशाली मनुष्य है और उपाधिविवर्जित मनुष्य ही सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा है। यही अपरोक्षानुभूति है।उस अव्यय पद की ही विशेषता अगले श्लोक में वर्णित है।
Swami Ramsukhdas
।।15.5।। व्याख्या -- निर्मानमोहाः -- शरीरमें मैंमेरापन होनेसे ही मान? आदरसत्कारकी इच्छा होती है। शरीरसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही मनुष्य शरीरके मानआदरको भूलसे स्वयंका मानआदर मान लेता है और फँस जाता है। जिन भक्तोंका केवल भगवान्में ही अपनापन होता है? उनका शरीरमें मैंमेरापन नहीं रहता अतः वे शरीरके मानआदरसे प्रसन्न नहीं होते। एकमात्र भगवान्के शरण होनेपर उनका शरीरसे मोह नहीं रहता? फिर मानआदरकी इच्छा उनमें हो ही कैसे सकती हैकेवल भगवान्का ही उद्देश्य? ध्येय होनेसे और केवल भगवान्के ही शरण? परायण रहनेसे वे भक्त संसारसे विमुख हो जाते हैं। अतः उनमें संसारका मोह नहीं रहता।जितसङ्गदोषाः -- भगवान्में आकर्षण होना प्रेम और संसारमें आकर्षण होना आसक्ति कहलाती है। ममता? स्पृहा? वासना? आशा आदि दोष आसक्तिके कारण ही होते हैं। केवल भगवान्के ही परायण होनेके कारण भक्तोंकी सांसारिक भोगोंमें आसक्ति नहीं रहती। आसक्ति न रहनेके कारण भक्त आसक्तिसे होनेवाले ममता आदि दोषोंको जीत लेते हैं।आसक्ति प्राप्त और अप्राप्त -- दोनोंकी होती है किन्तु कामना अप्राप्तकी ही होती है। इसलिये इस श्लोकमें,विनिवृत्तकामाः पद अलगसे आया है।अध्यात्मनित्याः -- केवल भगवान्के ही शरण रहनेसे भक्तोंकी अहंता बदल जाती है। मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं? मैं संसारका नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है -- इस प्रकार अहंता बदलनेसे उनकी स्थिति निरन्तर भगवान्में ही रहती है (टिप्पणी प0 754)। कारण कि मनुष्यकी जैसी अहंता होती है? उसकी स्थिति वहाँ ही होती है। जैसे मनुष्य जन्मके अनुसार अपनेको ब्राह्मण मानता है? तो उसकी ब्राह्मणपनकी मान्यता नित्यनिरन्तर रहती है अर्थात् वह नित्यनिरन्तर ब्राह्मणपनमें स्थित रहता है? चाहे याद करे या न करे। ऐसे ही जो भक्त अपन सम्बन्ध केवल भगवान्के साथ ही मानते हैं? वे नित्यनिरन्तर भगवान्में ही स्थित रहते हैं।विनिवृत्तकामाः -- संसारका ध्येय? लक्ष्य रहनेसे ही संसारकी वस्तु? परिस्थिति आदिकी कामना होती है अर्थात् अमुक वस्तु? व्यक्ति आदि मुझे मिल जाय -- इस तरह अप्राप्तकी कामना होती है। परन्तु जिन भक्तोंका सांसारिक वस्तु आदिको प्राप्त करनेका उद्देश्य है ही नहीं? वे कामनाओंसे सर्वथा रहित हो जाते हैं।शरीरमें ममता होनेसे कामना पैदा हो जाती है कि मेरा शरीर स्वस्थ्य रहे? बीमार न हो जाय शरीर हृष्टपुष्ट रहे? कमजोर न हो जाय। इसीसे सांसारिक धन? पदार्थ? मकान आदिकी अनके कामनाएँ पैदा होती हैं। शरीर आदिमें ममता न रहनेसे भक्तोंकी कामनाएँ मिट जाती हैं।