Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 6 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Gunas and Bondage

Sanskrit Shloka (Original)

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् | सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ||१४-६||

Transliteration

tatra sattvaṃ nirmalatvātprakāśakamanāmayam . sukhasaṅgena badhnāti jñānasaṅgena cānagha ||14-6||

Word-by-Word Meaning

तत्रof these
सत्त्वम्purity
निर्मलत्वात्from its stainlessness
प्रकाशकम्luminous
अनामयम्healthy
सुखसङ्गेनby attachment to happiness
बध्नातिbinds
ज्ञानसङ्गेनby attachment to knowledge
and

📖 Translation

English

14.6 Of these, Sattva, which from its stainlessness is luminous and healthy, binds by attachment to happiness and by attachment to knowledge, O sinless one.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।14.6।। हे निष्पाप अर्जुन ! इन (तीनों) में, सत्त्वगुण निर्मल होने से प्रकाशक और अनामय (निरुपद्रव, निर्विकार या निरोग) है; (वह जीव को) सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से बांध देता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, beware of over-identifying with your achievements, knowledge, or success. While striving for excellence is good, becoming overly attached to the 'happiness' of a promotion or the 'knowledge' of being an expert can lead to arrogance, resistance to new ideas, and a sense of personal failure if you make mistakes or face setbacks. True growth comes from seeing your work and intellect as tools, not as your ultimate identity.

🧘 For Stress & Anxiety

The relentless pursuit of external happiness and the need to always be 'right' or 'knowledgeable' are significant sources of stress. This verse reminds us that even positive attributes like joy and wisdom, when clung to, can become 'golden fetters'. Cultivate detachment from outcomes and perceptions of success or failure. Recognize that true inner peace doesn't depend on constant external happiness or intellectual validation, thus reducing performance anxiety and emotional volatility.

❤️ In Relationships

Attachment to your own happiness or perceived knowledge can hinder genuine connection. Expecting others to be the sole source of your happiness leads to dependency and disappointment. Similarly, using your intellect to dominate conversations or prove others wrong creates distance and resentment. Practice humility and empathy, understanding that your partner's or friend's perspective and emotional state are valid, regardless of whether they align with your 'knowledge' or contribute to your personal happiness.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Even positive qualities like happiness and knowledge can become 'golden fetters' if we attach to them and mistake them for the true Self. True freedom lies in transcending all attachments, including the subtle ones.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

14.6 तत्र of these? सत्त्वम् purity? निर्मलत्वात् from its stainlessness? प्रकाशकम् luminous? अनामयम् healthy? सुखसङ्गेन by attachment to happiness? बध्नाति binds? ज्ञानसङ्गेन by attachment to knowledge? च and? अनग O sinless one.Commentary Sattva is stainless like the crystal. It lays for one the trap of happiness and knowledge. It is a golden fetter. A Sattvic man compares himself with others and rejoices in his excellence. He is puffed up with his knowledge. His heart is filled with pride when he thinks that he,has more comforts or more pleasant experiences. He thinks? I am happy I am wise? and so he is bound as it were. These ideas really belong to the field but they are transferred through superimposition to the Self on account of the force of SattvaGuna.Rajas and Tamas are pitfalls on the path of knowledge.This attachment to happiness is an illusion. This is ignorance. An attribute of the object cannot belong to the subject. All the alities from desire to firmness (Cf.XIII.6) belong to the field. From ignorance? nondiscrimination is born and so the individual self is not able to discriminate between the permanent and the impermanent? the subject and the object.Knowledge is an attribute of the Antahkarana (inner instrument? viz.? mind? intellect? the unconscious and the ego) but not of the Self. It if were an attribute of the Self? it could not produce attachment and bondage. Sattva binds the soul to knowledge through attachment.

Shri Purohit Swami

14.6 O Sinless One! Of these, Purity, being luminous, strong and invulnerable, binds one by its yearning for happiness and illumination.

