Bhagavad Gita Chapter 15 Verse 3 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा | अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलं असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ||१५-३||
Transliteration
na rūpamasyeha tathopalabhyate nānto na cādirna ca sampratiṣṭhā . aśvatthamenaṃ suvirūḍhamūlaṃ asaṅgaśastreṇa dṛḍhena chittvā ||15-3||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
15.3 Its form is not perceived here as such, neither its end nor its origin, nor its foundation nor resting place: having cut asunder this firmly rooted peepul tree with the strong axe of non-attachment.
।।15.3।। इस (संसार वृक्ष) का स्वरूप जैसा कहा गया है वैसा यहाँ उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि इसका न आदि है और न अंत और न प्रतिष्ठा ही है। इस अति दृढ़ मूल वाले अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असङ्ग शस्त्र से काटकर ...৷৷৷৷।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach work with dedication but without excessive attachment to outcomes, status, or job security, understanding these are transient. Be ready to adapt or pivot when necessary, focusing on purpose and learning rather than external validation or the perceived permanence of any role.
🧘 For Stress & Anxiety
Recognize that much stress and mental health strain stems from attachment to specific results, circumstances, or fixed ideas. Practice letting go of control over external events and cultivate inner resilience by detaching from identification with fleeting thoughts, emotions, and worldly concerns, understanding their impermanent nature.
❤️ In Relationships
Foster connections based on genuine love and respect, free from possessiveness, dependency, or unrealistic expectations. Understand that all relationships evolve and are subject to change; non-attachment allows for deeper, healthier bonds by valuing the other's autonomy and finding one's own inner completeness, rather than relying solely on the relationship for happiness.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Sever the deep roots of attachment to the illusory, transient world with the powerful axe of non-attachment to uncover your true, unchanging essence and lasting freedom.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
15.3 न not? रूपम् form? अस्य its? इह here? तथा as such? उपलभ्यते is perceived? न not? अन्तः (its) end? न not? च and? आदिः (its) origin? न not? च and? संप्रतिष्ठा foundation or resting place? अश्वत्थम् Asvattha? एनम् this? सुविरूढमूलम् firmrooted? असङ्गशस्त्रेण with the axe of nonattachment? दृढेन strong? छित्त्वा having cut asunder.Commentary The idea is continued in the next verse.So long as one is under the sway of ignorance? he cannot understand the form of this tree? its end? origin and foundation (middle). O Arjuna Thou mayest perhaps consider that such a huge tree cannot be uprooted by any means whatever. It is not so. However firmly rooted it may be? it can be cut by the powerful axe of nnattachment or dispassion within the twinkling of an eye.After cutting this tree you will have to look within? meditate on the Self and behold the Supreme.Tatha As such As described above. Is it necessary to pull down castles in the air or to break the horns of a hare or to pluck a flower growing in the sky or to get butter from the milk of a tortoise or oil from stone Similarly? O Arjuna? there is no reality in this tree. Therefore why should you entertain any fear as to whether it may be uprooted or not Its form as such is not perceived by anybody here it is like a dream or a mirage or an imaginary city in the sky formed by the clouds or caused by a juggler. It appears and disappears. This tree has DrishtaNashtaSvarupa like the mirage. That object which is destroyed when one beholds it is DrishtaNashta. Nobody has perceived the end? the origin or the foundation of this illusory tree. No one can say that it has arisen from such and such a place or point.Samsara or the peepul tree is inveterately deeprooted. You will have to struggle hard to uproot it with its seed or the selfreproducing deep root.Asanga Dispassion? freedom from attachment to children? wealth and the world.Dridhena Strong. You will have to cut the tree with a strong axe which is sharpened again and again on the whetstone of the practice of discrimination. Further your mind should be turned towards the Supreme Being with the strong determination that you can attain eternal bliss only in Him and that He is the ony Reality.The desire for sensual pleasure is Sanga. Its opposite (dispassion) is Asanga. Renunciation of the three kinds of Eshanas (desires)? viz.? children? wealth and the world (PutraVittaLokeshana) is Asanga. Just as the axe cuts the tree? so also dispassion cuts this tree of Samsara. Hence dispassion is termed an axe. Cutting the tree of Samsara is annihilation of egoism? ignorance? latent tendencies? and renunciation of the fruits of all actions? through the practice of dispassion? control of the mind and the senses? etc. (Cf.VII.14)
Shri Purohit Swami
15.3 In this world its true form is not known, neither its origin nor its end, and its strength is not understood., until the tree with its roots striking deep into the earth is hewn down by the sharp axe of non-attachment.