भक्तोंका यह अनुभव होता है कि शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि और अहम् (मैंपन) -- ये सभी भगवान्के ही हैं। भगवान्के सिवाय उनका अपना कुछ होता ही नहीं। ऐसे भक्तोंकी सम्पूर्ण कामनाएँ विशेष और निःशेषरूपसे नष्ट हो जाती हैं। इसलिये उन्हें यहाँ विनिवृत्तकामाः कहा गया है।विशेष बातवास्तवमें शरीर आदिका वियोग तो प्रतिक्षण हो ही रहा है। साधकको प्रतिक्षण होनेवाले इस वियोगको स्वीकारमात्र करना है। इन वियुक्त होनेवाले पदार्थोंसे संयोग माननेसे ही कामनाएँ पैदा होती हैं। जन्मसे लेकर आजतक निरन्तर हमारी प्राणशक्ति नष्ट हो रही है और शरीरसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है। जब एक दिन शरीर मर जायगा? तब लोग कहेंगे कि आज यह मर गया। वास्तवमें देखा जाय तो शरीर आज नहीं मरा है? प्रत्युत प्रतिक्षण मरनेवाले शरीरका मरना आज समाप्त हुआ है अतः कामनाओंसे निवृत्त होनेके लिये साधकको चाहिये कि वह प्रतिक्षण वियुक्त होनेवाले शरीरादि पदार्थोंको स्थिर मानकर उनसे कभी अपना सम्बन्ध न माने।वास्तवमें कामनाओंकी पूर्ति कभी होती ही नहीं। जबतक एक कामना पूरी होती हुई दीखती है? तबतक दूसरी अनेक कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। उन कामनाओंसे जब किसी एक कामनाकी पूर्ति होनेपर मनुष्यको सुख प्रतीत होता है? तब वह दूसरी कामनाओंकी पूर्तिके लिये चेष्टा करने लग जाता है। परन्तु यह नियम है कि चाहे कितने ही भोगपदार्थ मिल जायँ? पर कामनाओँकी पूर्ति कभी हो ही नहीं सकती। कामनाओंकी पूर्तिके सुखभोगसे नयीनयी कामनाएँ पैदा होती रहती हैं -- जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई। संसारके सम्पूर्ण व्यक्ति? पदार्थ एक साथ मिलकर एक व्यक्तिकी भी कामनाओंकी पूर्ति नहीं कर सकते? फिर सीमित पदार्थोंकी कामना करके सुखकी आशा रखना महान् भूल ही है। कामनाओंके रहते हुए कभी शान्ति नहीं मिल सकती -- स शान्तिमाप्नोति न कामकामी (गीता 2। 70)। अतः कामनाओंकी निवृत्ति ही परमशान्तिका उपाय है। इसलिये कामनाओंकी निवृत्ति ही करना चाहिये? न कि पूर्तिकी चेष्टा।सांसारिक भोगपदार्थोंके मिलनेसे सुख होता है -- यह मान्यता कर लेनसे ही कामना पैदा होती है। यह कामना जितनी तेज होगी? उस पदार्थके मिलनेमें उतना ही सुख होगा। वास्तवमें कामनाकी पूर्तिसे सुख नहीं,होता। जब मनुष्य किसी पदार्थके अभावका दुःख मानकर कामना करके उस पदार्थका मनसे सम्बन्ध जोड़ लेता है? तब उस पदार्थके मिलनेपर अर्थात् उस पदार्थका मनसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर (अभावकी मान्यताका दुःख मिट जानेपर) सुख प्रतीत होता है। यदि वह पहलेसे ही कामना न करे तो पदार्थके मिलनेपर सुख और न मिलनेपर दुःख होगा ही नहीं।मूलमें कामनाकी सत्ता है ही नहीं क्योंकि जब काम्यपदार्थकी ही स्वतन्त्र सत्ता नहीं है? तब उसकी कामना कैसे रह सकती है इसलिये सभी साधक निष्काम होनेमें समर्थ हैं।