Dr. S. Sankaranarayan

14.6. Among them (the Strands) the Sattva-because it is dirtless-is illuminating and healthy; and it binds [the Embodied] by attachment to happiness and also by attachment to knowledge, O sinless one !

Swami Adidevananda

14.6 Of these, Sattva, being without impurity, is luminous and free from morbidity. It binds, O Arjuna, by attachment to pleasure and to knowledge.

Swami Gambirananda

14.6 Among them, sattva, being pure, [Nirmala, pure-transparent, i.e., capable of resisting any form of ignorance, and hence as illuminator, i.e.a revealer of Consciousness.] is an illuminator and is harmless. O sinless one, it binds through attachment to happiness and attachment to knowledge.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।14.6।। विज्ञान की सभी शाखाओं में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि किसी वस्तु के लक्षणों का वर्णन किये बिना उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है। किसी रोग या किसी भावना के विषय में भी यही बात सत्य है। इसी प्रकार इन गुणों की भी अपने आप में कोई परिभाषा नहीं दी जा सकती। आगे के श्लोकों में यह वर्णन किया गया है कि इन गुणों के लक्षण क्या हैं तथा जब कभी कोई गुण अधिक प्रबल हो जाता है? तब उससे प्रभावित व्यक्ति का व्यवहार किस प्रकार होता है। निसन्देह? यह लक्षणात्मक वर्णन हम साधकों के लिए अधिक सहायक होगा? क्योंकि हम अपने मन में उठने वाले विचारों एवं भावनाओं का निरीक्षण और विश्लेषण कर यह निश्चित कर सकेंगे कि किसी क्षण विशेष में हम कौन से गुण के वश में हैं। इस प्रकार? उस प्रभाव के बन्धन से मुक्त होने का प्रयत्न भी हम कर सकेंगे।निर्मल होने से सत्त्वगुण प्रकाशमय है जिस प्रकार जल स्वत शुद्ध होता है? परन्तु अन्य मिश्रणों से अशुद्ध बन जाता है। उसी प्रकार सत्त्वगुण भी स्वत निर्मल होने से प्रकाशक अर्थात् आत्मचैतन्य को स्पष्ट प्रतिबिम्बित करने वाला है। उसमें न रजोगुण का विक्षेप है न तमोगुण का घोर अज्ञान।अनामय इस शब्द का अर्थ है उपद्रवरहित अर्थात् दोषरहित। आत्मस्वरूप का अज्ञान तथा उससे उत्पन्न अहंकार और स्वार्थ ही मूल दोष हैं? जिनसे अन्य अनर्थों की उत्पत्ति होती है। ये दोष रजोगुण और तमोगुण से ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये यहाँ कहा गया है कि सत्त्वगुण स्वत इन दोषों से रहित है। यद्यपि सत्त्वगुण निर्मल है तथापि वह भी बन्धनकारक होता है। उससे उत्पन्न होने वाले बंधनों का निर्देश यहाँ किया गया है।