Dr. S. Sankaranarayan
15.3. The nature of this is not perceived in that manner, nor its end, nor its beginning and nor its centre (the middle). Cutting this holy Fig-tree-with its firmly and variedly grown roots-by means of the sharp (or strong) exe of non-attachment;
Swami Adidevananda
15.3 Its form as such is not perceived here, nor its end, nor its beginning, nor its support. Having cut off this firm-rooted Asvattha with the strong axe of detachment৷৷.
Swami Gambirananda
15.3 Its form is not perceived here in that way; nor its end, nor beginning, nor continuance, After felling this Peepul whose roots are well developed, with the strong sword of detachment-;
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।15.3।। See Commentary under 15.4
Swami Ramsukhdas
।।15.3।। व्याख्या -- न रूपमस्येह तथोपलभ्यते -- इसी अध्यायके पहले श्लोकमें संसारवृक्षके विषयमें कहा गया है कि लोग इसको अव्यय (अविनाशी) कहते हैं और शास्त्रोंमें भी वर्णन आता है कि सकामअनुष्ठान करनेसे लोकपरलोकमें विशाल भोग प्राप्त होते हैं। ऐसी बातें सुनकर मनुष्यलोक तथा स्वर्गलोकमें सुख? रमणीयता और स्थायीपन मालूम देता है। इसी कारण अज्ञानी मनुष्य काम और भोगके परायण होते हैं और इससे बढ़कर कोई सुख नहीं है -- ऐसा उनका निश्चय हो जाता है (गीता 2। 42 16। 11)। जबतक संसारसे तादात्म्य? ममता और कामनाका सम्बन्ध है? तबतक ऐसा ही प्रतीत होता है। परन्तु भगवान् कहते हैं कि विवेकवती बुद्धिसे संसारसे अलग होकर अर्थात् संसारसे सम्बन्धविच्छेद करके देखनेसे उसका जैसा रूप हमने अभी मान रखा है? वैसा उपलब्ध नहीं होता अर्थात् यह नाशवान् और दुःखरूप प्रतीत होता है।नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा -- किसी वस्तुके आदि? मध्य और अन्तका ज्ञान दो तरहका होता है -- देशकृत और कालकृत। इस संसारका कहाँसे आरम्भ है? कहाँ मध्य है और कहाँ इसका अन्त होता है -- इस प्रकारसे संसारके देशकृत आदि? मध्य? अन्तका पता नहीं और कबसे इसका आरम्भ हुआ है? कबतक यह रहेगा और कब इसका अन्त होगा -- इस प्रकारसे संसारके कालकृत आदि? मध्य? अन्तका भी पता नहीं।मनुष्य किसी विशाल प्रदर्शनीमें तरहतरहकी वस्तुओंको देखकर मुग्ध हुआ घूमता रहे? तो वह उस प्रदर्शनीका आदिअन्त नहीं जान सकता। उस प्रदर्शनीसे बाहर निकलनेपर ही वह उसके आदिअन्तको जान सकता है। इसी तरह संसारसे सम्बन्ध मानकर भोगोंकी तरफ वृत्ति रखते हुए इस संसारका आदिअन्त कभी जाननेमें नहीं आ सकता।मनुष्यके पास संसारके आदिअन्तका पता लगानेके लिये जो साधन (इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि) हैं? वे सब संसारके ही अंश हैं। यह नियम है कि कार्य अपने कारणमें विलीन तो हो सकता है? पर उसको जान नहीं सकता। जैसे मिट्टीका घड़ा पृथ्वीको अपने भीतर नहीं ला सकता? ऐसे ही व्यष्टि इन्द्रियाँमनबुद्धि समष्टि,संसार और उसके कार्यको अपनी जानकारीमें नहीं ला सकते। अतः संसारसे (मन? बुद्धि? इन्द्रियोंसे भी) अलग होनेपर संसारका स्वरूप (स्वयंके द्वारा) ठीकठीक जाना जा सकता है।