द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः -- वे भक्त सुखदुःख? हर्षशोक? रागद्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित हो जाते हैं। कारण कि उनके सामने अनुकूलप्रतिकूल जो भी परिस्थिति आती है? उसको वे भगवान्का ही दिया हुआ प्रसाद मानते हैं। उनकी दृष्टि केवल भगवत्कृपापर ही रहती है? अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिपर नहीं। अतः जो कुछ होता है? वह हमारे प्यारे प्रभुका ही मंगलमय विधान है -- ऐसा भाव होनेसे उनके द्वन्द्व सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं।भगवान् सबके सुहृद् हैं -- सुहृदं सर्वभूतानाम् (गीता 5। 29)। उनके द्वारा अपने अंश(जीवात्मा) का कभी अहित हो ही नहीं सकता। उनके मंगलमय विधानसे जो भी परिस्थिति हमारे सामने आती है? वह हमारे परमहितके लिये ही होती है। इसलिये भक्त भगवान्के विधानमें परम प्रसन्न रहते हैं। शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धिको अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिका ज्ञान होनेपर भी ऐसी परिस्थिति क्यों आ गयी ऐसी परिस्थिति आती रहे आदि विकार? द्वन्द्व उनमें नहीं होते।विशेष बातद्वन्द्व (रागद्वेषादि) ही विषमता है? जिनसे सब प्रकारके पाप पैदा होते हैं। अतः विषमताका त्याग करनेके लिये साधकको नाशवान् पदार्थोंके माने हुए महत्त्वको अन्तःकरणसे निकाल देना चाहिये। द्वन्द्वके दो भेद हैं --(1) स्थूल (व्यावहारिक) द्वन्द्व -- सुखदुःख? अनुकूलताप्रतिकूलता आदि स्थूल द्वन्द्व हैं। प्राणी सुख? अनुकूलता आदिकी इच्छा तो करते हैं? पर दुःख? प्रतिकूलता आदिकी इच्छा नहीं करते। यह स्थूल द्वन्द्व मनुष्य? पशु? पक्षी? वृक्ष आदि सभीमें देखनेमें आता है।(2) सूक्ष्म (आध्यात्मिक) द्वन्द्व -- यद्यपि अपनी उपासना और उपास्यको सर्वश्रेष्ठ मानकर उसको आदर (महत्त्व) देना आवश्यक एवं लाभप्रद है? तथापि दूसरोंकी उपासना और उपास्यको नीचा बताकर उसका खण्डन? निन्दा आदि करना सूक्ष्म द्वन्द्व है जो साधकके लिये हानिकारक है।वास्तवमें सभी उपासनाओंका एकमात्र उद्देश्य संसार(जडता) से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद करना है। साधकोंकी रुचि? श्रद्धाविश्वास और योग्यताके अनुसार उपासनाओंमें भिन्नता होती है? जिसका होना उचित भी है। अतः साधकको उपासनाओंकी भिन्नतापर दृष्टि न रखकर उद्देश्यकी अभिन्नतापर ही दृष्टि रखनी चाहिये। दूसरेकी उपासनाको न देखकर अपनी उपासनामें तत्परतापूर्वक लगे रहनेसे उपासनासम्बन्धी सूक्ष्म द्वन्द्व स्वतः मिट जाता है।गीतामें स्थूल द्वन्द्व को मोहकलिलम् (2। 52) और सूक्ष्म द्वन्द्व को श्रुतिविप्रतिपन्ना (टिप्पणी प0 755) (2। 