सत्त्वगुण सुख और ज्ञान की आसक्ति से जीव को बांधता है अपने आनन्दस्वरूप को न जानकर जीव सदैव विषयों में ही सुख की खोज करता रहता है। यह अज्ञान तमोगुण का लक्षण है तथा विषयों में सुख की कल्पना और विक्षेप रजोगुण का लक्षण है। प्रयत्नों के फलस्वरूप जब कभी इष्ट विषय की प्राप्ति होती है? तब क्षणभर के लिये विक्षेपों की शान्ति हो जाती है। उस शान्त स्थिति में आत्मा का आनन्द अभिव्यक्त होता है। परन्तु जीव यही समझता है कि वह सुख उसे विषय से प्राप्त हुआ है और मन की उस सुख वृत्ति के साथ तादात्म्य करके कहता है? मैं सुखी हूँ। इस प्रकार? विषयोपभोग से उत्पन्न यह सुखवृत्ति क्षेत्र का धर्म होने पर भी उसे अपना धर्म समझ कर उसमें आसक्त होना ही सत्त्वगुण से उत्पन्न हुआ बंधन है।सत्त्वगुण प्रधान बुद्धि स्वभावत स्थिर होती है। इसलिये उसमें चैतन्य का प्रकाश स्पष्टरूप से प्रतिबिम्बित होता है। इस प्रतिबिम्बित प्रकाश को ही हम बुद्धि का प्रकाश कहते हैं? जिसके द्वारा हमें विषयों का ज्ञान होता है। यही कारण है कि इस गुण के न्यूनाधिक्य के कारण ही सभी व्यक्तियों की बौद्धिक क्षमता एक समान नहीं होती।इस प्रकार? बुद्धि के इस प्रकाश से प्रकाशित होकर विषय के ज्ञान की वृत्ति अन्तकरण में उदित होती है मनुष्य इसी वृत्ति के साथ तादात्म्य करके अभिमानपूर्वक कहता है? मैं इस वस्तु का ज्ञाता हूँ। यहाँ भी क्षेत्र के धर्म के साथ तादात्म्य है और यही ज्ञान से आसक्ति का बन्धन है।इन दोनों का सरल अर्थ यह भी है कि जब मनुष्य को सूक्ष्मतर सुख या ज्ञान का अनुभव हो जाता है? तब उसका मन उसी में इतना अधिक आसक्त होकर रमता है कि उसका ध्यान सूक्ष्मतम वस्तु की ओर सहसा आकर्षित ही नहीं होता। यह सत्त्वगुण का बन्धन है। यह स्वर्ण की शृंखला है? परन्तु है तो शृंखला हीभगवान् कहते हैं कि सत्त्वगुण सुख संग और ज्ञान के साथ आसक्ति से बांध देता है। एक बार जब कोई व्यक्ति रचनात्मक चिन्तन तथा सदाचार और ज्ञान के अनुप्राणित जीवन के सात्त्विक आनन्द का अनुभव कर लेता है? तब उसमें वह इतना आसक्त हो जाता है कि फिर उसके लिये वह अपने सर्वस्व का भी त्याग करने के लिये तत्पर रहता है। विज्ञान को अपना जीवन समर्पित किये हुये प्रयोगशाला में कार्यरत एक सच्चा वैज्ञानिक क्षुधा और व्याधि से दुर्बल अपनी चित्रशाला में चित्रांकन कर रहा चित्रकार समाज द्वारा बहिष्कृत सार्वजनिक उद्यानों में रहकर अपनी कल्पनाओं? भावों और शब्दों के ही आनन्द में निमग्न एक कवि क्रूर उत्पीड़न को सहने वाले देशभक्त दीर्घकाल तक देश निष्कासन का जीवन जीने वाले राजनीतिज्ञ मृत्यु का आलिंगन करने वाले पर्वतारोही ये सब उदाहरण ऐसे पुरुषों के हैं? जिन्हें सात्त्विक आनन्द का अनुभव होता है और जो उसी में आसक्त हो जाते हैं? जैसे स्थूल बुद्धि के लोग धन तथा अन्य भौतिक वस्तुओं के परिग्रह में आसक्त रहते हैं।रजोगुण का बन्धन निम्न प्रकार से होता है