वास्तवमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता (स्थिति) है ही नहीं। केवल उत्पत्ति और विनाशका क्रममात्र है। संसारका यह उत्पत्तिविनाशका प्रवाह ही स्थितिरूपसे प्रतीत होता है। वास्तवमें देखा जाय तो उत्पत्ति भी नही है? केवल नाशहीनाश है। जिसका स्वरूप एक क्षण भी स्थायी न रहता हो? ऐसे संसारकी प्रतिष्ठा (स्थिति) कैसी संसारसे अपना माना हुआ सम्बन्ध छोड़ते ही उसका अपने लिये अन्त हो जाता है और अपने वास्तविक स्वरूप अथवा परमात्मामें स्थिति हो जाती है।विशेष बातइस संसारके आदि? मध्य और अन्तका पता आजतक कोई वैज्ञानिक नहीं लगा सका और न ही लगा सकता है। संसारसे सम्बन्ध रखते हुए अथवा सांसारिक भोगोंको भोगते हुए संसारके आदि? मध्य और अन्तको ढूँढ़ना चाहें? तो कोल्हूके बैलकी तरह उम्रभर रहनेपर भी कुछ हाथ आनेका नहीं।वास्तवमें इस संसारके आदि? मध्य और अन्तका पता लगानेकी जरूरत भी नहीं है। जरूरत संसारसे अपने माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करनेकी ही है।संसार अनादिसान्त है या अनादिअनन्त है अथवा प्रतीतिमात्र है? इत्यादि विषयोंपर दार्शनिकोंमें अनेक मतभेद हैं परन्तु संसारके साथ हमारा सम्बन्ध असत् है? जिसका विच्छेद करना आवश्यक है -- इस विषयपर सभी दार्शनिक एकमत हैं।संसारसे सम्बन्धविच्छेद करनेका सुगम उपाय है -- संसारसे प्राप्त (मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर? धन? सम्पत्ति आदि) सम्पूर्ण सामग्रीको अपनी और अपने लिये न मानते हुए उसको संसारकी ही सेवामें लगा देना।सांसारिक स्त्री? पुत्र? मान? बड़ाई? धन? सम्पत्ति? आयु? नीरोगता आदि कितने ही प्राप्त हो जायँ यहाँतक कि संसारके समस्त भोग एक ही मनुष्यको मिल जायँ? तो भी उनसे मनुष्यको तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि जीव स्वयं अविनाशी है और सांसारिक भोग नाशवान् हैं। नाशवान्से अविनाशी कैसे तृप्त हो सकता हैअश्वत्थमेनं सुविरूढमूलम् -- संसारको सुविरूढमूलम् कहनेका तात्पर्य यह है कि तादात्म्य? ममता और कामनाके कारण यह संसार (प्रतिष्ठारहित होनेपर भी) दृढ़ मूलोंवाला प्रतीत हो रहा है।व्यक्ति? पदार्थ? क्रिया आदिमें राग? ममता होनेसे सांसारिक बन्धन अधिकसेअधिक दृढ़ होता चला जाता है। जिन पदार्थों? व्यक्तियोंमें राग? ममताका घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है? उनको मनुष्य अपना स्वरूप ही मानने लग जाता है। जैसे? धनमें ममता होनेसे उसकी प्राप्तिमें मनुष्यको बड़ी प्रसन्नता होती है और मैं बड़ा धनवान् हूँ -- ऐसा अभिमान हो जाता है। धनके नाशसे वह अपना नाश मानने लग जाता है। लोभ बढ़नेसे धनकी प्राप्तिके लिये वह अन्याय? पाप आदि न करनेलायक काम भी कर बैठता है। फिर इतना लोभ बढ़ जाता है कि उसके भीतर यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि झूठ? कपट? बेईमानी आदिके बिना धन कमाया ही नहीं जा सकता। उसे यह विचार ही