53) पदोंसे कहा गया है। साधकके अन्तःकरणमें जबतक संसार(जडता) का सम्बन्ध या महत्त्व रहता है? तभीतक ये द्वन्द्व रहते हैं। स्थूल द्वन्द्व संसारको विशेषरूपसे सत्ता और महत्ता देता है। अतः स्थूल,द्वन्द्व को मिटाना बहुत जरूरी है। जबतक मूढ़ता रहती है? तभीतक द्वन्द्व रहते हैं। वास्तवमें देखा जाय तो अपनेमें द्वन्द्व मानना ही मूढ़ता है। रागद्वेष? सुखदुःख? हर्षशोक आदि द्वन्द्व अन्तःकरणमें होते हैं? स्वयं(अपने स्वरूप) में नहीं। अन्तःकरण जड है? और स्वयं चेतन एवं जडका प्रकाशक है। अतः अन्तःकरणसे स्वयं का सम्बन्ध है ही नहीं। केवल मान्यतासे ही यह सम्बन्ध प्रतीत होता है।यह सभीका अनुभव है कि सुखदुःखादि द्वन्द्वोंके आनेपर हम तो वही रहते हैं। ऐसा नहीं होता कि सुख आनेपर हम और होते हैं तथा दुःख आनेपर और। परन्तु मूढ़तावश इन सुखदुःखादिसे मिलकर सुखी और दुःखी होने लगते हैं। यदि हम इन आनेजानेवालोंसे न मिलकर अपने स्वरूपमें स्थित (स्वस्थ) रहें? तो सुखदुःखादि द्वन्द्वोंसे स्वतः रहित हो जायँगे। इसलिये साधकको बदलनेवाली अर्थात् आनेजानेवाली अवस्थाओँ(सुखदुःख? हर्षशोकादि) पर दृष्टि न रखकर कभी न बदलनेवाले अपने स्वरूपपर ही दृष्टि रखनी चाहिये? जो सब अवस्थाओंसे अतीत है।गीतामें भगवान्ने रागद्वेष आदि द्वन्द्वोंसे मुक्त होनेका बड़ा सुगम उपाय बताया है कि अनुकूलताप्रतिकूलतामें रागद्वेष छिपे हुए हैं। उनसे बचनेके लिये साधकको केवल इतनी सावधानी रखनी है कि वह इनके वशमें न हो (गीता 3। 34)। तात्पर्य यह है कि रागद्वेष दीखनेपर भी साधक इनके वशीभूत होकर तदनुसार क्रिया न करे क्योंकि क्रिया करनेसे ही ये पुष्ट होते हैं।गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् -- आनेजानेवाले पदार्थोंको प्राप्त करनेकी इच्छा या चेष्टा करना तथा उनसे सुखीदुःखी होना मूढ़ता है। वास्तवमें संसार निरन्तर परिवर्तनशील है और परमात्मा नित्य रहनेवाला है। परमात्माकी सत्तासे ही संसारकी सत्ता दीखती है। परन्तु अविनाशी परमात्मा और विनाशी संसारकी सत्ताको मिलाकर संसार है ऐसा मान लेना मूढ़ता है।जिस प्रकार मूढ़ (अज्ञानी) मनुष्योंको संसार है ऐसा स्पष्ट दिखायी देता है? उसी प्रकार अमूढ़ (मोहरहित) भक्तोंको परमात्मा है ऐसा स्पष्ट अनुभव होता है। संसार जैसा दिखायी देता है? वैसा ही है -- इस प्रकार संसारको स्थायी मान लेना मूढ़ता (मोह) है। जिनकी यह मूढ़ता चली गयी? उन भक्तोंको यहाँ अमूढाः कहा गया है। मूढ़ता चले जानेके बाद सुखदुःखका असर नहीं पड़ता। जिसपर सुखदुःख आदि द्वन्द्वोंका असर नहीं पड़ता? वह मुक्तिका पात्र होता है (गीता 2। 15)। इसीलिये इस श्लोकमें भगवान्ने दो बार मूढ़ताके त्यागकी बात (निर्मानमोहाः और अमूढाः) कहकर मूढ़ताके त्यागपर विशेष जोर दिया है।मूढ़ता अर्थात् मोह दो प्रकारका होता है -- (1) परमात्माकी ओर न लगकर संसारमें ही लग जाना और (2) परमात्माको ठीक तरहसे न जानना। इस श्लोकमें पहले निर्मानमोहाः पदसे संसारका मोह चले जानेकी बात कही है और यहाँ अमूढाः (टिप्पणी प0 756) पदसे परमात्माको ठीक तरहसे जान लेनेकी बात कही है।