Swami Ramsukhdas

।।14.6।। व्याख्या --   तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् -- पूर्वश्लोकमें सत्त्व? रज और तम -- इन तीनों गुणोंकी बात कही। इन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल (मलरहित) है। तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुणकी तरह सत्त्वगुणमें मलिनता नहीं है? प्रत्युत यह रजोगुण और तमोगुणकी अपेक्षा निर्मल? स्वच्छ है। निर्मल होनेके कारण यह परमात्मतत्त्वका ज्ञान करानेमें सहायक है।प्रकाशकम् -- सत्त्वगुण? निर्मल? स्वच्छ होनेके कारण प्रकाश करनेवाला है। जैसे प्रकाशके अन्तर्गत वस्तुएँ साफसाफ दीखती हैं? ऐसे ही सत्त्वगुणकी अधिकता होनेसे रजोगुण और तमोगुणकी वृत्तियाँ साफसाफ दीखती हैं। रजोगुण और तमोगुणसे उत्पन्न होनेवाले काम? क्रोध? लोभ? मद? मात्सर्य आदि दोष भी साफसाफ दीखते हैं अर्थात् इन सब विकारोंका साफसाफ ज्ञान होता है।सत्त्वगुणकी वृद्धि होनेपर इन्द्रियोंमें प्रकाश? चेतना और हलकापन विशेषतासे प्रतीत होता है? जिससे प्रत्येक पारमार्थिक अथवा लौकिक विषयको अच्छी तरह समझनेमें बुद्धि पूरी तरह कार्य करती है और कार्य करनेमें बड़ा उत्साह रहता है।सत्त्वगुणके दो रूप हैं -- (1) शुद्ध सत्त्व? जिसमें उद्देश्य परमात्माका होता है? और (2) मलिन सत्त्व? जिसमें उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रहका होता है (टिप्पणी प0 716)। शुद्ध सत्त्वगुणमें परमात्माका उद्देश्य होनेसे परमात्माकी तरफ चलनेमें स्वाभाविक रुचि होती है। मलिन सत्त्वगुणमें पदार्थोंके संग्रह और सुखभोगका उद्देश्य होनेसे सांसारिक प्रवृत्तियोंमें रुचि होती है? जिससे मनुष्य बँध जाता है।मलिन सत्त्वगुणमें भी बुद्धि सांसारिक विषयको अच्छी तरह समझनेमें समर्थ होती है। जैसे? सत्त्वगुणकी वृद्धिमें ही वैज्ञानिक नयेनये आविष्कार करता है किन्तु उसका उद्देश्य परमात्माकी प्राप्ति न होनेसे वह अंहकार? मानबड़ाई? धन आदिसे संसारमें बँधा रहता है।अनामयम् -- सत्त्वगुण रज और तमकी अपेक्षा विकाररहित है। वास्तवमें प्रकृतिका कार्य होनेसे यह सर्वथा निर्विकार नहीं है। सर्वथा निर्विकार तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है? जो कि गुणातीत है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सहायक होनेसे भगवान्ने सत्त्वगुणको भी विकाररहित कह दिया है।सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ -- जब अन्तःकरणमें सात्त्विक वृत्ति होती है? कोई विकार नहीं होता है? तब एक सुख मिलता है? शान्ति मिलती है। उस समय साधकके मनमें यह विचार आता है कि ऐसा सुख हरदम बना रहे? ऐसी शान्ति हरदम बनी रहे? ऐसी निर्विकारता हरदम बनी रहे। परन्तु जब ऐसा सुख? शान्ति? निर्विकारता नहीं रहती? तब साधकको अच्छा नहीं लगता। यह अच्छा लगना और अच्छा न लगना ही सत्त्वगुणके सुखमें आसक्ति है? जो बाँधनेवाली है।जब सत्त्व? रज और तम -- इन तीनों गुणोंका? इनकी वृत्तियोंका? विकारोंका साफसाफ ज्ञान होता है और साधकको ऐसी बहुतसी आश्चर्यजनक बातोंकी जानकारी होती है? जो पहले कभी जानी हुई नहीं होती? तब साधकके मनमें आता है कि यह ज्ञान हरदम बना रहे। यह ज्ञानमें आसक्ति है? जो बाँधनेवाली है। मैं दूसरोंकी अपेक्षा अधिक (विशेष) जानता हूँ -- यह अभिमान भी बाँधनेवाला होता है।इस तरह सत्त्वगुण सुख और ज्ञानके सङ्ग(आसक्ति) से साधकको बाँध देता है अर्थात् उसको गुणातीत नहीं होने देता। यह सङ्ग ही रजोगुण है जो बाँधनेवाला है (गीता 13। 