नहीं होता कि पापसे धन कमाकर मैं यहाँ कितने दिन ठहरूँगा पापसे कमाया धन तो शरीरके साथ यहीँ छूट जायगा किंतु धनके लिये किये झूठ? कपट? बेईमानी? चोरी आदि पाप तो मेरे साथ जायँगे (टिप्पणी प0 748)? जिससे परलोकमें मेरी कितनी दुर्गति होगी आदि। इतना ही नहीं? वह दूसरोंको भी प्रेरणा करने लग जाता है कि धन कमानेके लिये पाप करनेमें कोई खराबी नहीं यह तो व्यापार है? इसमें झूठ बोलना? ठगना आदि सब उचित है इत्यादि। इस दुर्भावका होना ही तादात्म्य? ममता और कामनारूप मूलोंका दृढ़ होना है। इस प्रकारके दूषित भावोंके दृढ़मूल होनेसे मनुष्य वैसा ही बन जाता है (गीता 17। 3)।ये तादात्म्य? ममता और कामनारूप मूल अन्तःकरणमें इतनी दृढ़तासे जमे हुए हैं कि पढ़ने? सुनने तथा विचारविवेचन करनेपर भी सर्वथा नष्ट नहीं होते। साधक प्रायः कहा करते हैं कि सत्सङ्गचर्चा सुनते समय तो इन दोषोंके त्यागकी बात अच्छी और सुगम लगती है परन्तु व्यवहारमें आनेपर ऐसा होता नहीं। इनको छोड़ना तो चाहते हैं? पर ये छूटते नहीं। इन दोषोंके न छूटनेमें खास कारण है -- सांसारिक सुख लेनेकी इच्छा। साधकसे भूल यह होती है कि वह सांसारिक सुख भी लेना चाहता है और साथ ही दोषोंसे भी बचना चाहता है। जैसे लोभी व्यक्ति विषयुक्त लड्डुओंकी मिठासको भी लेना चाहे और साथ ही विषसे भी बचना चाहे ऐसा कभी सम्भव नहीं है। संसारसे कभी किञ्चिन्मात्र भी सुखकी आशा न रखनेपर इसका दृढ़मूल स्वतः नष्ट हो जाता है।दूसरी बात यह है कि तादात्म्य? ममता और कामनाका मिटना बहुत कठिन है -- साधककी यह मान्यता ही इन दोषोंको मिटने नहीं देती। वास्तवमें तो ये स्वतः मिट रहे हैं। किसी भी मनुष्यमें ये दोष सदा नहीं रहते उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं किंतु अपनी मान्यताके कारण ये स्थायी दीखते हैं। अतः साधकको चाहिये कि वह इन दोषोंके मिटनेको कभी कठिन न माने।असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा -- भगवान् कहते हैं कि यद्यपि इस संसारवृक्षके अवान्तर मूल बहुत दृढ़ हैं? फिर भी इनको दृढ़ असङ्गतारूप शस्त्रके द्वारा काटा जा सकता है। किसी भी स्थान? व्यक्ति? वस्तु? परिस्थिति आदिके प्रति मनमें आकर्षण? सुखबुद्धिका होना और उनके सम्बन्धसे अपनेआपको बड़ा तथा सुखी मानना पदार्थोंके प्राप्त होने अथवा संग्रह होनेपर प्रसन्न होना -- यही सङ्ग कहलाता है। इसका न होना ही असङ्गता अर्थात् वैराग्य है। वैराग्यके दो प्रकार हैं -- (1) साधारण वैराग्य और (2) दृढ़ वैराग्य। दृढ़ वैराग्यको उपरति अथवा पर वैराग्य भी कहते हैं।वैराग्यसम्बन्धी विशेष बात वैराग्यके अनेक रूप हैं? जो इस प्रकार हैं -- पहला वैराग्य धन? मकान? जमीन आदि पदार्थोंसे होता है। इन पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेपर भी अगर मनमें उनका महत्त्व बना हुआ है और मैं त्यागी हूँ -- ऐसा अभिमान है? तो वास्तवमें यह वैराग्य नहीं है। अन्तःकरणमें जडपदार्थोंका किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व और आकर्षण न रहे -- यही वैराग्य है। दूसरा वैराग्य अपने कहलानेवाले माता? पिता? स्त्री? पुत्र? भाई? भौजाई आदि(परिवार)से होता है। उनकी सेवा करने या उनको सुख पहुँचानेके लिये ही उनसे अपना सम्बन्ध मानना चाहिये। अपने सुखके लिये उनसे किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न मानना ही बन्धुबान्धवोंसे वैराग्य है।