जिस परमात्माको इसी अध्यायके पहले श्लोकमें ऊर्ध्वमूलम् पदसे कहा गया तथा जिस परमपदरूप परमात्माकी खोज करनेके लिये चौथे श्लोकमें प्रेरणा की गयी और आगे छठे श्लोकमें जिसकी महिमाका वर्णन किया गया है? उसी परमात्मरूप परमपदको यहाँ अव्ययम् पदम् कहा है। जो ऊँची स्थितिके साधक भक्त मान? मोह? ममता आदि दोषोंसे सर्वथा रहित हो जाते हैं? वे उस अविनाशी परमपदको अवश्य प्राप्त होते हैं? जिसको प्राप्त कर लेनेपर मनुष्य लौटकर नाशवान् संसारमें नहीं आता।वास्तवमें तो मनुष्यमात्र उस पदको स्वतः प्राप्त है? पर उधर दृष्टि न रहनेसे उसको वैसा अनुभव नहीं होता।,इसे एक उदाहरणसे समझना चाहिये। हम रेलगाड़ीसे यात्रा कर रहे हैं। हमारी गाड़ी एक स्टेशनपर रुक जाती है। हमारी गाड़ीके पास (दूसरी पटरीपर) खड़ी हुई दूसरी गाड़ी सहसा चलने लगती है। उस समय (उस चलती हुई गाड़ीपर दृष्टि रहनेसे) भ्रमसे हमें अपनी गाड़ी चलती हुई दीखने लगती है। परन्तु जब हम वहाँसे अपनी दृष्टि हटाकर स्टेशनकी तरफ देखते हैं? तब पता लगता है कि हमारी गाड़ी तो ज्योंकीत्यों (अपने स्थानपर) खड़ी हुई है। इसी प्रकार संसारसे सम्बन्ध होनेपर मनुष्य अपनेको संसारकी तरह क्रियाशील (आनेजानेवाला) देखने लगता है। पर जब वह संसारसे दृष्टि हटाकर अपने स्वरूपको देखता है? तो उसको पता लगता है कि मैं स्वयं तो ज्योंकात्यों ही हूँ। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें वर्णित जिस अविनाशी पदको भक्तलोग प्राप्त होते हैं? वह अविनाशी पद कैसा है -- इसका भगवान् विवेचन करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।15.5।। जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।15.5।।साधनान्तरमाह -- निर्मानेति।
Sri Anandgiri
।।15.5।।परिमार्गणपूर्वकं वैष्णवं पदं गच्छतामङ्गान्तराण्याकाङ्क्षापूर्वकं कथयति -- कथमित्यादिना। मानोऽहंकारः? मोहस्त्वविवेकः? जितसङ्गदोषाः शत्रुमित्रसंनिधावपि द्वेषप्रीतिवर्जिता इत्यर्थः। तत्परत्वं श्रवणादिनिष्ठत्वं? संन्यासिनो वैराग्यद्वारा त्यक्तसर्वकर्माण इत्यर्थः। आदिशब्देन तद्धेतुग्रहः। मोहवर्जितत्वमुक्तहेतुतः संजातसम्यग्धीत्वम्।
Sri Vallabhacharya
।।15.5।।अन्यान्यपि साधनानि चाह -- निर्मानेति। मानमोहराहित्यं सङ्गदोषराहित्यं अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं निवृत्तकामत्वं सुखदुःखादिद्वन्द्वरहितत्वं चेति। साधनसम्पन्नास्तद्विष्णोः परमं पदं सर्वदोषरहितं व्यापि वैकुण्ठात्मकमक्षरं ब्रह्माख्यं यान्तीत्यर्थः।
Sridhara Swami
।।15.5।। तत्प्राप्तौ साधनान्तराणि दर्शयन्नाह -- निर्मानेति। निर्गतौ मानमोहावहंकारमिथ्याभिनिवेशौ येभ्यस्ते? जितः पुत्रादिसङ्गरूपो दोषो यैस्ते? अध्यात्मे आत्मज्ञाने नित्याः परिनिष्ठिताः? विशेषेण निवृत्तः कामो येभ्यस्ते? सुखदुःखहेतुत्वात् सुखदुःखसंज्ञानि शीतोष्णादीनि द्वन्द्वानि तैर्विमुक्ताः? अतएवामूढाः निवृत्ताविद्याः सन्तस्तदव्ययं पदं वैष्णवं गच्छन्ति।