21)। यदि साधक सुख और ज्ञानका सङ्ग न करे तो सत्त्वगुण उसको बाँधता नहीं? प्रत्युत उसको गुणातीत कर देता है। तात्पर्य है कि यदि सङ्ग न हो तो साधक सत्त्वगुणसे भी ऊँचा उठ जाता है और अपने गुणातीत स्वरूपका अनुभव कर लेता है।सत्त्वगुणसे सुख और ज्ञान होनेपर साधकको यह सावधानी रखनी चाहिये कि यह सुख और ज्ञान मेरा लक्ष्य नहीं है। ये मेरे भाग्य नहीं हैं। ये तो लक्ष्यकी प्राप्तिमें कारण हैं। मेरेको तो उस लक्ष्यको प्राप्त करना है? जो,इस सुख और ज्ञानको भी प्रकाशित करनेवाला है।सुख? ज्ञान आदि सभी सत्त्वगुणकी वृत्तियाँ हैं। ये कभी घटती हैं? कभी बढ़ती हैं कभी आती हैं? कभी जाती हैं। परन्तु अपना स्वरूप निरन्तर एकरस रहता है। उसमें कभी घटबढ़ नहीं होती। अतः साधकको सत्त्वगुणकी वृत्तियोंसे सदा तटस्थ? उदासीन रहना चाहिये। उनका उपभोग नहीं करना चाहिये। इससे वह सुख और ज्ञानकी आसक्तिमें फँसेगा नहीं।अगर साधक सत्त्वगुणसे होनेवाले सुख और ज्ञानका सङ्ग न करे? तो उसको शीघ्र ही परमात्मप्राप्ति हो जाती है। परन्तु अगर वह इनके सङ्गका त्याग न करे तो (परमात्मप्राप्तिका लक्ष्य होनेसे) समय पाकर उसकी इस सुख और ज्ञानसे स्वतः अरुचि हो जाती है और वह परमात्मप्राप्ति कर लेता है। सम्बन्ध --   रजोगुणका स्वरूप और उसके बाँधनेका प्रकार क्या है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।14.6।। हे निष्पाप अर्जुन ! इन (तीनों) में, सत्त्वगुण निर्मल होने से प्रकाशक और अनामय (निरुपद्रव, निर्विकार या निरोग) है; (वह जीव को) सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से बांध देता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।14.6।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।14.6।।किंलक्षणो गुणः केन बध्नातीत्यपेक्षायामाह -- तत्रेति। निर्धारणार्थतया सप्तमीं व्याचष्टे -- तत्र सत्त्वादीनामिति। पुनस्तत्रेत्यनुवादमात्रं? निर्मलत्वं स्वच्छत्वमावरणवारणक्षमत्वं? तस्मात्प्रकाशकं? चैतन्याभिव्यञ्जकं? निरुपद्रवमिति निर्मलं सत्सुखस्याभिव्यञ्जकमित्यर्थः। केन द्वारेण तदात्मानं निबध्नातीति पृच्छति -- कथमिति। सुखसङ्गेन बध्नातीत्युत्तरं तदेव विवृणोति -- सुख्यहमित्यादिना। मुख्यसुखस्याभिव्यञ्जकसत्त्वपरिणामोऽत्र विषयसंभूतं सुखमुच्यते -- संश्लेषापादनमेव विशदयति -- मृषैवेति। किमिति मृषैवेति विशेषणं सङ्गस्य वस्तुत्वसंभवादित्याशङ्क्याह -- सैषेति। नन्विच्छा सङ्गोऽभिनिवेशश्चेत्येकोऽर्थस्तत्रेच्छादेरात्मधर्मत्वात्किमविद्ययेत्याशङ्क्य मनोधर्मत्वादिच्छादेर्नात्मधर्मतेत्याह -- नहीति। इच्छादेरनात्मधर्मत्वे किं प्रमाणमित्याशङ्क्याह -- इच्छादि चेति। तस्यात्मधर्मत्वासंभवे फलितमाह -- अत इति। संजयतीव सत्त्वमिति शेषः। इवकारप्रयोगे हेतुमाह -- अविद्ययेति। तस्या वस्तुतो नात्मसंबन्धस्तथापि संबन्ध्यन्तराभावादस्वातन्त्र्याच्चात्मधर्मत्वमापाद्य दृष्टत्वमाचष्टे -- स्वकीयेति। वृत्तिमदन्तःकरणस्य विषयत्वादात्मनः साधकत्वेन तद्विषयत्वेऽपि तदविवेकरूपाविद्येति तत्स्वरूपमाह -- विषयेति। यथोक्ताविद्यामाहात्म्यमिदं यदस्वरूपेऽतद्धर्मे च सक्तिसंपादनमित्याह -- अस्वेति। तदेव स्फुटयति -- सक्तमिवेति। प्रकारान्तरेण सत्त्वस्य निबन्धनत्वमाह -- तथेति। ज्ञायतेऽनेनेति सत्त्वपरिणामो ज्ञानं तेन ज्ञान्यहमिति विपरीताभिमानेन सत्त्वमात्मानं निबध्नातीत्याह -- ज्ञानमित्यादिना। विपक्षे दोषमाह -- आत्मेति। स्वाभाविकत्वेन प्राप्तत्वात्तत्र स्वतः संयोगात्तद्द्वारा बन्धे च तन्निवृत्त्यनुपपत्तेर्नात्मधर्मत्वमित्यर्थः। ज्ञानैश्वर्यादावपि क्षेत्रधर्मे सङ्गस्य पूर्ववदाविद्यकत्वं सूचयति -- सुख इवेति। पापादिदोषहीनस्यैवात्र शास्त्रेऽधिकार इति द्योतयति -- अनघेति।