तीसरा और वास्तविक वैराग्य अपने शरीरसे होता है। अगर शरीरसे सम्बन्ध बना हुआ है तो सम्पूर्ण संसारसे सम्बन्ध बना हुआ है क्योंकि शरीर संसारका ही बीज अथवा अंश है। शरीरसे तादात्म्य न रहना ही शरीरसे वैराग्य है।तादात्म्य (शरीरके साथ मानी हुई एकता अर्थात् अहंता) का नाश करनेके लिये साधकको पहले मान? प्रतिष्ठा? पूजा? धन आदिकी कामनाका त्याग करना चाहिये। इनकी कामनाका त्याग करनेपर भी (शऱीरके) नाम में ममता रहनेके कारण यश? कीर्ति? बड़ाई आदिकी कामना रह जाती है। इसके कारण मरनेके बाद,भी अपने नामकी कीर्ति? अपना स्मारक बननेकी चाह आदि सूक्ष्म कामनाएँ रह जाती हैं। इन सब कामनाओंका नाश करना आवश्यक है। कहींकहीं साधकके भीतर दूसरोंकी प्रशंसा सुनकर? दूसरेकी बड़ाई देखकर ईर्ष्याका भाव जाग्रत् हो जाता है। अतः इसका भी नाश करना आवश्यक है।उपर्युक्त कामनाओंका नाश करनेके बाद शरीरमें ममता रह जाती है। यह ममताका सम्बन्ध मृत्युके बाद भी बना रहता है। इसी कारण मृत शरीरको जला देनेके बाद भी हड्डियोंको गङ्गाजीमें डालनेसे जीव(जिसने शरीरमें ममता की है)की आगे गति होती है। विवेक (जडचेतन? प्रकृतिपुरुष अथवा शरीरशरीरीकी भिन्नताका ज्ञान) जाग्रत् होनेपर ममताका नाश हो जाता है। कामना और ममता -- दोनोंका नाश होनेके बाद तादात्म्य (अहंता) नष्टप्राय हो जाता है अर्थात् बहुत सूक्ष्म रह जाता है। तादात्म्यका अत्यन्ताभाव भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होनेपर होता है।जब मनुष्य स्वयं यह अनुभव कर लेता है कि मैं शरीर नहीं हूँ शरीर मेरा नहीं है? तब कामना? ममता और तादात्म्य -- तीनों मिट जाते हैं। यही वास्तविक वैराग्य है।,जिसके भीतर दृढ़ वैराग्य है उसके अन्तःकरणमें सम्पूर्ण वासनाओँका नाश हो जाता है। अपने स्वरूपसे विजातीय (जड) पदार्थ -- शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि? आदिसे किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न मानकर -- सबका कल्याण हो? सब सुखी हों? सब नीरोग हों? कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न हो (टिप्पणी प0 750.1) -- इस भावका रहना ही दृढ़ वैराग्यका लक्षण है।यह(इदम्) रूपसे जाननेमें आनेवाले स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरसहित सम्पूर्ण संसारको जाननेवाला,मैं? (अहम्) कहलाता है। यह? (जाननेमें आनेवाला दृश्य) और मैं (जाननेवाला द्रष्टा) कभी एक नहीं हो सकते -- यह नियम है। इस प्रकार संसार और शरीर नष्ट होनेवाले हैं और मैं (स्वयं) अविनाशी है -- इस विवेकका आदर करते हुए अपनेआ���को संसार और शरीरसे सर्वथा अलग अनुभव करना ही असङ्गशस्त्रके द्वारा संसारवृक्षका छेदन करना है। इस विवेकको महत्त्व न देनेके कारण ही संसार दृढ़ मूलोंवाला प्रतीत होता है।सांसारिक वस्तुओंका अत्यन्ताभाव अर्थात् सर्वथा नाश तो नहीं हो सकता? पर उनमें रागका सर्वथा अभाव हो सकता है। अतः छेदन का तात्पर्य सांसारिक वस्तुओंका नाश करना नहीं? प्रत्युत उनसे अपना राग हटा लेना है। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर संसारका अपने लिये सर्वथा अभाव हो जाता है? जिसे,आत्यन्तिक प्रलय भी कहते हैं। जो हमारा स्वरूप नहीं है तथा जिसके साथ हमारा वास्तविक सम्बन्ध नहीं है? उसीका त्याग (छेदन) होता है। हम स्वरूपतः चेतन और अविनाशी हैं एवं संसार जड और विनाशी है अतः संसारसे हमारा सम्बन्ध अवास्तविक और भूलसे माना हुआ है। स्वरूपसे हम संसारसे असङ्ग ही हैं। पहलेसे ही जो असङ्ग है? वही असङ्ग होता है -- यह नियम है। अतः संसारसे हमारी असङ्गता स्वतःसिद्ध है -- इस वास्तविकताको दृढ़तासे मान लेना चाहिये। संसार कितना ही सुविरूढमूल क्यों न हो? उसके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे वह स्वतः कट जाता है क्योंकि संसारके साथ अपना सम्बन्ध है नहीं? केवल माना हुआ है। अतः संसारके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे उसका छेदन हो जाता है -- इसमें साधकको सन्देह नहीं करना चाहिये चाहे (आरम्भमें) व्यवहारमें ऐसा दिखायी दे या न दे।जीवने अपनी भूलसे शरीरसंसारसे सम्बन्ध माना था। इसलिये इसका छेदन करनेकी जिम्मेवारी भी जीवपर ही है। अतः भगवान् इसे ही छेदन करनेके लिये कह रहे हैं। संसारसे सम्बन्धविच्छेदके कुछ सुगम उपाय(1) कुछ भी लेनेकी इच्छा न रखकर संसारसे प्राप्त सामग्रीको संसारकी सेवामें ही लगा देना।(2) सांसारिक सुख(भोग और संग्रह) की कामनाका सर्वथा त्याग करना।(3) संसारके आश्रयका सर्वथा त्याग करना।(4) शरीरसंसारसे मैं और मेरापनको बिलकुल हटा लेना।(5) मैं भगवान्का हूँ भगवान् मेरे हैं -- इस वास्तविकतापर दृढ़तासे डटे रहेना।(6) मुझे एक परमात्माकी तरफ ही चलना है -- ऐसे दृढ़ निश्चय(व्यवसायात्मिका बुद्धि) का होना।(7) शास्त्रविहित अपनेअपने कर्तव्यकर्मों(स्वधर्म) का तत्परतापूर्वक पालन करना (टिप्पणी प0 750.2) (गीता 18। 45)।(8) बचपनमें शरीर? पदार्थ? परिस्थिति? विद्या? सामर्थ्य आदि जैसे थे? वैसे अब नहीं हैं अर्थात् वे सबकेसब बदल गये? पर मैं स्वयं वही हूँ? बदला नहीं -- अपने इस अनुभवको महत्त्व देना।(9) संसारसे माने हुए सम्बन्धका सद्भाव (सत्ताभाव) मिटाना। सम्बन्ध -- संसारवृक्षका छेदन करनेके बाद साधकको क्या करना चाहिये -- इसका विवेचन आगेके श्लोकमें करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।15.3।। इस (संसार वृक्ष) का स्वरूप जैसा कहा गया है वैसा यहाँ उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि इसका न आदि है और न अंत और न प्रतिष्ठा ही है। इस अति दृढ़ मूल वाले अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असङ्ग शस्त्र से काटकर ...৷৷৷৷।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।15.3।।यथास्थितस्तथा नोपलभ्यते। अन्तादिर्विष्णुः।त्वमादिरन्तो जगतोऽस्य मध्यम् इति भागवते।अनाद्यन्तं परं ब्रह्म न देवा नर्षयो विदुः इति च मोक्षधर्मे। असङ्गशस्त्रेण सङ्गराहित्यसहितेन ज्ञानेन।ज्ञानासिनोपासनया शितेन [11।28।17] इति भागवते। छेदश्च विमर्श एव। ततश्च तस्यैवाबन्धकं भवति। तथा हि मूलस्थं ब्रह्म प्रतीयते। तच्चोक्तं तच्छ्रुतावेव -- विमर्शो ह्यस्य छेदः स तन्न बध्नाति बध्नाति चान्यान् [ ] इति।