Sri Vallabhacharya

।।14.6।।तत्र क्रमतो लक्षणं गुणानां बन्धनप्रकारं च वदन् पूर्वं सत्त्वस्य तदाह -- तत्रेति। सत्त्वं प्राकृतत्वात् सुखसङ्गेन ज्ञानसङ्गेन च लौकिकेन बध्नाति? पुरुषस्य सुखे ज्ञाने च सङ्गं जनयतीत्यर्थः। ज्ञानसुखयोः सङ्गे जाते तत्साधनेषु लौकिकवैदिकेषु पुरुषप्रवृत्तिः? ततश्च तत्फलानुभवसाधनभूतासु योनिषु जायते इति सत्त्वं मर्यादया तद्द्वारेण पुरुषं बध्नाति। एवमेवान्यत्र। लक्षणं तु निर्मलत्वादिति मूले उक्तमेव? एवमन्ययोरपि लक्षणं स्पष्टमेव मूले। तथा च सत्त्वं प्राकृतं सोऽहं सुखी शब्दादिज्ञानी चेति ज्ञानसुखसङ्गजनेन () बन्धकमित्युक्तं भवति।

Sridhara Swami

।।14.6।। तत्र सत्त्वस्य लक्षणं बन्धकत्वप्रकारं चाह -- तत्रेति। तत्र तेषां गुणानां मध्ये सत्त्वं निर्मलत्वात्स्वच्छत्वात् स्फटिकवत् प्रकाशकं भास्वरम्? अनामयं च निरुपद्रवम्। शान्तमित्यर्थः। अतः शान्तत्वात्स्वकार्येण सुखेन यः सङ्गस्तेन बध्नाति। प्रकाशकत्वाच्च स्वकार्येण ज्ञानेन यः सङगस्तेन च बध्नाति। हे अनघ निष्पाप? अहं सुखी ज्ञानी चेति मनोधर्मास्तदभिमानिनि क्षेत्रज्ञे संयोजयतीत्यर्थः।

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