Sri Anandgiri
।।15.3।।पुनःपुना रागादीना प्रवृत्तत्वेनानादित्वान्न संसारवृक्षः स्वयमुच्छिद्यते न चोच्छेत्तुं शक्यते केनापीत्याशङ्क्याह -- यस्त्विति। यथा पूर्वं वर्णितं यथा च लोके प्रसिद्धं तथास्य रूपमिह शास्त्रादनुमीयते तथाचास्य ज्ञानापनोद्यत्वं युक्तमित्याह -- यथेति। तस्याप्रमितत्वे हेतुमाह -- स्वप्नेति। तस्य स्वप्नादिसमत्वे दृष्टनष्टस्वरूपत्वं हेतुं करोति -- दृष्टेति। इत्यमेयतेति शेषः। तमेवामेयत्वं हेतुं कृत्वावसानमपि तस्य न भातीत्याह -- अत एवेति। ज्ञानं विना भ्रान्तिवासनाकर्मणामन्योन्यनिमित्तत्वान्नावसानमस्तीत्यर्थः। इदंप्रथमत्वमपि नास्य परिच्छेत्तुं शक्यमित्याह -- तथेति। आद्यन्तवन्मध्यमपि नास्य प्रामाणिकमित्याह -- मध्यमिति। संसारवृक्षस्याश्वत्थशब्दितस्य क्षणभङ्गुरस्य स्वयमेवोच्छेदसंभवात्तदुच्छेदार्थं न प्रयतितव्यमित्याशङ्क्याह -- अश्वत्थमिति। व्युत्थानं वैराग्यपूर्वकं पारिव्राज्यम्। दृढीकृतत्वमेव विवेकपूर्वकत्वेन स्फुटयति -- पुनःपुनरिति।
Sri Vallabhacharya
।।15.3।।किञ्च न रूपमिति। इह मायामोहितैर्वादिभिरस्य स्वरूपं याथात्म्यं तथा वेदोक्तप्रकारेण नोपलभ्यतेमायामात्रं तु कात्स्न्र्येनानभिव्यक्तस्वरूपत्वात्। [ब्र.सू.3।2।3] किञ्च नान्तो निर्णयो न चादिः न च सम्प्रतिष्ठाऽपि। तेनासम्प्रतिष्ठमसत्यं स्वाज्ञानकल्पितं जगदुच्यते। वक्ष्यति च मायावादिनामासुराणां लक्षणेअसत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् [16।8] इति। ततो नेदं जगदसत्यं? किन्त्वेतदुपर्यावरणभूतं जीवकल्पितं सुवर्णजलवत्कार्यभूतसंसाराख्यं दुष्टांशमेनमभिन्नतया हंसोक्तितः प्रतीयमानम् अतएव सुतरां विरूढानि मूलानि,जीवकल्पितानि वासनामयानि दोषरूपाणि यत्र तमसङ्गशस्त्रेण दृढवैराग्यरूपेणाभजनीयतया सक्त्यभावेन छित्वा पृथक्कृत्य ततःपदमात्मरूपं भगवद्धामभूतमक्षरं ब्रह्म परिमार्गितव्यमित्यन्तरेणान्वयः। न चेह जीवकृतो जगदुच्छेद एव यथा श्रुतो वाच्योऽपि शिष्टत्वनिरूपणादिति वाच्यम्? उच्छेदिते दण्डे दण्डी पुरुषो नेतिवदविरोधात्।
Sridhara Swami
।।15.3।।किंच -- न रूपमस्येति। इह संसारे स्थितैः प्राणिभिरस्य संसारवृक्षस्य तथोर्ध्वमूलत्वादिप्रकारेण रूपं नोपलभ्यते। न चान्तोऽवसानं? अपर्यन्तत्वात्। न चादिरनादित्वात्। नच संप्रतिष्ठा स्थितिः कथं तिष्ठतीति न चोपलभ्यते। यस्मादेवंभूतोऽयं संसारवृक्षो दुरुच्छेद्योऽनर्थकरश्च तस्मादेनं दृढेन वैराग्येण शस्त्रेण छित्त्वा तत्त्वज्ञाने यतेतेत्याह -- अश्वत्थमेनमिति सार्धेन। एनमश्वत्थं सुविरूढमूलमत्यन्तं बद्धमूलं सन्तमसङ्गः सङ्गराहित्यं अहंममतात्यागस्तेन दृढेन शस्त्रेण सम्यग्विचारेण छित्त्वा पृथक्कृत्य।